किंबहुना - 25 अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

किंबहुना - 25

25

लेकिन इतना सब होने के बावजूद भरत का मन उसी में लगा था। फेसबुक, वाट्सएप, से ब्लाॅक वह उससे बात करने, उसकी एक छवि पाने, मेले में खोए बच्चे की तरह घबरा रहा था। कभी कोई साइट देखता, कभी कोई। लेकिन हर जगह उसकी पुरानी रचनाएँ, पुरानी सूचनाएँ, पुराने फोटो लगे थे। यह मन की उड़ान ही थी कि उसे लग रहा था कि वो अब भी कहीं न कहीं मिल सकती है। इसी खयाल ने रात भर सोने न दिया। सुबह अचानक लगा कि वह नीलिमा के मार्फत् कोशिश कर सकता है। तो उसने नीलिमा की फेसबुक से उसका कांटेक्ट नम्बर ले लिया और बहुत हिम्मत जुटा कर अलस्सुबह उसे फोन लगा दिया। उस समय वह भी ऑफिस निकलने की तैयारी कर रही थी, और अननोन कॉल उठाना नहीं चाहती थी, पर भरत ने कॉल रिपीट कर दी तो उसने रिसीव कर ली:

हैलो!

जी, मैं भिलाई से भरत मेश्राम...

जी, कहिए, वह यकायक चैंक गई।

यदि आप व्यस्त न हों, वह घिघियाया।

बोलिये, सर! कोई बात नहीं...। उसने तरजीह देते हुए कहा।

भरत बोला, जी आप थोड़ी मदद करें तो,

आवाज से लगा, वह कहने में झिझक रहा है...नीलिमा ने हौंसला बढ़ाया, जी अवश्य करेंगे, बताइए, सर!

बात ये है...उसने भारी कठिनाई से कहा, आरती जी को कुछ गलतफहमी हो गई है, एक बार आप मिलवा दें तो...

अरे- सर! आप कल कहते, आज तो वे निकल रही हैं!

कहाँ? मुख पर हवाइयाँ उड़ने लगीं।

शायद, जबलपुर और वहाँ से अजमेर...उन्हें कोई साहित्यिक पुरस्कार दिया जा रहा है...।

कौन-सी गाड़ी से...? उसकी जैसे नाड़ी छूट गई!

हमसफर एक्सप्रेस से शायद कटनी, वहाँ से जबलपुर...

जी! उससे कुछ कहते न बना।

नीलिमा बोली, ठीक है, सर! आने पर कोशिश करूँगी। उसने आश्वासन दे दिया।

अब उसे समझ में नहीं आया कि अब क्या करे! जैसे वह लौट कर आएगी ही नहीं और अभी मिलना बहुत जरूरी है! तो घबराहट में गाड़ी सर्च की... पता चला भाटापारा पौने नौ पर पहुँच रही है!

उसने अभी ब्रश भी नहीं किया था, क्या करे, क्या नहीं! यही लग रहा था कि प्राण उड़ कर जा रहे हैं, उन्हें पकड़ ले किसी तरह। सो, बासी मुँह तैयार हो उसने कार निकाली और दौड़ा दी रायपुर की ओर, सोचा वहाँ से हमसफर पकड़ लेगा और भाटापारा में उसे पा लेगा! मगर रास्ते में मिले जाम ने उसके छक्के छुड़ा दिए। लगने लगा, संयोग अब खत्म हो गया। संयोग क्या- जिंदगी खत्म हो गई...।

जाम खुला तो हाँपता-काँपता किसी तरह रायपुर पहुँचा मगर ट्रेन तो राइट टाइम थी! निकल गई। पर भरत ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा, वह रायपुर-बिलासपुर हाइवे पर कार अंधाधुंध भगाने लगा। अब जान की परवाह न थी। मिलना था, सिर्फ मिलना। जैसे, मेले में बिछुड़ी माँ को किसी तरह पाकर उससे लिपट जाना था। कार वह नहीं उसका मस्तिष्क-कम्प्यूटर ड्राइव कर रहा था। जिसने बिसरामपुर आते ही गाड़ी दाएँ हाथ पर भाटापारा के लिए मोड़ दी। उसी वक्त उसने एक दूसरे नंबर से फोन लगाया। हैलो के साथ प्लेटफाॅर्म का शोगगुल सुनाई पड़ा तो घबराहट में पूछा, गाड़ी आ गई क्या, कौनसी बोगी में हो!

आरती तुरंत पहचान गई कि वह भरत का स्वर था। जवाब न दे एक मिनट तक होल्ड रख उसने फोन काट दिया। और फिर यह नम्बर भी ब्लाॅक कर दिया। उसके दोस्त ने कहा था कि अब तुम दृढ़ हो जाना और वह दृढ़ हो गई थी।

चलते-चलते भरत ने ट्रेन की लोकेशन चैक की जो अभी पहुँची न थी। अब यही एक उम्मीद बची थी कि किसी तरह ट्रेन से पहले प्लेटफाॅर्म पर पहुँच जाय तो देख सके, अन्यथा तो कभी मिल पाएगी क्या... जी बुरी तरह घबरा रहा था और कार उछल रही थी, रोड बहुत खराब थी। पागलपन में वह यह नहीं सोच पा रहा था कि जाएगी कहाँ, लौट कर तो यहीं आएगी, नौकरी है, बच्चे हैं! मगर सोच नहीं पा रहा था। प्रेम में मनुष्य सचमुच अंधा हो जाता है, यह उसे देख कर जाना जा सकता था।

कार से लगभग उड़कर आने के बावजूद ट्रेन उससे पहले पहुँच गई। सवारियाँ चढ़ चुकी थीं।  लेकिन इसलिए रुकी थी कि लाइन नहीं मिल रही थी। भरत ने सोचा, यही संयोग है, अमूमन ऐसा होता नहीं ना! हमसफर को प्लेटफाॅर्म पर अटका देख उसे बड़ी आशा बँधी। उस बची हुई उम्मीद के सहारे वह प्लेटफाॅर्म के इस छोर से उस छोर तक स्लीपर कोचों की खिड़कियों में निराट पागलों-सा झाँकता फिर रहा था, पर वह प्राणों की लेनहार कहीं भी नजर न आ रही थी। आखिर एक हाॅर्न के साथ ट्रेन जब सरकने लगी, तो लगा उसकी जान छूटने लगी है, मगर छूटी नहीं। गाड़ी निकल गई तो वह गार्ड के डिब्बे की पीठ देख फफकने लगा। फिर अपनी पोजीशन भूल बुक्का फाड़ कर रो पड़ा। जिसे चुप कराने वाला वहाँ कोई न था...। क्योंकि अब वह एक विचित्र पश्चाताप में घिर गया था। उसे मन्ठी के साथ किया गया अन्याय याद आ रहा था। क्योंकि वह जिस समाज और परंपरा से थी, जिस शिक्षा-दीक्षा और स्वभाव की थी, उसके अंतर्गत उसकी तुलना आरती से करना ही उसके प्रति भारी अन्याय था। क्या पता ईश्वर इसी का बदला आरती के रूप में उससे ले रहा है...।

उसे वह दिन याद आ रहा था जब शादी से पहले ही मन्ठी उसके घर आ गई थी। शादी का यह अनोखा रिवाज इधर छत्तीसगढ़ में तो न था, पर राजवंशीय होने के कारण उसका विवाह झारखंड के उत्तरी छोटानागपुर प्रमंडल से हुआ था। जहाँ उसके परिजन लग्नबँधी करने गए और शादी से पहले ही दुल्हन को विदा करा लाए थे। मन्ठी को यहाँ परिवार की बुजुर्ग महिलाओं के साथ रख दिया गया था, जिन्होंने उसे यहाँ के रीति-रिवाज और परंपराएँ समझाई थीं। इसके कुछ दिनों बाद दुल्हन पक्ष के लोग बारात लेकर आए, तब भरत दूल्हे के रूप में अपने घर से ही इस बारात में शामिल हुआ। और शादी की पूरी रस्में उसी के घर में हुईं। यहीं पर कन्या पक्ष के लोगों ने कन्यादान किया। फिर वे दुल्हन को विदाई देकर बारात के साथ वापस चले गए थे। दोला पद्वति की इस शादी में दुल्हन पक्ष की ओर से कोई दहेज नहीं दिया गया था। यहाँ तक कि शादी का पूरा खर्च वर पक्ष की ओर से ही उठाया गया।

अतीत और वर्तमान में हिचकोले खाता कुछ देर में वह खुद ही चुप हो गया और लौट पड़ा। यही सोचता हुआ कि अब इतना आगे निकल आया है कि पीछे लौटना इस जनम में मुमकिन नहीं। मन्ठी अच्छी हो या बुरी या उसके साथ घोर अन्याय ही क्यों न हो रहा हो, उसके साथ निबाह की तो अब कोई कल्पना भी नहीं की जा सकती। वह आरती के लिए ही जियेगा, उसे देख-देख कर ही रहेगा, नहीं तो मर जाएगा। इसी निश्चय के साथ वह भिलाई लौट आया।

00