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कंसेट दिलवाकर रात होने से पहले भरत भिलाई लौट गया। आरती ने अनिच्छा से बच्चों के लिए बनाया और खिला कर खुद वैसी ही सो गई। हक मारे जाने का एहसास बहुत तेजी से दिल में घर गया था। जैसे, किसी ने गर्दन पर तलवार मार दी हो। मुल्ला नसुरुद्दीन का किस्सा रह-रह कर याद आ रहा था। कि जब वह पेंशन की रकम लेकर लौट रहा था, लुटेरे ने छुरी गर्दन पर रख दी थी। और तब भी मुल्ला ने कहा, ठहरो, सोचने दो! तो लुटेरे को हैरत हुई कि तुम अजीब आदमी हो, मौत सिर पर नाच रही है और कहते हो, सोचने दो! न दोगे ये रकम तो मर न जाओगे! तब मुल्ला ने कहा कि जिंदगी भर की कमाई देकर ही कौनसा जिंदा रहूँगा!
और एक वह है जिसने खुद ही अपने पाँव कुल्हाड़ी मार ली। वैसे भी इस पोस्ट में कोई प्रमोशन न था। अब तो जिस पर भरती हुई, एक दिन उसी से रिटायर हो जाएगी। नौ दिन चली, अढ़ाई कोस! तनाव में आज फिर नींद नहीं आ रही थी। भरत ने उसे आॅनलाइन देखा तो लिखाः
साॅरी, मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सका!
ऐसा न कहें, आपने क्या नहीं किया, आपके सहारे ही हैं हम तो, देते ना आप साथ तो मर जाते हम कभी के...
क्या मैं जोड़ सकता हूँ- पूरे हुए हैं आपसे अरमान जिंदगी के...
अरे, रहने दीजिए! हम क्या किसी का अरमान पूरा करेंगे, जब खुद का न कर सके!
आपका हम करेंगे!
अरे!
हाँ!
रहने दीजिए, अब इच्छा नहीं है!
क्यों?
पता नहीं।
सुना है, इच्छाएँ तो कभी मरती नहीं हैं!
पर हमारी तो मर गईं। अब कोई एहसास नहीं होता। न अच्छा न बुरा।
ऐसा नहीं, मन में नया उत्साह भरिए। प्यार ही इसकी औषधि है। प्यार कर लीजिए किसी से। उमंग बढ़ जाएगी और लाइफ चार्मिंग हो जाएगी!
जीना तो है, बच्चों के लिए, अपने लिए कोई तमन्ना नहीं बची।
अपने लिए न सही, हमारे लिए तो बचा के रखिए!
जी।
जी का मतलब हाँ होता है, पता है!
ऐसा तो नहीं!
खाना खा लिया?
न...
क्यों...
मन नहीं किया।
फिर क्या हवा से जिएँगी बच्चों के लिए!
एकाध दिन से कुछ नहीं बिगड़ता, भूख प्यास मर चुकी है हमारी तो...
लगने लगेगी, साथ बनी रहिए!
जी, हैं तो, अब और कौन है आपके सिवा!
फिर बात भी मानिए।
क्या!
खा लीजिए ना कुछ, आपको हमारी कसम!
अरे, बच्चों सी जिद न किया करें! सच में हमारा मन नहीं है। भूख भी नहीं, लगती तो खा लेते!
फिर भी हमारी खातिर प्लीज! वह जिद करने लगा।
आरती ने उठ कर आधी रोटी अचार से खा ली और पानी पीकर लेट गई। थोड़ी देर में फोन आया तो कह दिया, खा ली बाबा!
सच में!
आप से झूठ नहीं बोल सकते, आप से तो कुछ छुपा भी नहीं सकते!
ऐसा!
जी!
ओके गुडनाइट!
गुडनाइट! उसने फोन बंद कर दिया।
शादी के दूसरे दिन से ही उसे रसोई में भिड़ जाना पड़ा। पर उसे इससे शिकायत नहीं हुई। सोचा, चलो आलम अगर ठीक से रहा तो निबाह हो ही जाएगा। पर उसका रवैया वैसा ही रहा। आरती ने उसके साथ सामंजस्य बैठाने की बहुत कोशिश की। कोशिश की कि किसी तरह मैं खुश रह सकूँ पर हो नहीं सका। जैसे ही थोड़ा प्रयास करती कुछ ऐसा हो जाता कि उसका मन फिर टूट जाता। फिर दूर हो जाता उससे।
तब वह सोचती कि वो कौन लोग हैं जो कहते हैं कि नई-नई शादी में आदमी पागल हो जाता है। पर आलम को देख कर अजीब लगता! उसे उसके होने से कोई फर्क न पड़ता।
धीरे-धीरे उसे पता चला कि आलम के ऊपर लाखों का कर्ज है!
वह एक तो दुकान ठीक से नहीं चलाता, और जो भी पैसा कमाता वो सारा कर्ज का ब्याज चुकाने में चला जाता। घर का खर्च चलाना कठिन पड़ता। घर में हमेशा कुछ न कुछ कमी ही रहती। दो समय का पूरा खाना भी मिलना कठिन होता। सामान के लिए पैसे माँगो या कमी बताओ तो आलम भड़क जाता।
इधर आलम की माँ जो शिकायतें आलम से करतीं थी वो शिकायतें अब आरती से करने लगी। जबकि आलम उसकी कोई बात न सुनता। वैसे भी उससे कुछ कहने की उसकी हिम्मत ही न पड़ती। वह मन ही मन डरती कि कहीं अपनी माँ की तरह ये मुझे भी मारने लगा तो क्या होगा! उसके घर में कभी किसी ने उससे तेज आवाज में बात भी नहीं की थी, वो हमेशा डरी हुई रहती।
आलम दुकान से कितने पैसे कमाता है, कितने कहाँ खर्च करता है, उसे कुछ पता ही नहीं चलता। न वो कुछ बताता, न उसकी कभी पूछने की हिम्मत हुई। वो इतनी रात तक कहाँ रहता है, इतनी देर से क्यों आता है, ये कौन पूछे? पूछो तो गुस्सा होने लगता।
आलम किराए के मकान में रहता था। और कई महीनों से उसने मकान का किराया भी नहीं दिया था। जब मकान मालिक किराया माँगता तो आलम हमेशा ही बात करने के लिए आरती को आगे कर देता। और वह मकान मालिक को कहती कि अभी पैसे नही है किराया कुछ दिन के बाद दे देंगे। हालाँकि उसे आलम की ये बात जरा भी अच्छी न लगती। उसे लगता कि मकान किराए पर तुमने लिया, तो मकान मालिक को उत्तर मैं क्यों दूँ?
किराया न मिलने से नाराज होकर मकान मालिक ने घर की बिजली काट दी।
अब घर में अँधेरा रहता। आलम की माँ दिन भर बड़बड़ करती, काम कराती, रात आलम के इंतजार में कट जाती। इन सब में उसका मानसिक संतुलन डगमगाने लगा। उसे कुछ अच्छा न लगता। घर में रहने का मन न करता। उसने आलम को मनाया कि वो उसे रोज दुकान जाते समय मम्मी के घर छोड़ दिया करे। वो आसानी से राजी नहीं हुआ। पर रोज-रोज कहने पर मान गया।
अब उसकी दिनचर्या ऐसी हो गई कि वह सुबह छह बजे उठती और घर के कामों में लग जाती। ग्यारह-बारह बजे तक सारे काम निबटाती। तब तक आलम सोया रहता, वो कभी ग्यारह बजे के पहले न उठता। उसके बाद वो दुकान जाते समय उसे मम्मी के घर छोड़ देता। जल्द ही आरती को लगने लगा कि अब मैं रोज-ब-रोज मम्मी के घर क्यों जाऊँ? जब घर से बाहर निकल ही रही हूँ तो क्यों न दुकान सँभालने लगूँ! आलम से कहा तो उसने यह प्रस्ताव झट से स्वीकार कर लिया। अब वो उसे दुकान ले जाता। और दुकान पर बैठा कर अपने दोस्तों के साथ घूमने निकल जाता। कहाँ जाता, क्यों जाता, पता नहीं।
अब तो और भी मुसीबत हो गई। अब वह दिन भर बाजार में रहती, वहाँ से आकर शाम को फिर घर के काम करती, सब को खाना बना कर खिलाती और फिर अँधेरे घर में आधी रात तक आलम का इंतजार करती।
सारे काम बेमन से होते। उस पर शरीर को आराम नहीं। सिर्फ तीन से चार घण्टे की नींद। उसकी तबीयत खराब होने लगी। पर आलम को कोई फर्क न पड़ता। वह उसे जब भी ये कहती कि रात को जल्दी घर आया करो जिससे मैं जल्दी सो सकूँ, तो वो चिढ़ जाता और कहता तुम्हें क्या पता मुझे कितना काम रहता है।
घर से बाहर बाकी सब लोगों से आलम का व्यवहार बहुत अच्छा रहता। वह सबके काम करता रहता। बहुत अच्छे से बात करता। सबकी मदद करता। अपना काम, अपनी दुकान, अपना परिवार छोड़ कर दूसरों के काम निबटाता रहता। उसकी यह आदत देख कर उसके दोस्त, रिश्तेदार, पड़ोसी सब उसे बहुत अच्छा आदमी समझते। दूसरों की नजरों में अच्छा कहलाने के लिए वो न दुकान सँभालने पर ध्यान देता न घर के दूसरे कामों पर। हाँ पड़ोसी जरूर उसकी आदतें जानने लगे क्योंकि उसकी चिल्लाने और गाली-गलौज की आवाजें बाहर तक सुनाई देती थीं।
आलम को उसकी कोई चिंता न रहती। उसके लिए वह घर में काम करने के लिए नौकरानी, उसकी माँ को सँभालने के लिए बहू, उसकी मंद-बुद्धि बहन को काम सिखाने माँ, और रात उसके साथ सोने के लिए एक गुलाम थी।
एक और उपयोगिता थी उसकी। कि वो उसे सारे जमाने से- रिश्तेदारों, दोस्तों से मिलवाता अपनी शान बढ़ाता रहता, कि देखो, मैं एक हिंदू बीबी ले आया हूँ! सब को घर बुलाता, और कभी उसे किसी के घर ले जाता कभी किसी के...। जब कोई उससे कहता, वाह आलम! तुम्हें तो बड़ी सुन्दर, समझदार सुशील लड़की मिल गई! तो वो खुशी से फूला न समाता। उसे सुनने में बहुत अच्छा लगता कि तुमने भी क्या हाथ मारा है, यार!
आलम की माँ ने उसे फिर कई बार टोका कि वह आलम को अपने वश में करे! उससे अपनी बात मनवाए। उसे दुकान और घर सँभालने पर मजबूर करे। उसका फालतू में दिन-रात दोस्तों के साथ घूमना बंद कराए। उस दोस्त के घर जाना बंद कराए जिसकी बीबी से उसका सम्बंध है।
पर जब वह उन्हें बताती कि आलम मेरी कोई बात नहीं सुनता, तो वे उसे बहुत बुरा-भला कहतीं। कहतीं कि बीबी को अपने शौहर को काबू में करना आना चाहिए।
इन दो चार महीनों में उसे आलम की कुछ बातें समझ आ गईं। जैसे कि आलम पर लाखों का कर्ज है। जिस दुकान को वो अपनी दुकान कहता था वो किराए की है। और मालिक से दुकान खाली न करने पर कोर्ट केस चल रहा है।
पता यह भी चला कि- उसका किसी काम में मन नहीं लगता, उस पर तो बस आसान तरीके से पैसे कमाने का भूत सवार है। लाटरी, जुआ, कोई ऐसा काम जिससे रातों-रात अमीर बन सके, वो सदैव ऐसे काम की जुगाड़ में रहता है। कामचोर है, मेहनत नहीं करना चाहता। घर के बाहर वो बहुत अच्छा बन कर रहता, घर में क्रूर हो जाता है। उसे मानसिक बीमारी है कि वो खुद को बीमार समझता है और एक होम्योपैथिक डॉक्टर से दवा लेकर दिन भर खाता रहता है।
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