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अँगड़ाईयॉं - 1

उपन्‍यास भाग—१

अँगड़ाईयॉं– १

आर. एन. सुनगरया,

कामेश्‍वर ने दरवाजा खटखटाया, ‘’ठक्‍क....ठक्‍क....!’’

............द्वार खुलते ही अवाक्‍य रह गया,…….ओंठ खुले के खुले रह गये। सामने हंसीन हुस्‍न की हूर, मुस्‍कुराती कलियॉं बिखेर रही है। सूरत पर रौनक झिलमिला रही है, ऑंखों में खुमार उमड़ रहा है, खुली बिखरी जुल्‍फों में काली घटाऍं घुमड़ रही हैं। महीन दिलकश सुरूरी आवाज ओंठों की कमान से निकली, पलक झपकते दिल में जा धंसी......ऊ ! आह फूट पड़ी, ‘’जी.....!’’

‘’दल्‍ली है !’’ कामेश्‍वर की चेतना लौटी।

‘’.....कामेश्‍वर सर.......।‘’

‘’हॉं ! तुम.....?’’

‘’रति !’’ उसने अत्‍यन्‍त आत्मियता पूर्वक मृदु वाणी में बताया, ‘’दल्‍ली ने वैट करने का कहा है।‘’ रति ने अन्‍दर आने हेतु इशारा किया।

रति अपनी लचकदार देह लहराते हुये अन्‍दर मुड़ गई, ‘’बैठिए !’’ रति ने कनखियों से कामेश्‍वर को देखा, ‘’दल्‍ली आ जायेगा।‘’

कामेश्‍वर बैठा तब तक रति परदे के पीछे पहुँच गई। पर्दा बहुत झीना था, रति की गतिविधियॉं, परछाईयॉं जैसी आकृतियॉं मूवमेंट करती नजर आ रही हैं, अच्‍छी लग रही हैं। हाथ पैर के शेड हिलते-डुलते आकर्षित कर रहे हैं। कामेश्‍वर गौर करके, नजरें जमाये ध्‍यान पूर्वक समझने की चेष्‍टा करने लगा। महसूस किया कि वह भरपूर युवा युवती, अपने अंग वस्‍त्रों को एक-एक करके उतार-उतार कर जमीन पर पटकती जा रही है। उनके बदले सम्‍भवत: दूसरे धुले स्‍वच्‍छ वस्‍त्र करीने से पहन रही है, परछाईयों की पल-पल बदलती गतिशीलता द्वारा कामेश्‍वर उभरते दृश्‍यों का अनुमान लगाने में एकाग्र हो गया। सारी क्रियाऍं दिल-दिमाग पर स्‍पष्‍ट अंकित होने लगीं, साड़ी वगैरह पहनकर रति अपने घने लम्‍बे बालों में कंग्‍घी फंसाकर सर से कमर के नीचे तक लेजाकर बारम्‍बार यही क्रिया दोहराती रही कुछ क्षण........। जुल्‍फें रेश्‍मी, सुलझी हुयीं हैं।.......शायद आगे की ओर झुकी हुई है, दर्पण में देखकर, बिन्‍दी, काजल लिपिस्टिक वगैरह सजा रही है। तत्‍पश्‍च्‍चात तेज सुगन्धित परफ्यूम स्‍प्रे कर रही है, तन-बदन के चारों ओर कामेश्‍वर को भी खुशबू का प्रभाव महसूस हो रहा है। ऑंखें मीचे महक सॉंसों में समाहित कर रहा है, कि रति सम्‍मुख आ धमकी हल्‍के हिचकोले लेती हुई, जैसे मुलायम गद्दे पर खड़ी ऊपर-नीचे लम्‍बी सॉंस की तरह कम्‍पन्‍न कर रही हो। नजाकत भरे लहजे में आमन्त्रित किया, ‘’दल्‍ली को समय लगेगा, तब तक ...........चाय-कॉफी.....नास्‍ता.....ड्रिंक.....।‘’

‘’हॉं हॉं।‘’ मदहोशी में मोहित कामेश्‍वर, रति के साथ हो लिया। मंत्रमुग्‍द कामेश्‍वर कमरे में चला गया, वहॉं बेड पर रति ने, उसकी बाहँ पकड़ कर बैठा दिया। स्‍वयं अटेच्‍च बाथ में घुस गई। कामेश्‍वर से कुछ बोलते-पूछते, जानते, समझते नहीं बन पड़ रहा था। अव्‍यक्‍त सी मनोदशा हो गई थी, यंत्रवत दिल-दिमाग शून्‍य हो गया था। रूम की आबहवा ने शरीर के रग-रग में शहद सी उत्तेजना भड़क, फड़क दौड़ रही थी। रूम से रति की अनुपस्थिति अखर रही थी। आतुरता, कब आये, कब मेरा आगोश, पहलू, तन-बदन गुलजार करे ! चंद क्षणों में उसकी प्रतीक्षा पूरी हुई, रति आते ही कामेश्‍वर की गोद में समाकर लिपट गई। दोनों एक दूसरे से झूम गये, झपट पड़े, जैसे शेर अपने शिकार पर झपट्टा मारकर अपने पंजों में जकड़कर, कब्‍जे में कर लेता है। चबा-चबा कर स्‍वाद ले लेकर मजे लेता रहता है...........छक्‍क......कर.........

.........जलवायु, पर्यावरण, वातावरण, कुदरत, समाज और सामाजिक आबहवा का निरन्‍तर समय के साथ-साथ परिवर्तनशीलता स्‍थाई विशेषताओं में से एक प्रमुख गुण है। इसके गुण धर्म के अनुसार, समग्र परिवेश में स्‍वत: ही बदलाव अवश्‍यभावी है।

दबे पॉंव मौन आहट रहित, आहिस्‍ता–आहिस्‍ता, रफ्ता-रफ्ता, शनै: - शनै: श्रृंखलाबद्ध, एक अन्‍दरूनी प्रक्रिया के तहत, अपनी तासीर का असर अदृश्‍य कर्णों के रूप में प्राणवायु में घुलमिल कर प्रत्‍येक शख्‍स की सॉंसों में समाहित हो जाते हैं। दिल-दिमाग, चाहत, पसन्‍द, लोभ, मोह, जिज्ञासा, कुतुहल, आत्‍मा अनुराग, मनोविज्ञान के अनुसार समाज में व्‍याप्‍त परिवर्तनों का ओर ऐन-केन-प्रकेण झुकाव हो ही जाता है। पारीवारिक लुभावनाओं का दबाव भी बढ़ने लगता है, नव, नई, नवीन सुविधाओं की सम्‍भावनाओं से सजी-धजी प्रत्‍येक्ष यंत्र-तंत्रों की आकर्षक चमचमाती दुनियॉं, इतनी प्रबल हो जाती है कि अपने-आपको रोक पाना नियंत्रण कर पाना अत्‍यन्‍त कठिन हो जाता है। नई-नवेली जीवन पद्धिति विकसित होने लगती है। स्‍वाभाविक, स्‍वचलित रूप से इसके परिणाम यह होते हैं कि जाने-अनजाने आमदानी सुकड़ने लगती है। यह अनापेक्षित समस्‍या के रूप में विकराल शक्‍ल धारण कर लेती है। परिणाम स्‍वरूप आमदानी, कमाई प्रोफिट, अर्निंग बढ़ाने के प्रयास करने पड़ते हैं, जिसके लिये अतिरिक्‍त बल, एनर्जी प्रयोग करनी होती है। निश्चित सकारात्‍मक परिणाम हासिल करने के एवज में ऊबड़-खाबड़ रास्‍तों, तरीकों को भी अपनाने में गुरेज नहीं करते.....। जाने-अनजाने में अमर्यादित मार्ग भी स्‍वीकार करने पड़ सकते हैं।

दहलीज पर कदम पड़ते ही कामेश्‍वर की पत्‍नी ने बम का गोला दाग दिया, ‘’मुँह उठाये, चले आये, घर है, या धर्मशाला !’’ लाल-पीली ऑंखें दिखाते हुये डॉंटने लगी, ‘’बता नहीं सकते, कहॉं भाड़ झोंक रहे थे !’’

भीगी बिल्‍ली बना कामेश्‍वर, मुँह पर ताला लगाकर चला गया, बाथरूम की ओर। गधे को कितने ही करीने से शेर की खाल पहनाओ, मगर, जब मुँह खोलेगा, तब ढेंच्‍चू......ढेंच्‍चू की ही आवाज निकलेगी। कागा कभी कोयल की कूहूंक नहीं निकाल सकता। कुत्ते की पूँछ कितने समय पुन्‍गी में रखो, जब निकालेंगे टेड़ी ही निकलेगी। पत्‍नी के नाम पर जी का जंजाल है, आफत है, कंटीली झाड़ी-झंखाड़ ! ऐसी दुर्लभ, यूनिक पत्‍नी के साथ दाम्‍पति, वैवाहिक जीवन बर्वाद, तीन-तैरहा ही है। नरक के समान जिन्‍दगी काटना।

यहॉं तो एक पल का सुख-चैन-शुकून नहीं मिल सकता.........माथा पीटते रहो....अनेक तिकड़म आजमा चुके हैं पीछा छुड़ाने के, सारे हथकन्‍डे असफल साबित हुये हैं। समस्‍या ज्‍यों-के-त्‍यों, गले में लटकी घण्‍टी, अनचाहे बजाते रहो, उम्रभर ट्रन-ट्रन.....ट्रन........टना-टन.......।

कामेश्‍वर का धन्‍धा-रोजगार बिखरे हुये क्षेत्र में है, समय की कोई बन्दिश, सीमा नहीं है, कब कितना वक्‍त लग सकता है, पत्‍नी को हरदम कौन बता सकता है। कब काम खत्‍म होगा, कहॉं कार्य चल रहा है। आये दिन साइट बदलती रहती है, मगर कमाई अपेक्षा से कहीं अधिक हो जाती है, परिश्रम, अनुभव की महिमा, देने वाला दाता........!

घर परिवार में कामेश्‍वर की नित्‍य प्रति दिन की चाहतें आवश्‍यकताऍं, सुख, शॉंति, शुकून, सम्‍मान, स्‍वागत, सत्‍कार इत्‍यादि-इत्‍यादि कुछ भी राहत भर भी मिलने की कोई उम्‍मीद नहीं है। इसी कारण मजबूरन नैसर्गिक आवश्‍यकताओं की पूर्ती के लिये, यहॉं-वहॉं मुँह मारना पड़ता है; शारीरिक समस्‍याओं के समाधान गैरों में भाड़े पर तलाशने पड़ते हैं।

भोंकती रहने दो, पत्‍नी को उसके संस्‍कार, व्‍यवहार, प्रवृति के अनुसार ही तो रहेगी, खानदानी असर छोड़ नहीं सकती, गंद्दे नाले का कीड़ा, स्‍वच्‍छ पानी में कभी नहीं रह सकता !

खूंखार इतनी कि अपना पुरूष, पति पाने का कुदरती हक जोर-जबरजस्‍ती द्वारा छीन लेगी। शारीरिक जरूरतों को पूरा करने के लिये पति को हाड़मांस का पुतला समझकर दबोच लेगी, टूट पड़ेगी भुक्‍कड़ राक्षसनी की भॉंति, इसके अलावा अन्‍य कोई डिमांड पर जोर नहीं......।

कामेश्‍वर का दैहिक शौषण करने के बाद उसकी पत्‍नी कजरिया काफी कुछ शॉंत, संतुष्‍ट, संतृप्‍त प्रतीत होती है। तेज तर्रार पत्‍नी जैसे अंदाज में पति की आव भगत, सेवा श्रुषा में संलग्‍न हो जाती है, ‘’तुम मुझे गुस्‍सा दिला देते हो !’’ कजरिया पानी का भरा ग्‍लास हाथ में थामे कामेश्‍वर को समझाने लगी, ‘’सब कुछ मालूम होना चाहिए ना, कहॉं हो, कब आओगे, खाने में
क्‍या बनाऊँ।‘’

‘’हॉं ये बुरी आदत तो है।‘’ कामेश्‍वर ने उसकी हॉं में हॉं मिलाई, मुण्‍डी भी हिलाई।

कजरिया उस पर लाड़, प्‍यार प्रेम मौहब्‍बत दर्शाने, लुटाने लगी, विचित्र अथवा यूनिक नेचर की औरत है।

‘’क्रोध-कराध में कुछ ज्‍यादा उल्‍टा–सुलटा-पुलटा तो नहीं बक्‍क गई।‘’

‘’नहीं तू तो संस्‍कृत के श्‍लोक बॉंच रही थी चिल्‍ला-चीखकर।‘’ कामेश्‍वर ने बहुत ही सहन करके बड़ी चतुराई से सारे चरित्रहीन कारनामें, कार्य गुजारियॉं, कार्यकलाप रसातल में दवा दिये !

कजरिया स्‍वयं ही अपनी विशिष्‍ठ कार्य शैली के जरिये अपने आपको संतृप्‍त कर लेती है। कामेश्‍वर को केवल इतना करना है कि उसके साथ वगैर प्रतिरोध के संलग्‍न रहना है, शेष सब सम्‍पन्‍न समझो........।

कजरिया को अगले पढ़ाव तक कामेश्‍वर की तनिक भी याद नहीं आयेगी, कोई चिन्‍ता नहीं रहेगी कि कामेश्‍वर है कहॉं, कब आयेगा, क्‍या खायेगा.......कुछ भी ख्‍याल नहीं आयेगा। कजरिया की इसी आदत को कामेश्‍वर उसकी सबसे बड़ी, एक मात्र विशेषता मानता है।

न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍

--क्रमश:----२

संक्षिप्‍त परिचय

1-नाम:- रामनारयण सुनगरया

2- जन्‍म:– 01/ 08/ 1956.

3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्‍नातक

4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से

साहित्‍यालंकार की उपाधि।

2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्‍बाला छावनी से

5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्‍यादि समय- समय

पर प्रकाशित एवं चर्चित।

2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल

सम्‍पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्‍तर पर सराहना मिली

6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्‍न विषयक कृति ।

7- सम्‍प्रति--- स्‍वनिवृत्त्‍िा के पश्‍चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं स्‍वतंत्र

लेखन।

8- सम्‍पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)

मो./ व्‍हाट्सएप्‍प नं.- 91318-94197

न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍

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