किंबहुना - 17 अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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किंबहुना - 17

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उसे बहुत फील हो रहा था कि एक ओर तो वह अपनी कर्मठता के लिए और सामाजिक कार्य के लिए फाउंडेशन और क्षेत्र में सराही जाती है। अपनी बुद्धिमत्ता और साहित्यिक अवदान के लिए पूरे देश और विदेशों तक में जानी जाती है, क्योंकि सोशल मीडिया ने विश्व को जोड़ दिया है। हिंदी के पाठक और साहित्यकार आज विश्व के किस कोने में नहीं! दो-तीन साल पहले जब उसने एक कविता फेसबुक पर पोस्ट की तो इतनी सकारात्मक प्रतिक्रियाएँ आईं कि उसे अपने वजूद का गहराई से एहसास हो गया। ग्रेट ब्रिटेन से एक प्रोफेसर ने लिखा कि- ये तो बहुत अच्छी कविता है! इसने इंग्लिश लिटरेचर के रोमेंटिसिज्म की याद दिला दी...। तो वहीं माॅरीशस से हिंदी के एक उद्भट विद्वान ने लिखा कि- मेम आप विद्वान हैं, वर्डसवर्थ, जाॅन कीट्स मुझे आपकी कविताओं में दिखता है! आप बधाई की पात्र हैं। मेरी इसी पर रिसर्च चल रही है, एक अन्य पुस्तक, शेक्सपीयर के नाटकों का हिंदी में अनुवाद आ गया है। आप तक कैसे भेजूँ बताइएगा!

और इसी तरह की तमाम प्रतिक्रियाओें से उत्साहित उसने अपनी एक कविता कभी अक्षर सम्मान हेतु आचार्य छगनलाल विद्यानुरागी अखिल भारतीय प्रतियोगिता में अजमेर भेज दी थी। क्योंकि राजस्थान से अभी भी उसका गहरा लगाव था। वहीं से उसे ब्रेक मिला और जिंदगी के उस नर्क से निजात मिली जिसे उसने अपनी एक नादान भूल के कारण 7 साल भोगा। मगर वह भाग्योदयी शहर उसे आलम के कर्ज के चक्कर में छोड़ना पड़ा। क्योंकि वहाँ वह कभी भी आ खड़ा होता। कहीं मामू और बड़े अब्बू को लेकर आ जाता तो पूरा फजीता हो जाता। इसी डर से उसने यहाँ ट्रान्सफर लिया और आलम से तलाक का केस दायर कराया कि तलाक हो न हो, उसके लिए यह दरवाजा बंद हो जाए। नहीं तो कभी भी खोजता हुए चला आए और कर्जा वापसी का दबाव डालने लगे। फिर बच्चों के भविष्य का क्या होता...। पर बहुत सोच-समझ कर उठाए गए इस कदम में भी कितना जबरदस्त धोखा खा गई। जिस बहन-बहनोई का सहारा लिया उन्हीं के मार्फत फँस गई। भरत से हेल्प क्या ली, उसने कीमत वसूल ली।

नींद कोसों दूर भाग गई थी। सुबह होने को थी। अपमान से आहत आरती ने फोन उठा कर खोला तो दोस्त के 15-20 मैसेज एक साथ उसके इनबॉक्स में आ गए। वह बहुत चिंतित था। शायद वह भी सारी रात सोया न था।

कोई पीर का पुछैया पैदा हो जाय तो सब्र का बाँध ढह जाता है।

आरती ने सब कुछ उगल दिया। कुछ नहीं छिपा सकी। जनम भर की दारुण कथा बयान करती चली गई। छुट्टी का दिन था। ऑफिस जाना नहीं था। किसी काम की इच्छा ही न थी। न खाने-बनाने की। बिस्तर पर ही पड़ी रही, उठी भी नहीं, मानों कल अकस्मात् गाज गिर पड़ी हो, या लकवा मार गया हो उसे। रेश्मा ने चाय-नाश्ता बनाया भी, तो उसने छुआ नहीं:

बेटा ब्रश नहीं किया, छोड़ो- हमारी तबीयत ठीक नहीं...

दोस्त को अपनी रामकहानी लिखते-लिखते हर बार यही बहाना कर दिया। सण्डे था इसलिए हर्ष तो आँख खुलते ही क्रिकेट के मैदान की ओर दौड़ गया था। रही रेश्मा तो वह भी छोटा-मोटा काम निबटाने के बाद माँ की तरह फोन पर व्यस्त हो गई। दरअसल, जब से बोर्डिंग में गई है, और स्मार्ट फोन पा गई है, उसके भी थोड़े-थोड़े पर निकल आए हैं।

आरती की व्यथा-कथा सुन कर शीतल पहले से अधिक जुड़ गया। क्योंकि वह भी कायस्थ था...।

हिंदुस्तान में जाति एक अकाट्य तथ्य है। आदमी जाति के लिए जितना मरता है उतना न देश के लिए मर सकता है और न धर्म के लिए। और जाति का सम्मान बचाने के लिए तो बहन, बेटी, माँ तक को हलाल कर सकता है! उसने बता दिया कि वह शीतल सरोज नहीं, शीतल सक्सेना है। अब तुम्हें फिक्र करने की जरूरत नहीं है।

सुन कर आरती को बहुत तसल्ली हुई। दिल का डर काफी हद तक निकल गया। उसने कहा, सुनो जी, आचार्य छगनलाल विद्यानुरागी अखिल भारतीय प्रतियोगिता में हमारी कविता को अक्षर सम्मान के लिए चुना गया है!

कहाँ?

अजमेर।

समारोह होगा!

हाँ!

कब?

ये तो अभी पता नहीं।

जाओगी?

देखो, सोच तो रहे हैं, पर बच्चों को कहाँ, किस पर छोड़ जाएँ, समझ नहीं आ रहा।

क्यों, पहले भी तो जाती रहीं...

तब और बात थी, अब सैकड़ों दुश्मन पैदा हो गए न! पुरानों से पीछा नहीं छूटा, नए और बन गए।

अरे- तुम तो जाओ, ठाठ से, ऐसे कोई किसी को खा लेगा क्या!

आप नहीं समझ सकते...

क्यों...

एक औरत का अकेले जीना कितना कठिन है इस मर्दवादी व्यवस्था में!

बात आपकी ठीक है, पर इतना डरने की जरूरत भी नहीं। आप क्या समझती हैं, हम उस भील-आदिवासी को ठिकाने न लगा पाएँगे। उसने रोष में कहा, फिर समझाया, पर्सनल इंगेजमेंट कोई कानूनी बाध्यता नहीं, मेम। यहीं बैठे-बैठे इतना प्रबंध कर देंगे कि आपकी मर्जी के खिलाफ वह तो आपकी ओर एक नजर भी न डाल पाएगा।

ठीक है, अब आप भी अपने काम से लगो! आज सुबह से हम तो आरती सरोज कुंज में भी नहीं जा पाए!

पर हमारी सुभोर तो आज माई की बगिया से हो गई, जहाँ से नर्मदा जी निकली हैं, अब ओंकारेश्वर, महेश्वर से क्या लेना-देना!

सुन कर गोया बरसों बाद, आरती के चेहरे पर स्मित की मंद रेखा उभर आई। उसे अपनी ही लिखी वो कविता याद आ गई जिसमें किसी पूर्व विरह की हल्की-सी कसक भी है! और इसी कारण उसे अक्षर-सम्मान के लिए चुन लिया गया है। अजमेर से कल ही तो फोन आया। घर आकर शीतल को वह बताने वाली थी कि यहाँ वे यमदूत मिल गए! लेकिन कल से आज तक परिस्थितियाँ फिर बदल गईं। स्मृति में विराजमान कविता उसके भीतर गूँजने लगी:

कभी साथ थे

तो ये बात थी

हवा भी सरगोशी करती

फूल भी मुस्कुराते

कोयल भी गीत गाती

 

सितारे जगमगाते

चाँदनी बिछी होती

नदी कल-कल बहती,

सागर से मिलने जाती

 

जग सुहाना लगता

सभी अपने लगते

धरती के इस छोर से

उस तक बहार,

करवटें बदलती चली जाती

पता नहीं ऐसा होता या नहीं होता

कभी साथ थे तो ऐसा लगता

मगर अब नहीं लगता...

 

दिल उमग रहा था। कविता उसने शीतल को भेज दी। और वह कितना भी व्यस्त हो, शेयर मार्केट या प्रबंधन में, आरती का अकाउंट तो होम स्क्रीन पर लगा कर रखता। पढ़ते ही तुरंत जवाब लिख दिया उसने, बिफोर एंड आफ्टर की साफ, समझदार दृष्टि से सब स्पष्ट है। ये भी एक डिटैचमेंट की स्थिति है। इस स्थिति में संलिप्त रहते ये दृश्य और दृष्टि नहीं विकसित हो सकती थी, है ना!

सही कहा आपने, हम निकल आए बाहर सारे झंझावातों से।

गॉड ब्लेस यू!

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