कुछ समय पहले साउथ इंडस्ट्री की कांतारा फ़िल्म आयी थी। जिसमे दिखाया गया था। अपने गावँ, अपने जंगल की रक्षा वहाँ के कुलदेवता करते हैं। और कांतारा एक सीरियस फ़िल्म थी। और थीम पर आधारित भेड़िया हैं। जिसके अंदर इस कॉन्सेप्ट को कॉमेडी के रूप में पेश किया गया हैं। पूरी फिल्म में सीरियस सीन मात्र 15 से 20 मिनट के हैं। वो भी फ़िल्म के लास्ट में जाकर!
वैसे ये फ़िल्म जिस प्रोडक्शन हाउस ने बनाई हैं। उसने इसे हॉरर कॉमेडी जोन में रखा हैं। क्योंकि ये प्रोडक्शन हॉरर कॉमेडी का एक यूनिवर्स बना रहा हैं। और इस यूनिवर्स की पहली फ़िल्म स्त्री थी। और इसमें लास्ट में स्त्री फ़िल्म से इसे जोड़ा भी गया हैं। तो देखते हैं। कि आगे ये यूनिवर्स को कैसे बढ़ाते हैं।
कहानी; वरुण धवन(भास्कर) जो सड़क बनाने के प्रोजेक्ट लेता हैं। उसे एक नया प्रोजेक्ट मिला होता हैं। अरुणाचल प्रदेश में जंगल के बीचों-बीच से सड़क बनाने का, वो अपने चाचा के लड़के के साथ और एक दोस्त उसका अरुणाचल का ही होता हैं। वहाँ जाकर काम शुरू कर देता हैं। अब काम शुरू होने पर इस बात का विरोध वहाँ पर लोग करते भी हैं। और नहीं भी, जिसके चलते भास्कर वहाँ पर युवा लोगों से मिलता हैं। लेकिन जिस दिन वो युवा लोगों से मिलता हैं। उस रात को उसे भेड़िया काट लेता हैं। उसके बाद भास्कर दिन में शिकार तलाश करता हैं। और रात में भेड़िया बनकर शिकार करता हैं। फ़िल्म के अन्दर एक सस्पेन्स हैं। जिसे कोई भी बड़ी आसानी से पकड़ लेता हैं। औऱ पकड़ने के बाद ये चाहता भी हैं। कि यहीं सस्पेन्स होना चाहिए। कुछ और हुआ तो मूड खराब हो जाएगा। और अच्छी बात ये हैं। कि मूड खराब नहीं होता हैं।
संवाद; संवाद ऐसे नहीं हैं। कि जो फ़िल्म की गति दे, वो बस कॉमेडी के लिए हैं। हर संवाद मज़ाक है। यहाँ तक कि लास्ट मे भी सीरियस सीन में मज़ाक हैं। पर मज़ाक ऐसा नहीं हैं। जिस पर हंसी आए। वो बस सुनने में ठीक लगते हैं। गुस्सा नहीं दिलाते, कई जगह तो ऐसा लगेगा कि संवाद रिपीट हो रहे हैं। लेकिन फिर भी बर्दाश्त किये जाने वाले हैं।
एक्टिंग; एक्टिंग वरुण धवन ने ऐसी ही की हैं। जैसी वे हर फिल्म में करते हैं। डायलॉग बोलते वक़्त शरीर हिलाना, गोविंदा की तरह आवाज़ बदलना, बस एक बात वरुण धवन की अच्छी हैं। कि वो फ़िल्म का हीरो होते हुए भी डायरेक्टर से खुद को केंद्र में या हीरो वाला एटीट्यूड दिखाने के लिए नहीं कहता। वो फ़िल्म के हिसाब से पूरी मेहनत करने की कोशिश करता हैं। बस समस्या यहीं हैं। कि अभी वो अपने किरदारों में कहानी के हिसाब से अंतर नहीं कर पा रहा हैं।
कृति सेनन फ़िल्म में सही नहीं लगी, ना एक्टिंग ढंग से की, ना डायलॉग सही से बोले, कोई और हीरोइन होती इसकी जगह तो ठीक था।
बाकी किरदार अपनी जगह सही थे बस अभिषेक बनर्जी के किरदार को कुछ ज्यादा ही फोटेज़ दिए गए हैं। और उसकी एक्टिंग शुरू में तो ठीक लगती हैं। पर जैसे-जैसे फ़िल्म बढ़ती जाती हैं। ये किरदार इरिटेट करने लगता हैं। ऊपर से जितने संवाद बोलता, ऐसा लगेगा कि अभी तो इसने ये लाइन बोली थी फिर बोलने लगा।
डायरेक्शन; डायरेक्शन अच्छा किया। लेकिन सीन को दिखाने में वक़्त ज्यादा लिया हैं। अगर थोड़ा वक्त कम लेते तो ये फ़िल्म दो घण्टे में भी अच्छे से दिखाई जा सकती थी। पर शायद निर्देशक को मज़ा आ रहा होगा फ़िल्म शूट करने में, vfx के जितने बजी शॉट हैं। वो भी ढंग से दिखाए हैं। खासकर जब वरुण धवन भेड़िया बनता हैं। हालांकि ऐसे सीन ज्यादातर हॉलीवुड की फिल्मों में सबने ही देखे हैं। पर भारत मे पहली बार इतने कम बजट में दिखाना ये तारीफ के लायक हैं।
फ़िल्म के अंदर डायरेक्टर को कृति सेनन की जगह कोई अरुणाचल की ही लड़की लेनी चाहिए थी। क्योंकि कृति का जो किरदार हैं। उसको जस्टिफाई वहीं की ही कोई एक्ट्रेस करती तो अच्छा था। इसलिए डायरेक्ट को ध्यान रखना चाहिए कि कहानी क्या हैं। और उसकी कास्ट क्या चुनी जा रही हैं। पर वो बात अलग हैं। कि फ़िल्म के अंत मे आइटम नंबर पर नचाने के लिए मुम्बई की हीरोइन लेनी पड़ती हैं।
तो अंतिम बात ये हैं। कि फ़िल्म अच्छी थी। एक बार देखने लायक हैं। फ़िल्म के अंदर कहीं-कहीं जंगल और मानव के सम्बंध, उत्तर भारत के लोग, पूर्वी भारत के बारे में क्या सोचते हैं। ऐसे कुछ मुद्दों पर ज्ञान देखने को मिलेगा पर दरअसल दर्शक अब इन चीजों के इतने आदि हो गए हैं। कि अब इस तरह के ज्ञान को इग्नोर करना सीख गए हैं। तो एक बार देखने में कोई बुराई नहीं हैं। और जिसकी अभिषेक बनर्जी की कॉमेडी अच्छी लगती हो उनके लिए तो ये साक्षात अमृत हैं।