उर्वशी और पुरुरवा
एक प्रेम-कथा भाग 10
भरत मुनि के नाटक के मंचन की तैयारी चल रही थी। नाटक के एक दृश्य का अभ्यास हो रहा था। दृश्य के अनुसार उर्वशी जो पद्मावती का पात्र निभा रही थी अपनी सखी अनुराधा को अपने प्रेम के विषय में बता रही थी।
अनुराधा :- सखी जब से तुम वन में विहार करके लौटी हो तब से ही तुम्हारा चित्त अशांत है। क्या किसी को अपना ह्रदय दे बैठी हो ?"
पद्मावती :- "सही कहा सखी मैं सचमुच अपना ह्रदय उस मनोहर पुरुष को दे बैठी हूँ। उसका नाम है पुरुरवा।"
दृश्य के अभ्यास के दौरान भी उर्वशी पुरुरवा के विचारों में ही मग्न थी। दृश्य में पूँछा गया प्रश्न उसके व्यक्तिगत जीवन की घटना से जुड़ा था। बेखयाली में उसके मुख से पुष्कर के स्थान पर पुरुरवा निकल गया। पुरुरवा का नाम सुनकर सब आश्चर्य में पड़ गए। संवाद बोल लेने के बाद उर्वशी को भी अपनी त्रुटि का भान हो गया। अपराधबोध से ग्रसित वह भूमि को देखने लगी। भरत मुनि को जो अभ्यास का निरीक्षण कर रहे थे उसकी इस त्रुटि पर क्रोध आया। किंतु उन्होंने अपने गुस्से को काबू कर लिया। उन्होंने संयत स्वर में कहा,
"अपने मन को अभ्यास में लगाओ उर्वशी। तुम एक अच्छी कलाकार हो। इस प्रकार की त्रुटि करना तुम्हें शोभा नहीं देता है।"
भरत मुनि की बात सुनकर उर्वशी लज्जित हुई। उसने अपने मन को काबू में करने का प्रयास किया। लेकिन वह अपना ध्यान अभ्यास पर केंद्रित नहीं कर पा रही थी। उस दिन अधिक देर तक अभ्यास नहीं हुआ।
नाटक के मंचन में अब अधिक समय नहीं बचा था। अतः अगले दिन पुनः अभ्यास किया गया। चित्रलेखा जो कि अनुराधा की भूमिका में थी ने उर्वशी को समझाया कि जब तक नाटक का मंचन पूर्ण नहीं हो जाता है तब तक अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखे। कोई भी त्रुटि बात बिगाड़ सकती है। उर्वशी उसकी बात समझ रही थी। किंतु अपने ह्रदय से मजबूर थी। वह पुरुरवा के विचार को अपने मन से दूर रखने का जितना अधिक प्रयास करती थी उतना ही वह उसके मन पर अपना अधिकार कर रहा था। पद्मावती का पुष्कर के लिए तड़पना उसे अपने प्रेमी से दूर होने का एहसास कराता था। इसलिए स्थिति और भी कठिन थी।
जिस दृश्य का अभ्यास हो रहा था उसमें एकाकी बैठी पद्मावती अपने प्रियतम को याद कर कहती है,
"पुष्कर तुम्हारे बिना मेरा जीवन जल बिन मीन के समान है। मुझे एक क्षण भी चैन नहीं'। अब तुम्हारा वियोग सहन नहीं हो रहा है।"
उर्वशी ने संवाद बोलने से पहले अपने मन को खूब समझाया कि वह इस समय पद्मावती की भूमिका निभा रही है। जिसके प्रेमी का नाम पुष्कर है। किंतु जब संवाद बोलने का समय आया तब अपनी भावनाओं के वशीभूत उर्वशी ने पुनः पुष्कर के स्थान पर पुरुरवा का नाम लिया। दोबारा वही गलती होने पर भरत मुनि का क्रोध भड़क उठा। उन्हें यह अपना अपमान प्रतीत हुआ। उन्होंने क्रोधवश उर्वशी को श्राप दे दिया,
"तुमने एक साधारण धरतीवासी के विचारों में मग्न होकर यह धृष्टता दोबारा की है। मैं तुम्हें श्राप देता हूँ कि अब तुम्हें उसी पुरुरवा के साथ पृथ्वीलोक में एक साधारण मानवी की तरह जीवन बिताना पड़ेगा।"
भरत मुनि का श्राप सुनकर उर्वशी जैसे दीर्घ तंद्रा से बाहर निकली। यह ज्ञान होते ही कि अब उसे एक साधारण मानुषी बन कर रहना होगा। वह एक अप्सरा नहीं रह जाएगी वह यह व्यथित हो गई। रोते हुए वह भरत मुनि के चरणों में गिर कर बोली,
"क्षमा करें मुनिवर। मेरे छोटे से अपराध का इतना बड़ा दंड ना दें। मुझसे अप्सरा होने का अधिकार ना छीनें। कृपया श्राप वापस ले लें।"
उर्वशी को मिले श्राप के बारे में सुनकर वहाँ उपस्थित सभी लोग स्तब्ध रह गए थे। उन्होंने मिलकर मुनि को समझाने का प्रयास किया। भरत मुनि ने क्रोधवश उर्वशी को कठोर श्राप दे दिया था। किंतु शांत होने पर अब उन्हें भी इस बात का पछतावा हो रहा था। किंतु अब श्राप को वापस भी नहीं ले सकते थे। उर्वशी को समझाते हुए बोले,
"तुमने बार बार पुरुरवा का नाम लेकर मेरे क्रोध को भड़का दिया। मैं तुम्हें श्राप दे बैठा। अब उसे वापस नहीं ले सकता हूँ। किंतु यदि देवराज इंद्र चाहें तो तुम्हारे स्वर्गलोक में वापस लौटने का उपाय कर सकते हैं।"
यह सुनते ही सभी में एक आशा का संचार हुआ। तुरंत ही देवराज इंद्र को समाचार भिजवाया गया। देवराज इंद्र को जब उर्वशी को श्राप मिलने की सूचना मिली तो वह तुरंत वहाँ उपस्थित हुए। सारा वृतांत सुनने के बाद बोले,
"उर्वशी मुनिवर के श्राप के कारण तुम्हें कुछ समय तो पृथ्वीलोक में अवश्य बिताना पड़ेगा। किंतु मुनिवर के कहे अनुसार मैंने तुम्हारी स्वर्गलोक में वापसी का उपाय भी सोंच लिया है।"
देवराज इंद्र की बात सुनकर उर्वशी सहित सभी के चेहरे पर उल्लास छा गया। उर्वशी ने हाथ जोड़ कर निवेदन किया कि देवराज ने क्या युक्ति सोंची है सबको बताएं। देवराज इंद्र ने कहा,
"प्रिये तुम पुरुरवा के पास जाकर अपनी दो शर्तें रखो। उससे कहो कि यदि इनमें से एक शर्त भी टूटी तो मैं वापस स्वर्गलोक चली जाऊँगी।"
उर्वशी ने उत्सुकता से कहा,
"कौन सी दो शर्तें देव....?"
देवराज इंद्र ने उसे शर्तों के बारे में बताते हुए कहा,
"पहली यह कि तुम अपने साथ मेष शावकों को भी ले जाओगी। पुरुरवा से कहना कि उनकी देखभाल की जिम्मेदारी पूर्णतया उस पर है। उन्हें किसी प्रकार की हानि ना हो। ना ही कोई उन्हें चुरा सके। यदि ऐसा हुआ तो तुम स्वर्गलोक वापस चली जाओगी।"
"दूसरी शर्त देव....."
"तुम्हारे अतिरिक्त कोई भी पुरुरवा को नग्नावस्था में ना देखे।"
देवराज इंद्र की शर्तों में उर्वशी की स्वर्गलोक में वापसी का मार्ग छिपा था। अपनी शर्तों के साथ वह पुरुरवा के पास चली गई।
रानी औशीनरी महाराज परुरवा के मन की पीड़ा को समझती थीं। उनका मन उर्वशी से मिलने को व्याकुल था। राज्य की भलाई के लिए रानी औशीनरी चाहती थीं कि किसी भी प्रकार से महाराज के मन की व्याकुलता को समाप्त किया जाए। एक पत्नी के रूप में अवश्य यह बात उनके लिए कठिन थी कि उनके पति किसी और स्त्री के लिए व्याकुल थे। किंतु औशीनरी ने अपने महारानी होने के कर्तव्य को सदैव ऊपर रखा था।
महाराज परुरवा की इच्छापूर्ति के लिए रानी औशीनरी ने एक अनुष्ठान कराया। महराज परुरवा ने भी पूरे मन से इस अनुष्ठान में भाग लिया। इंद्रलोक से निष्कासित उर्वशी जब धरती पर आई तो यह अनष्ठान समाप्त हो गया था। वह जाकर महाराज परुरवा के समक्ष प्रस्तुत हो गई।
उर्वशी के आगमन से पुरुरवा का मन उसी प्रकार खुशी से झूम उठा जैसे मेघ को देख कर मयूर नाच उठता है। इतने दिनों तक वह उर्वशी के प्रेम के लिए तरसे थे। अब जब वह उनके पास आ गई थी तब वह उसके प्रेम में पूरी तरह भीग जाना चाहते थे। जब उर्वशी ने उनके समक्ष देवराज इंद्र द्वारा सुझाई गई दोनों शर्तें रखीं तो उन्होंने उन शर्तों को सहर्ष स्वीकार कर लिया। उन्हें लगा कि यह कोई बहुत कठिन शर्तें नहीं हैं जिनका पालन ना हो सके।
पुरुरवा उर्वशी को पाकर बहुत खुश थे।