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हिंदी साहित्य में प्रकृति चित्रण

प्रकृति सदा से ही मानव की चिरंसंगिनी रही है । सृष्टि के प्रारंभ मैं सर्वप्रथम मानव ने प्रकृति की गोद में ही अपनी आंखें खोली प्रातः कालीन उषा की लालिमा, स्वच्छंद आकाश में विचरण करते हुए पक्षी, संध्या काल में अस्ताचल पर बिखरी हुई लालिमा ,पेड़ों पर समूह में बैठी हुई चिड़ियों की चहचहाहट, रात्रि के समय नभ मंडल पर टिमटिमाते तारे, आकाश में छाई हुई काली घटाएं, उन्हें देखकर मस्त होकर नृत्य करता हुआ मयूर , सप्तरंगी इंद्रधनुष ,न जाने कितने ही प्राकृतिक सौंदर्य सदा से ही मानव आकर्षण का केंद्र रहे हैं। आज भी जीवन का मधुर संगीत सुनाते झरने एवं कल कल की ध्वनि से गुंजित सरिता की उन्माद नी रंगों को देखकर मानव को अपने संघर्षमय जीवन में कुछ क्षणों के लिए विश्राम मिला आगे बढ़ने की प्रेरणा, और नवी शक्ति प्राप्त हुई। अपने दैनिक जीवन के कृत्यों से जब जब उसका मन ऊंवा तब तब उसने प्रकृति का ही आश्रय लिया। उसने अनुभव किया कि प्रकृति उसके दुख में दुखी और सुख में सुखी है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने पंचवटी में इसी भाव की अभिव्यक्ति करते हुए लिखा है

सरल तरल जिन तुहिन कणो से
हंसती हर्षित होती है
अति आत्मीय प्रकृति हमारे
साथ उन्हीं से रोती है
अनजाने भूलों पर भी वह
अदय दंड तो देती है
पर बूढ़ों को भी बच्चों सा
सदय भाव से सेती है


वैसे तो संपूर्ण मानव हृदय पर ही इस प्राकृतिक सुषमा का चिर स्थाई प्रभाव पड़ता है और उसका मन मयूर नाच उठता है परंतु सहृदय एवं भावुक होने के कारण कवि की वाणी प्रकृति के अनुपम सौंदर्य को अपनी तूलिका के माध्यम से सरस शब्दावली में पिरो कर उसे चिरस्थाई बना देती है। वैसे तो कविता जीवन की आलोचना है, व्याख्या है, मानवीय सुख-दुख उसके विषय हैं परंतु प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित कर अपने मन के भावों को अभिव्यक्त करने में कवि को विशेष आनंद की प्राप्ति होती है। यही कारण है कि विश्व के अन्य साहित्य की भांति हिंदी साहित्य में भी विस्थापित जायसी, सूर, तुलसी, देव, घनानंद बिहारी, भारतेंदु , हरिओध, प्रसाद पंत , निराला आदि अनेकों सहृदय कवियों ने प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित कर प्रकृति के रस माधुय से अपने काव्य को सरस वनाया है


हिंदी साहित्य में प्रकृति को विभिन्न रूपों में चित्रित किया गया है। प्रकृति को कहीं आलंबन रूप में तो कभी उद्दीपन रूप में और कभी नायक नायिकाओं के रूप सौंदर्य का चित्रण करते समय प्रकृति को उपमान रूप में चित्रित किया गया है । कहीं-कहीं प्रतीकात्मक तथा उपदेश आत्मक रूप भी दिखाई पड़ता है अधिक भावुकता के क्षणों में कभी प्रकृति को मानवीय रूप प्रदान कर आनंद विहार हो उठता है ।

वीरगाथा काल में प्रकृति का अलंकार विधान के रूप में पृथ्वीराज रासो से एक उदाहरण दृष्टव्य है

श्वेत वस्त्र सोहे शरीर नव स्वाति बूंद जस
भ्रमर भवहि भूललहि स्वभाव मकरंद वास रस।


इसी काल में प्रकृति के उद्दीपन रूप के दर्शन विद्यापति के काव्य में होते हैं। प्रकृति के कोमल एवं आकर्षक उपमानो का चयन ही विद्यापति के काव्य की अपनी विशेषता है।

भक्ति काल में सूरदास जी के काव्य मैं राधा कृष्ण विषयक श्रगारिक उद्दीपन और अलंकार के रूप में प्रकृति का वर्णन मिलता है वह निश्चय ही अद्वितीय है। उद्दीपन के रूप में प्रकृति वर्णन का या उदाहरण सूर साहित्य की अनुपम भेंट है

बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजै
तब यह लता लगत अति शीतल
अब भई विषम ज्वाल की पुजै ।

तुलसीदास जी ने उद्दीपन तथा अलंकार के अतिरिक्त प्रकृति के आलंबन प्रतीक तथा उपदेश रूप का भी पर्याप्त प्रयोग किया है चातक और मेघ तुलसी के बड़े सुंदर प्रतीक बन पड़े हैं

एक राम घनश्याम हित चातक तुलसीदास


तुलसीदास जी ने अनेक स्थलों पर उपदेश रूप में प्रकृति का सुंदर प्रयोग किया है

उदित अगस्त पंथ जल सोखा
जिमि लोभहि सोषहि संतोषा
सरिता जल निर्मल जल सोहा
संत हृदय जस् गत मद मोहा


भारतेंदु युग तक आते-आते भक्ति व देश भक्ति गीत पुनरावृति के कारण प्रकृति के प्रति आकर्षण बना दृष्टिगोचर होने लगा था परंतु प्रकृति के उद्दीपन रूप का ही चित्रांकन अधिक किया गया। भारतेंदु जी के पश्चात पंडित श्रीधर पाठक आदि कवियों ने प्रकृति की द्रवण शीलता का अनुभव किया और उद्दीपन रूप में सात्विक भावनाओं का समावेश कर प्रकृति को सुंदर नारी और जन्म दात्री मां के रूप में अंकित किया। आचार्य द्विवेदी एवं आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने नायिका भेद के स्थान पर सुमन प्रभात काल संध्याकाल हेमंत आदि के माध्यम से प्रकृति के सौम्य एवं
उग्र कोमल तथा कर कर दोनों ही रूपों का वर्णन किया है । हरि ओध जी का संध्या वर्णन दृष्टव्य है

दिवस का अवसान समीप था
गगन कुछ लोहित हो चला
तरु शिखा पर थी अवराजती
कमलिनी कुल वल्लभ की प्रभा।

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने प्रकृति को देश प्रेम की पृष्ठभूमि तथा देश के अंग के रूप में महत्व प्रदान किया परंतु प्रकृति का आलंबन रूप में भी चित्रण अत्यंत मनोहारी है


चारु चंद्र की चंचल किरणें
खेल रही हैं जल थल में
स्वच्छ चांदनी बिछी हुई है
अवनि और अंबर तल में।


छायावाद तक आते-आते प्रकृति में चैतन्य का आरोपण एवं मानवीकरण की प्रतिष्ठा हो गई । प्रसाद जी की प्रकृति संबंधी सौंदर्य उपासना कुछ निराली ही है कामायनी का एक उदाहरण दृष्टव्य है

नील परिधान बीच सुकुमार
खिल रहा मृदुल अध खुला अंग
खिला हो ज्यो बिजली का फूल
मेघ वन बीच गुलाबी रंग।

प्रसाद जी प्रकृति को कभी परमात्मा के सौंदर्य की झलक मानते हैं तो कभी उस लीला में की क्रीडा । प्रकृति में मानवीय करण का आरोप भी दर्शनीय है


अंबर पनघट में डुबो रही
तारा घट उषा नागरी।

प्रसाद जी की कामायनी तो प्रकृति चित्रण की एक अनूठी चित्रशाला ही है। निराला जी की ओजस्विनी वाणी ने प्रकृति में शक्ति का संचार किया है

तुम तुंग हिमालय श्रृंग
और मैं चंचल गति सुर सरिता

वे प्रकृति निरूपण के समय कभी दार्शनिक बन जाते हैं तो कभी भावुक भक्त

डोलती नाव प्रखर है धार
संभालो जीवन खेवनहार

भक्ति काल में ही निर्गुण पंथ की ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख कवि कबीर दास जी ने प्रकृति के रहस्य रूप का भी उल्लेख किया है

1 सरिता उमड़ सिंधु को सोखे
नहीं कुछ जात बखानी हो।

2 गगन गरज बरसे अभी बादल गहर गंभीर
चहूं दिसि दमकै दामिनी भीजै दास कबीर।

इसी प्रकार कबीर दास जी का प्रकृति के प्रतीक रूप का उदाहरण भी दृष्टव्य है

1 काहे री नलिनी तू कुम्हलानी
2 नैया विच नदियां डूबी जाए
तेरे ही नाल सरोवर पानी

निर्गुण पंथ की प्रेमाश्रय शाखा के कवि जायसी ने भी प्रकृति का प्रयोग उद्दीपन रूप तथा रहस्य भावना की अभिव्यक्ति के रूप में किया है। सूफी मत में प्रकृति को परम ब्रह्म परमेश्वर के रूप में ही माना गया है इसीलिए प्रकृति का कण-कण अपने प्रियतम ब्रह्म से मिलने के लिए लालायित रहता है। संपूर्ण प्रकृति उसी की ज्योति से दीप्त है

रवि शशि नखत दिपहि ओही ज्योति
सकल पदारथ मानिक मोती
जह-जह विहसि सुभावहु हंसी
तह तह छिंटकि ज्योति परगसी
नयन सो देखा नयन भा निर्मल नीर शरीर
हंसत सो देखा हंस भा दशन ज्योति नग हीर

रीतिकाल में अपने आश्रय दाताओं को अपने वाक् चातुर्य से प्रसन्न करने में है अपने कर्तव्य की इतिश्री समझने वाले कवि गण प्रकृति से अति निकट का संपर्क स्थापित न कर सके। रीतिकाल के अधिकांश कवियों ने यत्र तत्र उद्दीपन रूप में ही प्रकृति का वर्णन किया है। हां कवि सेनापति ने अवश्य ही प्रकृति के प्रति मौलिक प्रेम प्रकट किया है और आलंबन रूप में उसका वर्णन किया है

वृष को तरनि तेज सहस्रो किरण करि
ज्वलन के जाल विकराल बरखत हैं
तचति धरनि जग जरति झरनि
सीरी छाव को पकरि कौनो पंथी बिरमत है

और अंत में तो पवन को मानवीय रूप प्रदान करते हुए कवि कहते हैं

मेरी जान पोर्नो सीरी ठाव को पकरि कोनो
घरी एक बैठी कहू घ मै वित्तवत है

इतना होने पर भी वस्तुतः प्रकृति निरूपण की दृष्टि से आधुनिक काल तक आते-आते पुनः एक बार प्रकृति चित्रण में निखार आ गया निराला जी की जागो फिर एक बार एवं जागरण जैसी कविताएं उनके दार्शनिक सिद्धांतों से पूर्ण है। परिमल में संग्रहित "तुम और मैं" कविता का एक उदाहरण दृष्टव्य है

तुम नभ हो मैं नीलिमा
तुम शरद काल के बाल इंदु
मैं हूं निशीथ मधुरिमा।

निराला की "संध्या सुंदरी" "जूही की कली" "शेफालिका" आदि कविताओं में मानवीय व्यापारो से परिपूर्ण प्रकृति के दर्शन होते हैं

निर्जन वन बल्लरी पर सोती थी
सुहाग भरी स्नेह स्वप्न मग्न
अमल कोमल तनु तरुणी जूही की कली


प्रकृति के सुकुमार कोमल तम भावनाओं के कवि पंत प्रकृति के अनन्य उपासक हैं। प्रकृति के उपकरणों में किसी अदृश्य सत्ता के प्रबल आकर्षण का अनुभव करने वाले पंत जी को मौन निमंत्रण का आभास होता है

ना जाने नक्षत्रों से कौन
निमंत्रण देता मुझको मोन

मानव और प्रकृति का तादात्म्य पंत जी के काव्य की अपनी विशेषता है। मधुप कुमारियो के मधुर गान से मुग्ध हो वे प्रार्थना कर उठते हैं

सिखा दो ना है मधुप कुमारि?
मुझे भी मीठे मीठे गान
करा दो ना कुसुम कटोरो से
मुझे भी कुछ कुछ रसपान

इसी प्रकार प्रातः कालीन उषा की लालिमा कवि के हृदय में उल्लास भर देती है। भोर के समय चिड़ियों के स्वर्गिक गान को सुनकर कवि प्रश्न कर उठता है

प्रथम रश्मि का आना रंगिणी
तूने कैसे पहचाना?

"नौका विहार" नामक कविता में गंगा की शांति धारा का एक लेटी हुई शांत क्लांत वाला के रूप में अत्यंत सुंदर वर्णन किया है

सैकत शैया पर दुग्ध धवल
तनवंगी गंगा ग्रीष्म विकल
लेटी है श्रत कलांत निश्चल

प्रकृति के मनोरम एवं विशाल ममत्व से आच्छादित होने वाला कवि मानव सौंदर्य की संकुचित सीमा में वंदी होना नहीं चाहता इसीलिए वे कह उठते हैं

छोड़ द्रुमो की मृदू छाया
तोड़ प्रकृति से भी माया
वाले? तेरे बाल जाल में
कैसे उलझा दूं लोचन
भूल अभी से इस जग को

पंत जी के पश्चात पंडित राम नरेश त्रिपाठी जी ने प्रकृति में असीम सत्ता के एक गूढ़ गंभीर रहस्य का अनुभव किया है । उनकी प्रकृति चित्रण में सजीवता व रहस्य के प्रति जिज्ञासा का भाव है

धन में किस प्रियतम से चपला
करती है विनोद हंस-हंसकर
किसके लिए उषा उठती है
प्रतिदिन कर श्रंगार मनोहर

रहस्यवाद की साम्राज्ञी महादेवी वर्मा के काव्य मैं प्रकृति का संपूर्ण श्रंगार उस रहस्यमय सत्ता को रिझाने के लिए ही है। निराशा के क्षणों में वे कहती हैं

शशि के दर्पण में देख देख
मैंने सुलझाए तिमिर केश
गूथे चुन तारक पारिजात
अवगुणठन कर किरणें अशेष
क्यों आज रिझा पाया उसको
मेरा अभिनव श्रंगार नहीं

इसी निराशा के कारण वह स्वयं को दुख की बदली मान बैठती है

मैं नीर भरी दुख की बदली
विस्तृत नवका कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी मिट आज चली

सुख दुख से मिश्रित इस जगत में प्रकृति सदैव ही मानवता को सजगता का पाठ पढ़ाने का प्रयास करती है उसके आदर्शों को मानना या ना मानना मनुष्य की इच्छा पर निर्भर है। कवि पंत के शब्दों में

वन की सूखी डाली पर सीखा कली ने मुस्काना
मैं सीख ना पाया अब तक दुख से सुख को अपनाना

कुछ ऐसे ही भावों का हाथ चित्रण डॉ रामकुमार वर्मा जी ने अपनी "तारों भरी रात" नामक कविता में बड़े ही मनमोहक ढंग से किया है

इस सोते संसार बीच, जगकर सजकर रजनी बाले
कहां बेचने ले जाती हो, यह गजरे तारों वाले
कौन करेगा मोल? सो रही है उत्सुक आंखें सारी

इस प्रकार हिंदी साहित्य का विशाल भंडार प्रकृति चित्रण के अनमोल रत्नों से भरपूर है। सहृदय कवि अपने मनोभावों के अनुकूल प्रकृति के किसी भी रूप का चित्रण क्यों न करें प्रकृति तो सदैव ही अपने विभिन्न रूपों में मानव का मन मोहती रहती है मानव व्यापार पूर्णत: शांत हो जाने पर भी प्रकृति के क्रियाकलाप सतत क्रियाशील रहते हैं गुप्त जी के शब्दों में

बंद नहीं अब भी चलते हैं
नियति नटी के कार्यकलाप
पर कितने एकांत भाव से
कितने शांत और चुपचाप



इति

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