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कालिदास के सौन्दर्य संबंधी तत्व

कालिदास के सौन्दर्य संबंधी तत्व
भारतीय प्रतिभा के ज्योतिर्मय नक्षत्र महाकवि कालिदास ने अपने तेजोमय प्रज्ञा के प्रकाश द्वारा न केवल इस भूतल को किन्तु समस्त विश्व को आलोक कुल पुलकाकुल बना दिया । विश्व की उर्वरा भूमि ने अनेक विश्व विदित कवि कोविदों को उत्पन्न किया , किन्तु जो विश्व व्यापकता , विश्वप्रियता और सार्वजनिक सम्मान कालिदास ने प्राप्त किया है वह सौभाग्य अदयावधि तक किसी अन्य को प्राप्त नहीं हुआ । पर्वत और परमाणु में पदार्थ की एकता रहते हुए भी जो महदन्तर विधमान है वही अन्तर कालिदास व इतर कवियों में है।
सार्थवती वभूव मेघदूत के द्वारा जो उन्हें उच्च स्थान प्राप्त हुआ वह आज भी कनिष्ठका - बना हुआ है । उनका मेघदूत एक वैज्ञानिक सत्य सृष्टि है , मनोविज्ञान का प्रत्यक्ष उदाहरण है , भूगोल और इतिवृत्त प्रकृति और मानव का प्रत्यक्ष और सत्यचित्र प्रस्तुत करने वाला असाधारण काव्य है । वह आज भी भगवद्गीता की तरह अपने स्थान पर यथापूर्ण खड़ा रहकर अनेक प्रज्ञा चक्षुओं को अपने समक्ष नतषिरस्थ बना देता है ।
कालिदास की एकमात्र कमनीय कृति “ शाकुन्तल " ने उन्हें विश्व विजेता बना दिया है । शाकुन्तल ने पश्चिम के देशों में भारत के विषय में विस्तृत गहनतम अन्धकार को चीरकर उज्वल आलोक प्रसारित कर दिया है । जिस समय दास्तव की श्रृंखला में आवद्ध भारतीयों की " क्रोलितजिह्वा " अपने अस्तित्व मात्र के प्रदर्शन में भी बन्धानुभव कर रही थी , उस कठिन काल में भी महाकवि की महामूल्यमयी कृति - शाकुन्तल ने एक पश्चिमात्व न्यायाधीश के हृदय में अनुराग की अग्निशिखा प्रज्वलित कर , उसकी लपटों द्वारा अनन्त आकाश तक उठकर वहाँ विस्तृत अज्ञानान्धःञपटल को प्रकाश से पाट दिया और भारतीय प्रज्ञा के प्रति प्रणमित होने को प्रेरित किया ।
महाकवि कालिदास माँ सरस्वती के श्रृंगार ही नहीं अपितु राष्ट्र के चेतना प्रेरक पुरुष हैं । जीवित रहकर उसकी लेखनी ने जिस अमर साहित्य की सृष्टि की है , उसके दिवंगत हो जाने पर भी उसकी अमर शब्द - सृष्टि ने हम समस्त भारतीयों का मस्तक गौरव से उन्नत किया है । आज हम महाकवि की पूँजी पर कुवेर का अक्षय भण्डार लिये हुए है । वे राष्ट्र की ज्ञानराशि के उन्नत नगाधिराज है । प्रतिभा की पावन प्रतिभा है । काल से परे जीवित साहित्य की अक्षय निधि है और वह अनन्त काल तक प्रदीप्त और ज्योतिर्मय बना रहने वाला ज्ञानदीप है जिसका उज्ज्वल प्रकाश संदेश निर्मल आलोक प्रसारित करता रहेगा । महाकवि रवीन्द्र के शब्दों में -
" उत्सव के दिनों में मिट्टी की जो दीपमाला रखी जाती है , उसे कोई दूसरे दिन के लिये नहीं उठा रखता । भारत वर्ष में उत्सव के दिनों में ऐसे ही अनेक मिट्टी के प्रदीप क्षणिक साहित्य , सभी काल ही में अपने जीवन की शोभा दिखाकर प्रातः काल अनन्त विस्मृति गर्भ में तिरोहित हो जाते हैं । किन्तु धातु का जो पहला प्रज्वलित दीप देखा गया वह महाकवि कालिदास का है । वह पैतृक प्रदीप आज भी हमारे घरों में अपना प्रकाश फैला रहा है । पहिले वह हमारे उज्ज्यिनी वासी पितामह के प्रसाद शिखरों पर प्रज्ज्वलित हुआ था । वह आज भी ज्यों का त्यों है , उसमें कभी कोई कलंक कालिमा नहीं लगती ।
यदि आज उसकी साहित्य से साक्षत्कार करना चाहते हैं तो हमें उसके साहित्य का निष्पक्ष अनुशीलन करना चाहिये और उस समय उसके निर्मित शब्द शरीर के अन्तर में सूक्ष्मरूप में रहने वाली आत्मा अपना परिचय देने के लिये प्रस्तुत हो जाती है । कालिदास का साहित्य कभी भी पुरातन न बन सका । सभी कालों में इनकी नवीनता बनी रही । इनके साहित्य में मानव मनोभावों का जिस सूक्ष्मता , और मार्मिकता से प्रकाशन हुआ है और प्रकृति के साथ जो तादात्म्य किया है वह अन्य किसी काव्य में दुर्लभ है । भाषा की सरलता के साथ सरसता के भावों की कोमलता भी हृदय को सीधा स्पर्श करने वाली है । स्वाभाविक वर्णन व शैली सौष्ठव की दृष्टि से कवि का काव्य अनूठा है । कल्पना की मौलिकता उसकी प्रतिभा की सहचरी है ।
भाषाशैली , रचना - सौष्ठव , प्रवाह , प्रसाद और मौलिकता की दृष्टि से महाकवि का रघुवंश महाकाव्य सर्वोत्तम है । इसमें उनकी कला का चरम विकास हुआ है । मेघदूत की अपनी मौलिकता है , मादकता है , अनेक इन काव्यों का प्रेरणास्रोत है । माधुर्य के क्षेत्र में मेघदूत काव्य साहित्य का
दिग्विजयी सम्राट है । इसका रसस्रोत अजस प्रवाहित हो रहा है । कविता कामिनी का यह कण्ठहार बन गया है । कौन सा देश , साहित्य और काव्य है , जिसने इसकी माधुरी से मुग्ध हो अनुकरण या अनुवाद का गर्व न माना हो । अनके विद्वानों द्वारा अनूदित होकर भी यह अपने आप में मौलिकता लिये हुए है । इसका पान करके भी परितृप्ति नहीं होती । " और - और मत पूछ , दिए ' की भावना बनी रहती है । शब्द सौन्दर्य नगीने की तरह कविता में जड़ दिया है । शाकुन्तलम् में चिरपरिचित शकुन्तला की कथा को कवि ने अपनी कला की कोमलता से सप्राण और अमर बना दिया है । नाट्य जगत के इस अदभुत , अपूर्व , असाधारण कृति ने विश्वसाहित्य में शीर्ष स्थान प्राप्त किया है । यह विश्व की अमर निधि है ।
संक्षेप में बहुत कुछ कहने की अद्भुत सामर्थ्य , भावों में गम्भीर्य , अर्थ में गौरव , काव्य में लालित्य एवं रस परिपोध की पराकाष्ठा , ये कवि की अपनी स्वतन्त्र विशेषतायें रही हैं । इन्हीं विशेषताओं के कारण उनकी मेघदूत , शाकुन्तल और रघुवंश जैसी अमर कृतियाँ , हजारों राज्यों साम्राज्यों के उत्थान पतन और विनाश हो जाने पर , आँधी , तूफान , प्रलय के आते - जाते रहने पर भी , अबतक सर्वकालीन नवयौवन लिये जीवित चली आ रही है ।
“ निर्गतास न वा कस्य कालिदासस्य सूक्तिषु ।
प्रीतिर्मधुर सान्द्रासु मन्जरीविष्वव जायते ।।

" काव्य सौन्दर्य के उपादान "

महाकवि कालिदास के काव्य ने प्राचीन तथा अर्वाचीन , पौरवत्य और पाश्चात्य विद्वानों पर जो मोहनी डाली उसका मूल कारण क्या है । काव्य को मोहक बना देने वाले वे उपादान भी वास्तव में विचारणीय है । उत्कृष्ट काव्य पढ़ने पर प्रत्येक सहृदय पाठक को मन्त्रमुग्ध बना देते हैं परन्तु क्यों और कैसे ? काव्य के प्रमुख उपदानों के आधार पर कालिदास के काव्य का मन्थन करना आवश्यक है । कालिदास के सभी ग्रन्थ काव्य लक्षण की कसौटी पर पूर्णरूपेण खरे उतरते हैं ।
1. शैली अथवा रीति सौन्दर्य
कालिदास भारतीय काव्य शैली के सर्वोत्तम आचार्य हैं । रचना की पूर्णता के परिभाजन की दृष्टि से उनका स्थान अनूठा है । वर्णों का औचित्य और अवैषम्य , निष्ठुर वर्गों का साहित्य और सुकुमार वर्णों का सन्निवेष , शब्दों का उनके साधारण अर्थों में प्रयोग , प्रसाद कान्ति , उत्कर्ष और रसाभिव्यक्ति की शक्ति - वैदर्भी रीति के इन सभी काव्य सौन्दर्य वर्धक तत्वों का कालिदास के काव्य में सन्निवेष है । अभिधा के स्थान पर व्यंजना शक्ति का अनूठा प्रयोग कवि की अपनी विशेषता है । उनके परवर्ती कवि प्रायः समझते थे कि तस्तद् विषय पर कथनीय सब कुछ कहकर ही वे अपनी योग्ता प्रदर्शित कर सकते हैं परन्तु कालिदास एक निश्चित प्रभाव उत्पन्न करके ही सन्तुष्ट हो जाते हैं और शेष सब बातें व्यंजना के लिये छोड़ देते हैं । इसलिये उनके लघुचित्र अपने परिष्कृत सौन्दर्य में आपेक्षिक पूर्णता प्राप्त कर सके है ।
मेघदूत में शोक करती हुई यक्षपत्नी का चित्र
" उत्संगे का मलिनवसने सौम्य निक्षिप्य वीणां ,
मद्गोत्रांक विरचितपदं गेयमुद्गातुकामा ।
तन्त्रीमाद्रां नयनसलिलेः सारयित्वा कथंचिद् ,
भूयो भूयः स्वयमपि कृतां मूर्च्छनां विस्मरन्ती ।। '
हे सौम्य , या मैले वस्त्रों वाले अपनी गोद में वीणा रखकर मेरे नाम से युक्त पद रचना करके गीत गाने की इच्छा वाली वह आँसुओं से भीगे हुये तार को जैसे तैसे पोंछकर अपने द्वारा किये गये स्वरों के आरोहावरोह को बार - बार भूल जाती होगी ।
कालिदास की रचना शैली वैदर्भी रीति के नाम से ही प्रख्यात है । उनके सभी ग्रंथ सर्वोत्कृष्ट वैदर्भी रीति में ही है । विदर्भ का अर्थ है – दर्भ ( कुदा ) से रहित । वाक्यों के दर्भ है - लम्बे समास और कर्णकटु ध्वनियाँ । इन दोनों का अभाव ही वैदर्भी रीति में होता है । वैदर्भी रीति की विशेषता माधुर्य व्यंजक कोमल वर्णों का उपयोग और कोमल भावों के अनुरूप भाषा में स्वाभाविक प्रवाहशीलता है । यों तो संस्कृत भाषा स्वयं श्रुतिमनोहर है और फिर कालिदास ने अपने सब ग्रंथों में परूषवर्णों का त्याग कर चुन - चुन कर कोमलतम वर्णो का प्रयोग किया है इसीलिये उनके ग्रंथ एक विद्वान के कथानानुसार शहद के समान मीठे हैं । श्रृंगार व करूण दो रसों की प्रमुखता होने कारण उनके अनुरूप ही भाषा शैली भी है । उनके काव्यों में क्लिष्टता व कृत्रिमता कहीं भी नहीं आने पाई है । वे नवोन्मीलित पुष्पों के समान ताजे और रस से भरे हुये देख पड़ते हैं । इसी में कविवर की कला का परमोत्कर्ष है । उनके द्वारा प्रयुक्त अलंकार भी प्रासांगिक होने के कारण श्लोकों के भावार्थ को और भी सुबोध बना देते हैं तथा उनके मन्तव्य में द्विगुणित प्रभाव की वृद्धि कर देते हैं । ललित पदयोजना के कारण ही संस्कृतान भिन्न पाठकों का मन उनकी श्रुतिमनोहरता पर ही आकृष्ट हो जाता है । समासों का यथोचित प्रयोग भी कवि के काव्यों को सरल सुबोध व प्रसादगुण सम्पन्न बनाये हुये है । कालिदासीय शैली की रसनिर्भरता का आकलन करते हुये महाकवि बाणभट्ट ने प्रशस्ति की है -

" निर्गतालु न वा कस्य कालिदासस्य सूक्तिषु ।
प्रीतिमधुर सान्द्रासु मच्जरीविव जायते ।। "
कवि द्वारा वर्णवस्तु के स्वरूप की मधुरतम और सहानुभूति पूर्ण धर्म की प्रस्तुति की गई है । रसों के अनुकूल छन्द और शब्दावली का प्रयोग कवि की अपनी विशेषता है कालिदास की शैली के विभिन्न गुणों का आकलन करते हुये श्रीगोवर्धनाचार्य ने कहा है -
“ साकृतमधुर कोमल विलासिनीकण्ठकूजित प्राये ,
शिवा समवेऽपि मुदे रतिलीला कालिदासोति ।। "
यों तो कवि की भाषा में कोमल पद शय्या सर्वत्र ही मिलती है तथापि सुकुमार भावों की अभिव्यक्ति में पदशय्या प्रायशः पुष्पमयी हो गयी है । ' यही कवि की वैदर्भी रीति है जिसमें पद - पाठक के मानस पटल पर अर्थावबोध के लिये कहीं रूकते नहीं है । सूक्ष्म एवं मार्मिक व्यंजना ही कवि की शैली की अपनी महती विशेषता है ।
1. भाषा सौन्दर्य — कालिदास की भाषा अत्यधिक प्रांजल परिमार्जित , परिष्कृत और प्रसादगुण पूर्ण है । उसमें क्लिष्टता अथवा दूरान्वय दोष कहीं भी नहीं आने पाया है । यथास्थान चुस्त एवं मुहावरे दार भाषा का ऐसा मनोहर सन्निवेष किया गया है , जिसको भाषा में एक अपूर्व सजीवता आ गई है । अभिज्ञान शाकुन्तल में अनुसूइया प्रियम्वदा से कहती है कि दुर्वासा के शाप का चित्रतविदारक समाचार कोमल हृदय शकुन्तला तक न पहुँचने पाये , तब प्रियम्बदा उत्तर देती है “ भला ऐसा कौन होगा जो जूही की कोमल लता को उबलते हुये जल से सींचेगा । शकुन्तला की दोनों सखियाँ उससे कह रही है कि - " हे अपने गुणों का अपमान करने वाली शकुन्तले । संसार में ऐसा कौन होगा , जो सन्ताप को दूर करने वाले चन्द्रमा की चांदनी को छतरी लगाकर अपने ऊपर पड़ने से रोके । '
पात्रानुरूप भाषा का प्रयोग करने में कालिदास पूर्ण हस्त है । निरन्तर यज्ञादि वैदिक कार्यों में संलग्न कण्व ऋषि की उक्ति पूर्णतः उनके पद के अनुरूप ही है । दुष्यन्त के साथ शकुन्तला के गान्धर्व विवाह का अनुमोदन करते हुये ऋषि उक्ति दुष्टव्य है । महर्षि कण्व कहते हैं “ यह हर्ष का विषय है कि धूम्र से आकुलित दृष्टि वाले यजमान की आहुति अग्नि में ही गिरी ।
शकुन्तला को विदा करते समय काण्व ऋषि कहते हैं कि - " हे पुत्री सुपात्र शिष्य को दी गई विद्या के सदृश तू भी सर्वथा अशोच्य है ।
कालिदास की भाषा में व्यंजना शक्ति की प्रधानता है । वे चुने हुये कतिपय शब्दों में ही भावों की गहराई को छू लेते है । वह जिसका भी स्पर्श कर देते हैं वहीं कंचन का रूप धारण कर लेता है । औचित्य के तो वे पूर्ण मर्मज्ञ हैं । जिन भावों का जिन शब्दों द्वारा प्रकट करना कलात्मक तथा सुन्दर हो सकता है उन भावों का उन्हीं शब्दों में प्रकट करके वे अपनी भावुकता का परिचय दे देते हैं । शकुन्तला के सौन्दर्य में उनकी कोमल कान्त पदावली का निदर्शन देखिये —
“ सरसिजमनुविद्धं शैवलेनापि रम्यं ,
मलिनमपि हिमांषोर्लम लक्ष्मी तनोति ।
इयमधिक मनोज्ञा वल्कलेनापि तन्वी ,
किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् ।।4
जैसे शैवाल की घास से लिपटा हुआ कमल अत्यन्त रमणीय प्रतीत होता , काले धब्बे से युक्त होने पर भी चन्द्रमा की शोभा कम नहीं होती , उसी प्रकार वल्कल वस्त्र धारण करने पर भी शकुन्तला अधिक सुन्दर लग रही है । सत्य है , सुन्दर आकृति वालों के लिये कौन सी वस्तु शोभावर्धक नहीं हो जाती ?
2. छन्द सौन्दर्य — कालिदास ने लगभग 20 प्रकार के छन्दों का उपयोग किया है । प्रायः उन्हीं छन्दों का प्रयोग हुआ है , जो छोटे हैं और जिनके वर्ण विन्यास विशेष श्रुति मनोहर हैं ।
छन्दों की योजना , स्थल , वस्तु , विषय , भावना और विचार पर अवलम्बन रखती है । उसका अपना स्वतन्त्र नियम है । अनेक कवियों का किसी छन्द विशेष पर ही अधिकार होता है उसी में उसकी रचना रस और माधुर्यवती बन सकती है । अन्य छन्दों का प्रयोग उतना सुन्दर साध्य नहीं होता । किन्तु भाव रस और विषयानुकूल छन्दयोजना कर उसमें सफलता जो जिस समय जिस विषय के अनुरूप , जिस छन्द का प्रयोग करते हैं .. के साथ अपने विचार अभिव्यक्त करने का साहस किसी वष्यवाक कवि के लिये ही सम्भव होता है । महाकवि कालिदास से ही एक अधिकारी है , उसमें समाविष्ट हो जाते हैं । उन्होंने अनुष्टुप जैसे सरल सीधे छन्द का वह उस स्थल पर सप्राण हो उठता है । समस्त रस , सौन्दर्य और माधुर्य प्रयोग भी उतने ही सौष्ठव के साथ किया है जितना कि उपजाति , वंशस्थ , रथोद्धता , वंसततिलका , मालिनी , शिखरिणी , मन्दाक्रान्ता , शार्दूल - विक्रीडितम - सुन्दरा , द्रुतविलम्बित , पुष्पिताग्रा , मात्यभरा , आर्यो , शालिनी आदि छन्दों का प्रयोग सरसता व सुन्दरता से किया है । यह उनकी वाक्य प्रभुता का प्रमाण है । छन्द प्रयोग में स्थल काल एवं विषयानुरूपता का विशेष ध्यान रखने के कारण ही उनके काव्य में सौन्दर्य , माधुर्य और रस की वर्षा हो गई है । रघुवशं जैसा महाकाव्य अनेक छन्दों के उचित उपयोग द्वारा पूर्ण किया गया है । उचित स्थल पर प्रयुक्त होने के कारण ही प्रत्येक छन्द प्रदीप्त हो उठा है ।
मेघदूत जैसे मनोहर काव्य में छन्द मंद गति से चलने वाले मंदाक्रान्ता छन्द का उपयोग होने के कारण ही काव्य माधुर्य से ओत – प्रोत हो गया है । मेघदूत में मंदाक्रान्ता छन्द का उपयोग किया जाना कवि की प्रखर बुद्धि का प्रमाण है । बात यह है कि इस काव्य का प्रारम्भ वर्षा ऋतु से होता है । वर्षा में मेघ के आगमन से साधारण प्रवासी का पथ भी आर्द्र हो जाता है और उसकी गति मन्द हो जाती है ।
इसी प्रकार वृत्तरत्नाकर में भी कहा गया है कि – मंदाक्रान्ता तो मृदु -- चरणों से क्रीड़ा करती हुई तथा मुग्ध और स्निन्ध मन्थर गति वाली है । जव कवि वर्षाकाल के उपयुक्त मंदाक्रान्ता ( मंद मंद चरन्यास )
मेघदूत में मंदाक्रान्ता छन्द प्रयोग का एक विशिष्ट कारण और भी है । जो नितान्त विज्ञानानुमोदित है । कवि ने जिस मसय मेघ को नायक को सन्देश वाहक चुना , उन्होंने स्पष्ट कहा है कि यह दूत - धूम , ज्योति , सलिल मरूता का समन्वय गगन संचारी मेघ है । उसका उद्गम रामगिरि से है , जो दक्षिण के मानसून का आरम्भ स्थान है । उसका जो पथ आज से दो हजार वर्ष पूर्व कालिदास ने सूचित किया था , वही आज का मानसून शास्त्री स्वीकार करता है । वह दक्षिण से उठकर हिमालय तक जाता है । ध्यान देने योग्य बात यह है कि मानसून ( मेघ ) का एक अंश , जो केवल 40 इंच वर्षा की क्षमता रखता है , वह मालव प्रदेश के मन्दसौर ( दशपुर ) तक 40 इंच जल सिंचित कर पुनः उत्तरापथगामी मानसून से जाकर मिल जाता है आज भी यह तथ्य सत्य बना हुआ है । कालिदास ने ठीक इसी तथ्य को मेघदूत द्वारा प्रकट किया है और उत्तरापथगामी मेघ को विदिशा से चक्रमार्ग द्वारा उज्जैन , मन्दसौर ( दशपुर ) तक भेजकर पुनः अलका तक पहुँचाया है । इसी वैज्ञानिक सत्य की रक्षा करके महाकवि ने मालव यात्रा भी करवा दी और वर्षाकालीन पथ के औचित्य की रक्षा कर दी । इतना ही नहीं , उन्होंने अपने उपयुक्त छन्द ' मन्दाक्रान्ता ' की सार्थकता भी सिद्ध कर दी है । मेघदूत के अनुकूल मन्दाक्रान्ता पर कवि का अधिकार देखकर क्षेमेन्द ने उचित ही कहा है —

“ सुवषा कालिदास मंदाक्रान्ता प्रवत्यगति "

इसी मन्दाक्रान्ता द्वारा कवि ने शाकुन्तलम् में भी काव्य विहार किया है । रघुवंश और कुमार संभव में भी इसका प्रयोग कर सौन्दर्य सृष्टि की है । इस छन्द द्वारा कवि का वाग्वैभव सर्वत्र दृष्टव्य है । मेघदूत काव्य के सौन्दर्य और सौरभ को लेकर कालिदास की अमर - मदांक्रान्ता ने मृदु - मन्थर - गति से सारे विश्व का सफल सांस्कृतिक प्रयास किया है और यशोविस्तार कर अपनी जन्मभूमि का सार्वभौमिक गौरव बढ़ाया है ।
निश्चित ही कालिदास की छन्दोविषयक निपुणता सन्देह के परे है । ऋतु संहार में वसन्ततिलका , मालिनी तथा इन्द्रवजा और वंशष्य छन्दों के द्वारा जो सौन्दर्य उत्पन्न हुआ है वह दर्शनीय है । कुमार सम्भव में एक सर्ग में एक ही छन्द का प्रयोग हुआ है तथा काव्यशास्त्र के मतानुसार सर्गान्त में छन्द परिवर्तन कर दिया गया है । इसमें इन्द्रवजा , वंशस्थ रधीद्धता तथा संर्गान्त में पुष्पिताग्रा , मालिनी और वसन्ततिलका की छटा दर्शनीय है । रघुवंश में निहित छन्द वैविध्य कवि के पुण्य का प्रमाण है । इन्द्रवजा , श्लोक , वैतालीय , रथाद्धता , द्रुतविलवित , वसन्ततिलका , पुहर्षिणी , मन्दाक्रान्ता , हरिणी आदि 19 छन्दों का प्रयोग किया गया है ।
3. ध्वनि सौन्दर्य — उत्तम काव्यों में वाच्यार्थ तथा लक्ष्यार्थ से भिन्न सहृदय हृदया हलादक ध्वनि या व्यंगयार्थ ही विवक्षित रहता है । इसी कारण काव्य में रमणीयता आ जाती है । वाच्यार्थ की अपेक्षा व्यंगार्थ विशेष मनोहर हो वही काव्य उत्तम कोटि का समझा जाता है । इस दृष्टि से कविकालिदास का काव्य भी सर्वोत्कृष्ट काव्य की गणना में आता है इसमें किंचिद् भी सन्देह नहीं है । शब्द और अर्थ का उत्तम कोटि का चारूत्व कालिदास के काव्य में देखा जा सकता है । किसी भी भाव को स्पष्ट शब्दों में कहने की अपेक्षा शब्दों को कुशलतपूर्वक व्यक्त करने में कालिदास निपुण हैं । अंगिरा ऋषि द्वारा हिमालय से शंकर के लिये पार्वती की मंगनी की प्रार्थना करने पर पास में बैठी हुई पार्वती का वर्णन करते हुये कवि कहता है कि " इस तरह जब देवर्षि बोल रहे थे तब पिता के पास सिर नीचा किये बैठी हुई पार्वती ( हाथ में स्थित ) लीला कमल के पत्र गिनती थी । इस श्लोक में एक भी अलंकार न होने पर भी कमल पत्र की गिनती के वर्णन से पार्वती की लज्जा , उसके मन का प्रेम और आनन्द छिपाने का उसका प्रयत्न अति सुन्दर रीति से सूचित किया गया है । इसलिये साहित्यकारों द्वारा इसे उत्कृष्ट काव्य के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है ।
मेघदूत में गंगा वर्णन का ध्वनि सौन्दर्य भी कवि की एक अनूठी कल्पना है । यक्ष मेघ से कहता है कि - " फिर तुम कनखल के पास हिमालय से नीचे गिरती हुई और सगरपुत्रों के स्वर्गारोहण करने के लिये सीढ़ी स्वरूप , जहनुकन्या गंगा की ओर जाना , जिसने पार्वती को त्यौरी चढ़ी देख मानो फेन रूपी हास्य करके ललाट स्थित चन्द्र तक अपने तरंगरूपी हाथ ऊचे उठाकर श्रीशंकर के बालों का जूड़ा पकड़ लिया है । '
इस श्लोक में रूपक , उत्प्रेक्षा , समासोक्ति आदि अलंकारों की भरमार है । गंगा महिमा का वर्णन कवि ने कितनी कुशलता के साथ चित्रित किया है कालिदास का प्रत्ये पद रमणीयता व्यंजित करने वाला है । जहाँ अन्य कवि किसी मनोहारी कल्पना का लम्बा चौड़ा वर्णन करने में ही अपने कविधर्म की सार्थकता समझते हैं वहाँ कालिदास थोड़े से गिने चुने शब्दों में ही उसका रेखाचित्र खींचकर उसमें रंग भरने का काम पाठकों की सहृदयता पर छोड़ देते हैं । इसी कारण कालिदास के काव्य क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति ' वाली रमणीयत्व की कसौटी पर पूर्ण रूप से खरे उतरते हैं । पाठक कभी भी ऊब नहीं सकता । उनकी लेखनी द्वारा प्रसूत प्रत्येक शब्द अर्थ का मोती बन गया है ।
यक्ष अपनी विरहिणी यक्षणी का वर्णन करता मेघ से कहता है कि- जिस समय तू मेरे घर पहुंचेगा उस समय मेरी प्रियतमा मेरी कुशल कामना निमित्त देवाराधना कर रही होगी , अथवा विरह व्यथा से दुर्बल मेरे शरीर का अनुमान करके उसी भाव को चित्रित करने वाला मेरा चित्र खींच रही होगी , या पिंजड़े में बैठी हुई , मीठी बोली बोलने वाली मैना से पूछ रही होगी- अरी रसिके क्या तुझे भी कमी मालिक की याद आती है ? तुझे तो वे बड़ प्यार करते थे ।
रघुवंश में विरहावस्था में सीता द्वारा राम को भेजा गया सन्देश बड़ा ही मार्मिक है । उनके उस संदेश में सीता के कोमल स्वभाव , करणावस्था एवं पतिव्रतधर्मपालन की ध्वनि दृष्टिगोचर होती है । सीता कहती है कि - मैं प्रसव के उपरान्त सूर्य की ओर दृष्टि लगाकर तप करने की चेष्टा करूंगी जिससे दूसरे जन्म में आप ही मेरे पति हों और वियोग न हो ।
कालिदास के काव्य में इस प्रकार के अनेक ध्वन्यात्मक चित्र देखे जा सकते हैं । कुमार सम्भव में शिव के द्वारा अपने को प्रकट कर देने पर उमा के संभ्रम और आनन्द का उज्ज्वल चित्र कवि के द्वारा चित्रित किया गया है । शिवजी कहते हैं - हे झुके हुये अंगो वाली , आज से मैं तप द्वारा खरीदा गया तुम्हारा दास है , इस प्रकार चन्द्रमोलि के कहने पर उन्हेंने तुरन्त ही अपने तपोजनित कक्षेना का परित्याग कर दिया । कयोंकि फल प्राप्ति होने पर क्लेश , क्लेशरूप में नहीं प्रतीत होता । '
मेघदूत में यक्ष अपनी विरहविदग्धता का परिचय देता हुआ कहता है कि - शिला पर गेरू के रंग से तुम्हें प्रणय कुपित चित्रित करके जैसे ही मैं अपने आपको तुम्हारे पैरों पर गिरा हुआ बनाना चाहता हूँ , वैसे ही बार बार उमड़े हुये आँसुओं से मेरी दृष्टि अवस्द्ध हो जाती है । क्रूर दुर्देव चित्र में भी हम दोनों के मिलन को नहीं सह सकता ।
कुमार सम्भव में नवोढा वधू की भीरूतायुक्त लज्जा और उसके प्रियतम के छलों का चित्र किस सुकुमार के साथ खींचा गया है । " शिव के पूछने पर वह उत्तर नहीं देती थी , उनके आँचल पकड़ने पर वे जाने लगती थी और मुँह फेर कर उनके साथ सोती थी , तो भी वे शिव को आनन्दित करती थी ।
निश्चल एवं विशाल नेत्रों वाली पार्वती ने अपने को दर्पण में शोभित होता हुआ देखकर शिव के पास जाने की शीघ्रता की , क्योंकि स्त्रियों के वेश का फल प्रियतम द्वारा देखा जाना ही है । '
अज — विलाप के आँसुओं का गम्भीर्य तो मानव मात्र के हृदय को छूने वाला है । अज ने अपनी स्वाभाविक धीरता का परित्याग करके आँसुओं से सँधे स्वर से विलाप किया । लोहा भी तपाये जाने पर नरम हो जाता है , फिर शरीर धारियों की तो बात ही क्या ?1
इन्दुमती के प्राणनाशक आघात का चित्रण अत्यन्त ही शब्द चारूत्व के साथ किया गया है । – “ अपने सुडोल स्तनों की क्षणिक सखी उस माला को देखकर व्याकुल होती हुई अज की प्रियतमा ने अन्धकार से अपहृत चन्द्रमावाली चन्द्रिका की भाँति अपनी आँखों को मूंद लिया ।
अभिज्ञान शाकुन्तलम् में अनेक स्थलों पर ध्वन्यात्मक शैली का आश्रय लेकर भावी घटनाओं का सूक्ष्म संकेत किया गया है । प्रथम अंक की प्रस्तावना के तृतीय श्लोक में ग्रीष्म ऋतु के वर्ण में " – दिवसाः परिणामरमयीयाः " लिखकर नाटक का अन्त सुखद होने की सूचना दी है । प्रथम अंक के चतुर्थ श्लोक में – “ ईषधीच्चुम्बितानि ” कहकर शिरीषि कुसुम द्वारा शकुन्तला तथा भ्रमर द्वारा दुष्यन्त का संकेत कर दोनों के अल्पस्थायी मिलन की ओर संकेत किया गया है । इस प्रकार कवि इसी घटना विशेष के निमित्त अपनी ध्वन्यात्मक शैली द्वारा उपयुक्त वातावरण पहिले से ही उत्पन्न कर देते हैं ।
4. रस सौन्दर्य – रस को ही काव्य की आत्मा माना गया है । ध्वनि के तीन भेद – वस्तु ध्वनि , अलंकार ध्वनि एवं रस ध्वनि में रस ध्वनि ही सर्वश्रेष्ठ मानी गई है । इसी रस ध्वनि से परिपूर्ण काव्य ही सर्वोत्तम व उच्च कोटि का माना गया है । रसों में विशेषकर श्रृंगार के संयोग व विप्रलम्भ दोनों प्रकारों के वर्णन में कालिदास सिद्धहस्त है । कालिदास के काव्य का प्रत्येक श्लोक रस से परिपूर्ण है तभी तो “ मुँह में रखते ही रसास्वाद प्रदान करने वाले अंगूर के दाने के समान कालिदास का काव्य सहृदय पाठकों को रसासिक्त बना देता है । विशेषकर श्रृंगार रस की सौन्दर्य निपुणता देखकर ही गीतगोविन्द का जयदेव ने उन्हें “ कविता कामिनी का विलास ” की संज्ञा दी । वास्तव में श्रृंगार रस और ललित पद योजना में कालिदास से बढ़कर कोई कवि आज तक हुआ ही नहीं । कालिदास का सम्पूर्ण काव्य श्रृंगार रस प्रधान होने के कारण उसमें इतर रसों के समावेश की विशेष गुन्जाइश ही नहीं है । यत्र तत्र हास्य , करूण आदि रसों की छटा दृष्टव्य है । यक्ष द्वारा यक्षिणी के विरह , वर्णन में विप्रलम्भ श्रृंगार की छटा दर्शनीय है । '
“ रात दिन असु बहाने से सूजी हुई उसकी आँखें , उष्ठा निःश्वासों के कारण विवर्ण अधरोष्ठ , हथेली पर रखे हुए और लम्बे बालों से ढक जाने के कारण आधे दीख पड़ते हुए उसके मुख वर्णन से यक्ष पत्नी का विरह दुःख और विषाद , चिंता इत्यादि मनोविकार उत्कृष्ट रीति से व्यक्त हुए हैं । ” – इस प्रकार के विरह वर्णन को पढ़कर किस सहृदय पाठक के मन में विप्रलब्धा , निस्तेज मुख वाली , क्लान्त यक्ष पत्नी के प्रति सहानुभूति न होगी ?
पार्वती को देखकर शंकर के मन में अचानक उत्पन्न होने वाले रति भाव का चित्रण दृष्टव्य है । “ चन्द्रोदय को देखकर समुद्र की तरह शिवजी का चित्र किन्चित क्षुब्ध हुआ और विम्बफल समान अधरोष्ठयुक्त पार्वती के मुख पर शंकर के नेत्र लौटने लगे ।
अभि० शाकु० में दुष्यन्त के द्वारा , शकुन्तला के मुख के समीप चक्कर लगाते हुए भ्रमर का वर्णन एक कामुक के रूप में किया गया वह कहता है । ' - अरे भ्रमर तू उसके कवटाक्षयुक्त ( कम्पित ) नेत्रों को बार - बार घूरता है और उसके कान के पास जाकर मीठा - मीठा शब्द करता है मानो कुछ रहस्य कह रहा है । यद्यपि वह हाथ से तुझको हटाती है तो भी तू उसके रति के सर्वस्वभूत अधर का पान करता ही है । हम तो तत्व के खोज में मारे गए और तू बड़ा ही भाग्यशाली है । अन्त में " हम तो तत्वान्वेश में फँस गए पर तू कृतार्थ हो गया " ऐसे उद्गार किस प्रेमी के हृदय को आन्दोलित न कर देंगे ?
शकुन्तला को पतिग्रह भेजते समय तपस्वी कण्व का यह विलाप प्रत्येक सहृदय पाठक के दिल को द्रवीभूत करने वाला है ।
आज “ शाकुन्तला जाने वाली है इस विचार से मेरा हृदय दुःख से भर गया है कण्ठ गद्गद् हो रहा है , चिन्ता से दृष्टि जड़ हो गई है , मैं अरण्यवासी होकर भी कन्या के प्रेम से इतना व्याकुल हो जाता हूँ तो कन्या के विवाह में गृहस्थ लोगों की क्या दशा होती होगी ?
मदन दहन के पश्चात् रति का विलाप पढ़कर विरल ही सहृदय पाठक होंगे जिनके आँसू न उमड़ पड़े । स्वयं अपनी आँखों के सामने पति को भस्म होता हुआ देखकर विलाप करते हुए रति का आँर्तनाद सुनकर सारा वन रो उठता है । रति विलाप करती हुई कहती है कि -
“ तुम तो कहा करते थे कि – तू मेरे हृदय में सदा रहती है । परन्तु अब मुझे मालुम हुआ कि ये सब बनावटी बातें थीं । यह केवल मुझे खुश करने के लिये ही कहा करते थे । नहीं तो तुम्हारे नष्ट होने पर मैं कैसे अक्षत बनी रहती ? "
मेघदूत ने विप्रलम्भ श्रृंगार चरमावस्था पर पहुँचा हुआ दिखाई पड़ता है यक्ष अपनी प्रिया के पास संदेश भेजता हुआ कहता है कि
“ हे प्रिये ! अत्याधिक प्रेम के कारण रूठ जाने वाली तुमको मनाने के लिये मैं तुम्हारा चित्र शिला पट्टपर गेरू आदि रंगों से बनाकर उसके चरणों में ज्योंही स्वयं की गिराना चाहता था त्यों ही प्रेमाश्रुओं के बार - बार और अत्यधिक उमड़ आने से मेरी आखें भर जाती हैं । ( यह मेरा दुर्भाग्य है) विधाता उस चित्र में भी हम दोनों के मिलन को नहीं सह सकता । "
स्वप्न मे तेरा दर्शन होते ही तेरे आलिंगन सुख के लिये मैं अपने हाथ फैला देता हूँ । मेरी यह करूणाजनक अवस्था को देखकर वन देवताओं के नेत्रों से वृक्षों के पल्लवों पर मोतियों के समान अश्रु बिन्दु गिरते हैं मैं बड़े धैर्य और विवेक से यह विरह दुःख सहन कर रहा हूँ । ' प्यारी तू भी मेरी ही तरह उसे सहन कर क्योंकि सुख दुःख सदा एक सा नहीं रहता । दुःख के बाद सुख अवश्य मिलता है । रथ के पहिये के समान यह दशा क्रम से चलती है । भगवान विष्णु के द्वारा शेषशय्या का त्याग करते ही मेरे शाप का अन्त हो जायेगा , तब मैं तुझे साथ ले शरद ऋतु की शुभ्रज्योत्सना में नाना प्रकार की प्रणय क्रीड़ा का सुख अनुभव करूँगा । हे मेघ अनुकम्पा से मेरा काम पूर्ण कर , वर्षाकाल में तू अपने वांछित स्थान को चले जाना । मेरे सामने तुझे अपनी प्रिया विदयुत से कभी वियोग न हो ।
यत्र — तत्र प्राप्त सूक्तियों द्वारा इस खण्ड काव्य की शोभा और भी द्विगुणित हो गई है ।
सम्पूर्ण काव्य में विप्रलम्भ श्रृंगार का ही साम्राज्य दिखाई देता है । विरह वर्णन अत्यन्त करूणोत्पादक है ।
अलंकार सौन्दर्य – काव्यात्मा रस होने पर भी अलंकार स्वरूप अलंकारों का भी काव्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान है । काव्य का प्रमुख उद्देश्य आनन्द प्राप्ति भावना के उदेक की तरह कल्पना से भी संभव है । इसीलिये भामह आदि अलंकारिकों ने कल्पना के विलास अलंकारों – को काव्य निर्माण में मुख्य मानकर उनका सविस्तार वर्णन किया है । अलंकारों के समुचित योजना से रसोत्कर्ष में सहायता मिलती है । इसीलिये कलाभिज्ञ कालिदास ने अपने काव्य में अलंकारों का विशेषकर अर्थालंकारों का – समुचित प्रयोग किया है । कालिदास के काव्य में अलंकारों के प्रयोग से रसोद्रेक में तथा रचना के प्रवाह में कहीं भी बाधा नहीं आने पायी है । अलंकार सदैव भावों के अनुचर बनकर ही आये हैं स्वामी बनकर नहीं ।
अनुप्रास – " भुजे भुजगेन्द्रसमानसारे भूयःस भृमेथुरमा ससज्ज तथा “ सम्बन्धिनः सम समाससाद एवं प्रजाः प्रजानाथ पितेव पासि इत्यादि पॅंक्तियों में अनुप्रास की छटा देखने योग्य है । कहीं , कहीं अनुप्रास अलंकारों में विवक्षित अर्थ की प्रतिध्वनि भी उसमें दिखाई देती है , जैसे - “ मायूरी मदयति मार्जना मनांसि " इसमें मकरानुवृत्ति द्वारा मृदंग के ताल का सुन्दर अनुकरण दिखलाई देता है । अभिज्ञान शाकुन्तल के प्रथम श्लोक में भी अनुप्रास की स्वाभाविक छटा दर्शनीय है ।
यमक अलंकार — इस अलंकार हेतु कवियों को बड़े प्रयत्न पूर्वक विशिष्ट शब्द खोजकर योजना करनी पड़ती है । श्रृंगार रस में , रसभंग होने के डर से यमक का प्रयोग नहीं करना चाहिये , ऐसा ध्वनिकारों का मत है । कला केविद् कालिदास ने भी श्रृंगार रस विशेषकर विप्रलम्भ श्रृंगार के वर्णनों को बचाकर ही यदा कदा यमक अलंकार का प्रयोग किया है । जैसे “ बधाय वध्यस्य शरंशरण्यः तथा “ मनुष्यवाचा मनुवंशकेतुम " 3 में यमक की छटा देखी जा सकती है।नवम सर्ग के पहले 54 श्लोकों में दशरथ की राजव्यवस्था , वसन्त ऋतु , मृगया इत्यादि का वर्णन करते समय चतुर्थ पाद के आरम्भ में – “ यमवलामवतां च धुरिः स्थितः 4 “ स नगरं नगरन्ध्रकरौजसः इत्यादि में यमक की योजना की गई है । कवि द्वारा योजित यमकों के नाद माधुर्य से पाठकों का मन अनन्दित हो उठता है और कवि के भाषाप्रभुत्व को देखकर आश्चर्य होता है ।
श्लेष अलंकार - द्वयार्थक शब्दों की योजना के कारण इस अलंकार का रसास्वाद करने हेतु रसिकता की अपेक्षा विद्वता की अधिक आवश्यकता है । इसका उद्देश्य हृदय का नहीं , बुद्धि का आनन्द है । कालिदास ने श्लेष का प्रयोग केवल विशेष स्थलों पर रमणीयता लाने के लिये ही किया है । श्लेष के प्रयोग से उनके काव्य में क्लिष्टता नहीं आने पायी है । मालविकाग्निमित्र में मालविका के मुख से राजा पर उसका प्रेम व्यक्त करने के लिये कवि ने किस निपुणता से श्लेष का उपयोग किया है —
वकुलावलिका – एवं उपारूढराग उपभोगक्षमः पुरतस्ते वर्तते ।
मालविका ( सहर्षम ) किं भर्ती ?
इसमें राजा और अशोक पल्लव दोनों के लिये समान रूप से प्रयुक्त होने वाले राग और उपभोग इन श्लेष युक्त शब्दों का उपयोग कर वकुलावलिका ने बड़ी चतुराई से मालविका के मुख से प्रेम व्यक्त कर लाया है । इसी प्रकार एक अन्य उदाहरण में —
विदू : भी विभ्रव्योभूत्वा त्वामिमां यौवनवतां पष्य ।
देवी — काम ?
विदू : तपनीयाशौकस्य कुसुमशोभाम् ।
विदूषक को अलंकृत और यौवन भरी हुई मालविका की ओर राजा का ध्यान खींचना था । किन्तु उसके शब्द रानी ने सुन लिये । अतएव उसके प्रश्न का उत्तर देते समय “ यौवनवतीम् " इस शब्द का श्लेष से दूसरा अर्थ लेकर और अशोक वृक्ष के पुष्प की शोभा से उसका सम्बन्ध लगाकर उसने अपना छुटकारा पा लिया । -
हे मेघ प्रातः काल अपनी कमिलिनी रूपी खण्डिता प्रणयनी के कमलमुख से हिमरूपी अक्षु पोंछने के लिये सूर्य के प्रवृत्त होने और तेरे उसका हाथ पकड़ने पर ( अर्थात् किरणों के रोकने से ) वह तुझ पर बहुत नाराज होगा यह अतिरम्य कल्पना
सजाने के लिये ' कर ' शब्द का श्लेष आवश्यक समझकर बहुत ही रमणीय योजना की गई है । श्लेष के प्रयोग से कहीं भी रसभंग नहीं होने पाया है । उनके काव्य के पात्रों के नाम विशेष अर्थ स्पष्ट करने वाले हैं । कवि ने पात्रों के वार्तालाप के दौरान अनेक पात्र - राम , रघु , अपर्णा , उमा , चन्द्रिका , प्रियंवदा आदि के नामों के श्लेष द्वारा मनोरंजक व्युत्पत्ति की है ।
अर्थालंकार - स्वाभावोक्ति एवं वक्रोति आदि अलंकारों के द्वारा भी कवि ने अनेक कल्पना चित्र प्रस्तत किये हैं । इन अलंकारों के माध्यम से अपने अप्रतिम नैपुण्य द्वारा अनेक चित्र इने गिने शब्दों में , परन्तु ज्यों के त्यों प्रस्तुत कर दिये हैं । “ ओथ शाकुन्तल ” में सारथि के दौड़ते हुए घोड़े और उनके आगे प्राण बचाने के लिये दौड़ता हुआ हरिण ' कन्या शकुन्तला का वियोग प्रसंग उपस्थित होने पर व्याकुल होते हुये कण्व , रघुवंश ' में पिता के सामने धाय का हाथ पकड़कर आने वाला छोटा बालक रघु आदि के खींचे गये शब्द - चित्रों द्वारा कवि की सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति एवं कौशल का पता लगता है ।
शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर भयभीत प्रिया इन्दुमती से बात करते समय , धनुष के सिरे पर शरीर का आधार देकर खड़े हुये राजा अज की अकड़ , किरीट उतार देने से स्वच्छन्द विखरे हुये केश और ललाट पर श्रमविन्दुओं का सुन्दर वर्णन , कवि ने चुने हुये शब्दों में चित्र की तरह खींच दिया है । ( 2 ) शायद ही किसी चित्रकार की तूलिका से ऐसा चित्र प्रस्तुत हुआ हो ।
स्वभावोक्ति की अपेक्षा उपमा , उत्प्रेक्षा , दृष्टान्तादि अलंकारों में कवि की चंचल , कल्पना का रम्य विलास अधिक दिखाई पड़ता है । इन अलंकारों के माध्यम से , धरा से अम्बर तक विचरण करने वाली और सामान्य लोगों की नीरस तथा भद्दी प्रतीत होने वाली वस्तुओं में भी सौन्दर्य का दर्शन करने वाले कवि की तीव्र दृष्टि तथा कला निपुणता के दर्शन होते है ।
उपमा अलंकार — महाकवि कालिदास की उपमाओं की विविधता , मार्मिकता तथा रम्यता अलौकिता को देखकर ही विद्वानों द्वारा उन्हें ' उपमा कालिदासस्य ' की उपाधि से सुशोभित कियागया है । निश्चित ही कालिदास की उपमायें बड़ी अनूठी हैं । उपमा के प्रयोग में कालिदास आज भी सम्पूर्ण विश्व में अपना सानी नहीं रखते । कालिदास की उपमा का निम्न बिन्दुओं के आधार पर विश्लेषण किया जा सकता है ।
(अ) सौन्दर्य - कालिदासकृत उपमाओं का सौन्दर्य पाठक या श्रोतस की प्रथम दृष्टि में ही मोहित कर देने वाला है । इन्दुमती स्वयंवर के समय एक - एक राजा को पीछे छोड़कर , उन्हें विवर्ण कर आगे बढ़ती हुई इन्दुमती को एक दीपशिखा की अनूठी उपमा से सुशोभित किया गया है । अपने प्रकाश से आगे की अट्टालिकाओं को प्रकाशित करती तथा पीछे की ( 1 ) जो भावनाओं को अपनी धूमशिखा से कालिमायुक्त करती हुई आगे बढ़ती है ।
सामान्य लोगों के चर्म - धक्षुओं द्वारा न दीख पड़ने वाले भावों का सौन्दर्य भी कवि के मनेचक्षुओं से नहीं छिप सका है । मेघदूत में कवि ने विन्य पहाड़ की तलहटी के चट्टानों वाले प्रदेश में वहने वाली नर्मदा नदी के प्रवाह को हाथी के वदन पर खींचे हुये चित्र विचित्र रंगों के बेल बूटी की उपमा देकर कवि ने उसकी रमणीयता व्यक्त की है ।
कालिदास के उपमाओं में निश्चित ही उस सरलता व सौम्यता के दर्शन होते हैं जो सहजरूप है । कहीं भी कृत्रिमता नहीं आने पायी है । क्योंकि उनकी उपमायें प्रकृति के अकृत्रिम वातावरण से ही चुनी गई है।-
(ब) मार्मिकता – कालिदास की उपमायें यथार्थ एवं संक्षिप्त होने पर भी मार्मिकता से परिपूर्ण है । उनकी उपमाओं में अभिव्यक्ति की अनन्य साध्य योग्यता है ।
' अभिज्ञान शाकुन्तल ' में वैखानस द्वारा आश्रम के हरिण के कोमल शरीर में वाण मारने की उपमा रूई के ढेर में अग्नि फेंकने से की गई है।- ( 1 ) इसमें उपमा द्वारा जो व्यंगार्थ निकलता है वह अन्यथा असम्भव है चाहे अमिधा के द्वारा कितना ही लम्बा चौड़ा वर्णन क्यों न किया जावे ।
कालिदास की उपमा कतिपय स्थलों पर पात्र और देश के अनुसा होने के कारण विशेष प्रभविष्णु बन गई है । अभिज्ञान शाकुन्तल के सातवे श्री में मारीचि के कथन में दिये गये उपमान श्रद्धा , वित्त और विधि एक ऋषि के ही मानस में प्रकल्पित हो सकती है । ( 2 ) शांर्गरवादि तपस्वीजनों के साथ आई हुई शकुन्तला को देखकर क्या ही मार्मिक उपमा द्वारा तपस्वियों की रखी आकृति में शकुन्तला के विशेष रूप में चमकने वाले यौवन को सूचित किया गया है । ( 3 ) मेघदूत में यक्ष के द्वारा स्त्रियों के हृदय को दी गई कुसुम की उपमा क्या ही मार्मिक है । देशी पुष्पों की सुगन्ध , रमणीयता और किचिंत ताप से ही कुम्हलाकर नीचे गिर पड़ने वाली प्रवृत्ति वाले पुष्प से स्त्रियों के स्वाभाविक मधुर , कोमल , प्रेममय एवं अल्पविरह से व्याकुल होन वाले हृदय की उपमा क्या ही सुन्दर है । इन्दुमती की मृत्यु के बाद वसिष्ठ का उपदेश मानकर और पुत्र दशरथ की अल्पवयस्क जानकर , अज ने राजपालन में कुछ दिन बिताने पर भी पत्नी शोक से धीरे - धीरे विदीर्ण होने वाले अज के हृदय की उपमा किसी विशाल महल के पास अंकुरित होने वाले और अपनी जड़ धीरे - धीरे फैलाकर कालान्तर में महल को जड़ से उखाड़ डालने वाले प्लक्ष वृक्ष के पौधे से की गई है ।
( स ) अलौकिकता – कालिदास की उपमाओं की अलौकिकता निश्चित ही मन को आश्चर्यचकित कर देने वाली है । देवताओं का अपने स्थान से जबर्दस्ती हटाने वाले शत्रु की , सामान्य नियमों में बाधा डालने वाले अपवादों से उपमा की गई है । बाल्यावस्था की सुन्दर शकुन्तला कण्व ऋषि को अचानक मिलजाने पर उसकी उपमा अर्क वृक्ष पर संयोग से गिर पड़ने वाले नवमालिका से की गई है । त्रिभुवन को सताने वाले तारकासुर की उपमा धूमकेतु से तथा मदनदाह के बाद दुःख से व्याकुल रति की उपमा , तालाव का पानी सूख जाने पर व्याकुल होने वाली मछली से करना अलौकिकता के प्रतीक है । ऋषि वसिष्ठ की धेनु के पीछे चलने वाले दिलीप को , श्रद्धायुक्त विधि की , माता को अलंकृत करने वाले भरत की , सम्मत्ति की शोभा बढ़ाने वाले विनय की उपमायें निश्चित ही पाठकों को चमत्कृत कर देती हैं ।
( द ) औचित्य - कालिदास की सभी उपमायें वेशकाल एवं पात्रों के अनुरूप ही दी गई हैं । प्रसंगानुकूल होने के कारण वे सभी अपने पूर्वतः औचित्य पूर्व प्रतीत होती हैं । खब्बू व पेटू विदूषक के मुख से चन्द्रमा को टूटे हुये मोदक की , समुद्रगृह के पास शिलाखण्ड पर सोये हुये मोटे विदूषक की निपुणिका द्वारा बाजार के सांड की ओर सदैव अध्ययनरत कण्व के द्वारा शकुन्तला को दी गई शिक्षा की उपमायें वास्तव में देखने योग्य है । पात्रों के स्वभावानुकूल होने के कारण अत्यन्त औचित्यपूर्ण है ।
( इ ) पूर्णता कालिदास की उपमाओं में अपने पूर्ववर्ती कवियों के विपरीत उपमान और उपमेय का सर्वागीण साम्य दिखाई देता है । इसीलिये इनकी उपमायें अधिक चमत्कारोत्पादक है । अलंकार शास्त्रियों के नियमानुसार उपमान और उपमेय का लिंग , वचन आदि में साम्य होना चाहिये । अभिज्ञान शाकुन्तल में - " कथमिदानी तातस्यांकात्परिभ्रष्टा मलयतटोन्मूलिता चन्दनलतेव देशान्तरे जीवितं धारयिश्ये । - शकुन्तला के इस भाषण में कवि ने जानबूझकर चन्दनलता शब्द की योजना कर लिंग साम्य कर दिया है । रघुवंश में इन्दुमती स्वयंवर के समय अपने स्थान पर बैठे हुये अज के उच्चासन को पर्वत शिखर की आसन पर पहुँचने के लिये बनाई गई सीढ़ियों को पर्वत के पास पड़ी चट्टानों की उपमा देने से , सिंह से अज का सर्वागीण साम्य बैठ जाता है । - ( 1 )
अन्य अर्थालंकार - कालिदास की उपमा अलंकार अधिक प्रिय होने पर भी उनके काव्य में रूपक , उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों की रमणीयता भी देखने योग्य है । रघुवंश में ' मन्मयथरेण ताडिता ' ( 1 ) तथा ' अभिज्ञान शाकुन्तल ' में ' अनाघ्रातं पुष्पं किसलयमलूनं कररूहैः ' - ( 2 ) इत्यादि में रूपक का बड़े ही सुन्दर ढंग से निर्वाह किया गया है । इसमें अनेक रूपकों द्वारा शाकुन्तला सौन्दर्य , कोमलता तथा उन्माद कला इत्यादि गुण सूचित किये गये हैं ।
उत्प्रेक्षा अलंकार के चमत्कार वर्णन में भी कवि का मन काफीरमा है । मेघदूत में तो कवि ने उत्प्रेक्षा की मानो झड़ी लगा दी है । पाक्वफलचारी आम्रवृक्षों से आच्छादित आम्रकूट पर्वत पर मेघ के आने पर वह पर्वत ऐसा दिखाई देता है मानो पृथ्वी का अनावृत स्तन है । चर्मण्वती नदी का जल लेने के लिये मेघ के झुकने पर गगन बिहारी व्यक्तियों को ऐसा मालूम होगा मानो वह पृथ्वी के मोतियों का एक हार है जिसके बीच में इन्द्र नीलमणि जड़ा हुआ हो । शुभ्र कैलाश पर्वत मानो भगवान शंकर का प्रतिदिन बढ़ने वाला हास्य संचय है ।
दृष्टांत अलंकार भी कवि को उत्प्रेक्षा के समान प्रिय प्रतीत होता है । रघुवंश में इन्दुमती की मृत्यु एकाएक होते ही उसका शरीर अज के शरीर पर गिर पड़ा और उसको तत्काल मूर्छा आगई । उस समय दीपक से तेल बिन्दु के साथ नीचे गिरने वाली दीपज्योति का रमणीय दृष्टान्त कवि द्वारा प्रस्तुत किया गया है । शकुन्तला के द्वारा दुष्यन्त के प्रति अनुराग व्यक्त करने पर उसकी सखियाँ ‘ सागर मुत्सित्वा कुत्र या महान युवतरति ' तथा ' क इदानी सहकार मुज्जित्वाऽतिमुत्लतां पल्लवितां सहते ' इस प्रकार के अनुरूप दृष्टान्त प्रस्तुत करती है । निर्दय दुर्वासा के सिवा अन्य कौन निरपराध शकुन्तला को शाप दे सकेगा ? यह भाव ' को वो हुतवहदद्ग्धुं प्रभवति ' इस दृष्टान्त द्वारा किस चतुराई के साथ व्यक्त किया गया है ।
कालिदास के अर्थान्तरन्यास में कवि के व्यवहारिक अनुभवों का सारसर्वस्व अत्यन्त रसीली वाणी में अंकित हुआ है । ‘ मरणं प्रकृतिः शरीराणां ' , किमिव हिमचुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् ' " भिन्नरूचिर्हि लोकः महदपि परदुःख शीतलं सम्यगाहुः ' इत्यादि उक्तियाँ उनके अर्थान्तरन्यास के श्रेष्ठ उदाहरण हैं ।
वास्तव में कवि कुलगुरू कालिदास का काव्य सम्पूर्ण विश्व के सहृदयों को रसोदधि में निमज्जित कर देने वाला है । गोवंर्धनाचार्य की कल्पनानुसार हम कह सकते हैं कि
" जग के अतल महासागर का तेरी कविता मोती ।
अचरजगरी , मधुर , सुखदा , पद पद पर इंकृत होती ।
मायाविनी , सरल , पथ - प्रदर्शक , पिककंठी , रसभीनी ।
कौन नहीं खोया इसमें यह सकल - विबुध - मन - चीन्ही ।। " – ( 1 )
" शब्द और अर्थ का चारूत्व "
" शब्दार्थों सहितौ काव्यम् " ( भामह )
शब्द और अर्थ के चारूत्व से युक्त साहित्य ही काव्य कहलाता है । शब्द और अर्थ ही काव्य का शरीर एवं प्राण तत्व है । शब्द और अर्थ ही काव्य को रचनात्मक तत्व है । शब्द उस धारण का द्योतक है , जो भाषा मात्र का आधार तत्व है । यह प्रत्येक उक्ति का प्राण है । शब्द और अर्थ की सम्पूर्णता तथा
उन दोनों के नित्य साहचर्य का सिद्धान्त भारतीय आचार्यों ने निर्विवाद रूप से मान लिया है । - ( 1 )
“ नित्यः शब्दः नित्यः अर्थः नित्यः शब्दार्थ सम्बन्धः "
महाकवि कालिदास ने वाक् और अर्थ का शिव शक्ति के समान ही सामरस्य माना है । ( 2 ) शब्दार्थ का यही सामरस्य काव्य में पूर्णता को पहुँच जाता है और इसी का परिणाम रसनिष्पत्ति है ।
शब्द और अर्थ का सहचर्य भाषा मात्र का प्राण है । प्रत्येक शब्द में एक अर्थ की क्षमता तथा समुचित अर्थ देने की आकांक्षा है । उधर अर्थ भी किसी उपयुक्त शब्द के आकार में परिणत होने के लिये आतुर है ।
किसी भी काव्य के शब्द सस्वर होने चाहिये , जो बोलते हों , सेव की तरह जिनके रस की मधुर लालिमा भीतर न समा सकने के कारण बाहर झलक पड़े , जो अपने भाव को अपनी ही ध्वनि में आँखों के सामने चित्रित कर सके , जो झंकार में चित्र और चित्र में झंकार हो । “ कालिदास ने भी एक कुशल स्वर्णकार की भाँति प्रत्येक शब्द की ध्वनि , वर्ण और अर्थ की दृष्टि से नाप तोल और काँट - छाँट कर तथा कुछ नये गढ़कर अपनी सूक्ष्म भावनाओं को कोमल कलेवर दिया है । उनकी भाषा भावों की अनुगामिनी बनी हुई है । शब्द सौन्दर्य का भी काव्य क्षेत्र में बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है , जिसके अभाव में प्रायः तत्वरूप बीज अंकुरित और पल्लवित हुये बिना अपने आकर्षण , सौन्दर्य और सरसता को खो बैठते हैं । इसलिये उत्कृष्ट और सफल काव्य के लिये यह आवश्यक है कि उसके परिपुष्ट भावधारा तथा समर्थ अभिव्यंजना गंगा - यमुना के समान काव्य के संगम स्थल पर हिल - मिल कर बहें और इस प्रकार अपने तटवासियों के हृदय को अपनी सम्मिलित तरंगों के आनन्दलोक में डुबा दें , तन्मय कर दें ।
काव्य के सभी उपकरणों में शब्द - सौन्दर्य का सर्वाधिक महत्व तो निर्विवाद ही है , बल्कि यों कहना चाहिये कि उसके बिना पूरा साहित्य ही निराकार कल्पना मात्र रह जाता है । सुमित्रानन्दन पंत के शब्दों में ' शब्द—संसार नादमय चित्र है , ध्वनिमय स्वरूप है । यह विश्व की हृदतन्त्री की झंकार है , जिसके स्वर में वह अभिव्यक्ति पाता है ।
शब्दमयी अभिव्यक्ति का ( सौजन्य ) कवि के काव्य - सृजन का अपूर्व गौरव है । इसके लिये वह कोरी कल्पना की निश्चित चाँदनी में ही नहीं विचरता , प्रत्युत जीवन एवं जीवनेतर मानव एवं मानवेतर सम्पूर्ण वस्तु जगत के प्रांगण में भटककर - उस गोपनीय सत्य को भी पा जाने का निरन्तन प्रयास करता है , जो उसके सृजन क्षणों में अनायास उषा की रतिभ - राशि का मृदुल संस्पर्श पाकर खिल उठने वाले राजीव की भाँति , उसके अधरों से दिगन्त संगीत के स्वर - लहरी में फूट निकलता है । और फिर उस रूप को देखकर वह फूला नहीं समाता । इसी में काव्य - सृजन का निगूढ सौन्दर्य एकीभूत रहता है ।
जब कवि या साहित्यकार सृजन - साधना में लीन होता है तब उसकी अन्तः अनुभूति का भावावेश अधरों पर शब्द - संगीत के रूप में ही तरलित होता है । और यह शब्द माधुर्य की तरलता ही जहाँ उसे उसके अन्तिम गन्तव्य तक पहुँचा देते हैं , जहाँ दूसरी ओर मूर्त - सौन्दर्य की भी सृष्टि करते हैं । जहाँ मूर्त - सौन्दर्य से तात्पर्य एक ऐसे रूपाकार से है , जो कवि – अभिव्यक्ति में प्रयुक्त उपकरणों की सहायता से सहृदय की भावयित्री – प्रतिभा में कल्पना का सुयोग पाकर खड़ा होता है , जिसमें भले ही पाषाण - प्रतिमा सदृश एक स्थूल संगीत न हो , लेकिन सुन्दर का आकर्षण और रूप का अपूर्व माधुर्य अवश्य विद्यमान रहता है । और वही सुन्दर का आकर्षण तथा रूप का माधुर्य साहित्य में काव्य रूपों की आधार - भूमिका है ।
काव्य में शब्द सौन्दर्य के प्रस्तुतीकरण हेतु तीन विशेषताओं की आवश्यकता है — शब्दचित्रों पर अधिकार की क्षमता , वर्णन या आकलन की कुशलता और अंतिम सम्पूर्ण सम्प्रेष्य को इस रूप में प्रस्तुत करने की समर्थता , कि समग्रतः वह एक उदात्तता को प्रस्तुत कर दे । अतः कवि को अपने काव्य - प्रेषण की पूर्ण सफलता के लिये , जहाँ जीवन के गूढ तथ्यों को भलीभाँति समझ लेने तथा परख लेने की अपेक्षा है , वहाँ कला की साधना के लिये उन तथ्यों को पाठक तक पहुँचा देने के लिये सौन्दर्य के मर्म को भी जान लेना अनिवार्य है । क्योंकि कवि का प्रेष्य हवा में उड़कर पाठक तक नहीं पहुँचता । उसे शब्द शैली बिम्ब , प्रतीक तथा रूप का सहारा लेना ही पड़ता है ।
सुमधुर शब्दावली से परिपूर्ण छन्दोबद्ध काव्य , चुम्बक के पार्श्ववतीं लौह - चूर्ण की तरह अपने चारों ओर एक आकर्षण - क्षेत्र तैयार कर लेता है , उसमें एक प्रकार का सामन्जस्य , एक रूप विन्यास आ जाता है , उसमें राग की विद्युत – धारा बहने लगती है , उसके भाव स्पर्श में एक प्रभाव तथा शक्ति पैदा हो जाती है ।
काव्य के उपादान शब्द और अर्थ दोनों ही पारमार्थिक रूप में लौकिक शब्द और अर्थ से भिन्न होते हैं । - ( 1 ) सौन्दर्य एक अखण्ड वस्तु है । उसकी अनुभूति ही चरम पराकाष्ठा पर पहुँचकर रस - निष्पत्ति कहलाती है । चर्वणा सौन्दर्यानुभूति की चरम पराकाष्ठा है । सहृदय कभी सामग्री के सौन्दर्य पर मुग्ध होता है , कभी रूप - सौन्दर्य पर और कभी ध्वनि सौन्दर्य पर । शब्द के छोटे से छोटे अंश वर्ण , स्वर , काकु का संबंध काव्य के शारीरिक सौन्दर्य से है । और अर्थ का सम्बन्ध काव्य की आत्मा से है । गोस्वामी तुलसीदास ने भी शब्द अर्थ की उपमा जल व उसमें उठने वाली लहरों से की है । - ( 2 ) शब्द और अर्थ में पृथक - पृथक सौन्दर्य की कल्पना में भोगतत्व का ही सौन्दर्य देखना है । शब्द और अर्थ ही तो वह सामग्री है जिससे काव्य के शरीर का निर्माण होता है । पहले के आचार्य काव्य में शब्द और अर्थ में से किसी एक को दूसरे की अपेक्षा अधिक महत्व देते रहे हैं । इसका कारण व्याकरण अथवा मीमांसा में से किसी एक की ओर अधिक झुकाव हो सकता है । लेकिन भामह , कुन्तक आदि आचार्यों ने शब्द और अर्थ में से किसी एक के सौन्दर्य को ही काव्य मान लेने का खण्डन किया है । माघ कवि को भी शब्द और अर्थ दोनों ही काव्य के लिये आवश्यक प्रतीत हुये।- ( 1 )
अर्थशून्य शब्द तथा शब्दाभाव में अर्थ को , भारतीय आचार्य कल्पना नहीं करना चाहता । व्यापक अर्थ में विचार और भाव की अभिव्यक्ति के लिये प्रयुक्त होने वाले संकेत , स्वर , नाद , रंग रेखा आदि सभी माध्यम कला - क्षेत्र में भाषा के नाम से ही अभिहित होते हैं । पर वस्तुतः अर्थ की अभिव्यक्ति का उपयुक्त एवं सक्षम माध्यम तो शब्दही है ।
अपने अनुरूप अर्थ की व्यंजना के आकांक्षा शब्द में और उपयुक्त माध्यम चुन लेने की आतुरता अर्थ में सहज है । इस अनुरूपता एवं सन्तुलन को प्राप्त कर लेने के लिये शब्द और अर्थ दोनों ही विफल है । यह अनुरूपता सन्तुलन एवं परस्पर स्पर्द्धिता ही शब्द और अर्थ एवं उनके साहित्य का सौन्दर्य है । काव्य में शब्द अर्थ से तथा अर्थ शब्द से अधिक रमणीय हो जाने की प्रतिस्पर्धा में लगे हुये हैं । ज्यों ज्यों पाठक विचार करता है , त्यों त्यों उसे काव्य के शब्द और अर्थ एक दूसरे से अधिक रमणीय प्रतीत होते हैं । इस प्रकार काव्य में ही शब्द और अर्थ की रमणीयता की पराकाष्ठा मानी गई है ।
स्वर , वर्ण , नाद , काकु , व्यंग्य , प्रकरण आदि में अपना - अपना एक विशेष सौन्दर्य है । वे शब्द और अर्थ के गुण है । काव्य के उपादान शब्द और अर्थ का अपना एक पृथक सौन्दर्य है । काव्य इन सौन्दर्य तत्वों का उपयोग भी करता है पर काव्य का इससे एक भिन्न सौन्दर्य भी है । काव्य न केवल शब्द की रमणीयता है और न केवल अर्थ की । वह दोनों के मिश्रण अथवा साहित्य की , शब्दार्थ से भिन्न एक पृथक सत्ता वाली रमणीयता है । इस प्रकार - " काव्य न केवल शब्दगत सौन्दर्य है और न केवल अर्थगत , पर उसके साहित्य का सौन्दर्य है । प्रत्येक तिल में से निकले तैल के समान है।- ( 1 ) जिस प्रकार अंग - प्रत्यंगों की समष्टि , उसका एक विशेष प्रकार का क्रम अथवा संघटन ही शरीर होता है , अंगों का क्रमहीन समूह मात्र नहीं , उसी प्रकार शब्द और अर्थ का साहित्य काव्य है , क्रमहीन समूह मात्र नहीं । जो स्थान सादृश्य का चित्रकला में है , तथा राग का संगीत में है वही स्थान काव्य में कवि - व्यापार द्वारा उद्भावित शब्दार्थ के साहित्य का है । वस्तुब्रह्म का शरीर सादृश्य , नाद्ब्रह्म का शरीर राग तथा रसब्रह्म का शरीर साहित्य है ।
शब्द और अर्थ की रमणीयता और सामर्थ्य अन्योन्याश्रित है । पर शब्द और अर्थ के यह परस्पररूप तथा अन्योन्याश्रित रमणीयता भी वस्तुतः साहित्य भावना या औचित्य को प्राप्त करने की विकलता के अतिरिक्त कुछ नहीं है । कुन्तक ने साहित्य भावना से अपुष्ट अनौचित्य - प्रवर्तित और असमर्थ शब्द से प्रतिपादित अर्थ को मृतकल्प तथा अर्थ की साहित्य भावना से शून्य शब्द को व्याधिभूत कहा गया है । - ( 1 )
काव्य का वह मूल सौन्दर्य जो उसकी अन्य कलाओं अथवा शास्त्रों से अलग करता है , साहित्य ही है , वह सर्वमान्य सिद्धान्त है । यही शब्दार्थ के साहित्य का सौन्दर्य विकसित होकर उस रूप में परिणित हो जाता है । महामहोपाध्याय डॉ . कुण्डपुस्वामी ने कालिदास के ' वागार्थाविव ' के प्रतिश्लोक के अर्थ - परमेश्वर ' तथा ' शब्द पार्वती के सामरस्य अर्थात् साहित्य से रसस्कन्द की उत्पत्ति के रूपक को स्पष्ट किया है । इसमें रस - स्कन्द ' की उत्पत्ति अर्थात् अभिव्यंजना के लिये शिव पार्वती के विवाह रूप शब्दार्थ के सामरस्य को कारण मान लेना स्पष्ट है ।
कविकुलगुरू कालिदास के काव्य में वाणी का रोआँ - रोऔं संगीत में सनकर , रस से परिपूर्ण द्राक्षा की भांति फूल उठता है , सुरों में सधी हुई वीणा की तरह उसके तार किसी अज्ञात वायवीय स्पर्श से अपने आप अनवरत झंकारों में कांपते रहते हैं । पावस की तंमिस्रा में खद्योत की भांति अपनी ही गति में प्रवाह प्रसारित करते रहते हैं । कालिदास ने शब्द और अर्थ की एकता को पार्वती परमेश्वर की एकता का उपमान बताकर अपने अमर काव्य रघुवंश के प्रथम श्लोक द्वारा इस अटूट संबंध को महत्ता प्रदान की है । ( 2 )
कालिदास के काव्य में प्रत्येक शब्द श्रेष्ठ मणि के समान अपने यथोचित स्थान पर जड़ा हुआ है , जो मानो अर्थ का मोती बन गया है जिन्हें अपने स्थान से किंचित भी हटाया नहीं जा सकता । अपने भावों की इस खूबी के साथ व्यंजित करने में कालिदास सिद्धहस्त है । रघुवंश के इन्दुमती स्वयंवर , संरक्षण करती हुई दीपशिखा के समान इन्दुमती के द्वारा एक - एक राजा को पीछे छोड़कर आगे बढ़जाने पर अंधकारमय अट्टालिका के समान नृपों की मुखकान्ति भी मलिन पड़ जाती है । भावानुरूप ही शब्द - सौन्दर्य दृष्टव्य है । -
शब्द - सौन्दर्य के समान ही कवि के काव्य में अर्थ - सौन्दर्य भी अनूठा है । ऋषि अंगिरा द्वारा गिरराज हिमालय से शंकर के लिये पार्वती की मंगनी की प्रार्थना करने पर पास ही बैठी हुई पार्वती की मनोदशा का वर्णन ‘ कुमारसंभव ' में किस खूबी के साथ किया गया है । - ( 2 ) " देवर्षि अंगिरा इस प्रकार जब बोल रहे थे तब पिता के पास सिर नीचा किये बैठी हुई पार्वती ( हाथों में लिये हुये ) लीला कमलों के पत्र गिनने लगीं । " - यहाँ पर कमलपत्र की गणना के वर्णन से पार्वती की लज्जा , उनके मन का प्रेम और आनन्द छिपाने का उनका प्रयत्न अति सुन्दर रीति से सूचित किया है ।
मेघदूत में गंगावर्णन भी बड़े मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है । यक्ष मेघ से कहता है कि - " फिर तुम कनखल के पास हिमालय से नीचे गिरती हुई और सगर पुत्रों के स्वर्गारोहण करने के लिये सीढ़ी स्वरूप जानुकन्या गंगा की ओर जाना , जिसने पार्वती की त्यौरी चढ़ी देख मानो फैनरूपी हास्य करके . ललाट स्थित चन्द्र तक अपने तरंग रूपी हाथ ऊँचे उठाकर श्री शंकर के बालों का जूड़ा पकड़ लिया है । इसमें सगर पुत्रों को स्वर्ग प्राप्ति का साधन होने से गंगा की पवित्रता और पार्वती के सपत्नीत्रोमात्सर्य की परवाह न करके श्री शंकर जी ने उसे अपने सिर पर स्थान दिया है । अतः गंगा का महत्व सूचित होने से रमणीयता आ गई है । कालिदास का प्रत्येक पद और लिंग , विभक्ति , बचन इत्यादि अवयव भी रमणीयार्थव्यंजक बन गये हैं । आनन्दवर्धन , मम्मट इत्यादि के अनेक उदाहरण इस बात के साक्षी हैं ।
किसी रमणीय कल्पना के मन में आते ही अन्य कवि जहाँ उसका लम्बा चौड़ा वर्णन करते हैं वहाँ कालिदास बहुत ही गिने - चुने शब्दों में उसका रेखाचित्र खींचकर उसमें रंग भरने का काम पाठकों की सहृदयतार पर छोड़ देते हैं । इसलिये इनके काव्य ' क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति ' वाली रमीयत्व की कसौटी पर पूर्ण रूप से खरे उतरते हैं और उन्हें पढ़ते समय मन कभी नहीं ऊबता । उदाहरणार्थ कुमार सम्भव में मदन दहन के पश्चात् वसन्त को देखकर रति का दुःख दुगना हो जाता है , इस भाव को व्यक्त करने हेतु कालिदास ने ' स्वजनस्य हि दुःखमग्रतो विवृतद्वार मिवोपजायते ' . इस पंक्ति में विवृत्तद्वारमिव ' इस छोटे सी उक्ति उत्प्रेक्षा में घर्घर ध्वनि के साथ बहते हुये पानी के समान दुःख का अनिवार्य प्रवाह सूचित कर दिया है । मेघदूत में यक्ष के द्वारा किया गया अपनी विरहणी पत्नी का वर्णन दर्शनीय है । ( 1 ) रात - दिन अश्रु बहाने से सूजी हुई उसकी आँखे , उष्ण निःश्वासों के कारण विर्ण अधरोष्ठ , हथेली पर रखे हुये और लम्बे वालों से ढक जाने के कारण आधे दीख पड़ते हुये उसके मुख के वर्णन से यक्ष पत्नी का विरह - दुःख - और विषाद चिंता इत्यादि मनोविकार किस खूबी के साथ व्यक्त किये गये है कि सम्पूर्ण वर्णन पढ़कर पाठकों के हृदय में विप्रलग्ध यक्ष - पत्नी के प्रति सहानुभूति हुये बिना नहीं रहती । कविता के उद्गमभूमि है मानव हृदय । आध्यान्तरिक अनुभूति की गंभीरता उसका मर्मस्थल होता है । इसी गम्भीर अलौकिक अनुभूति को चित्रमयी सुमधुर – लपयुक्त शैली का बाना पहना देने से रसभावयुक्त मनोहारिणी कविता का सृजन होता है । इसी कारण कविता को चित्रपूर्ण तथा लयपूर्ण कहा जाता है । सफल कवि अपने वर्ण्य विषय का जीता जागता चित्र ही नहीं खींच देता बल्कि हमारे हृदयों में वही भाव जागृत कर देता है जिनसे प्रभावित होकर वह काव्य निर्माण में तत्पर हुआ था । आदर्श कविता का यही एक मात्र रहस्य है तथा महाकवि कालिदास के काव्य में यह गुण कूट - कूट कर भरा है चित्रात्मक कविता ही उनके काव्य की विशेषता है ।
काव्य की अलौकिता के कारण ही अग्निपुराण के रचयिता वेदव्यास जी ने कवि को अपने काव्य संसार का प्रजापति बताया है । ( 1 ) कविता की इस अलौकिक प्रतिभा के सम्बन्ध में डॉ 0 के 0 सी 0 पाण्डेय ने लिखा है कि किसी सौन्दर्यात्मक पदार्थ के स्पष्ट अन्तदर्शन करने वाली शक्ति को प्रतिभा कहते हैं । ( 2 ) काव्य प्रयोजन का सर्वप्रथम कारण प्रतिभा ही है । आनन्दवर्धनाचार्य - ( 3 ) ने महाकवि की प्रतिभा की अभिव्यक्ति उनकी रचना के प्रतीयमान अर्थ को ही माना है । उनके अनुसार काव्य के आस्वादनीय अर्थ तत्व को स्फुरित करने वाली महाकवियों की वाणी उनकी अलौकिक असामान्य प्रतिभा विशेष को प्रकट करती है , - वे विशिष्ट प्रतिभा सम्पन्न महान कवियों में कालिदास आदि कुछ विशिष्ट कवियों को ही स्थान देते हैं । ऐसी प्रतिभा कवियों में संस्कार जन्य ही होती है ।
कालिदास ने अपने सभी ग्रन्थों में माधुर्य व्यंजक कोमल वर्णों वाली सर्वोत्कृष्ट वेदर्भी रीति का प्रयोग किया है । एक तो संस्कृत भाषा स्वयं ही श्रुति मनोहर है और फिर कालिदास के द्वारा प्रयुक्त सुमधुर कोमल पदावली ।
अतएव उनके काव्य एक विद्वान के कथनानुसार शहद के समान मीठे हो गये हैं । नादमधुर शब्द योजना की ओर टेनिसन की तरह कालिदास ने बहुत ध्यान दिया है । उनके श्लोक नवोन्मीलित पुष्पों के समान ताजे और रस से भरे हुये हैं । इसी में कविवर की कला का परमोत्कर्ष है । ललित पदयोजना पर कालिदास का विशेष आग्रह था , इसी से उनके काव्य श्रुतिमनोहर बन पड़े हैं । इन्हीं सुमधुरादि गुणों के कारण ही कृष्ण कवि ' ने उनकी वाणी को ' प्रियांक पालीव ' अर्थात् प्रिय के अंक में विराजमान प्रिया के समान ही , सहृदय रसिकों के हृदय में विराजमान बताया है ।
" जिसकी वाणी सप्तलोक का रंजन करने वाली ,
दोषों से रहित सुधा की नाई सदा मतवाली ।
प्रिय के अंक लगी प्यारी सी सदा हृदय में डोले ,
जग की मुदी आँख को अपने मधुर स्वरों से खोले ।। "
" भारतीय अलंकारिकों द्वारा काव्य लक्षण में अलंकार और सौन्दर्य '
सामान्यतः किसी वस्तु अथवा व्यक्ति की शोभा की अलं अर्थात् पूर्ण एवं पर्याप्त करने के साधन को अलंकार कहते हैं । अलंकरण की प्रवृति मनुष्य में स्वाभाविक होती है । इसके द्वारा उसके आत्मभाव और गौरव में वृद्धि होती है । यद्यपि अलंकार वाह्य साधन होते हैं तथापि इनके पीछे अलंकृतिकार की आत्मा का उत्साह और जोश छिपा रहता है । अलंकारशास्त्र के इतिहास के प्रारंभिक काल में अलंकारों का विशेष महत्व रहा । इस शास्त्र का अलंकार शास्त्र के नाम से अभिहित होना ही अलंकारों की महत्ता का द्योतक है ।
आभूषणों के द्वारा जैसे ललित लावण्यमयी अंगनाओं के कोमल - कान्त - कलेवर भूषित होने के कारण चित्त में प्रसन्नता होती है , वैसी ही अलंकारों द्वारा उत्पन्न करने के विचार से ज्ञानपटु तथा शब्द , ध्वनि एवं भाषा तत्वज्ञों ने वर्ण - विन्यास , शब्दों के सुष्ठु , संगठन तथा पदों के प्रमोदकारी पदों की सुव्यवस्था एवं सजावट के सिद्धान्त या नियम निकाले । फलतः अनुप्रास , यमक आदि शब्दालंकारों का अविर्भाव एवं विकास हुआ । इसमें फिर सुवर्ण - विवेचना तथा उनके सुव्यवस्थित संगुम्फन का कार्य हुआ है और फलतः पिंगलशास्त्र का जन्म हुआ ।
अलंकारशास्त्र निश्चित ही प्राचीनकाल में अलंकरों की महत्ता का आवश्यक द्योतक है । बाद में भले ही अलंकारों की महत्ता न रही हो । रूपक के साहित्य मीमांसा और विश्वनाथ के ' साहित्य दर्पण ' में साहित्य शब्द की प्रधानता मिलती है फिर भी अलंकारशास्त्र बहुत प्रचलित है । काव्यादर्शकार आचार्य दण्डी ने अलंकार की परिभाषा देते हुये लिखा है
“ काव्यशोभाकरान्यमांनलंकारान्प्रचक्षते "
अर्थात् काव्य की शोभा करने वाले धर्मों को ही अलंकार कहते हैं । इसी भाषा को परिमार्जित और परिष्कृत करते हुये विश्वनाथ अपने साहित्यदर्पण में कहते हैं
" शब्दार्थयोरस्थिराये धर्मः शोभतिदायिनः
रसादीनपकुर्मन्तोऽलंकारास्तेऽगंदादिवत् ।।
अर्थात् शब्द एवं अर्थ के उन अस्थिर धर्मों को अलंकार कहते हैं जो शब्दार्थधेय काव्य की शोभा को प्रवर्तित करते हैं , तथा रस और भावादि के उपचारक एवं उत्कर्षकारक है । "
श्री मम्टाचार्य अपने ' काव्य प्रकाश ' में कहते हैं -
“ काव्यशोभायाः कर्तारौ धर्मा गुणः
तदतिशय हेतवस्त्वलंकाराः ।।
अर्थात् काव्य में शोभा लाने वाले को गुण कहते हैं , उनके अतिशय या उत्कर्ष के हेतु अलंकार है । इस प्रकार अलंकारों को काव्य - सौन्दर्यकारी गुणों का उत्कर्ष माना है । उन्होंने गुणों को रसों का अंगीधर्म व उनके उत्कर्ष के हेतु मानते हुये अलंकारों का हारादि भूषणों के समान अंगद्वार से उन गुणों का उपकार करने वाला कहा है । ( 1 ) भाष्यकार ने – “ अलंक्रियतेऽनेनेति कारणव्युत्पत्रया अलंकार शब्द ” कहकर इन्हें शोभाकारी ही प्रकट किया है ।
हेमचन्द्र ने भी अलंकार को काव्यांगाश्रित कहा है और आभूषणों के समान कहा है
" अगांश्रिता अलंकाराः
भाष्यकार यहीं पर कहते हैं - रसस्यांगिनी यदगं शब्दार्थों तदाश्रिता अलंकाराः ' रस के अंगी रूप शब्द और अर्थ के आश्रित रहने वाले अलंकार है ।
चन्द्रलोकाकार जयदेवपीयूषवर्ण ने तो यहाँ तक कह दिया कि यदि कोई काव्य को अलंकार रहित मानता है तो अपने को पण्डित मानने वाला वह व्यक्ति अग्नि को उष्णता रहित क्यों नहीं कहता
" अंषीकरोतियः काव्यं शब्दार्थावनलंकृती ।
असौ नमन्यते कस्मादनुष्णमनलंकृती ।। - ( 1 )
इसमें मम्मटाचार्य की दी हुई काव्य - परिभाषा मे आये हुये – ' अनलंकृती पुनःक्वापि ' – वाक्यांश पर करारा व्यंग्य है । भामह का कथन है । - ( 2 )
“ न कान्तमपि निर्भूषणं विभाति वनितामुखम् । ”
अर्थात् – ' सुन्दर होते हुये भी आभूषणों के बिना वनिता का मुख शोभा नहीं देता उसी प्रकार अलंकारों से रहित काव्य शोभा नहीं देता । इसी प्रकार स्वर में स्वर मिलाते हुये हिन्दी में केशवदास ने भी कहा है
“ जदपि सुजाति सुलक्षणी ,
सुवरन सरस सुवृत ।
भूषण बिन न बिराजई ,
कविता वनिता मित्त ।।
इसमें ' कविता ' , वनिता और ' मित्र ' के लिये ऐसे विशेषता दिये हैं जो श्लेष द्वारा तीनों के सम्बन्ध में लागू हो सकते हैं । ' सुवरन ' का अर्थ ' कविता ' के पक्ष में सुन्दर अक्षर वाला और ' वनिता ' तथा ' मित्र ' के पक्ष में अच्छे वर्ण ( रंग ) वाले और इसी प्रकार ' सुवृत्त ' का कविता के पक्ष में अच्छे छन्दवाली और वनिता तथा मित्र के पक्ष में अच्छे चरित्र वाले होगा ।
ऐसे आचार्यों ने , विशेषकर केशव ने अलंकार शब्द का अर्थ बहुत विस्तृत दिया है । केशव ने अलंकारों में वर्ण्य - विषय भी शामिल कर लिये हैं । आचार्य वामन ने गुणों की शोभा को कारण माना है और अलंकारों की शोभा को अतिषयता देने वाला या बढ़ाने वाला कहा है । यथा
" काव्यशोभायाः कर्तारोधर्मा गुणः । " ( माघ )
" तदतिशय हेतवस्त्वलंकाराः । " ( 2 )
जब गाँठ की शोभा होती है , तभी अलंकार उसे बढ़ा सकते हैं अथवा यों कहिये कि शोभामान वस्तुओं के साथ ही अलंकार सार्थक होते है । दण्डी ने इनको शोभा का कर्ता माना है ।
जब तक अलंकार आन्तरिक उत्साह के ढ़ग घोतक होते हैं , तब तक तो वे शोभा उत्पन्न करने वाले या बढ़ाने वाले कहे जाते हैं , किन्तु जब वे रूढ़ि या परम्परा मात्र रह जाते हैं तभी वे भाररूप दिखाई देने लगते हैं । परन्तु कुछ अलंकारवादी अलंकारों को ही काव्य का सर्वस्व मानते हैं । अग्निपुराणमेंयदयपि रस को काव्य का जीवन माना है । - ( 1 ) किन्तु अर्थालंकार प्रसंग में यह भी कहा गया है कि
“ अर्थालंकाररहिता विघवेव सरस्वती " ( 2 )
महाकवि कालिदास की मान्यता के अनुसार स्वाभाविक शोभा के होते हुये रूपवान के लिये कोई भी वस्तु अलंकार बन जाती है —
" सरसिजमनुवद्धं शैवलेनापि रम्यं ,
मलिनमपि हिमांषोर्लक्ष्म लक्ष्मी तनोति ।
द्वयमधिक मनोज्ञा वल्कलेनापि तन्वी ,
किमिव हिमधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् ।। ( 3 )
इसी का पदयानुवाद राजा लक्ष्मणसिंह कृत शकुन्तला नाटक में मिलता है । - ( 4 ) परन्तु फिर भी अलंकार नितान्त बाहरी नहीं कहा जा सकता , जो जब चाहें पहन लिये जावें , या उतारकर रख दिये जावें । वे कवि या लेखक के हृदय के उत्साह के साथ बँधे हुये है । हमारी भाषा की बहुत कुछ सम्पन्नता अलंकारों पर ही निर्भर है वे महात्मा कर्ण के कवच और कुण्डलों की भांति सहज होकर ही शक्ति के द्योतक है । कवि के हृदयगत उत्साह से प्रेरित सहज अलंकार ही रस के उत्कर्ष के हेतु बन सकते हैं ।
ध्वनिकार ने अलंकारों का रस से सम्बन्ध बतलाते हुये कहा है कि वे ही अलंकार काव्य में स्थान पाने योग्य हैं , जो रस परिपाक में बिना प्रयास के सहायक हों । ध्वनिकार के मत से रसिक और सहृदय प्रतिभावान पुरुष के लिये अलंकार अपने आप दौड़े हुये आते हैं । और प्रथम स्थान पाने के लिये प्रतिस्पर्धा करते हैं । उनके मत से अलंकारों की सार्थकता इसी में है कि रस और भाव का आभ्रय लेकर चलें -
" रसभावादितात्पर्यमाश्रित्य विनिवेषनम् । " ( 1 )
वैसे भी रस और अलंकार दोनों एक दूसरे की पुष्टि करते आये हैं । अलंकारों के वर्ण्य - विषय किसी न किसी रूप में रस से सम्बन्ध रखते हैं । रसवत् अलंकार तो इसी कोटि का उदाहरण है । कभी - कभी सूक्ष्म और विहित आदि अलंकार केवल क्रिया चातुर्य या वाक् चातुर्य के द्योतक न होकर रस के किसी अंग से ही सम्बन्धित रहते हैं । सूक्ष्मालंकार प्रायः वचन विदग्धा या क्रिया विदग्धा नायिकाओं द्वारा ही होता है । वक्रोक्ति हास्य रस में सहायक होती है । अभिसारिका नायिकाओं की गतिविधि में मीलित और उन्मीलित अलंकारों के उदाहरण मिल जाते हैं । अतिशयोक्ति , विभावना , प्रतीप , उत्प्रेक्षा आदि सभी अलंकार कवि के हृदय में उपस्थित उपमेय को प्रधानता देने की भावना के दयोतक है । अनुप्रास अपनी अपनी वृत्तियों के अनुकूल रसों में सहायक होते हैं । अलंकार अर्थ - व्यक्ति में भी सहायक होकर रस का उत्कर्ष बढ़ाते है ।
अलंकारवादी रस को रस के लिये नहीं वरन् चमत्कार बढ़ाने में सहायक होने के कारण अलंकार के रूप में ग्रहण करते है । अलंकार सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य रूद्रट ने अपने ग्रंथ " काव्यालंकार ' के सोलह अध्यायों में से ग्यारह अध्यायों में अलंकारों का सर्वागीण वैज्ञानिक रूप में . विवेचन किया है ।
नाट्यशास्त्र के रचनाकाल में अलंकार पद्धति अपनी शैशावस्था में थी । भरत ने केवल चार अलंकारों का निरूपण किया है । पर भामह से अप्पय दीक्षित तक उनकी संख्या शताधिक हो गई । एक ओर कुछ परवर्ती आचार्यों ने अलंकारों की संख्या में वृद्धि की कल्पना में ही अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है , वहीं दूसरी ओर गम्भीर तत्वान्विशी आचार्यों ने अलंकार को शास्त्र का व्यवस्थित रूप देकर काव्य की व्यापक शक्ति के रूप में उसे प्रतिष्ठा प्रदान की । दण्डी , महिमभट्ट और वामन की दृष्टि में सौन्दर्य मात्र अलंकार है । यह कविता को सर्वजन - हृदय - संवेद्य सहज सुन्दर रूप देते हैं । इसी रस में , व्यापक सौन्दर्याधायक अलंकार काव्य की आत्मा रूप रस का समवाय सम्बन्ध से उपकारक होते हैं । यह कनक केयूर के समान बहरिंग प्रसाधन सामगी नहीं , अपितु सामान्य नियम के अन्तर्गत परिगणित हाव - भावादि की तरह आत्माकला के रूप में कविता का श्रृंगार करता है । आनन्द - वर्धनाचार्य और अभिनव गुप्त ने प्रतिपादित किया है कि ऐसे रसाक्षिप्त अलंकार अस्थायी रूप से रसात्मकता प्राप्त कर लेते हैं । जैसे बालक्रीड़ा का नायक तत्क्षण राजा होता है ।
भरत द्वारा निरूपित चार अलंकारों में तीन अर्थालंकार उपमा , रूपक , और दीपक है और एक शब्दालंकार यमक है । काव्य - वंधों में गुण और आकृति के सादृश्य के आधार पर जो कुछ उपमित्र है , भरत की दृष्टि से वही उपमालंकार है । लेकिन परवर्ती भामह , दण्डी , वामन , रूद्रट और रूपक आदि ने सादृश्य के सूक्ष्म कल्पनातरंग रंगों की छाया के आधार पर अनेक मौलिक अलंकारों की कल्पना की , उनसे भरत अपरिचित हैं - ( 1 )
उपमा अलंकार के उद्भव का इतिहास तो यास्क के निरूक्त से पूर्ण वैदिक मंत्रों से प्रारम्भ होता है । - ( 2 ) परन्तु भरत ने सर्व प्रथम उसे शास्त्रीय रूप देकर प्रधान भेदों का निर्धारण किया और उसके आधार पर अनेक अलंकार विकसित हुये । सन्देह , भ्रान्तिमान , अतिशयोक्ति , अप्रस्तुत प्रशंसा , अपन्हुति , प्रति वस्तूपमा , तुल्योगिता , उपमेयोपमा और अन्वय आदि उपमालंकार के ही विस्तार है । ( 3 ) अप्पय दीक्षित ने उपमा अलंकार की बड़ी रमणीय कल्पना की है । " उपमारूपी एक नाटक स्त्री काव्य - रंग में विभिन्न भूमिकाओं में अवतरण करती हुई विद्वानों के चित्त का अनुरंजन करती है । ( 4 ) उपमा अलंकार कालिदास की प्राच्जल संवेदनशील अभिव्यक्ति शैली का आधार रहा है । भारतीय कविता के सौन्दर्य -सृजन में उपमालंकार ने महत्वपूर्ण योग प्रदान किया है ।
नाट्यशास्त्र में यमक के विस्तृत विवेचन द्वारा शब्दालंकार का मानों शिलान्यास ही भरत ने किया है । महाकवि कालिदास ने भी रघुवंश के नवम् सर्ग में अपनी यमक - प्रियता का परिचय दिया है । नवम् सर्ग के पहले 54 श्लोकों में दशरथ की राज्य व्यवस्था , वसन्त ऋतु , मृगया , इत्यादि का वर्णन करते समय उन्होंने चतुर्थ पद के प्रारम्भ में ' यमवतामवतां च धुरि स्थितः ' - ( 2 ) - ' सनगर नगरन्ध्रकरीजसः ' - ( 3 ) इत्यादि में यमक की योजना की है । लेकिन कवि के यमकयोजना में कहीं भी रसदोष तथा कृत्रिमता नहीं आने पाई है । इतना ही नहीं , कवि द्वारा योजित यमको के नाद - माधुर्य से पाठकों का मन आनन्दित हो उठता है और कवि के भाषा - प्रभुत्व को देखकर आश्चर्य होता है ।
द्वियर्थक शब्दों की योजना से उद्भूत श्लेष अलंकार के आस्वादन हेतु रसिकता की अपेक्षा विद्वता की विशेष आवश्यकता होती है । सरसता के कवि कालिदास के वाध्मय में इस अलंकार का वर्णन आवश्यकता पड़ने पर कम ही स्थानों पर किन्तु बड़ी चतुराई के साथ किया गया है । ' मालविकाग्निमित्र का संविधानक देते समय मालविका के मुख से राजा पर उपका प्रेम व्यक्त करने के लिये कालिदास ने बड़ी तत्परता से श्लेष का प्रयोग किया है । इसी प्रकार पाँचवे अंक में विदूषों विप्रव्यों भूत्वा त्वामियां यौवनवती पष्य देवी – काम ?
विदू- तपनीयाशोकस्य कुसुमशोभाम्
विदूषक को अलंकृत और यौवन भरी हुई मालविका की ओर राजा का ध्यान आकर्षित करना था , मगर उसके शब्द रानी ने सुनलिये अतएव उसके प्रश्न का उत्तर देते समय यौवनवतीम् ' इस शब्द का श्लेष से दूसरा अर्थ लेकर और अशोक वृक्ष के पुष्प की शोभा से उसका सम्बन्ध लगाकर उसने अपना छुटकारा पा लिया । यहाँ पर छेकापहनुति नामक सुन्दर अलंकार श्लेष द्वारा साधा गया है ।
कालिदास के श्लेषों का अर्थ साधारण पाठकों की समझ में आसानी से आ जाता है और उससे कहीं भी क्लिष्टता या रसभंग होता हुआ दिखाई नहीं देता । मेघदूत में श्लेष योजना दृष्टव्य है —
" तस्मिन काले नयनसलिलं योषितां खण्डितानां ,
शान्तिं नयं प्रणयिगिरतो वर्त्म भानोस्त्यजासु ।
प्रतियाग्रं कमलवदनात्सोंऽपि हतुं नलिन्याः ,
प्रत्यावृत्स्तरवधि कररूधि स्यादनत्पाभ्यसूयः ।। "
इस श्लोक में ' हे मेघ प्रातःकाल अपनी कमलिनी रूपी खण्डिता प्रणयिनी के कमल मुख से हिमरूपी अश्रु पोंछने के लिये सूर्य के प्रवृत होने के समय तेरे द्वारा उसका हाथ पकड़ने पर ( अर्थात् किरणों के रोकने से ) वह तुझ पर बहुत अप्रसन्न होगा इस अतिरम्य कल्पना को सजाने के लिये ' कर ' शब्द का श्लेष आवश्यक समझकर उसकी बहुत ही रमणीय योजना की गई है ।
कालिदास के ग्रन्थों में काल्पनिक पात्रों के नाम भी कुछ खास मतलब से ही रखे गये हैं , जिनके अर्थ श्लेष द्वारा ही स्पष्ट होते हैं । ' मालविकाग्निमित्र ' के पाँचवे अंक में दासी चन्द्रिका के दिखने पर जब राजा विदूषक को दीवार की ओट में छिप जाने के लिये कहता है । तब विदूषक इस प्रकार उत्तर देता है – ' सचमुच चोरों और कामी पुरुषों को चन्द्रिका से बचना चाहिये । इसमें ' चन्द्रिका ' शब्द पर विदूषक ने श्लेष किया है । इसी प्रकार वकुलावलिका , ध्रुवसिद्धि , प्रियंवदा , इत्यादि पात्रों के नाम भी अपना विशेष अर्थ रखते हैं , यह पात्रों के परस्पर सम्भाषण से स्पष्ट होता है । इसी तरह काव्यों में भी उमा , अपर्णा , रघुराम इत्यादि व्यक्तियों के नामों की मनोरंजक व्यापत्ति कवि ने दी है ।
अर्थालंकार के स्वाभावोक्ति और वक्रोक्ति दोनों में ही कालिदास का अप्रतिम नैपुण्य दिखाई देता है । स्वभावोक्ति में कवि देखे हुये या कल्पना किये हुये पदार्थों का अथवा व्यक्तियों का यथार्थ , मिलता - जुलता , साथ ही अति रमणीय , चित्र खींचता है तो वक्रोक्ति में उन पदार्थों या व्यक्तियों को अपनी कल्पनाशक्ति से निर्माण किये हुये अलंकार पहनाता है । उनको ग्रंथों में अनेक प्राणियों को और व्यक्तियों के चित्र बिल्कुल इने - गिने शब्दों में , मगर ज्यों के त्यों दीख पड़ते हैं । ' शाकुन्तल ' में सारथि के दौड़ते हुये घोड़े और उनके आगे प्राण बचाने के लिये दौड़ता हुआ हरिण कन्या शकुन्तला का वियोग - प्रसंग उपस्थित होने पर व्याकुल होते हुये कण्व , रघुवंश में पिता के सामने धाय का हाथ पकड़कर आने वाला छोटा बालक रघु , इत्यादि के खींचे हुये शब्द चित्रों से कालिदास की सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति और वर्णन कौशल दिखाई देता है । इसी प्रकार रघुवंश का एक और उदाहरण दृष्टव्य है -
“ स चापकोटीनिहितैकवाहुः शिरस्त्रनिष्कर्णभिन्न मौलिः ।
ललाट वद्धश्रमवारिविन्दुभीताः प्रियामेत्य वचो बभादे ।। " - ( 1 )
इसमें धनुष के सिरे पर शरीर का आधार देकर खड़े हुये राजा अज की अकड़ किरीट उतार देने से स्वच्छन्द विखरे हुये केश और ललाट पर श्रम बिन्दुओं का सुन्दर वर्णन , कवि ने चुने हुये शब्दों में चित्र की तरह खींच दिया है । शायद ऐसा चित्र किसी अन्य चित्रकार के लिये सम्भव न होगा ।
कालिदास द्वारा वर्णित वक्रोक्तिन्मूलक उपमा , उत्प्रेक्षा दृष्टान्ता अलकारों में चंचल कल्पना का रूप विलास दिखाई पड़ता है । उनमें पृथ्वी से लेकर आकाश तक सर्वत्र स्वैर विहार करने वाली और सामान्य लोगों को नीरस तथा भद्दी मालुम होने वाली चीजों में भी सौन्दर्य का दर्शन करने वाली उसकी तीव्र दृष्टि , विविध शास्त्रों के व्यासंग से उत्पन्न हुई वहुश्रुतता अनेक कलाओं के प्रयोग से प्राप्त नैपुण्य और व्यवहार में आये अनुभवों की स्वच्छ परछाई पड़ी हुई दिखाई देती है । उपमा अलंकार की अलौकिकता के कारण ही कालिदास को ' उपमा कालिदासस्य ' की उपाधि से विभूषित किया गया । उपमा में कोई कवि उसकी बराबरी नहीं कर सकता । ऐसा लगता है कि कवि जब किसी वस्तु का वर्णन करना चाहता है , तभी एक से एक बढ़कर अनेक सुन्दर उपमान उसके आगे हाथ बाँधकर खड़े हो जाते हैं और कवि उनमें से अपनी रूचि के अनुसार चुनाव कर लेता है । कवि की उपमाओं का सौन्दर्य प्रथम ही दृष्टि में आ जाने वाली विशेषता है । सामान्य लोगों के चर्मचक्षुओं को न दीख पड़ने वाली वस्तुओं का सौन्दर्य कवि के मनष्चक्षुओं के आगे नहीं छिपता । उदाहरणार्थ मेघदूत में विन्य पहाड़ की तलहठी के चट्टानों वाले प्रदेश में बहने वाली नर्मदा नदी के प्रवाह का हाथी के बदन पर खींचे हुये चित्रविचत्र रंग के बेल - बूटों की उपमा देकर कवि ने उसकी रमणीयता व्यक्त की है । ( 1 ) अपनी यथार्थता के कारण कालिदासकृत उपमायें पाठकों के मन में वर्णनीय चीज की यथार्थ कल्पना उत्पन्न कर देती है । अभिज्ञान - शाकुन्तल में शार्गरवादि तपस्वी जनों के साथ आई हुई शकुन्तला को वृक्ष के पीले पत्रों के मध्य किसलय की यथार्थ उपमा देकर – ( 2 ) वृद्ध ऋषियों की रवि आकृति में शकुन्तला का विशेष चमकने वाला यौवन सूचित किया है । मेघदूत में ( श्लोक 6 ) यक्ष ने स्त्रियों के हृदय को कुसुम की उपमा दी है । देशी पुष्पों की मादक सुगन्ध , रमणीयता और किंचित गरमी से ही कुम्हलाकर नीचे गिर पड़ने वाली प्रवृत्ति यह सब देखने से स्त्रियों के निसर्ग - मधुर , प्रेममय और अल्प विरह से ही व्याकुल होने वाले हृदय की उपमा यथा योग्य मालुम होती है । रघुवंश में इन्दुमती को संचारिणी दीप शिखा के समान कहा गया है जो रात्रि के समय किसी भवन के सामने पहुँच क्षणभर को उसे आलोकित कर आगे बढ़ जाती है । क्योंकि इन्दुमती जिस राजा के सम्मुख पहुँचती थी , उसका चेहरा भी क्षण भर के लिये आशा से खिल उठता था पर फिर निराशा की निशा में निमग्न हो जाता था । ( 1 ) उपमा वर्णन में भी कालिदास की दृष्टि अति विशाल जान पड़ती है उन्होंने लता , वृक्ष , फूल , फल तथा पृथ्वी के भिन्न - भिन्न प्रकार के प्राणी आकाश के ग्रह , नक्षत्र , सूर्य , चन्द्र , धूमकेतु इत्यादि सृष्टि के सम्पूर्ण पदार्थों से अपनी उपमायें ली हैं । उदाहरणार्थ , कवि ऋषि को अचानक मिली हुई वाल्यावस्था की सुन्दर शकुन्तला को अर्क वृक्ष पर संयोग से गिर पड़ने वाली नवमालिका - कुसुम की , मदनदाह के बाद दुःख व्याकुल होने वाली रति को तालाब का पानी सूख जाने से व्याकुल होने वाली मछली की , तथा त्रिभुवन को सताने वाले तारकासुर को धूमकेतु की दी हुई उपमायें दृष्टव्य हैं ।
कालिदास ने व्याकरण , दर्शन , राजनीति , वैदयक इत्यादि विविधशास्त्रों से भी अनेक सुन्दर उपमायें चुनी हैं । बालि की गद्दी पर बिठाये हुये सुग्रीद को धातु के स्थान में आने वाले आदेश की , स्वबल से शत्रु का नाश करने में समर्थ शतुध्न के पीछे रामाज्ञा से चलने वाली सेना को , अध्ययनार्थ ' इ ' धातु के पीछे लगे हुये निरर्थक ' अधि ' उपसर्ग को , इत्यादि व्याकरण विषयक उपमायें पढ़कर संस्कृत व्याकरणामिज्ञ पाठकों को बड़ा आनन्द आता है । हिमालय से उत्पन्न मेनका की पुत्री पार्वती को राजनीति में उत्साह गुणों से प्राप्त होने वाली सम्पत्ति की उपमा अर्थशास्त्र से , प्रबल तारकासुर के आगे निष्फल सुरों के उपायों को उग्र औषधि से भी न हटने वाली सान्निपातिक ज्वर की उपमा वैदयक शास्त्र से , और बाह्य सरोवर से निकलने वाली सरयू नदी को अव्यक्त से उद्भूत होने वाली बुद्धि ( महत् ) तत्व की उपमा सांख्य दर्शन से ली है । कहीं - कहीं अमूर्त कल्पनाओं या मनोव्यापारों से भी उपमायें ग्रहण की गई हैं । ऋषि वसिष्ठ की धेनु के पीछे जाने वाले दिलीप को , श्रद्धायुक्त विधि की तथा माता को अलंकृत करने वाले भरत की सम्पत्ति को शोभा देने वाले विनय की , उपमा पढ़ते ही चमत्कार उत्पन्न होता है । पात्रों के लिये दी गई उपमायें अपने प्रसंगानुकूल एवं स्वाभाविक मालुम पड़ती हैं । पेटू विदूषक के मुख से चन्द्रमा को टूटे हुये मोदक की , समुद्रगृह के पास शिलाखण्ड पर सोये हुये मोटे विदूषक को निपुणिका दासी के मुख से बाजार के सांड़ की और सदैव अध्ययनरत कण्व के द्वारा शकुन्तला को दी गई विद्या की उपमाओं में उन व्यक्तियों के स्वभाव स्पष्ट दीख पड़ते हैं ।
कालिदासकृत उपमाओं में उपमान और उपमेय का सर्वागीण साम्य होने के कारण अधिक चमत्कार उत्पन्न हो गया है । इन्दुमती स्वयंवर के समय अपने स्थान पर जाकर बैठे हुये अज के वर्णन को पढ़कर , उनके उच्चासन को पर्वत शिखर की , और उस आसन पर पहुँचने के लिये बनाई गई सीढ़ियों की पर्वत के पास पड़ी चट्टानों की उपमा देने से , सिंह से अज का सर्वागीण साम्य ध्यान में आ जाता है ।
कालिदास का विशेष झुकाव उपमालंकार की ओर होने पर भी उन्होंने अन्य अनेक रमणीय अलंकारों का प्रयोग अपने ग्रन्थों में किया है । रघुवंश के ' राममन्मथशरेण ताडिता ( 11/20 ) इत्यादि प्रसिद्ध श्लोक में और ' अनाघ्रातं पुष्पं किसलय मलूनं कररू है ' ( शाकु 0 2/10 ) इत्यादि मनोहर दुष्यन्तोक्ति में रूपक अलंकार आया है । पहले में सांग रूपक है और दूसरे में एक के बाद एक , अनेक रूपकों की योजना कर शकुन्तला का सौन्दर्य , कोमलता , उन्मादकता इत्यादि गुण सूचित किये हैं । कालिदास का मन रूपक की अपेक्षा उत्प्रेक्षा .. दृष्टान्त , अर्थातर न्यास आदि में विशेष तल्लीन हुआ दिखता है । ऋतुसंहार तथा मालविकाग्निमित्र में तो उत्प्रेक्षा के चमत्कार यदा कदा ही दीख पड़ते हैं परन्तु ' मेघदूत ' में तो मानो उत्प्रेक्षा की वर्षा ही कर दी है । इस खण्ड काव्य का विषय भी उत्प्रेक्षा अलंकार के अत्यन्त अनुकूल है । कवि ने अलका का मार्ग बतलाते समय , मार्ग में आने वाले पर्वत , नदी आदि के ऊपर मेघ आने से कैसा दृश्य हो जाता है , इसका वर्णन यक्ष के मुख से अनेक उत्प्रेक्षाओं द्वारा प्रस्तुत किया गया है । पक्व फलधारी आम्रवृक्षों से आच्छादित आम्रकूट पर्वत पर मेघ आने पर वह पर्वत ऐसा दिखाई देता है मानो पृथ्वी का अनावृत स्तन हो , चर्मण्वती नदी का जल लेने हेतु मेघ के झुकने पर गगनबिहारी व्यक्तियों को ऐसा मालुम होगा कि मानो वह पृथ्वी के मोतियों का एक हार है , जिसके बीच में इन्द्रनीलमणि जड़ा हुआ है , शुभ्र कैलाश पर्वत मानो भगवान शंकर का प्रतिदिन बढ़ने वाला हास्य संचय है । इस प्रकार मेघदूत की उत्प्रेक्षायें अत्यंत उत्कृष्ट है । उत्प्रेक्षा की तरह दृष्टान्त अलंकार भी कवि को प्रिय मालूम होता है । रघुवंश " में इन्दुमती की मृत्यु एकाएक होते ही उसका शरीर अज के शरीर पर पड़ा और उसको तत्काल मूर्छा आ गई । उस समय का वर्णन करते समय दीपक से तैलबिन्दु के साथ नीचे गिरने वाली दीपज्योति का रमणीय दृष्टान्त कवि ने प्रस्तुत किया है । शकुन्तला जब दुष्यन्त के प्रति अपना अनुराग व्यक्त करती है तब उसकी सखियों ' सागरमुज्झित्वाकुत्र वा महानदयवतरति ' कः इदानी सहकार मज्झित्वाऽसि - मुक्तलतां पल्लवितां सहते ' इस तरह अनुरूप दृष्टान्तों से अपनी सहमति व्यक्त करती है । निर्दय दुर्वासा के सिवा अन्य कौन निरपराध शकुन्तला को शाप दे सकेगा , यह भाव ' कोऽन्यो हुतवहाद्दम्यूं प्रभवति ' इस दृष्टान्त में अच्छी तरह व्यक्त हुआ है ।
कालिदास द्वारा अर्थान्तरन्यास में उनके व्यावहारिक अनुभवों का सारसर्वस्व अत्यन्त रसीली वाणी में अंकित हुआ है और उनमें से कितने ही उदाहरण कहावतों के तौर पर व्यावहारिक भाषा में प्रचलित हो गये हैं । उदाहरणार्थ - ‘ मरणं प्रकृतिःशरीरिणाम् ' , ' महदपि पर दुःखं शीतलं सम्यगाहुः ' , ' भिन्नरूचिहि लोकः ' ' किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् ' इत्यादि उक्तियाँ दृष्टव्य हैं । इसके अतिरिक्त कवि ने अतिशयोक्ति , निदर्शना , सहोक्ति , पर्याय , समुच्चय , संदेह , विभावना इत्यादि अनेक अलंकारों को गढ़कर अपनी कविता कामिनी को अलंकृत किया है ।

" ललित कलायें "

सृष्टि में अनु - सौन्दर्य के जिस पुनर्विधान से हमारी आत्मा का उन्नयन हो , हमारे मन का रंजन हो , हमारी चेतना सजीव हो , वही ललित कला के नाम से अभिहित किया जा सकता है । कला मानव - मात्र के लिये सौन्दर्य कणों का संग्रह करती है । कला का लक्ष्य सौन्दर्य है और संसार में सौन्दर्य की उत्पत्ति इसीलिये हुई है कि मानव को आनन्द प्रदान करे । कला की व्याख्या करते हुये प्रसिद्ध दार्शनिक क्रास ने कहा है कि ' उत्कृष्ट रूप में कला जीवन सम्बन्धी वह कला है जिसके द्वारा सुसंस्कृत मनुष्य का निर्माण होता है ' कला मानवात्मा के अन्दर छिपे सौन्दर्य कणों का दिग्दर्शन कराती है । वह सौन्दर्योत्पादक है । कला जनित सौन्दर्य हमें ऐसे स्वर्ग में ले जाकर बिठा देता है , ऐसा भावविभोर कर देता है कि जिससे प्रभावित होकर हममें सत् - असत् , शुभ - अशुभ , भूत - भविष्यत् सभी का ज्ञान लुप्त हो जाता है । वास्तव में ललित कलायें अस्पष्ट को स्पष्ट , अलक्ष्य को लक्ष्य , परोक्ष को प्रत्यक्ष , आन्तरिक को बाह्य और मानसिक एवं हार्दिक को मूर्तमान करके सुव्यवस्थित तथा परिपक्व रूप में रख देती है । हमारे ही जीवन के सौन्दर्य कण चुनकर , हमारे ही सम्मुख प्रकृति के आँचल में बैठकर कलाकार एक सुन्दर वस्तु का निर्माण उसी प्रकार कर देता है जिस प्रकार कुंभकार मिट्टी से घट का ।
सौन्दर्य प्रियता मानव - मात्र में स्वभाविक है । अपने आदिम अवस्था में भी मानव ने अपने अस्त्र - शस्त्रों और निवास की गुफाओं को चित्रों से तथा अपने शरीर को पक्षियों के घरों , फूल - पत्तियों या विभिन्न रंगों से सजाया । इस प्रकार धीरे - धीरे उसकी रूचि परिष्कृत होकर कला और भाव - व्यंजना की ओर बढ़ती गई । रूचि के परिष्कार के साथ ही उसकी सौन्दर्य भावना भी सूक्ष्म होने लगी और उसकी कलाकृतियों , मिट्टी की मूर्तियों या चित्र आदि में रंगों की अपेक्षा सजीवता तथा भाव - व्यंजना का महत्व बढ़ने लगा । धीरे - धीरे क्रमिक विकास करती हुई ये ललित कलायें – भवन – निर्माण , मूर्ति रचना , चित्रण , संगीत तथा काव्यकला अपनी वर्तमान उन्नत अवस्था तक पहुँच गई । सौन्दर्य ललित कलाओं के लिये अनिवार्य तत्व है । जो सुन्दर नहीं उसे कलाकृति नहीं कहा जा सकता । वात्सायन के कामसूत्र में 64 कलाओं का उल्लेख किया गया है ।
कलाओं की प्रगति स्थूल से सूक्ष्म की ओर रहती है । भवन निर्माण कला में विशालता पाई जाती है , क्योंकि कला का आधार ईट - पत्थर , लकड़ी आदि लम्बाई , चौड़ाई , मोटाई लिये रहते हैं । मूर्ति - कला में विशालता कुछ कम होने पर भी लम्बाई , चौड़ाई , मोटाई बने रहे हैं । चित्र में विशालता का कोई महत्व नहीं होता । कला का विस्तार केवल लम्बाई , चौड़ाई में ही रह जाता है । संगीत कला में तीनों ही विस्तारों का लोप हो जाता है और रूप का स्थान शब्द ले लेता है । इस संगीत से भी सूक्ष्म वह काव्य कला है जिसमें बाह्य आधार का प्रायः अभाव हो जाता है । काव्यकला का आधार केवल वे शब्द हैं , जो उन अर्थों , व्यक्ति , वस्तु या घटना के वाचक होते हैं , कवि द्वारा किसी रस के विभाव अनुभाव या संचारी भाव बनाकर इस कुशलता के साथ रख दिये जाते हैं कि उनसे हृदय तरंगित हो उठता है , इसीलिये इसे सर्वश्रेष्ठ कहा गया है । संस्कृत के विशाल साहित्य में केवल कालिदास ने ही अपने रघुवंश में “ ललित कलाविधौ ” ( 1 ) कहकर ललित कलाओं की ओर संकेत किया है । कालिदास ललित कलाओं के पारखी विद्वान थे ।
वस्तुतः कला अखण्ड तथा अभेद्य है , तथापि विद्वानों के मतानुसार ललित कलाऐं पाँच मानी गई हैं - काव्य कला , संगीत कला , चित्रकला , मूर्तिकला एवं वास्तु कला । इनमें काव्य कला सर्वोत्तम समझी जाती है और वास्तु कला सबसे निकृष्ट । इसी क्रम में इन कलाओं का वर्णन अग्रलिखित है ।
काव्य कला ब्रह्मानन्द सहोदर रसोद्रेक से आप्लावित काव्य कला सर्वोत्कृष्टता तो सर्वविदित है । कवि की गति सार्वत्रिक है वह वहाँ भी पहुँच सकता है जहाँ भुवन भास्कर की सूर्य की रश्मियाँ पदार्पण करने में असमर्थ हैं । - ( 2 ) अतः यह मानव अन्तस् के कोमलतम भावों का स्पर्श करने वाली है । जब मानव , अपने अंतस् में उठने वाले भय विस्मय आदि के अस्पष्ट भाव , छाया तथा अंधकार से कँपा देने वाली अनुभव दुःख जनित मनोव्यथा , साथ ही गिरिभंगों की उच्चता , नदियों का कल - कल वसंत की सुषमा , पक्षियों का कलरव , समुद्र की उछलती उर्मियों का चापल्य सभी कुछ व्यक्त करने को तड़प उठा , तब प्रथमतः तूलिका ग्रहण की , जिसके जर्जर आज भी प्राचीन गुफाओं में बिखरे पड़े हैं किन्तु तूलिका द्वारा वह अपनी कोमल भावनाओं को , निसर्ग की विराट शाक्तियों को एवं आश्चर्य , कुतूहलादि को प्रकट करने में विफल रहा , तब उसने वाणी का माध्यम ग्रहण किया वहीं समयानान्तर में काव्य बन गई । क्रौन्चो की करूण व्यथा से प्रभावित भावोद्रेक के कारण आदिभूत वाल्मीकि की भावना ने ही सर्वप्रथम काव्य का रूप धारण किया । - ( कालिदास ने भी अपने रघुवंश में इसी बात की पुष्टि की है । - ( 2 )
कवि कुलगुरू कालिदास स्वयं इस काव्य कला की उत्कृष्टता से भलीभांति परिचत थे । उनके काव्यों को पढ़कर कौन ऐसा सहृदय न होगा
जो उनके काव्यरस के सागर में निमग्न न हो जाये । उनके काव्यों में कौन नहीं रम जायेगा । - ( 3 ) उनका काव्य सौन्दर्य विश्व की वस्तु है । भर्तृहरि के अनुसार सुन्दर काव्य - सम्पत्ति राज्य से भी बढ़कर है । ( 4 ) सच तो यह है 1 कि इस काव्य सृष्टि के अन्तर्गत विश्व को न केवल स्थूल वस्तुएँ अपितु सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्व , यहाँ तक कि विश्वातीत वस्तुएँ भी आ जाती हैं । इसीलिये तो भामह ने काव्यलंकार में कहा है कि - " कोई ऐसा शब्द नही , कोई ऐसा अर्थ नहीं , ऐसा न्याय नहीं , न कोई ऐसी कला है , जो काव्य का वण्य न हो , कवि कर्म विशाल है । - ( 1 )
जिस समय कालिदास ने अपने काव्य एवं नाटकों की रचना की , तत्कालीन समाज के सहृदयों की रूचि पर्याप्त परिष्कृत रही होगी । मेघदूत का सुन्दर काव्य एवं शकुन्तला सा सुन्दर ललित लावण्यपूर्ण नाटक इस बात के स्पष्ट प्रमाण है कि उस समय काव्य रसिकों के समक्ष अपनी उत्कृष्ट काव्यकला प्रस्तुत करने की विद्वत्मण्डली में प्रतिस्पर्धा चला करती थी । रूचि परिष्कार के लिये ही तो कवि ने नए व पुराने के भेद - भाव को त्याग कर एवं गुणों का परीक्षण कर , श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न काव्य को स्वीकार करने की बात कही है । - ( 2 )
कवि के समस्त काव्य एवं नाटक , काव्यकला के सर्वोत्कृष्ट रूप कहे जा सकते हैं , तभी तो अन्य श्रेष्ठ कवि के अभाव में आज भी अनामिका नाम सार्थक हो रहा है ।
" पुरा कवीनां गणनाप्रसंगे ,
कनिष्ठिकाधिष्ठित कालिदास ।
अदयापि तत्तुल्यं कवेरभावात्
अनामिका सार्थवती वभूव ।। " - ( 1 )
कालिदास द्वारा , शकुन्तला का छन्द में प्रणयावस्था का संकेत देना , वालविका का एक छन्द में ही अपने प्रणय को व्यक्त करना , वेतालिकों का राजा की स्तुति छन्दबद्ध रूप में करना , इस बात के परिचायक है व जनता की प्रवृत्ति काव्योन्मुख थी । कवि की काव्यकता आज भी विश्व ऋषि मनीषियों का रन्जन करने वाली है । तथा कान्तासम्मित उपदेश की भांति माधुर्य से परिपूर्ण है ।
राजशेखर ने काव्य में माँसा में तीन प्रकार के कवियों की चर्चा की है कुछ ऐसे होते हैं जिनकी कविता अपने घर तक ही सीमित रहती है । कुछ ऐसे होते हैं जिनकी रचना मित्र मण्डली तक पहुँच पाती है परन्तु ऐसे ही कवि थोड़े ही होते हैं जिनकी कविता सभी के मुखों पर पदन्यास करती है विश्व कुतूहली की भाँति विश्व भर में फैल जाती है । कालिदास की कविता ऐसी ही है जो आज भी सम्पूर्ण संसार के सहृदयों को मुग्ध बना रही है । गोवधानाचार्य ने कालिदास की कव्यकला पर मुग्ध होकर इन शब्दों में पुरास्ति प्रस्तुत की है -
“ साकूत मधुरकोकिल विलासिनी कण्ठकूजितप्राये ।
शिवासमयेऽपि गुदे रतलीलाकालिदासोवितः ।। " ( 1 ) "
नाट्य कला - काम्येधु नाटकं अर्थ तथा " नाटकान्तं कविस्वम् ये सूक्तियों विद्वत् समाज से छिपी नहीं हैं । भारत में नाट्यकला बहुत ही प्रतिष्ठित कला समझी जाती थी । इसे पन्चम वेद की संज्ञा दी गई है । यह काव्य रचना का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है । आचार्य भरत का कहना है कि ऐसी कोई कला नहीं जिसका कि नाट्य कला में समावेश न हो । - ( 2 )
नाट्य कला की परिधि व्यापकता का उल्लेख करते हुए शारदातनय ने भी यही कहा है कि संसार में न तो ऐसा कोई ज्ञान है , न ऐसी कला है , न शिल्प है और न कर्म है , और न योग है , जो नाटक में अभिनीत न किया जा सके । ( 1 ) अपनी उत्कृष्टता तथा लोकप्रियता के कारण ही संस्कृत में " काव्येधु नाटकं रम्यम् जन ऋति की सीमा तक पहुँच गया है । आचार्य वामन नेगी – “ संदभेषु दशरूपकं श्रेयः " ( 2 ) कहकर अपनी उत्कृष्टता ही विश्लेषण किया है । निःसन्देह बिना नाटक के हमारा प्रेय साहित्य नीरस हो जायेगा , क्योंकि यही हमारी अनुकरण तथा कारयित्री प्रेरणा को संतुष्ट करता है।यही काव्य सृष्टि के आदि काल से ही सौरभ विखेरता आ रहा है ।
कालिदास इस नाट्य कला के कुशल चितेरे थे । उनके तीनों ही नाटक अद्वितीय हैं । तथा अभिनय , संवाद , एवं कथानक की मधुरितादि की दृष्टि से संस्कृत नाटकों में अपना प्रमुख स्थान रखते हैं । उनका अभिज्ञान - शाकुन्तलम् तो विश्व प्रसिद्ध है -
“ काव्येषु नाटकं रम्य , तत्र रम्य शकुन्तला ।
तत्राऽपि च चतुर्थोऽडम् , तत्र श्लोक चतुष्टयम् ।। " ( 3 )
शाकुन्तलम् संस्कृत साहित्य की अतीव मनोहर एवं लोकप्रिय रचना है । इसमें कवि ने बडी निपुणता के साथ अपनी नाट्य कला का प्रदर्शन किया है । इसके सौन्दर्य पर मुग्ध होकर ही जर्मन कवि गेटे प्रसन्नता से नाच उठा था । उसके विचारों की संस्कृत में इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है
वासन्तं कुसमं फलं च युगपदं सर्व च यत् ।
यच्चान्यन्मनसो रसायनमसः सन्तर्पण मोहनम् ।
एकेभूतमभूतपूर्णमधवा रूवलोंक भूलोकयोः ।
ऐश्वर्य यदि वान्छसि प्रियसखे शाकुन्तलं सेव्यताम् ।।
इसमें कवि ने बड़ी चतुराई से नायिका शकुन्तला के रूप सौन्दर्य को निखारा है । नाटकों की कथावस्तु इतनी रोचक तथा प्रेमानुभूति से ओत - प्रोत है कि दर्शक या पाठक नूतन प्रकरण तथा रहस्यपूर्ण वृतान्तों के प्रति अन्त तक उत्कण्ठित बने रहते हैं । संवादों में भी अर्ताव सजीवता तथा क्षिप्रता है । प्रेमी और प्रेमिका का मिलन और वियोग , पुनः मिलन और वियोग दिखाकर कवि ने अपनी नाट्य कला में एक विचित्र चमत्कार उत्पन्न कर दिया है । नाटकों की भाषा अतीव सरल , सरस , मनोहर , प्रसाद गुणपूर्ण एवं चिन्ताकर्षक है । नाटक के संवादों में प्रत्युत्पन्नमति की भी अद्भुत छाप है ।
नाटक की सफलता उसके व्यावहारिक रूप में ही विध्यमान है । कालिदास ने भी नाटकों के व्यावहारिक रूप को ही महत्ता प्रदान की है । नाटक वहीं सफल समझा जाता था जो जनता के मनोरंजन के साथ ही विद्वत्मण्डली द्वारा भी प्रशंसा के योग्य हो ।
इसीलिये कवि ने अनेक बार प्रयोग शब्द प्रयुक्त कर नाटक के प्रायोगिक स्वरूप पर अधिक बल दिया है ( 1 ) तथा मालविका नाटक में तो " प्रयोगप्रधान नाट्यशास्त्रम् कहकर अपनी स्पष्ट सहमति प्रकट की है ( 2 ) नाटक में विविध घरित्र वाले पात्रों में , समाज के विभिन्न प्रवृत्ति के मनुष्यों की रूचि एवं प्रकृत्ति परिजोश प्राप्त करती थी ।
नाट्य कला का विकास कालिदास के नाटकों में नाट्यकला के विविध अंगों का पूर्ण विकास दिखाई पड़ता है । नाट्य कला के सभी पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया गया है । कुमार सम्भव में नाटक की पाँचों सन्धियों , श्रृंगारादि रसों , ललितादि रंगों एवं संस्कृत में प्राकृत भाषाओं के महत्व व श्रेय को भलीभांति स्पष्ट कर दिया है । – ( 1 ) नाटक में सम्पूर्ण नाट्य ग्रह के लिये कवि ने “ रंग ” शब्द का प्रयोग किया है । - ( 2 ) इसमें रंगमंच , अभिनेता दर्षकगण सभी आ जाते हैं । नेपथ्य वह स्थान जहाँ पात्रों को सजाकर अभिनव के लिये प्रस्तुत किया जाता था ,
नेपथ्य कहलाता था । अभिज्ञान शाकुन्तल में सूत्रधार का कथन " आर्ये यदि श्रृंगार हो चुका है तो यहाँ चले आओ " इसका प्रमाण है कि अभिनय के समय नेपथ्य का प्रयोग किया जाता था।- ( 3 ) मालविकाग्निमित्र में परिब्राजिका के कथन द्वारा भी नेपथ्य प्रयोग का प्रभाव प्राप्त होता है । ( 4 ) इसी प्रकार मालविका के नेपथ्यगता होने पर राजा उसे देखने को इतना अधीर हो उठता है कि पर्दा हटाने की बात सोचता है । - ( 1 )
रंगमन्चीय अभिनय पात्रों के विभिन्न प्रकार के कार्य व्यापारों का आगिक चेष्टाओं द्वारा दर्शन हीं अभिनय कहा जाता था । अभिनय द्वारा ही विभिन्न भावों की प्रतीति करा दी जाती थी । उनके स्थानों पर कवि ने नाट्यति एवं रूपयति शब्दों का प्रयोग किया है । ( 2 ) आगिंक वाचिक एवं सात्विक तीनों ही अभिनय के अंग थे । ( 3 ) कवि ने भूमिका शब्द का प्रयोग भी किया है । जो जिसका अभिनय करता है , उसके लिये वह उसकी भूमिका में आया ऐसा कहा जाता है ।
रंगमंचीय परिधान रंगमंच पर अभिनय करने हेतु विभिन्न पात्रों के लिये भिन्न - भिन्न परिधानों का प्रावधान था । अभिसारिका नायिका नीलांशुक और एक दो आभूषण धारण करती थी । ( 1 ) कौशिकी का यह कथन कि ' दोनों शिष्य सूक्ष्म परिधान में प्रवेश करें जिनसे उनका सर्वागीण सौष्ठव भलीभांति प्रकाशित हो सके , प्रमाणित करता है कि नृत्य - प्रदर्शन के समय विशिष्ट परिधान धारण किया जाता था । आखेटक वेश – ( 3 ) का भी संकेत मिलता है । मानिनी , विरहिणी , तपस्विनी , यवनी , अंगरक्षक आदि सभी के द्वारा पृथक - पृथक परिधान धारण किये जाते थे । कंचुकी अपने वेत्र से पहचाना जाता था और मुनि वल्कल से ।
तिरस्करणी नाटकाभिनय में परदे का भी प्रयोग होता था । परदे के लिये कवि ने तिरस्करणी शब्द का प्रयोग किया है । ( 4 ) ततः प्रविशति आसन्स्थो राजा ( 5 ) इस वाक्यांश से स्पष्ट है कि आसन पर स्थित राजा प्रवेश नहीं कर सकता । अतः सिंहासन पर राजा को बैठाकर पर्दा हटा दिया जाता होगा । इस कारण पर्दो का अस्तित्व स्वीकार करना आवश्यक हो जाता है । पर्दे एक थे या अनेक इसमें मत वैभिन्न है । कुछ विद्वान ' संहृतुं ' शब्द का अर्थ पर्दा लपेटने से लगाते हैं । अतः ऐसा मान्य है कि अधिक पर्दो का प्रचलन था । श्री काणे और भगवतशरण उपाध्याय - ( 1 ) भी इस मत से सहमत हैं किन्तु कुछ विद्वानों का मत है कि कालिदास के नाटकों के बीच में कहीं पटाक्षेप नहीं है । अंक अखण्ड है और प्रत्येक अंक के पश्चात ' इति निश्क्रान्ताः सर्वे ' जेसे शब्दों का प्रयोग किया गया है अतः एक ही पर्दे से काम चल सकता है ।
संगीत कला - नाट्याभिनय में संगीत का प्रयोग भी किया जाता है । संगीत से सम्पूर्ण वातावरण शान्त एवं निस्तब्ध हो जाता था और सम्पूर्ण रंग चित्रलिखित सा हो जाता था । ( 2 ) पंचागाभिनय ( 3 ) से भी कवि का आशय आंगिक , वाचिक सात्विक अभिनय के साथ गति तथा वादय से ही है । वास्तव में नाट्य विनासंगीत के अधूरा ही है । संगीत के तीन भेद हैं - गीत , वादय और नृत्य । कालिदास के नाटकों में इन तीनों ही रूपों का प्रयोग किया गया है । ड्राइडन लिखते हैं कि दिव्य संगीत के प्रभाव से ही इस विश्व का निर्माण हुआ था । जब प्रकृति अस्तव्यवस्त परमाक्षों के ढेर के नीचे दबी पड़ी थी और उसमें अपना सिर उठाने की शक्ति नहीं थी तब ऊपर से । मधुर तान वाला संगीत सुनाई पड़ा कि- हे मृतों से भी गये बीतो उठो। तभी शीतल , उष्ण , आर्द्र तथा शुष्क सभी अपनी अपनी स्थिति के अनुसार उठ खड़े हये और उन्होंने संगीत के आदेश का पालन किया । दिव्य संगीत से इस विश्व की रचना हुई और इसकी प्रत्येक कोटि में वह ओतप्रोत है , किन्तु उसकी पूर्णता मानव में हुई । हृदय का ऐसा कौन सा संवेग है , जिसे संगीत उठा या शान्त नहीं कर सकता ।- ( 1 ) भारतीय संगीत परम्परा में दीपक का जल उठना तथा मल्हार से वर्षा होना प्रसिद्ध है । कालिदास की काव्यकला गायन - वादन एवं नृत्य के समान ही संगीत कला में भी प्रवीणता थी । संगीत भारतवर्ष में सामवेद के समय से चला आ रहा है । संगीत शब्द का अर्श से होता है । इन तीनों की त्रिवेणी देक्ष में बहती रही है । मालविकाग्निमित्र में अनेक स्थानों पर संगीत शब्द का प्रयोग है । - ( 1 ) मालविका स्वयं अभिनय और गाने में चतुर थी । ' शाकुन्तल ' के नाटक का आरम्भ ही ग्रीष्म वर्णन के गीत से हुआ है । विक्रमोर्वषीयम् ' का चौथा अंक तो संगीत की सर्वश्रेष्ठ और सर्वप्रथम रचना है । यदि इसे नाटक से अलग कर सुना जाये तो यह ' संगीतिका ' ( म्यूजिकल फीचर ) लगती है । रघुवंश में कुश और लव द्वारा गाया हुआ मनोहारी रामचरित सुनकर सारी सभा शोकाकुल हो गई । मेघ को दूत बनाकर विरह को प्रकट करने की परिपाटी संसार को कालिदास की ही देन है । कुमार सम्भव से पता चलता है कि कवि ने हिमालय की कई बार यात्रा की और लोक गीतों को सुना । गीत - रागों के अतिरिक्त लोक गीतों को संगीत में मिलाने का श्रेय कविकुल गरू कालिदास को ही है । कुमार के पाँचवे सर्ग में लिखा है । - जब यह मेरी सहेली शिव के गीत गाने लगती थी तो इसकी संगीत की सहेलियाँ बनवासिने , कन्नौर की राजकुमारियों इसके रूके हुये गले से प्रसूत शब्दों को सुनकर कई बार रो देती थीं । यहाँ किन्नर - राजकन्यका वही बालायें हैं जिन्हें आज किन्नौर प्रदेश की वासिनी कहा जाता है और जो लोक संगीत का महान क्षेत्र माना गया है । वाण की महाश्वेता और कालिदास की शकुन्तला आज भी यहाँ प्राप्य है । महाकवि ने वहाँ अनेक धुनो को सुनकर अपने विक्रमोर्वशीय ' नाटक के चौथे अंक में उनको अमर स्थान दिया है । इनमें तीन गीतियाँ उल्लेखनीय है । - रिदपादिका , जमलिका और खण्डधारा । संगीत के ये तीन महान प्रयोग माने गये हैं । उन दिनों संगीत में मूर्च्छनाओं का प्रधान स्थान था । हिमालय का सारा प्रदेश वीणाओं के झंकार तथा पायलों की रूनझुन से अविरल मुखरित रहता था और आज भी सहृदयों को जनपद कल्याणियों द्वारा गाये गये गीत सुनाई देते हैं ।
संगीत के साथ वाद्य एवं नृत्य का भी स्थान था । यक्ष की पत्नी वीणा बजा - बजाकर पति के गुणों के गीत गाती है । - ( 1 ) मालविका के गीत में नृत्य का भी समावेश था । ( 2 ) कालिदास के काव्य में संगीत के विभिन्न पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया गया है , जो अग्रलिखित है ( 1 ) ताल , ( 2 ) लय , ( 3 ) तान , ( 4 ) उपगान , ( 5 ) नाद , ( 6 ) स्वर , ( 7 ) मूर्च्छना आदि का प्रयोग भी यत्र - तत्र दिखाई पड़ता है ।
चित्रकला कालिदास महान चित्रकार भी थे । उन्होंने अपने ग्रंथों में कागजों और दीवारों पर अंकित चित्र , स्तम्भों पर उत्कीर्ण आकृतियाँ और देवमूर्तियों की चर्चा की है । दुष्यन्त , पुरुरवा , यक्ष , यक्षिणी और अग्निवर्ण आदि चरित्रों की रूचि चित्रकला में थी । महाराजा दुष्यन्त द्वारा खींचा हुआ चित्र इतना संजीव था कि शकुन्तला की माता की सहेली , जो यहाँ खड़ी हुई थी उस चित्र को देखकर हैरान हो गई थी । चित्रकार पहले किसी भी चित्र की रेखायें खींचता है और उसके बाद अपनी तूलिका से रंग भरता है । इसी का व्योरा ' कुमार सम्भव ' में यौवन से पूर्ण पार्वती के मदालस अंगों को एक रंगीन चित्र की उपमा देकर किया गया है । - ( 1 ) तूलिका से रंग खिल उठते हैं चित्रकला का सिद्धान्त बिना चित्रकार हुये नहीं जाना जा सकता । कालिदास के नायक नायिका भी चित्रकला में निपुण जान पड़ते हैं , जो किसी व्यक्ति या दृश्य को एकबार देखकर चित्रपट पर उसका चित्र ठीक वैसा ही बना सकते थे । छटे अंक में जब राजा , शकुन्तला की विरहाग्नि से सन्तप्त होता है तब उसका चित्र खींचकर सान्त्वना प्राप्त करता है । उस चित्र को देखकर स्वयं उसकी समालोचना करता है जो इस प्रकार है ' इस चित्र में अब भी मालिनी नदी , उसके किनारे पर बैठे हुये हंसों की जोड़ियाँ , पास ही हिमालय की तराई , जहाँ छोटे - छोटे हरिण बैठे हैं , उसी तरह बड़ा वृक्ष जिसकी टहनियों पर गेरूये वस्त्र सूखने के लिये डाले गये हैं और उनकी छाया में कृष्णसार मृग के सींग पर अपने बाए नेत्र को खुजलाती हुई हरिणी , इतनी बातें मुझे अभी खींचनी हैं ।
प्रो ० शिवराम मूर्ति ने लिखा है कि ' कालिदास की भारती ने साहित्यकारों को ही नहीं अपितु शिलालेखों , अजन्ता के चित्रों और मुद्राओं तथा निर्माताओं को भी प्रभावित किया है । महान कलाकारों की रचनायें सदा अमर कहलाती हैं । जैसे मेघदूत में वर्णित शब्द चित्र ‘ जो अपनी प्यारी के गले लगने के लिये दिन - रात तड़प रहा हो , ने अजन्ता के एक कलाकार को प्रेरणा दी है । अजन्ता के एक नहीं अनेकों चित्रों का आधार , यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाये तो कालिदास का साहित्य ही है । वह केवल कवि ही नहीं , मानव अन्तः करण का सफल चितेरा भी था ।

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