केजीफ़ - 2 फ़िल्म समीक्षा Jitin Tyagi द्वारा फिल्म समीक्षा में हिंदी पीडीएफ

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केजीफ़ - 2 फ़िल्म समीक्षा

अमिताभ बच्चन की 1970-80 के दशक की एंग्री यंग मैन की फिल्मों को अगर 2022 की तकनीकी के साथ बनाया जाये तो kgf 2 और उन फिल्मों में ज्यादा अंतर नहीं होगा।


कहने को kgf 2 एक मास फ़िल्म हैं। और आजकल बड़ा अजीब चलन हैं। जब डाइरेक्टर को फ़िल्म बनानी हो और उसके पास कहानी ना हो तो वो अपने शरीर को काम देने के लिए मास फ़िल्म बना डालता हैं। बस इसी का परिणाम हैं। kgf 2

कहानी के नाम पर फ़िल्म के अंदर दुनिया भर के तर्क दिए जायेंगे पर कहानी सिंगल लाइन हैं। कि रॉकी kgf पर कैसे राज करता हैं। और इस लाइन को विस्तार देने के लिए बाकी चरित्रों के माध्यम से फ़िल्म को खींचा गया हैं। ऐसी फिल्मों में जिनमें हीरो ही विलेन हो, उसमें उसे लास्ट में मरता हुआ दिखलाया जाना जरूरी होता हैं। ताकि दर्शकगण को यकीन रहें कि ये एक फ़िल्म हैं। और सच में अभी सब कुछ सही गुंडा राज नहीं आया।


इस फ़िल्म में सबसे बड़ी कमी प्रोडक्शन हाउस की दूरदर्शिता हैं। उन्हें मालूम होना चाहिए था कि kgf 2 आराम से 700-800 करोड़ रुपए कमा लेगी तब भी उन्होंने इसका बजट मात्र 100 करोड़ रुपए रखा। अब ये तो kgf2 के दर्शकों के साथ कोरा धोखा हैं। क्योंकि इस पैसे की कमी की वजह से ही एक्शन बकवास लगता हैं। वैसे एक्शन के नाम पर गोली चलना और मार पिटाई के नाम पर कुछ हैं। अब डायरेक्टर जानता था कि ऐसे तो ये साधारण सा लगेगा तो क्यों ना बेमतलब का टायरों को जलता हुआ और धुंआ उड़ता हुआ दिखलाऊँ ताकि दर्शकों को लगे एक्शन डायरेक्टर का अपना अंदाज़ हैं। फाइट सीन दिखलाने का, एक खास एक्शन हैं। कार चेजिंग का इसे भद्दा मजाक पूरी फिल्म में और कहीं नहीं हैं। एक बार को लगेगा पर्दे में तकनीकी समस्या हैं। लेकिन फिर पता लगेगा एक्शन डायरेक्टर के दिमाग में समस्या हैं। हालांकि इस सीन से बॉलीवुड को ब्रम्हास्त्र हाथ लग गया हैं। और अब उन फिल्मों में भी जिसमें जरूरत नहीं हैं। ऐसे फालतू कार चेजिंग सीन देखने को मिलेंगे।

एक और बकवास चीज़ हैं। फ़िल्म का कान फोड़ने वाला BGM, नार्मल सीन में भी बेवजह बज रहा हैं। कई बार तो लगता हैं। बाहर जाकर थोड़ा रिलैक्स किया जाए।


कई लोग कह रहे हैं। कि फ़िल्म में थ्रिल बहुत हैं। अब अगर एक सीन में 10-10 सेकंड के पचास सीन जोड़ना थ्रिल हैं। तो जेम्स बांड फ़िल्म बनाने वाले डायरेक्टर्स को आज ही आत्म हत्या कर लेनी चाहिए। ऊपर से पचास सीन भी ऐसे नहीं हैं कि एक ही जगह के हो पचास सीन पचास जगह के, दर्शक को लगता हैं। कि हर सीन में कुछ होगा लेकिन दर्शक के अंत में हाथ क्या लगता हैं। कान फोड़ू BGM, 100-150 चलती हुई गोली, एक दो हत्याएं,


डायलॉग के नाम पर उर्दू सुनने को मिलेगी, बिना तर्क की बातें और कहीं-कहीं तो सीन चलता रहेगा और तुम सोचोगे ये आवाज़ कहा से आ रही हैं। और क्यों आ रही हैं। और पिछली फिल्म में जो एक गुस्सेल पत्रकार थी जो अपने काम के अलावा फालतू बातें तक नहीं सुनती थी वो इस फ़िल्म में तड़प रही है। कि कैसे भी करके बस उसे पूरी कहानी बता दो हालांकि अब उसे अपने काम की कोई चिंता नहीं हैं। ऐसा लगेगा कि अगर उसे पूरी कहानी नहीं बताई गई तो वो अपने हाथ की नश काट लेगी।


इस फ़िल्म में सारी फीमेल आर्टिस्ट तीन किरदारों में हैं।

पहला; माँ के किरदार में

दूसरा; गुलाम के किरदार में

तीसरा; टाइम पास के किरदार में

पहला और दूसरे किरदारों की नायक इज़्ज़त करता है। और तीसरे की बेज्जती, ऐसा क्यों करता हैं। ये केवल डायरेक्टर जानता हैं। और अफसोस कि बात ये हैं। कि वो इस बात को और किसी को बतायेगा नही और दर्शकों को इस दुख के साथ उम्र भर जीना पड़ेगा। पर क्या करें मास फ़िल्म हैं। ना,


अब सवाल ये उठता हैं। कि फ़िल्म किस लिए देखी जाए तो वो बात है। यश के लिए, अगर यश को देखना हैं। तो फ़िल्म देखो वरना इस गर्मी में उन पैसों का जिसमे टिकट खरीदते उनकी कोल्ड्रिंक पियो आराम से अपने घर के AC में बैठकर।