किंबहुना - 19 अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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किंबहुना - 19

19

बलौदा बाजार का रास्ता बंद हो गया तो भरत को एक उपाय सूझा।

शनिवार को वह रायपुर पहुँच रेश्मा के बोर्डिंग गया। बतौर अभिभावक उसने दरुख्वास्त दी कि बच्ची को सण्डे की छुट्टी में घर ले जाना चाहता है। तो सुबह आने के लिए कह दिया गया और वह सुबह कार लेकर फिर उसके बोर्डिंग पहुँच गया। गनीमत थी, अभी आरती ने यहाँ कोई रोक न लगाई थी और न रुकू को कुछ बताया था। इस मामले में वह बहुत पक्की थी। वश भर अपने हादसे किसी को न बताती। भाभी या माँ को उसने आज तक नहीं बताया कि आलम ने कितने जुल्म किए! और क्यों उसे तलाक देने का निर्णय लेना पड़ा? भरत उसकी इसी इंसानियत का तो कायल है। अन्यथा रूप-रंग, स्वास्थ्य की दृष्टि से वह कोई मिस यूनिवर्स नहीं! कोई व्यर्थ इल्जाम धरे तो धरता रहे कि मन्ठी को उसने रूपरंग की न होने और बेडौल होने से छोड़ा...। जबकि मन्ठी की खास खराबी यही कि वह बद्मिजाज और घमण्डी है। उसे अपनी पिता की संपत्ति और सात पहलवान सरीखे भाइयों पर बड़ा नाज है।

पिता उसके जमींदार थे इसलिए आजादी के बाद भी पठार के बहुत हिस्से उनके कब्जे में हैं। ऊपर से वह पढ़ी-लिखी भी नहीं। नाबालिग थी और मजे की बात यह कि भरत भी बालिग न था, तब तो विवाह हो गया। खूब खाने-पीने और सात भाभियों के होते घरेलू काम की फली भी न फोड़ने से मोटापा बचपन से ही इतना बढ़ गया कि विवाह के समय उसका वजन पेंसठ किलोग्राम था। विवाह के बाद तो अमूमन बढ़ जाता है सो, दो-तीन साल के अंदर हाथी का बच्चा हो गई। ऊपर से संतान न हुई तो ज्यादातर मायके में रहने लगी। इधर पढ़ाई के चक्कर में भरत पहले रायपुर फिर कोटा और फिर रुड़की रहा तो वैवाहिक जीवन का कोई तालमेल ही नहीं बन पाया। पढ़ाई से निवृत हुआ तो किसी कंपनी में सीईओ, किसी में जीएम तो भिलाई में आकर डीजीएम हो गया। उसकी जीवन शैली अलग हो गई। मन्ठी कुछ दिनों के लिए आती या वह जाता तो शारीरिक पूर्ति के सिवा कोई रागात्मकता न उपज पाती। यही कारण था कि औरत के लिए भूखा आदमी, मनोरम स्वभाव वाली आरती पर यकायक मर मिटा।

रेश्मा फ्लैट पर आ गई तो लगा, आरती का लघुरूप आ गया। वैसी ही छरहरी, लम्बी, लम्बे बालों वाली, और आरती की मोटी नाक के उलट पतली तोतापरी नाक वाली और झक सफेद रंग तथा गुलाबी ओठों, काली आँखों वाली रुकू उसके दिल में पहली नजर से ही उतर गई थी।

मगर यह नजर एक अभिभावक की नजर ही थी। कहते हैं कि अपनी बच्ची और दूसरे की बीबी सभी को अच्छी लगती है। वह उस पर इतना मोहित था कि उसे देखता ही रहता। और हालाँकि कविताओं में वह कुछ खास न जानता था पर रेश्मा की कविताएँ अच्छी लगती थीं। वह उनकी समीक्षा भी कर लेता था। लड़की आ गई तो वह उससे साये कि तरह चिपक कर रह गया।

रेश्मा एक चान्स लेकर आई थी कि वहाँ जाकर वह अपने फ्रेंड से फ्रेंकली बात कर सकेगी। बोर्डिंग में तो प्रतिबंध था। संदेशों से ही काम चलाना पड़ता। या आघी रात को जाग कर चादर में छुप कर धीरे-धीरे बात करना होती। रूममेट और वार्डन का भय हमेशा गर्दन पर तलवार-सा लटका रहता। मगर यहाँ तो और भी आफत हो गई। पापा अकेला छोड़ते ही नहीं। खाना-पीना साथ-साथ, घूमना-शॉपिंग साथ-साथ। यहाँ तक कि रात को पलंग पर भी साथ लिटा लिया। सिर पर हाथ रख लिया और सहलाते रहे...।

मिलते ही सीने से लगा लिया और पीठ पर हाथ फेरने लगे, वह अलग बात थी। मगर रात को साथ लिटा लिया तो उसे तो नींद नहीं आई। पंद्रह-सोलह साल की लड़की किसी पुरुष के साथ लेटे तो अनुख न लगेगा! पर आरती के प्यार में पागल भरत उसे आरती की जीरोक्स मान उसी संलग्नता से अभिभूत था। सो गया तो वह उठ कर दूसरे कमरे में चली गई और नम्बर मिला कर किसी से बात करने लगी। और बात इतनी लम्बी चली कि भरत की नींद टूट गई। पहले इंतजार किया, फिर इधर-उधर खोजा, बत्ती जला कर बाथरूम, किचेन, काॅमन हाॅल में... लड़की कहाँ चली गई, वह सनाका खा गया! इतने में उस दूसरे वाले रूम से हँसी की हल्की-सी आवाज आई तो वह गेट पर दम साध कर खड़ा हो गया जो अंदर से बंद था। फिर गुन-गुन आई, फिर हल्की हँसी! कान खड़े हो गए कि आरती से नहीं किसी और से बात हो रही है! ताव में उसने गेट में जोर की थप्पी दी। रेश्मा को काटो तो खून नहीं रहा। पर दरवाजा तो खोलना ही था। कॉल डिटेल डिलीट कर काँपते हाथों से उसने गेट खोल दिया। भरत एकदम फट पड़ा, किसे धोखा दे रही हो, पढ़ाई के दिन हैं या... ये भी नहीं सोचा कि तुम्हारे फ्यूचर के लिए ही माँ कैसी खट रही है, रात-दिन! हम तो आपके हैं कौन! कहते वह आहत हो गया। सुबह तक कोई नहीं सोया, न बाप न मुँहबोली बेटी।

सुबह उसे वापस जाना था, चुपचाप तैयार हो गई, भरत बिना कोई शब्द बोले छोड़ आया। जल्दी उसे भी थी, ड्यूटी पर भिलाई पहुँचना था। अब यही सोचा कि अब आरती से जरूर मिलना है। अब तो जिम्मेदारी और भी बढ़ गई। बच्चे यही तो हैं- अपने कहो, पराए कहो। इन्हीं को पार लगाना है। शाम के समय उसने आरती को लिखा कि जल्दी मिलना होगा!

क्यों, अब क्या है? उसने फिर वही रूखा जवाब लिखा। और जवाब नहीं सवाल किया।

अब क्यों नहीं है, कुछ? वह तिलमिला गया, अभी तक क्या था। क्यों ढाई-तीन साल तक पति-पत्नी की तरह रहे, सारे करम-कुकरम किए!

हमने अपनी ओर से किए! वह दुखी हो गई।

क्यों, क्या एक हाथ की ताली बजती हैऽ! वह आपा खो चुका था।

नहीं बजती, वह भी उखड़ गई, तो एक हाथ हमने काट दिया, समझ लो!

ऐसे कैसे काट दोगी। ऐसे आसानी से नहीं छोड़ दूँगा, जीना मुश्किल कर दूँगा!

ओह! ये बात! अच्छा रहा, समय रहते नीचता पता चल गई...। फोन उसने बंद कर दिया। घर आते-आते दम फूल गया। बाएँ हाथ में जोर का दर्द होने लगा। सीने में बाम मली, कोई राहत न मिली। औंधी लेट गई, आँसू बहने लगे। ऐसे में शीतल का फोन आ गया तो वह बुक्का फाड़ कर रोने लगी। और वह जितना चुप कराने का जतन करता, उतनी अधिक रोती चली जाती। जब उसने गीत गाया, गमों का दौर भी आए तो मुस्करा के जियो, ना मुँह छुपा के जियो और न सर झुका के जियो... तब कुछ हिम्मत बँधी और वह चुप हुई। तब तक हर्ष आ गया और उसकी स्थिति से अनभिज्ञ उसे तंग करने लगा। माँ-बेटे का लाड़-प्यार, झिड़क, झुँझलाहट देर तक चलती रही। जब वह अच्छी तरह खीज गई कि- ना आज कुछ नहीं बनाएँगे, ना देंगे!

अच्छा माँ पोस्ता नहीं,

ना!

तो मैगी...

ना!

तो पोहा...

कुछ नहीं, चाय भी नहीं तुम जितनी चाहो हरकतें दे लो! क्योंकि वह गुदगुदी कर रहा था, उसके ऊपर चढ़ रहा था और कभी उसे उठाने की भरपूर कोशिश कर रहा था। तो वह बेतरह खिसिया गई थी। अंत में उसने चीखते हुए उसकी पीठ पर दो भरपूर मुक्के जड़ दिए। तो वह तेल की शीशी उठा लाया, अच्छा माँ आपके सिर में दर्द हो रहा है!

आरती रोने लगी, कि जिसे जमाने में ढूँढ़़ती फिर रही थी, वह सच्चा प्यार तो ये है, उसकी कोख से उपजा हुआ। आँसू पोंछ सुबकते हुए वह किचेन में गई और कुछ बनाने लगी। क्या, उसे खुद भी पता नहीं...।

आज शीतल को पूरी बात बताएगी। अब भरत से सुरक्षा चाहिए। वाह री तकदीर, परिस्थितियाँ कैसे बदलीं, वह हैरत में थी, कि जो सुरक्षा दे रहा था अब उसी से सुरक्षा चाहिए थी। क्या अब वह आदमखोर हो गया, उसकी दाढ़ में खून लग गया। इंतजाम करेगी, हिम्मत नहीं हारेगी।

बच्चे की भूख शांत कर वह अन्यमनस्क सी लेट गई, तब तक केशव का फोन आ गया। उसने हैलो किया तो वह बोला, दीदी, कैसी हैं आप!

क्या बताएँ कैसे हैं भैया, उसने रुँधे गले से कहा, बस किसी तरह जिंदा हैं!

एक बात बताएँ, वह बोला।

क्या?

आप अपने हाथों अपनी मिट्टी करा रही हैं, बच्चों का भविष्य भी दाँव पर लगा रही हैं, सोचो, मामा क्या नहीं दे रहे!

ऐसे हमें कुछ चाहिए नहीं, उसने हल्के रोष से कहा।

कैसे!

खुद को बेच के... उसे गुस्सा आ गया।

तो अभी तक क्या कर रही थीं?

अरे- शर्म करो, दीदी कहते हो और इतनी बद्तमीजी देते हो... कहते वह रुआँसी हो आई।

फिर नतीजा भुगतने को तैयार रहना! केशव ने फोन काट दिया।

वह हिल गई... पुलिसिया रौब चमका कि जातीय क्रूरता! अब तो सचमुच घिर गई! और चारोंओर से घिर गई। उसे अभिमन्यु और द्रोपदी याद आने लगे। अब क्या हो, दिल बुरी तरह घबरा उठा।

शीतल से बात करे, यही एक रास्ता है, इसके सिवा और कुछ सूझा नहीं। और उसने फोन लगाया, मगर उठा नहीं तो घबराहट और बढ़ गई। तमाम आशंकाएँ एक साथ घेरने लगीं कि लड़की वहाँ फँसी है, कहीं नक्सलियों से उठवा न लें! वे तो पैसे के लिए काम करते हैं और इनके पास किसी चीज की कमी नहीं है। हर्ष दिन भर बाहर रहता है, कभी स्कूल, कभी खेल और इस घर में ही कौनसी सुरक्षा। फिर वह भी तो सदा ऑफिस में नहीं मुँदी रहती। फील्ड में कभी भी कोई दुर्घटना घट सकती है।

लग रहा था मौत जब आएगी तब आएगी, भय अभी मारे डाल रहा है!

उसने मैसेज छोड़ दिया दोस्त के नाम, कुछ हो जाए तो इन लोगों को छोड़ना नहीं- भरत, केशव, राम, रेखा... और उसने भरत का तो फोटो, पता, मोबाइल नम्बर सारी चीजें सेंड कर दीं उसे। तो इतने से ही राहत मिल गई, आँखें झुकने लगीं उसकी, जैसे- यह 0.5 वाली नींद की कोई गोली हो! 

सुबह जागी और देखा तो दोस्त ने एक मैसेज भरत के इनबॉक्स में भेजने के लिए उसे भेजा था, उसमें लिखा था:

श्रीमान् भरत मेश्राम जी, आप एक शादीशुदा पुरुष हैं और मैं भी एक शादीशुदा महिला हूँ। फिर आप मुझसे सम्बंध बनाने और शादी करने का प्रयास क्यों कर रहे हैं, यह सर्वथा अनुचित है। यदि आपने आगे से मुझे इस सम्बंध में मैसेज भेजा, फोन किया अथवा रिश्तेदारों द्वारा मुझ पर अवैध सम्बंध बनाने और शादी करने का दबाव डलवाया तो मैं आपकी शिकायत बलौदा बाजार के पुलिस अधीक्षक महोदय से कर दूँगी।

मैं आपके प्रयासों से तंग आ चुकी हूँ। इसे कोरी धौंस न मानें, यह संदेश मैं अध्यक्ष महोदया, छत्तीसगढ़ राज्य महिला आयोग, रायपुर को भी फाॅरवर्ड कर रही हूँ।

-आरती कुलश्रेष्ठ

अरे, यह क्या! पढ़ कर डर से उसके हाथ-पाँव काँपने। दोस्त को उसी वक्त उसने फोन लगा कर कहा, तुम्हें पता नहीं, ये लोग बहुत चलती वाले हैं। हम माँ, बेटी, बेटे को गाजर-मूली की तरह कटवा देंगे!

ऐसे कैसे कटवा देंगे, देश में कोई कानून-सुरक्षा है कि नहीं! उसने ताव में कहा।

नहीं है, यहाँ बिल्कुल नहीं है, छत्तीसगढ़ में नक्सलियों का राज है!

तुम ये मैसेज सेंड तो करो...

सेंड करते ही तमाशा बन जाएँगे हम, तुम क्या जानोऽ! रोष में वह चिल्ला पड़ी फिर रोने लगी।

फिर तुम जानो! वह भी गुस्सा गया। फोन काट दिया।

आरती किसी तरह निवृत हुई और ऑफिस पहुँच गई। दिल में साँय-साँय मची थी। दोपहर बाद फील्ड में गई। पुष्पा और कई कार्यकर्ताओं से संपर्क किया और छोटी-छोटी मीटिंगें की। दिल वहीं रखा था। सोचा, पुष्पा से कहे। फिर सोचा क्या कहे। ये बेचारी क्या कर पाएगी। वह खुद ही बेसहारा। सदा उसके साथ साये सी लगी रहती है। पर हिम्मतिन है। मौत से भी नहीं डरती। और काम के लिए जिन्द समझो। धूप बहुत तेज पड़ रही थी। धूप की परवाह नहीं पर उससे बचने के बहाने उसने स्कूटी एक बावड़ी पर रोक दी जहाँ पीपल की घनी छाया थी। मोबाइल में केमरा आॅन कर पुष्पा को फोन दे दिया, हमारा एक फोटो खींच दो...

वह मुस्कराई, रोजे फोटु खिंचवावत रहिथस मेडम!

का जानबो कोन हा आखरी दीन हो जाही! कहते आँखें छलछला आईं।

ऐसन अशुभ भाखा बोलबे त हम नई खींचन।

अरे खींच न गा... आँसू उसने नाक से सुड़क कर कहा।

पुष्पा ने तीन-चार क्लिक किए और बगल में आ बैठी। आरती ने मोबाइल हाथ में लेकर खिसका-खिसका कर सारे फोटो देखे। चेहरा आज साँवला और बुझा-बुझा-सा दिख रहा था। बाल रूखे।

का सोचत हावे?

इही, मैं मर जहूँ ता लईका मन ला पोस लेवे।

कइसे बही मन ऐसन गोठियावत हस, मरय तोर बइरि मन! उसने बद्दुआ दी।

पर उसे तसल्ली न हुई। इसके बाद पुष्पा ने बहुत पूछा कि- का बात ला लुकावत हस, बतातो सही। गरीब हवन त कुछु नई कर पावो, अतका गे गुजरे नई हवन।

पर वह कुछ भी बता न सकी।

अन्यमनस्क सी ऑफिस आई, ऑफिस से घर।

उधर भरत का उससे भी बुरा हाल था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि अचानक इसे क्या हो गया! कहाँ तो वह कुछ देने की कोशिश करता तो कहती, हम तो मालिक हैं, जी! सब हमारा ही तो है! जब जो जरूरत होगी, ले लेंगे। कहाँ ऐसी हो गई है कि बात नहीं करना चाहती। केस रद्द होने से क्या मैं मन्ठी के पास जाकर रहने लगा, या उसे बुला लिया! तुम ऐसी कठोर क्यों हो गई, आरती? वह मन ही मन पूछता और दुखी होता रहता। अब वह घर पहुँच गई होगी! उसने अंदाजा लगाया। शाम होने की वह सुबह से प्रतीक्षा कर रहा था। सारे देवताओं को मना कर उसने अपने सेलफोन से उसका नम्बर डायल किया।

घंटी बजी तो आरती की घबराहट बढ़ गई। सिर थाम लिया, क्या करे, ऑफ कर दे! फिर सोचा सुन ले, ऐसा न हो कि बात हद से आगे बढ़ जाए! रुकू तो उसके चंगुल में ही समझो! उसने फोन उठा लिया, हैलो! फँसे गले से कहा।

क्या बात है, तबियत ठीक नहीं, तुम्हारी?

नहीं, ऐसे ही!

फिर भी क्या हुआ?

कुछ नहीं, आप अपनी बात कहो।

क्या कहूँ कुछ समझ में नहीं आ रहा...तुम ऐसी क्यों हो गई, वह गिड़गिड़ाने लगा, क्या शादी से ही दो दिल जुड़ते हैं? कहाँ जुड़ते हैं? जैसे- खुद से कह रहा हो, जुड़ते तो मन्ठी से न जुड़ गया होता! और अगर कोर्ट मैरेज से जुड़ते तो यह तो एक व्यवस्था हुई, पारस्परिक। ताकि कोई किसी का हक न मार पाए! लेकिन इसका दिल की दुनिया से क्या लेना-देना। शारीरिक सम्बंधों से भी दिल की दुनिया का क्या लेना-देना। कितने ही लोग वेश्यागमन करते हैं। लेकिन होटल में जाकर खाने और घर में बना कर खाने में जो फर्क है, वही पैसे के बदले और प्रेमपूर्ण शारीरिक सम्बंधों का फर्क है...।

कहते-कहते वह थम गया तो आरती ने पूछा, और कुछ?

सुन कर भरत को चोट लगी, पर वह जब्र कर समझाने लगा, ऐसा नहीं कि तुम समझती नहीं हो! हमारी ओर से कोई बेवफाई हुई है? बात यह कि इसका कोई और कारण है, जो तुम बता नहीं रहीं।

कारण एक ही है, जो तय था, वो नहीं हो रहा...। उसने दो टूक कहा।

नहीं हो रहा तो क्या इतना आसान है, एक-दूसरे को छोड़ पाना!

अरे- छोड़िये, दो दिन में सब भूल जाएँगे, आदत पड़ जाएगी। उसने बेरुखी से कहा।

हमें न पड़ेगी, वह फफक पड़ा।

कहीं कमजोर न पड़ जाए! आरती ने फोन काट दिया। फिर पाॅवर ऑफ की पर तर्जनी रख दी।

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