MIKHAIL: A SUSPENSE - 24 books and stories free download online pdf in Hindi

मिखाइल: एक रहस्य - 24 - मायानगरी मुम्बई


"पापाजी, आप एक बार सोच कर तो देखिये, कितना काम मिलेगा मुम्बई में, मैंने बहुत सुना है मुम्बई के बारे में, और मुझे यकीन भी है कि, मैं कोई न कोई काम ज़रूर ढूंढ लूंगा।" अपने पिता के पैर दबाते हुवे मुरली ने अपनी बात रखी। उसने वक़्त भी बिल्कुल सही चुना था अपनी बात मनवाने का, रात को खाना ख़त्म करने के बाद।

"पर पुत्तर, तेनु इन वड़े-वड़े शहरों की उझाले के बारे में पता है, इनके अंधेरे के बारे में नही, और वैसे भी मुम्बई में ऐसा क्या रख्यासी जो अपने पिंड में नही है, रब दी मेहर है पुत्तर और के चाहिये?" उसने अपने गुरु का शुक्र अदा किया। मुरली के सही वक़्त को चुनने के बाद भी मल्हार सिवाल अपनी बात अटल रहा। वह नही चाहता था कि, उनका एकलौता पुत्र उनसे दूर रहे और वो भी इतने बड़े और अनजान शहर में। उसने मुरली को मुम्बई जाने से साफ़ मना कर दिया।

"लेकिन,पापाजी परीनु भी सोचिये, कल जब उसकी शादी होवेगी तो पैसे नही लगेंगे? और लड़के वालों को दहेज भी तो देना पड़ेगा न पापाजी? आप नही चाहते परी दी शादी किसी अच्छे मुंडे नाल कोई अच्छे खानदान में हो?" उसने पापाजी के पैर दबाना चालू रखा, जब एक तरीका काम नही किया तो उसने दूसरा तरीका आज़मा कर देखा।

"सब हो जावेगा पुत्तर, तू चिंता न कर, तोड़ा बाप अभी ज़िंदा सी, और छड़ बहुत हो गया वे पैर-वैर दबाना जा के सो जा, देर रात हो गई है।" बरामदे में रखी खटिया पर मल्हार ने कहते हुवे अपने दोनों पैर उठा लिये और लम्बा होकर सो गया। ठंडी हवा इतनी जोरो से चल रही थी कि, वो कुछ मिनटों में तो सो भी गया।

मुरली जान गया था कि, पापाजी उसे कभी मुम्बई भेजने के लिए राजी नही होनेवाले थे, उसे खुद ही कुछ जुगाड़ करना था। लेकिन उसने मुम्बई जाकर पैसे कमाने का मन पक्का बना लिया था।

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"पापाजी,

उम्मीद है आप मुझसे नाराज़ नही होंगे, आपसे बहुत बिनती की लेकिन, आप अपनी बात से टस से मस नही हुवे आप अपनी बात पर अड़े रहे। पापाजी, मैं आपको कभी नही बता पाया कि मेरे सपने बहुत बड़े है। मैं मेरे रब का जो कुछ भी उसने हमें दिया है उसके लिये शुक्रगुज़ार हूं लेकिन, पापाजी जब आनेवाले कल के बारेमें सोचता हूं तो अक्सर यह ख्याल आता है कि, जो भी कुछ है यह भविष्य में कम पड़ेगा, मुझे और कमाना पड़ेगा। और ज़्यादा कमाना है तो मुंबई से अच्छा शहर क्या हो सकता है भला? आप माने नही इसीलिये देर रात छुपते-छुपाते मैं यह शहर छोड़ कर जा रहा हूं, अब तभी लौटकर आऊंगा जब अपनी कोई पहचान बना लूंगा और आपके सामने खड़े होकर यह कह सकूंगा कि, देखिये पापाजी, आपका बेटा अब देश के बड़े लोगोमें से एक है। माँ का ख्याल रखना और परी को मेरा प्यार देना। रब रखा।

प्रणाम,
आपका बेटा मुरली।"

मुरली द्वारा बरसो पहले लिखा गया यह खत मल्हार ने अभी भी संभालकर अपने पास रखा था, लेकिन, वक़्त की बहती हुई धारा ने अब उस खत को पिला बना दिया था और उसकी किनारिया अब टूटी और मूड चुकी थी, कुछ लिखावट प्रसर चुकी थी, कुछ अब भी पढ़ी जा सकती थी। मुरली को गांव छोड़े अब तो ज़माना हो गया था अब तो मल्हार को उम्मीद भी नही थी कि, मुरली आयेगा, गर मुम्बई होता तो ज़रूर आ जाता लेकिन, मुरली के सपने इतने बड़े थे कि, अब तो उसे मुम्बई भी छोटा लगने लगा था और वह अमेरिका बस चुका था। हफ्ते में बस एक दो बार मुरली से बात हो जाया करती थी। मल्हार बस इसी से ही अपने दिल को बहला लेता था। लेकिन, अब उसके पास ज़्यादा वक़्त नही था, डॉक्टरों ने बता दिया था कि, अब मल्हार के पास ज़्यादा वक़्त नही है।

मल्हार चाहता था कि, वह अपने अंतिम बाकी बचे दिनों में एक बार मुरली से ज़रूर मिलले फिर चाहे वो मर भी जाये तो कोई ग़म नही था। उसने एक अंतिम तार मुरली के नाम उसकी आफिस पर भेजा। उसे यक़ीन था कि उसकी खराब चल रही तबियत के बारे में पढ़कर वो जरूर लौटेगा। लेकिन, उसे क्या पता था कि, मुरली अमरीका में किस हाल में जी रहा था, फ़ोन पर होनेवाली महंगी बातें अक्सर आदमी की असली परिस्थिति नही बता सकती। वो बस इसी उम्मीद से दिन गिन रहा था कि, मुरली आयेगा।

तार भेजे हुवे कई दिन हो चुके थे, तार मिलने के बाद मुरली का फ़ोन भी आना बंद हो गया था। वो करता भी तो किस मुंह से? क्या बोलता कि, वह नही आ सकता, काम का बहाना बनाता? उसकी हिम्मत ही नही हो पा रही थी कि पापाजी से बात कर उनका हालचाल पूछे। जब मुरली का फ़ोन भी आना बंद हो गया तब मल्हार ने यह सोचकर मन मना लिया कि, मुरली अमरीका में है, फ्लाइट में भी २२ घंटो का सफर होता है, काम की वजह से नही निकल पा रहा होगा। मुरली के इंतज़ार और मन को बहलाते हुवे ही एक दिन मल्हार ने उसकी आंखें मूंद ली।

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२४ अप्रैल, १९२५ में गुजरात के कपडवंज में जन्मे मंगल कुमार अपने पिता द्वारा संचालित कुमार एंड संस नाम की एक कपड़े की दुकान चलाते थे, लेकिन उन्हें कपड़े बेचने में कोई दिलचस्पी नही थी। जिंदगी यापन करने हेतु वे बस काम किये जा रहे थे।
जिस वक़्त पूरे भारत के नवयुवान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जुड़ रहे थे उस वक़्त मंगल कुमार अपने चाचा हरिकृष्ण कुमार से जादूगरी के पाठ पढ़ रहे थे जिन्होंने मंगल के जन्म के समय से ही अपना हिस्सा लेकर कोलकाता में अपना बसेरा बसा लिया था। लेकिन इतनी दूर रहकर भी दोनों भाइयों की खूब पटती थी। उनमे आपसी कोई रंजिश नही थी।

३-४ साल अपने चाचा के पास जादूगरी सीखने के बाद मंगल ने खुद अपने नाम जादूगर मंगल से अपने जादूगरी के शो करना शुरू कर दिये। शुरुआती प्रतिक्रिया ज़्यादा नही मिली मगर कम भी नही मिली। मंगल का जादू के प्रति जो लगाव था वो कम नही हुवा। अब वो चाहता था कि, एक बार बड़े पैमाने पर जादूगरी का शो रखा जाये इसीलिये उसने १६ अगस्त, १९४६ शुक्रवार का दिन चुना। लेकिन, वह नही जानता था कि, जो दिन उसने चुना है वो दिन भारत के इतिहास में सबसे कलंकित दिनों में से गिना जानेवाला था।

शाम को ६ बजे से शो शुरू होना था तो स्टेज, लाइट, डेकोरेशन वगेरह का काम मंगल को खुदको ही संभालना था। करीब दोपहर के ३ बजे जब वह निकला तो उसने राजा बाजार पर मुसलमानों का एक बड़ा सा समूह हाथ मे छुरी, तलवारे लिये हुवे ऊपर सर्किल रोड की ओर बढ़ते हुवे देखा। मुस्लिम लीग पाकिस्तान की मांग प्रबल बनाने हेतु इस दिन को डायरेक्ट एक्शन डे के रूप में घोषित किया था।

मुसलमानों का इतना बड़ा झुंड रास्ते मे जो भी हिन्दू मिलता उसे बड़ी ही बेरहमी से मारते हुवे आगे बढ़ रहा था, जो भी दुकाने रास्ते मे पड़ी वे सारी लूट ली गयी, और दुकानदारों को मौत के घाट उतार दिया गया।

मंगल को जब इन दंगों के बारे में पता चला तब बहुत देर हो चुकी थी, कलकत्ता की सारी सड़के अधनंगे, कटे हुवे मानवी शबो से भरी पड़ी थी जिनका लुत्फ गिद्ध उठाते चारो ओर दिख रहे थे।कानून व्यव्यस्था बिल्कुल तोड़-मरोड़ दी गयी थी। खैर मंगल अपनी जान बचाने में सक्षम रहा लेकिन उसके चाचा के परिवार को मौत के घाट उतार दिया गया।

७२ घंटो के भीतर करीब २०,००० से ज़्यादा हिन्दू मारे गये और ३०,००० से ज़्यादा घायल हो गये और १ लाख से ज़्यादा हिन्दू घर से बेघर हो गये। मुस्लिम लीग के इस डायरेक्ट एक्शन डे ने भारत विभाजन के बीज बो दीये थे।

अपना सब कुछ लुटा चुका मंगल दंगे शांत होते ही अपनी बीती हुई यादों के साथ अपना बिता हुवे कल को अलविदा कहकर कलकत्ता छोड़ अपने गांव कपडवंज जा पहुंचा और फिर वहां से भारत की स्वतंत्रता के बाद मुम्बई जा कर बस गया।

मुम्बई में उसने कड़ी मेहनत से अपनी मैजिक की दुनिया बसा ली और जादूगर मंगल के नाम से उसने अपनी एक अलग पहचान बना ली। हफ्ते के हर अंतिम दिनों में उसके शो की टिकट मिलनी मुश्किल थी। शो की टिकट पाने के लिये लोग हफ़्तों पहले बुकिंग कराते थे। लेकिन बढ़ती हुई प्रसिद्धि के साथ नई मुश्केलिया भी दस्तक देती है। उसे कोई ऐसे आदमी की ज़रूरत थी जो कम पगार में उसके हेल्पर के रूप में काम कर सके।

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मुरली एक खत लिखकर जोश जोश में मुम्बई तो आ गया लेकिन अब काम कैसे ढूंढेगा, कहा रहेगा यह फिक्र उसे सता रही थी। जब तक जेब मे पैसे थे तब तक होटल में रहने को कमरा और खाना मिला जैसे ही पैसा खत्म हुआ मुम्बई का असली रंग मुरली के सामने दिखने लगा। कई जगहों पर काम की तलाश करने के बाद भी कोई काम नही मिला। नौबत तो यहां तक कि आ गयी कि, रात गुज़ारा भी फुटपाथ पर करना पड़ता था।

वो चाहता था कि, अपने गांव वापस चला जाये लेकिन जाता भी तो किस मुंह से, और पैसे भी कहा थे जाने के लिये। काफी मेहनत व मशक़्क़त के बाद जादूगर मंगल के वहा उसने हेल्पर की जॉब पा ली, जिसमे खाना-पीना और रहने के लिये एक कमरे के साथ ५₹ मासिक वेतन शामिल था।

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