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एक प्रेमपत्र का खतरनाक हश्र

खतरनाक वाला प्रेम पत्र

(एक संस्मरण कुछ काल्पनिकता के साथ)

"लेकिन भईया! आप खुद क्यो नही दे देते?"
बारह वर्षीय टुनटुन गन्ने की चेप मुह से निकाल कर फेकते हुए, बहती नाक सुड़क कर बोला था।
वो मेरा एक मात्र दोस्त था, हालांकि हमारी उम्र में काफी अंतर था। मैं 9वी का छात्र था और वो 5वी का, पर पता नही क्यों मुझे हमउम्र लड़को से चिढ़ होती थी,
जिस वज़ह से मैं उन्हें दोस्त बनाना पसन्द नही करता था।

टुनटुन छोटा था पर मेरा बहुत अच्छा दोस्त था। मैं जब भी कहीं घूमने जाता था तो उसको भी साथ जरूर ले जाता था। हम हर तरह की बातें करते थे खासकर बच्चो वाली, कोई परीकथा या भूत या ऐसे ही कुछ भी बिना मतलब के भी ....

आज हम दोनों मेरे खेत के ट्यूबवेल के हौदे पर बैठकर पैर हिलाते हुए गन्ना चूस रहे थे।

जनवरी का महीना था और दोपहर का समय, गुनगुनी धूप फैली हुई थी और चारो तरफ गेहू की बित्ते भर से भी दो चार अंगुल बड़े हरे हरे पौधे, जो की पहली सिचाई पा चुके थे, गजब की छटा बिखेर रहे थे।

दूर खेतो में कुछ लड़कियां और औरते बथुआ खोट रही थी।(पत्ती तोड़ना) ।
ये दृश्य बड़ा ही मनमोहक हुआ करता था।

"नही यार! मुझे देना होता तो दे न देता तुझसे क्यो कहता? डर भी लगता है यार, बस ये काम कर दे भाई प्लीज।" मैंने उसको मनाने वाले अंदाज में कहा।

"लेकिन अगर वो न मिलीं तो ? उनकी मम्मी को या भइया को दे दूंगा ?"
उसने बड़ी ही मासूमियत से पूछा

""भक्क!! मरवाएगा क्या बे ?
पगलाया तो नही है?"

"क्यू क्या हुआ भइया?"

"कुछ नही रहने दे तू"

"अच्छा मैं उन्ही को दूंगा, और किसी को नहीं"

"हां, और एकबात किसी को पता न लगे, ठीक है न, चल अब चलते हैं घर"
मैंने हउदे से कूदते हुए कहा।

और चलते-चलते वो चिट्ठी उसको काफी हिदायतों के बाद थमा दी।

घर पहुँचते-पहुँचते मुझे बहुत घबराहट होने लगी थी,पैर रखता कहीं और पड़ते कहीं थे। अजीब से भाव उठ गिर रहे थे।

"क्या वो मेरा ये निवेदन स्वीकार करेगी?
क्या उसको मेरी ये हरकत बुरी महसूस नही होगी?
कहीं वो मम्मी से मेरी शिकायत न कर दे।"

मम्मी का नाम दिमाग मे आते ही अजीब सी घबराहट हो चली, मन मे आया कि टुनटुन को मना कर दूं, बहुत डर लग रहा था कि हाय ये मैं क्या गजब कर रहा हूँ सबको पता चलेगा तो क्या सोचेंगे मेरे बारे में, ठंडी के मौसम में भी पसीना चुहचुहा आया था। बहुत अजीब सी हालत हो गयी थी।
अच्छा होगा मना कर देता हूँ।

पर दूसरे ही पल विचार उठा , "अरे भक्क! ये क्या सोच रहा हूँ प्यार करना कोई गुनाह थोड़ी है प्रेम तो भगवान ने भी किया था, कुछ नही होता देख लेंगे जो होगा।"

यही सब सोचते सोचते घर आ गया और टुनटुन भी चला गया, उसके जाते ही फिर से घबराहट होंने लगी, "क्या सोचेगी वो कि मैं ऐसा हूँ।"

घर पहुच कर ऐसा लगा मानो घर की दीवारे, दरवाजे, खिड़कियां भी चीख-चीख कर कह रही हो "तूने अच्छा नही किया, अच्छा नही किया! , अच्छा नही किया , ये गलत है।"

शाम होने को थी।
मैं भी जल्दी जल्दी बेमन से ही घर के कामो को निपटाने लग गया।

गाय बछड़ो को नाद पर बांधा, चारा पानी किया फिर चोकर भुसी का तड़का देकर उन्ही को देखने लगा।
आज कुछ ज्यादा ही चोकर डाल दिया था, ये मेरी प्यारी सफेद रंग की गाय, जो मामा के घर से आई लाल गाय की पहली बछिया थी, मैं उसे बहुत प्यार करता था।
वो दूध सी सफेद थी और बहुत ही चंचल स्वभाव की, मैं उसे प्यार से नन्दा बुलाता था।
उसका एक प्यारा सा बछड़ा भी था जो उसी की तरह दूधिया था, अभी एक महीने का भी न हुआ था। उसका नाम मैने कालू रख छोड़ा था।

कमबख्त दूध पीने के बाद काफी उछल कूद मचाता था। हवा की तेजी से इस तरफ से भागता फिर उस तरफ से अचानक ही सामने आ जाता, पकड़ने जाओ तो भाग निकलता, बहुत तंग करता था पर बड़ा आनंद भी आता था उसके साथ!

आज ये सब भी बड़ी मस्ती में नांद में मुह डाले मजे से चारा खा रहे थे।

मैंने मन ही मन नन्दा से कहा कि "मेरे साथ बचपन से रही हो मेरे हर सुख दुख में, जब भी कोई दुख होता है तो रात में तेरे पास ही आकर रो लेता हूँ, कभी तुझसे कुछ मांगा नही , आज इज्जत बचा लेना बस" इतना कहकर उसकी गलकम्बल सहलाने लगा की तभी उसने अपनी सींगो से मेरा हाथ झटक दिया, मानो कह रही हो , "डोंट डिस्टर्ब मी, खाने दे" और फिर नांद में मुह डाल लिया।

गोबर फेक कर, द्वार बुहार कर फिर दूध दुहने बैठा, हाथ मे कपकपी छूट रही थी।
सही से दूध भी न निकाल सका आज तो कालू की बल्ले-बल्ले हो गयी।

घर मे जब भी कोई मेरी तरफ देखता तो मुझे यही लगता कि अब इसको मेरी बात पता चल गई है अब तो गया काम से।

रात होने लगी थी। अंधेरा घिरना शुरू हो गया था ।
मम्मी रोटी बना रही थी और मैं जीव विज्ञान की किताब ले कर बैठा ग्रेगर मेंडल के आनुवंशिकता के सिद्धान्त को समझने की कोशिश कर रहा था, पर मन तो कहीं और लगा हुआ था।
मैं रह रह कर बस यही सोच रहा था कि अब तक क्या हुआ होगा ?

अब तक तो टुनटुन ने वो पत्र प्रीति को दे ही दिया होगा।
प्रीति और पत्र का ख्याल आते ही पूरे शरीर में सरसरी सी दौड़ गयी, दिल फिर घबड़ाने लगा ।
लग रहा था कि वो मेरी करतूत का भण्डा फोड़ने अब आई कि तब आई।

वो मेरे साथ ही मेरे स्कूल में पढ़ा करती थी।
गोरी चिट्टी गुलाबी गालो वाली। पढाई में भी हमेशा अव्वल रहती थी। क्लास में हर लड़के की कोई न कोई प्रेमिका थी बस मैं ही एक ऐसा था जो सिंगल था। सो सोचा क्यों न प्रीति को ही पटा लूं।
पता नही मुझे उससे प्रेम था भी या नही या ये केवल शारीरिक आकर्षण था।

मैंने इसके पहले 4 बार चिटठी लिखी थी और चारो बार फाड़ दी थी क्योंकि मुझे जंच नही रही थी।
अब ये पांचवा प्रयास था जो श्लोक , चौपाइयों और शायरियों से पटा पड़ा था ,जिसका जिक्र न ही करूँ तो ठीक है।

इतना डर लग रहा था कि सोच सोच कर
कलेजा मुह को आ रहा था।

सत्यम मामा के घर गया हुआ था और चन्दा किसी काम से पड़ोस में , और मैं घर के भीतरी कमरे में डरा सहमा अपनी किताबे खोले खुद को संयत करने में लगा था।
दरवाजे पर जरा भी खटका होते ही मेरे कान खड़े हो जाते, अब मैं परिणाम की चिंता करके बुरी तरह डर रहा था।

अचानक किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी।
अब मैं और भी डर गया और उस कमरे से निकल कर सीढियो से छत की तरफ लपक गया और वही से कान लगा कर सुनने लगा कि कहीं प्रीति ही तो नही आई है।

किसी लड़की की सी आवाज सुनाई दी और फिर मम्मी ने मुझे पुकारा ।
अब तो मेरे हाथ पांव फूलने लगे ।
बहुत बुरी तरह डर चुका था ,एक-एक कदम बढ़ाना मेरे लिए बहुत मुश्किल लग रहा था।
किसी तरह छत से नीचे उतरा और घबराते हुए किचन की तरफ गया तो वहां बगल वाली चाची को खड़े पाकर जान में जान आयी।

पीया चाहे प्रेम रस ,पावा चाहे मान
एक म्यान में दो खड्ग, देखा सुना न कान।

ये दोहा अब मुझे बिल्कुल सही जान पड़ रहा था।
काश की पहले ही इस बारे में सोचा होता तो आज इतना न डर रहा होता।

वह रात किसी तरह गुजर गई, पर अगला दिन मेरे लिए किसी जलजले से कम न था।

सत्यम आ चुका था। टुनटुन का अभी कहीं कोई पता न था। गांव में किसी लड़की की शादी थी तो मैं उन्ही के घर पर था , दरअसल गांव में सभी अभी भी मिलजुल कर रहते हैं और आज भी हलवाई की जगह गांव के लोग ही भोजन पका देते हैं और हम जैसे युवक या बच्चे सारा काम करवा देते हैं, अभी भी।
तो उसी सिलसिले में उस दिन मैं भी गया हुआ था। आटा गूंथकर और सब्जी कटवाकर कुछ देर के लिए घर आया था क्योंकि गाय भी दुहनी थी और चारा पानी की भी व्यवस्था करनी थी।
सूर्य अस्त हो रहा था अभी कुछ वक्त था अंधेरा घिरने में।

मैं घर पहुंचा तो बस वहां का माहौल देखकर दिल धाड़-धाड़ करने लगा। मैं मन ही मन अपने इष्ट देव हनुमान जी को याद करते हुए बरामदे में आया, सब पूरे अनुशासित ढंग से बैठे हुए थे।
सत्यम किताब खोलकर तख्ते पर बड़े ध्यान से पढाई कर रहा था। उसका इस तरह पढाकू बन जाना ही मेरे लिए खतरे की घण्टी हुआ करती थी क्योंकि ये ऐसा तभी करता था जब मम्मी बहुत गुस्से में होती थीं या चन्दा और मेरी शामत आने वाली होती थी।
चूंकि पढाई से इसका नाता दूर-दूर तक न था तो खतरे की बात पक्की थी।

"आ गए बाबू साहब!!" पिघले हुए शीशे की तरह घुसे थे ये शब्द मेरे कानो में, मतलब!! मतलब!! आज खैर नही है मेरी , जरूर प्रीति आई होगी। अभी यही सोच रहा था कि मम्मी ने बड़े ही शांत और ठंडी आवाज में मुझसे कहा "यहाँ आओ , मेरे पास बैठो।"

सारा का सारा खून जमता हुआ महसूस हुआ क्योंकि ये वही शब्द थे जो जम कर कुटाई के पहले सुना करता था।

अब तो हनुमान जी भी नही बचाने वाले थे।
मैं हिला तक नहीं बस कांपती हुई सी आवाज में इतना ही पूछा कि "मैंने क्या किया है"?

" ये क्या है?" मेरी बड़ी वाली नोट बुक का पन्ना लहराते हुए मम्मी ने बड़े ही सर्द लहजे में पूछा।

काटो तो खून नही, बेहोशी सी छाने लगी थी उस वक़्त, मन कर रहा था अभी का अभी धरती फ़टे और मैं इसी में समा जाऊ।
ये वही पन्ना था जिसपर मैने अपनी प्रियतमा के लिए दिल खोलकर प्रेम के कसीदे लिखे थे पर वो अब मम्मी के हाथ था।

"म..मुझे नही मालूम"
"अच्छा , मैं पढ़कर सुनाती हूँ तब कहना कि मुझे नही मालूम" ये बेरहमी भरे, सुनते ही कानो को जलाकर खाक कर देने वाले शब्द थे मेरी प्यारी बहन चन्दा के .....
जो कि आज भी घर में मेरी सबसे बड़ी दुश्मन का रोल अदा करती है।

सत्यम बड़े ही ध्यान से सिर नीचा किये बड़े मन से पढ़ रहा था जैसे कुछ हुआ ही न हो।

और फिर चन्दा ने एक एक कर मेरे सारे दोहे चौपाइयां ,शायरियां खूब चटखारे लगा-लगा कर सुनाने शुरू किए ,सत्यम ने मुहँ ढाप लिया था और मैं असहाय सा जमीन की तरफ देख रहा था।

मम्मी उठकर चली गयीं, उन्होंने कुछ न बोला और उस दिन खाना भी न खाया, उनके पास जाने की हिम्मत न थी।
दस दिन तो उन्होंने बात तक न की।
बुलाता था तो दूसरी तरफ देखने लगती थी। मारती तो शायद इतना दुख न होता, मैं बहुत पछता रहा था, फिर ग्यारहवे दिन मैंने मम्मी को मना लिया और फिर कभी ऐसी हरकत न करने का वादा भी किया।

दरअसल जिस दिन टुनटुन मेरी चिट्ठी प्रीति को देने गया था तो चन्दा भी वहीं थी, तो उसको लगा की ऐसा क्या है जो मैंने प्रीति को देने के लिए कहा, शायद मुझे देने को कहा हो और ये भूलकर प्रीति को दे रहा है, बस चन्दा ने ही ले लिया था और तबसे दस पन्द्रह दिन तक उन महाशय का पता न चला ।

-----सूरज शुक्ल


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