उर्वशी और पुरुरवा
एक प्रेम-कथा भाग 3उर्वशी और उसकी सखियां वन में स्थित सरोवर में जलक्रीड़ा कर रही थीं। सरोवर और उसके आसपास का स्थान बहुत मनोरम था। किंतु अप्सराओं के सौंदर्य ने उसे कई गुना बढ़ा दिया था। वर्चा सरोवर के तट पर बैठी उर्वशी के दो मेष शावकों की देखभाल कर रही थी। ये मेष शावक उर्वशी को बहुत प्रिय थे।
जलक्रीड़ा करते हुए चित्रलेखा उर्वशी के निकट आकर बोली,
"तो अब हम पृथ्वी पर आ गए हैं। तुम अपने उस चितचोर को किस प्रकार ढूंढ़ोगी ?"
"पुरुरवा की राजधानी प्रतिष्ठानपुर है। हम वहाँ चलेंगे।"
चित्रलेखा ने एक बार फिर उसे छेड़ते हुए कहा,
"कहते हैं सच्चे प्रेम में बड़ी शक्ति होती हैं। हो सकता है तुम्हारा प्रेम उसे यहाँ खींच लाए।"
उर्वशी ने उसे तिरछी नज़रों से घूरा। किंतु चित्रलेखा पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
"अच्छा यह तो बताओ उर्वशी जिसे तुमने देखा ही नहीं है उसके प्रति इतना आकर्षण कैसे है।"
"जो वस्तु आवरण में होती है वह अधिक आकर्षित करती है। मैंने पुरुरवा को देखा नहीं है किंतु उसकी प्रशंसा सुनकर मेरे मन में उसे जानने की इच्छा जाग्रत हुई। मैं मन ही मन उसका चित्र खींचने लगी। मेरे मन में जो उसका चित्र है मैं उसे उसके वास्तविक रूप से मिला कर देखना चाहती हूँ।"
"तो बिना देखे ही चितचोर की छवि मन में बसा रखी है। उसे देखे बिना, मिले बिना यह दशा है तो मिलने पर क्या होगा ?"
"यही तो मैं भी जानना चाहती हूँ कि महाराज पुरुरवा से मिलकर क्या दशा होगी। वह मेरी कल्पना के अनुकूल होंगे या उससे अधिक। किंतु यदि उनका वास्तविक रूप मेरी बनाई छवि के अनुकूल नहीं हुआ तो मेरा ह्रदय टूट जाएगा।"
चित्रलेखा ने प्यार से उसके कंधे पर हाथ रख कर कहा,
"महाराज पुरुरवा की छवि उस छवि से कहीं अधिक सुंदर होगी जो तुमने बनाई है।"
अपनी सखी से आश्वासन पाकर उर्वशी के दिल को तसल्ली हुई। वह प्रसन्न मन जलक्रीड़ा करने लगी। तभी उसे सरोवर के पास के पेड़ों के झुरमुट में कुछ हलचल महसूस हुई।
पुरुरवा ने मृगया के बहाने अपने चित्त को शांत करने के लिए अपने राज्य के उत्तर पश्चिम दिशा में स्थित वन प्रदेश में डेरा लगाया था। एक व्याघ्र का पीछा करते हुए वह वन में दूर तक निकल आए थे। उनका अश्व भी थक गया था। अतः वह विश्राम के लिए एक स्थान पर बैठ गए।
पसीने की बूंदें उनके माथे पर उभरी हुई थीं। बालों से भी पसीने की एक धार निकल कर कान में पहने हुए कर्णफूल के पास आकर बूंद के रूप में ठहर गई थी। उस पर पड़ने वाली सूर्य किरण में वह इस प्रकार चमक रही थी कि कर्णफूल में जणित रत्न की कांति भी फीकी लग रही थी। होता भी क्यों नहीं। पसीने की बूंदें किसी रत्म से कम कहाँ होती हैं। पसीने की बूंदें जब धरती पर गिरती हैं तभी उसकी कोख से अंकुर फूटते हैं। पसीना बहा कर ही शिल्पकार बड़े बड़े राजप्रासादों का निर्माण करते हैं। मनुष्य की प्रगति का बीज हैं यह पसीने की बूंदें।
अपनी थकान मिटाने के पश्चात पुरुरवा अश्व को पानी पिलाने के लिए किसी सरोवर की तलाश में पुनः आगे बढ़ने लगे। कुछ आगे चलने पर उन्हें एक स्थान पर जल पक्षी उड़ते दिखे। वह उस स्थान की तरफ बढ़ गए।
उर्वशी को बार बार ऐसा प्रतीत हो रहा था कि कोई है जो उन लोगों पर दृष्टि रखे है। किसी अनिष्ट की संभावना से उसका मन घबरा उठा। उसने अपनी सखियों को मन का डर बता कर उस स्थान से चलने को कहा। जब वह लोग सरोवर से बाहर निकल रही थीं तभी पेड़ों के झुरमुट के पीछे से एक राक्षस निकल कर उनकी तरफ बढ़ा। अपनी तरफ एक राक्षस को बढ़ते देख कर सभी अप्सराएं भय से कांप उठीं। वह राक्षस तेजी से कदम बढ़ाते हुए उर्वशी की तरफ बढ़ा। उसने बलात् उर्वशी का अपहरण करने का प्रयास किया। उर्वशी भय से चीख उठी।
सरोवर की तरफ बढ़ते पुरुरवा के कानों में एक स्त्री की सहायता के लिए पुकार के स्वर पड़े। उस स्त्री की सहायता करने के लिए वह उस तरफ भागे जहाँ से वह स्वर आ रहा था। जब वह सरोवर पर पहुँचे तब उन्होंने देखा कि एक राक्षस एक स्त्री को जबरन खींच कर ले जा रहा था। उन्होंने उस राक्षस को ललकार कर चुनौती दी।
"सावधान यदि तुमने इस स्त्री को नहीं छोड़ा तो भयंकर परिणाम भुगतना होगा।"
उस राक्षस ने क्रोध से भरी लाल आँखों से पुरुरवा को घूरा और बिना कोई जवाब दिए पुनः उर्वशी को उसकी भुजा पकड़ कर खींचने लगा। उसके इस प्रकार अवहेलना करने से पुरुरवा को भी क्रोध आ गया। उन्होंने उस राक्षस पर बाण चला दिया। बाण जाकर उसकी भुजा में घुस गया। वह पीड़ा से तिलमिला उठा। क्रोध में फुफकारता हुआ वह पुरुरवा की तरफ दौड़ा।
पुरुरवा तथा उस राक्षस के बीच द्वंद आरंभ हो गया। सभी अप्सराएं घबरा कर एक ओर खड़ी हो गईं। दोनों के बीच का द्वंद भयंकर हो गया था। कभी राक्षस पुरुरवा पर भारी पड़ता तो कभी पुरुरवा उसे पटक देते। उर्वशी अपना भय भूल कर विस्मित नेत्रों से अपनी रक्षा के लिए आए उस पुरुष को देख रही थी। सुडौल बलिष्ट शरीर। लंबे घुंघराले बाल जो द्वंद करते हुए बार बार चेहरे पर आ रहे थे। द्वंद करते हुए भी चेहरे पर एक सौम्यता थी। यह सब देख कर उर्वशी के मन में यकीन हो गया कि यह अवश्य ही महाराज पुरुरवा हैं।
चित्रलेखा भी उर्वशी के मन के भावों को समझ रही थी। उसे भी इस बात पर विश्वास हो गया था कि रक्षक बन कर आया यह वीर महाराज पुरुरवा ही हैं। उसने धीरे से उर्वशी के कान में कहा,
"क्या विचार है ? वास्तविक छवि तुम्हारे मन में बसी छवि से श्रेष्ठ है कि नहीं।"
"यह तो उससे कई गुना अधिक मोहक छवि है।"
दोनों सखियां पुरुरवा के बल और सौंदर्य की चर्चा करने लगीं। पुरुरवा ने अपने बल से उस राक्षस को पस्त कर दिया था। अपने प्राण बचाने के लिए राक्षस वहाँ से भाग गया। पुरुरवा ने अप्सराओं के सम्मुख आकर कहा,
"देवियों अब भय का कोई कारण नहीं है। वह दुष्ट राक्षस अपने प्राण बचा कर भाग गया है।"
उर्वशी ने उन सभी अप्सराओं की तरफ से उसे धन्यवाद देते हुए कहा,
"हे वीर हम सब अपने रक्षक का परिचय जानने को उत्सुक हैं।"
"हे देवी मैं महाराज पुरुरवा हूँ। यह क्षेत्र मेरे राज्य में आता है। अतः आप लोगों की रक्षा करना मेरा दायित्व था।"
कुछ रुक कर पुरुरवा ने कहा,
"आप के अनुपम रूप को देख कर प्रतीत होता है कि आप देवराज इंद्र की प्रिय अप्सरा उर्वशी हैं।"
"जी मैं स्वर्गलोक की अप्सरा उर्वशी हूँ। अपनी सखियों के साथ पृथ्वी पर भ्रमण करने आई थी। इस सुंदर सरोवर में हम सब जलक्रीड़ा कर रहे थे तभी वह दुष्ट आ गया।"
"मेरा डेरा यहाँ से कुछ ही दूर पर है। आप लोग चल कर वहाँ विश्राम करें।"
महाराज पुरुरवा का निमंत्रण सुनकर पुंजिकस्थला सामने आकर बोली,
"महाराज निमंत्रण हेतु धन्यवाद। किंतु मेरा ह्रदय विचलित हो गया है। मैं स्वर्गलोक वापस जाना चाहूँगी।"
अन्य अप्सराओं ने भी पुंजिकस्थला की बात का समर्थन किया। चित्रलेखा जानती थी कि उर्वशी महाराज पुरुरवा का निमंत्रण स्वीकार करना चाहती है। वह आगे आकर बोली,
"मैं इन सब के साथ वापस स्वर्गलोक चली जाती हूँ। उर्वशी महाराज का आतिथ्य स्वीकार करे।"
सभी अप्सराओं को यह बात ठीक लगी। उर्वशी ने भी चित्रलेखा की बात का समर्थन किया। वर्चा ने दोनों मेष शावक उर्वशी को सौंप दिए। उन लोगों के जाने के बाद पुरुरवा ने उर्वशी से कहा,
"देवी मैं तनिक अपने अश्व को पानी पिला लूँ फिर आपको अपने शिविर में ले चलता हूँ।"
पुरुरवा अपने अश्व को पानी पिला रहा था और उर्वशी उसे निहार रही थी।