किंबहुना - 27 - अंतिम भाग अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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किंबहुना - 27 - अंतिम भाग

27

(अंतिम भाग)

शीतल व्यापारिक जगत का प्राणी था और उसे धन कमाने का इतना चस्का कि इसी कारण उसने शादी न की कि कौन गृहस्थी के झंझट में पड़ेगा। वह कंपनियों के भी शेयर खरीदता-बेचता और सोने-चाँदी के भी। दिल्ली में बाकायदा उसने अपना ऑफिस बना रखा था, जिसमें छह-सात नियमित कर्मचारी काम करते थे। इस काम में कभी-कभी इतना पैसा आ जाता कि वह कुछ भी खरीद सकता था और किसी की भी मुराद पूरी कर सकता था। लेकिन कई बार लेने के देने पड़ जाते, करोड़ों का कर्ज चढ़ जाता। सब कुछ खरीदा हुआ बिक जाता- कार, बंगला, फेक्टरी, पैट्रोल पंप इत्यादि तक। इसी अनिश्चितता के कारण भी उसने व्याह-शादी का कोई लफड़ा न पाला था। पर उसे औरत की जरूरत तो थी! यह जरूरत 30-35 की आयु तक तो महसूस न हुई, पर ज्योंही चालीस पार हुआ, तलब लगने लगी। पर वह शादी नहीं करना चाहता था, उसे कोई न कोई लिव-इन वाले रिलेशन में ही चाहिए थी! हालाँकि लिव-इन वाले इस रिलेशन में भी पहले एक ऐसी औरत के चक्कर में पड़ गया जिसने कोर्ट-कचहरी करा डाली। बड़ी मुश्किल से जान छूटी उससे। पर आरती इस मामले में ठीक और विश्वस्त है। इसीलिए वह पीछे लगा है। इस तरह उसका साहित्य का शौक भी पूरा होता रहेगा और उसके लिव-इन में भी बना रहेगा। स्थाई रूप से न उसे स्त्री का बंधन चाहिए और न उसे किसी पुरुष का...। बस, यों वे एक-दूसरे के साहित्यिक मित्र और भावनात्मक संबल बने रहेंगे।

घ्यान केंद्र में प्रवेश करते ही उन्हें तमाम भूत-प्रेतों के दर्शन हुए! ऐसा आमतौर पर नहीं होता, पर उन दिनों में वहाँ एक विशेष शिविर का आयोजन किया गया था।

यह क्या चमत्कार है? शीतल ने एक कार्यकर्ता से पूछा।

सुन कर वह विहँसती हुई-सी बोली, एंट्री करते ही आपको जिन भूत-प्रेत के दर्शन हुए वे कोई आम भूत-प्रेत नहीं बल्कि, भगवान भोले शंकर की बारात में शामिल बाराती हैं।

अच्छा! आरती हौले से हँसी।

तब वह कार्यकर्ता गंभीरता से बोली कि, शिविर की थीम है यह, शिविर को भव्य और इंप्रेसिव रूप देने के लिए तमाम एक्सपेरीमेन्ट किए गए हैं। वैसे शिविर का मुख्य उद्देश्य श्रद्धालुओं को राजयोग की शिक्षा देना है।

जब वे अंदर पहुँचे तो वहाँ विचित्र वेशभूषा में सेकड़ों स्त्री-पुरुष परलोक साधने का जतन करते मिले। रोक रहे थे, अपना काम, क्रोध, मोह, लोभ, मद, ईष्या आदि। उन साधकों के बीच जाकर वे दोनों भी बैठ गए। फिल्म संस्था से जुड़ी मनोरमा जी बता रही थीं कि- मेडिटेशन सिखाने के लिए पहली बार हमने थ्रीडी एनिमेशन मूवी बनवाई है। इसमें मेडिटेशन के फायदे बताए गए हैं। मूवी का कांसेप्ट आत्मा का परमात्मा से कम्युनिकेशन है। एक बार जब कोई अपने अंतरआत्मा की आवाज सुनने लगता है तो उसे परमात्मा से मिलने का माध्यम मिल जाता है।

उसी वक्त एक और बहन, मंजू मंच से बताने लगीं कि- यहाँ आँखें खोल कर होता है मिलन! ध्यान को लेकर मान्यता है कि आँखें बंद करके ही लगाया जा सकता है। इस कैंप में ऐसा बिल्कुल नहीं है। मेडिटेशन पर बेस्ड मूवी को देखने के लिए आपको अपनी आँखें खुली रखनी पड़ती हैं। मूवी का स्प्रिचुअल कांसेप्ट आपको अपनी डिवाइन से जोड़ता है। मूवी देखने के बाद यह फीलिंग डेवलप होती है कि मेडिटेशन मार्निंग वाक से लेकर सोने से पहले तक कभी भी किया जा सकता है। इसके लिए किसी स्पेशफिक टाइम की जरूरत नहीं है और न ही फिक्स टाइम लूज कर जाने पर इसे दूसरे दिन के लिए टाला जाना चाहिए। यह उसी तरह का कांसेप्ट है जैसे कि हम अपना कोई भी काम करते हुए भी अपने पैरेंट्स या अन्य किसी को याद करते हैं। उनके बारे में सोचते हैं। उनकी यादों को फील करते हैं। ठीक उसी तरह इस फिल्म के थ्रू यह बताने और सिखाने की कोशिश की गई है कि हम अपनी रुटीन लाइफ में बिजी रह कर भी मेडिटेशन कर सकते हैं। ऐसा करके हम बड़ी आसानी से अध्यात्म को जीवन में आत्मसात् कर सकते हैं।

इसके आगे उन्होंने क्या कहा, शीतल को पता नहीं, उसके कानों ने सुनना बंद कर दिया था। मगर आरती बहुत ध्यान से सुनती रही। उसे सारी बातें याद भी हो गईं।

झक्की-सी खुली तब शीतल ने तो यही सुना कि- यदि हमें अपने मन के विकारों पर नियंत्रण पाना है तो योग, ध्यान से बेहतर कुछ नहीं।

मगर पहले ही दिन दोपहर के विश्राम में होटेल लौटे तो उसने हाथ उठा दिए कि- बाबा, हमसे न सधेगा ये योग!

आरती विश्राम हेतु चेंज कर बिस्तर पर आ गई थी। उसकी बात सुन गंभीरता पूर्वक उसे सुखासन पर बिठा दिया और बोली, आसन का बड़ा महत्व है, आसन सध जाय तो श्वास पर नियंत्रण के बाद धारणा कर ध्यान लगा देने से राजयोग समाधि फलित हो जाती है! राजयोग सभी योगों का राजा है क्योंकि इसमें सभी योग समाहित हैं।

जैसे! उसने ऊब से बचने पूछा।

जैसे- संन्यास योग, उसने चपलता से कहा, जिसमें बुराइयों का संन्यास किया जाता है, ज्ञान योग जिसमें प्राॅपर ज्ञान होता है कि कैसे मेडिटेशन द्वारा अपनी शक्तियों को जागृत करें और भक्तियोग जिसमें मन के भावों को परमात्मा से सम्बंध जोड़ कर याद किया जाता है।

परमात्मा की जरूरत किसे है। उसने मुस्करा कर कहा।

सभी को, आरती बोली, आपने ही तो हमारा खोया विश्वास लौटाया!

पर वह कहीं बाहर नहीं, हमारे-तुम्हारे भीतर ही तो है!

शीतल सुखासन से उठ कर उसके करीब आ गया और पूछने लगा, सच बताना, तुम्हें पुरुष का साथ अच्छा नहीं लगता क्या?

दो मिनिट के लिए आँखें बंद कर लो, प्लीज! थोड़ी देर बाद फिर चलना है, हमें बहुत थकान हो रही है...। आरती ने करवट लेते हुए कहा।

और मन मार कर शीतल अपनी करवट लेट गया। जिसके घंटे-दो-घंटे बाद आरती कब उठ कर जाने लिए तैयार हो गई, उसे पता न चला। लेकिन उसने शाम को शिविर में जाने से इन्कार कर दिया।

क्यों? उसने पूछा तो उसने मन ही मन कटुता से कहा, तुम कभी समझोगी नहीं! तुम्हें राजी कर पाने की बनिस्वत तो आकाश में छेद कर देना या चलनी में दूध दुह लेना आसान है!

आरती उसका मन न देख, अकेली ही ऑटो लेकर ध्यान केंद्र चली गई। इस तरह विरह के संताप में वह अकेला लेटा रह गया। सोचता रहा कि सम्पर्क रख कर और पास रह कर मन का निग्रह तो मेरे हाथ से बाहर की बात है। कोरी बकवास सिद्ध हो रहा है, समत्व योग! जिसमें भावनाओं व विवेक का बैलेंस करना सिखाया जा रहा है। क्योंकि यहाँ तो मेरे हठयोग पर उसका बुद्धि योग हावी है!

 

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी आश्रम के सायं कालीन ध्यान शिविर से आरती जब लौट कर आई तो वह पहली बार उदास मिला। क्लीन-शेव्ड चेहरा, ऊँचा माथा और चैड़ी मुस्कान वाला शीतल हमेशा नफासत से पेश आता। उसकी नजाकत तो देखते ही बनती, जिस पर आरती रीझी हुई थी। उसी से डिनर में भी कोई खास बात न हुई।

विश्राम हेतु चेंज करने वह परदे के पीछे चली गई जहाँ सेल्फ लगी थी, वह सोफे पर बदस्तूर बैठा रहा। सोच रहा था, अब अपनी ओर से कोई बात न करेगा। चेंज कर वह परदे से निकल आई तो उसने देखा जरूर कि- आज उसने वाॅयलेट कलर का गाउन पहन रखा है और इस वक्त झुक कर चादर की सलवटें ठीक करती, मुलायम गद्दों की माॅडल नजर आ रही है! उसे इस रूप में देख-देख दिल की चुभन और बढ़ती जा रही थी।

आरती उसकी विकलता महसूस करती, मुस्कराती-सी बिस्तर पर लेट गई। बाल खोल कर उसने दोनों साइड बिखरा लिए तो हाँ-ना के बीच यह मौन आमंत्रण ही था। क्योंकि इतने दिनों से घुमा-फिरा कर वे ही बातें हो रही थीं, मंसूबे बँध रहे थे...और चार-पाँच दिनों से तो चैबीसौ घंटे साथ थे! ऐसा नहीं कि उसे लालसा न होती, या मिट गई थी। उम्र भी अभी निकल नहीं गई थी, चढ़ती धार में थी। और भोजन का अभाव हो, तब तो कोई भूख मार भी ले, मगर थाली सामने रखी हो तो...। मगर फिर-फिर वही एक संकोच आड़े आ रहा था कि फिर एक नया पुरुष! कैसे बेपर्दा हो उसके आगे, जिसकी नजरों में काव्य-जगत की मानी हुई हस्ती है!

तब तमाम देर बाद थक हार कर शीतल ही बोला, अब क्या सिखाया गया?

अपनी जीत पर मुस्कराती आरती कुछ देर उसे मदहोश कर देने वाली नजरों से ताकती रही, फिर मद-भरे स्वर में बोली, इंद्रियों पर काबू पाने ऐसे योग करें...।

कैसे? शीतल ने पूछा।

और वह बता नहीं पाई तब तक बोला, पर मेरा मन तो नींद और बेडरूम से जुड़ा है...!

तब वह नई-नई प्रशिक्षक जो यहीं आकर थोड़ा बहुत सीखी थी, उसे बातों ही बातों में बहलाने लगी कि, फिर आप रसोई में, जहाँ नींद की संभावना नहीं या बालकनी/लॉन में ध्यान कर लिया करना। नियमित एक ही स्थान और समय पर करने से ध्यान लगने लगता है। धीरे-धीरे अवधि बढ़ाते जाना, जिससे दक्षता हासिल हो जाएगी।

पर इस दक्षता का हासिल-क्या...? वह अपने असल मकसद पर आ गया।

अरे-बाबा! आत्मा के सभी पाप समाप्त हो जाते हैं, वह पावन बन जाती है। जिन इंद्रियों के हम दास हैं, वे हमारी गुलाम हो जाती हैं! उसने अपनत्व से कहा।

सुन कर शीतल ने अपना माथा ठोक सोफे पर ही सोने का निश्चय कर बत्तियाँ बुझा दीं। तब वह सिरहाने वाला नाईट लैंप खोल तिरछी होकर लेट गई और विहँसती-सी बोली, कभी शिवमंदिर गए हो आप! वहाँ देखा है कि शिव कितने शांत-चित्त स्थापित हैं सेलसुता के पावन आसन पर! इतने कि घोर अशांत चित्त भी प्रवेश पाते ही गहरी शांति से भर उठें!

पर शीतल का ध्यान उसके शब्दों की गहराई पर नहीं, सुंदर देह-यष्टि पर था जो अनगढ़ मूर्ति-सी प्रतीत हो रही थी और नाईट लैंप की नीली रोशनी में जिसकी कमर में दरिया-सी लहरें उठ रही थीं तो सीने में भँवर पड़ रहे थे...। लालसा-युक्त स्वर में वह पूछने लगा, तो क्या आपके साथ योग करने से वह अखण्ड शांति हमें मिल जाएगी?

क्यों नहीं! उसने चहक कर विश्वास दिलाया।

तो फिर सुखासन पर क्यों, उसी सिद्धासन पर कराइए ना!

सिद्धासन!? उसने पहली बार सुना था, समझ नहीं आया, अबूझ-सी बोली यह कौनसा आसन ईजाद कर लिया, आपने...? तब शीतल ने मुस्करा कर उसके कटि-प्रदेश की ओर इशारा कर दिया तो झल्ला पड़ी, अरे- नहीं। और करवट बदल सोने का जतन करने लगी।

मगर शीतल जहाँ का तहाँ बैठा रहा...। और यह सामान्य-सा नियम है कि एक कमरे में एक जागता हो तो दूसरे को नींद नहीं आती! जागते-जागते करवट जल्दी दुखती है। आरती ने फिर बदल ली तो उसने कहा, नींद नहीं आ रही तो अपने लिप्स भेज दो ना!

सुन कर गुजरे दिनों की वो चेटिंग याद हो आई, जब कई-कई बार गुडनाईट बोलने के बाद भी कोई अपना मोबाइल ऑफ न करता। आखिर में जब इसरार बढ़ जाता कि- नींद नहीं आ रही तो अपने लिप्स भेज दो ना! तब वह ओठों की सेल्फी लेती और मन ही मन कोई गीत गुनगुनाते उसे सेण्ड कर देती। फिर आँख और मोबाइल बंद कर लेती तब भी शीतल का चेहरा उसके चेहरे पर आ जाता, ओठ ओठों से जुड़ जाते और गहरे किस का आभास का आभास होने लगता। उसी मदहोसी में नींद दबोच लेती। कभी-कभी सपने में रति भी हो जाती।

मन में कुछ चलने लगा। यह चलना ही वो मानवीय कमजोरी है जो किसी भी मनुष्य को बख्शती नहीं। पर उसने पीठ फेर ली।

तब उसने सोचा कि अब और तंग करने से फायदा नहीं, उसका जब मन होगा, तब सही! सोफे से उठ उसका बगलगीर हो रहा। मगर नींद नहीं आ रही थी। लेटा-लेटा वह कई युक्तियाँ सोच रहा था। और तभी यह अभिनव खयाल सूझा तो उसने कहा, जल्दी सो जाओ, सुबह जल्दी उठना है!

झपक गई थी, उसे झटका-सा लगा, क्योंऽ? तुम्हें तो चलना नहीं ना! उसने अलसाए स्वर में कहा।

अरे- बाबा, ध्यान केंद्र नहीं, दिल्ली निकलना है, पोरबंदर से टिकिट करा लिया, हफ्ते में दो ही दिन है, कल थर्सडे है ना!

सुन कर भौंचक्की रह गई, और हम!

आपके लिए बाई-बस! यहाँ से सीधे जबलपुर! 17-18 घंटे में।

करा दिया...?

हाँ-जी!

अचानक मूड कैसे बदल गया? उसे धक्का लगा।

युक्ति की कामयाबी पर शीतल मन ही मन हँसने लगा, क्यों जाना नहीं क्या?

देर तक वह बोली नहीं, और उसने फिर पूछा तो बड़ी मुश्किल से बोली, जाना तो था, पर इस तरह जाना अच्छा नहीं लग रहा।

क्यों?

पता नहीं... कहते आलम और भरत की जबरदस्ती याद आ गई... शीतल से दुख छुपाने उसने फिर से करवट बदल ली।

शीतल उसकी पीठ की ओर मुख तो किए था, मगर गुमसुम लेटा था। नींद नहीं आ रही थी, सो उसने सरहाने की ओर हाथ बढ़ा कर नाईटलैंप ऑफ कर दिया! दोनों पूर्व पुरुषों की ज्यादतियाँ की याद में डूबी आरती अंधेरा होते ही सहसा करवट बदल उसके सीने से लग गई।

शीतल को फिर एक बार यकीन न हुआ! मगर वह नहीं हटी और उसके उपकार और भलमनसाहत को याद कर और अधिक सट गई तो उसने उसके रेशम से केश सहलाते हुए कहा, चेहरा सीने में क्यों छुपा रखा है, लिप्स दो ना!

लिप्स जिन्हें वह किसी साहूकार की भाँति अरसे से माँग रहा था, चेहरा सीने से निकाल आरती ने आज दे ही दिए...। तब थोड़ी देर बाद वह ना कहने की स्थिति में नहीं रह गई..। और जाने कैसे, रति के दौरान ही उसका ध्यान अवचेतन में चला गया। तो उसने पाया कि उसे तो ब्रह्मा ने अपनी काया की अस्थियों से बनाया है! मिथक-जगत में विचरण करती आरती, शीतल की पहचान अब चित्रगुप्त की संतान के रूप में कर रही थी। इसीलिए चरम क्षणों में वह उसे साहेब नहीं, शीतल शीतल पुकार रही थी...।

शीतल उसकी करुण पुकार सुन और भी जोशोखरोश से भर गया! अंत में उसने उसके रुखसार चूमते हुए कहा, हमें तो खबर ही नहीं थी कि सिर्फ संकोच आड़े आ रहा है, वरना चार दिन पहले ही इस स्वर्गिक सुख से भर देते, आपको!

सुन कर वह खामोश रह गई। फिर लरजते से स्वर में बोली, कोई ऐसे जीवन में आ जाएगा, हमने कभी नहीं चाहा... हमेशा से यही इच्छा थी कि जब हमें किसी से प्रेम हो तो ऐसा हो कि मन ही मन उससे प्रेम करें और उसे पता भी न चले। फिर बहुत समय बाद उसे पता चले पर उससे कोई बात न हो! बस दूर से देखें। फिर ऐसे ही बहुत समय बाद बात हो। पर ये सब ऐसे अचानक हो गया...।

कोई बात नहीं, जी! चार-पाँच दिन यहाँ और रुक कर आपकी उसी धीमी रफ्तार बुलेटिन से गुजरेंगे, अब...! विहँसते-से शीतल ने अपना निर्णय सुना दिया तो वह धीमे-धीमे और रुक-रुक कर हँसने लगी। जैसे, अपने वर्ण में जाने के लिए तो जाने कब से लालायित थी...।

लेकिन मिलन को जब पूर्णता प्राप्त हो गई तो यात्रा को विराम मिल गया।

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आरती देह से लौट आई मगर मन वहीं कहीं धरा रह गया। केबिन में उसकी सीट के पीछे चैखानेदार जाली, जिस पर पारदर्शी शीशा लगा था। पर्दा खोल देती तो सूर्य-रश्मियाँ उसके केबिन को अनोखी आभा से मंडित कर देतीं। मुड़ कर देखती तो हराभरा लॉन कवि मन को बरबस ही आह्लादित कर देता। आज उसने कत्थई कालर की ग्रीन समीज पहन रखी थी। जिसके खुले ओरेंज बटन से ब्लेक मोतियों की माला झाँक रही थी। माथे पर काली भौंहों के बीच ओरेंज बिंदी और स्याह काले बाल कंधों पर घटाओं से घुमड़ रहे थे...। सहज ही खयाल आया होगा, देखूँ तो कैसी लग रही हूँ! हठात् केमरा आॅन कर लिया और खुद की छवि पर खुद ही रीझ गई। तभी एक दूसरा खयाल आया तो चेहरे को मनमोहक मुस्कान से सजा सेल्फी ले ली। फिर एक प्यारा-सा गीत गुनगुनाते हुए शीतल को सेंड कर दी।

दो पल बाद उधर से मैसेज आ गया, दुनिया की सबसे हसीन औरत कौन? और वह पूछने ही वाली थी, बताओ कौन? तब तक दूसरा मैसेज आ गया, तुम!

मुस्कराई वह, और मुँह बनाते हुए लिख दिया, झूठे!

नंबर वन!

यू-यू-यू!!!

इसी दौरान शीतल इज टाइपिंग, शीतल इज टाइपिंग के ग्रीन लैटर्स स्क्रीन पर चमक रहे थे। थोड़ी देर में वह मैसेज भी आ गया, जिसमें, बैंक अकाउंट की डिटेल थी और जिसके नीचे लिखा था- बुक्स पब्लिेकेशन के लिए अजमेर में जो एडवान्स मिला, उसे हिना के उपरोक्त खाते में डाल देना, जी!

अचानक अच्छा नहीं लगा पढ़ कर। हालाँकि अपने पास रखने का कोई इरादा न था। पर ऐसा लगा कि जैसे कोई विश्वास या अधिकार छिन गया! सेल्फी उसने दुबारा देखी, जिसकी मुस्कान कसैली लग उठी...।

तभी नीलिमा ने केबिन में आकर सूचना दी कि- अपने सिंधुजा मंदिर में नए पुजारी जी आ गए हैं।

पुजारी यहाँ व्यवस्थापक हुआ करता है। पुजारी नाम जरूर है, पर असल काम तो पूजा-पाठ के लिए पंडित लगाना और मंदिर का रख-रखाव, भोजन-प्रसादी व्यवस्था ही उसके जिम्मे होती है। कुछ-कुछ धर्मशाला जैसी मैनेजरी। ऑफिस के अलावा उसका एक अलग कमरा। और चैकीदार, साफ-सफाई कर्मचारी उसके अंडर रहते हैं। पर मैनेजर होने के बावजूद वह गेरुआ वस्त्र ही धारण करता। जबकि पंडित लोग सफेद। और वे पूजा-रचा करा कर भी गृहस्थ होते, यह तो उनकी वृत्ति मानी जाती। पर पुजारी-सह-मैनेजर वेतन भोगी होने के बावजूद वैरागी होता।

आरती को यह पद आकर्षित करता था। सोचती थी, बच्चों से निबट कर वैराग्य ले इसी पद के लिए आवेदन करेगी। यहाँ परम शांति थी।

पर अभी वह लम्बे टूर से वापस लौटी थी। काम बहुत पेंडिंग हो गया था। जाना नहीं चाहती थी, उसने प्रश्न किया, क्यों?

फिर पूछा, पुराने कहाँ चले गए?

पता नहीं, कंपनी ने उन्हें कहीं और शिफ्ट कर दिया, शायद! नीलिमा बोली।

होगा! क्या करना...।

वह तवज्जोह न देने के अंदाज में बोली तो नीलिमा ने कहा, आज मंगल है, चलो, हनुमान बब्बा के दर्शन कर लें!

शीतल ने जब से सुंदरकाण्ड सुनाया, और संयोगवश पॉजिटिव रिजल्ट मिल गया, उसका ईश्वर पर फिर से विश्वास जम गया था। इसलिए नीलिमा ने बजरंग बली का नाम लिया तो खड़ी हो गई और उत्साहित मन से चल पड़ी उसके साथ।

दूर से ही मंदिर से आती घंटों की झनकार से उसके कान झंकृत हो उठे थे। गेट पर आई तो अगर-चंदन की महक से मन प्रफुल्लित हो गया। अंदर सफेद वस्त्रधारी पंडितों का समवेत स्वर में शांतिपाठ चल रहा था। प्राण जुड़ने-से लगे। इतने में नीलिमा ने इंगित किया, वो रहे नए पुजारी जी!

उसने देखा, प्रांगण में मंडप के नीचे तख्त पर वे किसी महन्त की तरह विराजमान थे। नीलिमा के साथ वह प्रणाम करने जा पहुँची। मगर माथा झुकाने के बाद ज्योंही नजरें गेरुआ चैगे के बाद साँवले चेहरे पर पड़ीं तो उसकी घिग्घी बँध गई।

सिर घुटा और मूँछ मुड़ी होने के बावजूद वह एक ही नजर में पहचान गई थी कि- सामने भरत मेश्राम शांत मुद्रा में विराजमान था...।

किसी भी मूर्ति के दर्शन किए बिना वह उल्टे पाँव लौट आई। काँपते हाथों भाभी को फोन लगाया कि- देखो, इनका नाटक! अब यहाँ सिंधुजा मंदिर में आकर पुजारी हो गए!

उसने कहा, नाटक नहीं, वे सचमुच वैरागी हो गए हैं! रेखा दीदी ने बताया था कि मामा ने नौकरी छोड़ दी, फण्ड सरेण्डर कर दिया...और दीदी एक बात आपको बताएँ...

हाँ, उसकी रूह काँप रही थी।

आप रुक्कू से पूछना, मामा एक दिन उसके होस्टल गए और वहाँ से उसे सीधे रजिस्ट्रार ऑफिस ले गए,

फिर...? वह बेहद घबरा गई, चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। उसे विवाह पंजीकरण का वह दफ्तर याद हो आया, जिसने जीवन तबाह कर दिया था!

रायपुर का फ्लैट उन्होंने अपनी मुँहबोली बेटी के नाम कर दिया! कह कर भाभी ने फोन काट दिया।

सुन कर आरती की ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे अटक कर रह गई।

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(सर्वथा काल्पनिक, मौलिक और स्वलिखित उपन्यास)

कान्टेक्ट न. 7000646075

मेल- a.asphal@gmail.com