एक वरदान - "संभोग" 05
हमने हमेशा से ही सुना है की मानव पांच तत्वों से मिलकर बना हुआ है आकाश, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु, ये पांच तत्व मनुष्य की मृत्यु तक उसके साथ रहते हैं और उसके बाद फिर से अपनी प्राकृतिक अवस्था में चले जाते हैं। संसार की उत्पत्ति का मूल अणु और परमाणु को माना गया है, एक इसी तरह का अणु स्त्री के अंडकोश में भी होता है जो हर महीने बनता है और फिर धीरे-धीरे तीन से पांच दिनों में टूट कर ख़त्म हो जाता है।
अगर समय रहते स्त्री के अणु(अंडे) से पुरुष का परमाणु (शुक्राणु) मिलाप कर जाता है तो एक नए मानव जीवन का आरम्भ होता है ठीक उसी तरह से जिस तरह अणु और परमाणु मिलकर संसार का निर्माण करते हैं उस संसार के जनक को हम ईश्वर या भगवान मानकर उसका पूजन और ध्यान करते हैं, कई वैज्ञानिक आज भी संसार की उत्पत्ति की प्रक्रिया का पता लगाने के लिए तरह- तरह के प्रयोग और अनुसंधान करते है पर फिर भी पूरी तरह से आज तक सफल नहीं हो पाए हैं।
हम सब इन वैज्ञानिकों और उनके प्रयोगों को बहुत ही ध्यान से देखते और पड़ते हैं। एक बहुत ही साधारण प्रक्रिया जिससे एक मानव जीवन का निर्माण होता है अगर उसे आधार मानकर संसार की उत्पत्ति का प्रयोग किया जाये तो निश्चित ही वह प्रयोग न केवल सफल होगा बल्कि उस प्रयोग के आधार पर हम ये पता लगा सकते है की क्या वास्तव में ये संसार एक मात्र संसार है या इस जैसे कई और संसार उस प्रकृति रूपक स्त्री ने पैदा किये हैं और हम आज जो अपने आप को विकसित सभ्यता मानते हैं हम वाकई विकसित हैं या स्त्री के गर्भाशय में पल रहे भूर्ण की तरह जन्म लेने का इंतजार कर रहे हैं।
पर - हम ये नहीं कर सकते ! आपको सुनकर और पढ़ कर आश्चर्य होगा पर यह सत्य है की हम ये नहीं कर सकते, कम से कम अभी तो नहीं। क्योंकि अभी हम हमारी संकुचित और दूषित सोच से जकड़े हुए हैं अभी एक स्त्री का किसी पुरुष के साथ संभोग एक घ्रणित कार्य है ये बात अलग है की जो इसे घ्रणित और दूषित कहते हैं उनके जन्म की प्रक्रिया का पहला और महत्वपूर्ण हिस्सा संभोग ही था, अगर संभोग नहीं होता तो शायद वो स्वयं नहीं होते। पर संभोग गलत है, पूछो की क्यों? तो पता नहीं - पर गलत है।
संभोग जो स्वयं प्रकृति उपहार है, संभोग जिससे एक स्त्री के गर्भ में एक नए जीवन का अंकुर उत्पन्न होता है जिससे एक स्त्री पूर्णता को प्राप्त होती है, संभोग जिसकी वजह से मानव जीवन फल-फूल रहा है। वही संभोग गलत है, दूषित है, संभोग के विचार - गंदे विचार हैं, क्यों? सिर्फ इसलिए की कुछ धर्म के ठेकेदारों को बुरा लगता है या सिर्फ इसलिए की कुछ तथाकथित समाज सेवकों की नज़र में ये एक घ्रणित कार्य है। इन जैसे लोगों ने ही आज से कई सालों पहले हमारे ग्रंथों, काव्यों और कहानियों में बदलाव कर हमारा इतिहास बदल दिया, हमारे धर्म बदल दिए, हमारा सच बदल दिया। इन जैसे ही कुछ लोगों ने हमारे विचार बदला कर संभोग को दैवीय से घृणित बना दिया।
हमारे मन में लड़ने की विचारधारा है, पर ये विचारधारा दी किसने? मन में विचार गलत आते हैं -तो मन से लड़ो, क्योंकि विचार गलत हैं - तो विचारों से लड़ो, जिसने ये विचार दिए उससे लड़ो और फिर कहते हैं - लड़ो मत। हम समाज के कीड़े हैं, हर समय सिर्फ एक ही बात मन में, हमारे विचारों में चलती रहती है की समाज क्या कहेगा? ये मत करो समाज क्या कहेगा?, ये मत पहनो समाज क्या कहेगा? ये मत खाओ समाज क्या कहेगा? हमारी हर बात पर समाज का अंकुश है, पर क्या कभी सोचा है की ये समाज कौन हैं? तो सुनो हम हैं समाज, हम खुद भी समाज हैं, और समाज कभी कुछ नहीं कहता, हम खुद कहते हैं और दोष समाज को देते हैं।
हमें किसी न किसी को दोष देने की आदत है क्योंकि हमें ये सिखाया गया है और हम मानते भी हैं की हम गलत नहीं हो सकते अगर कुछ हुआ तो किसी और ने किया होगा तो उस किसी और के लिए हम समाज बन जाते हैं और जब किसी दूसरे की सामाजिक नज़र में हम गलत होते हैं तो वो हमारे लिए समाज हो जाता है और फिर हम कहते हैं समाज गलत है। पर हम ये कभी नहीं कहते की हम गलत हैं। हमने पहले समाज बनाया, नियम बनाए और फिर जब कोई उन नियमों को मानने से मना कर दे या उन नियमों के विपरीत कोई काम करे तो हम उसे पागल कहने लगते हैं मतलब पागल हमने बनाया और फिर इन पागलों के लिए हमने पागलखाना बनाया।
हम कहते हैं संभोग गलत है पर प्रेम सही है, तो प्रेम आया कहाँ से, क्या किसी पत्नी और पति के बीच बिना संभोग के - प्रेम हो सकता है ? क्या कोई कली बिना पराग के खील सकती है? जब तक कोयला सालों तक धरती के अंदरूनी भाग की गर्मी महसूस नहीं करता, तब तक वो हीरा नहीं बन सकता और आप कहते हो की कोयले को नहीं छूना, कोयले को फेंक दो हम तो बिना कोयले के हीरा पैदा कर लेंगे। हमारी ये जिद और न समझी हमें कभी भी प्रेम तक पहुँचने ही नहीं देगी क्योंकि हम, हीरे के बनने का पहला पायदान, कोयला उठाना ही नहीं चाहते।
संभोग समानांतर भाव लेकर चलता है या यूँ कहें की संभोग ने ही सबसे पहले समानता के भाव का ज्ञान करवाया की स्त्री और पुरुष समभाव हैं - समान हैं। क्योंकि संभोग में तृप्ति का आनंद तभी आता है जब वो तृप्ति स्त्री और पुरुष दोनों की हो, जब संभोग में पुरुष, स्त्री के ऊपर होता है तब वो स्त्री को संतुष्ट करने की कोशिश कर रहा होता है और जब स्त्री, पुरुष के ऊपर होती है तब वो पुरुष को संतुष्ट करने की कोशिश कर रही होती है, यहाँ अपना सुख भूलकर दोनों केवल एक दूसरे का सुख तलाशते हैं, एक दूसरे की संतुष्टि के लिए कई आसनों और कई तरीकों से संभोग करते हैं। समाज में स्त्री-पुरुष के आपसी प्रेम और निष्ठा को इसके अलावा इतना मजबूत और ईमानदार और कहीं नहीं देखा जा सकता।
मनुष्य कितना भी इससे दूर भागे, चाहे कितना भी इसे अपवित्र, गन्दा, दूषित या कुछ भी कहे पर वो इससे दूर नहीं रह सकता, संभोग मानव की न सिर्फ जरूरत है बल्कि ये उसकी आदतों में शामिल है। संभोग मनुष्य का प्रारंभ है क्योंकि वो इस-से ही पैदा हुआ है, ईश्वर ने ही ये वरदान दिया है जो किसी नए जीव की उत्पत्ति कर सकता है। जिसे ईश्वर गलत नहीं मानता उसे हम कैसे गलत मान सकते हैं, और अगर फिर भी हम इसे गलत मानते हैं तो कहीं न कहीं हम ईश्वर को गलत कह रहे हैं।
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सतीश ठाकुर