ये कैसी राह - 9 Neerja Pandey द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ये कैसी राह - 9

भाग 9

आपने पिछले भाग में पढ़ा कि कैसे सत्तू एक सामान्य सा लड़का संन्यासियों के साथ साथ चला जाता है । बेशक, उसकी जिंदगी में परेशानियां थी। वो गरीबी

का सामना कर रहा था। एक वक्त के खाने के बाद दूसरे वक्त का क्या होगा ये पता नहीं होता था । परन्तु पलायन उसका समाधान नहीं हो सकता था । वो अपने भाई रामू की तरह हालात का सामना कर सकता था । पर उसे संन्यासियों के साथ जाना ज्यादा ठीक लगा।

जब उसे मां की सेवा करनी थी । उस वक्त उन्हें अपने बिछोह का दर्द देकर वो चला गया और माई इस जुदाई को बर्दाश्त नहीं कर सकी , और इस दुनिया से विदा हो गई। जब उसे घर बसाना चाहिए था । उस वक्त वो घर छोड़कर चले गए । पुनः जिस अवस्था में आम गृहस्थ भी घर परिवार की जिम्मेदारियों से मुक्त हो कर ईश्वर में मन रमाने की इच्छा रखता है, उस अवस्था में वो लौट कर घर और गृहस्थी में रमते है । उनके जो भी भक्त सम्पन्न है उनसे तो दान लेना उचित है परंतु,जिनका सामर्थ्य नहीं है उनसे भी दान दक्षिणा लेकर अपना घर बनवाना या व्यक्तिगत सम्पत्ति अर्जित करना कितना उचित है ? प्रश्र हमारे समाज से भी है कि हम ऐसी परम्पराओं को प्रश्रय देते ही क्यों हैं ?

मैं आपसे के दूसरे चरण में आज की युवा पीढ़ी के सन्यास के प्रति झुकाव को आप सभी के साथ साझा करना चाहती हूं और आपको एक अलग ही संन्यास का रूप दिखाना चाहती हूं । कैसे एक साधरण सा लड़का संन्यास की तरफ अपनी दुनिया बुनने लगा और कैसे उसके विचारों ने ऐसी करवट ली की उसने क्या खोया ? क्या पाया ? उसको कुछ समझ ही ना आया।

जो सफलताओं की बुलंदियों को छूना चाहता था ; वो कैसे संन्यास की तरफ आकृष्ट हो गया ? ये कहानी है बहुत मन्नतों और बहुत इंतजार के बाद प्राप्त बेटे की। क्या माता पिता ने जिसे इतनी दुआ मांगने के बाद पाया था वो उन्हें खुशियां दे सका ? आइए पढ़ते हैं ऐसी ही एक दिल को विचलित कर देने वाली कहानी ।

अरविंद जी बेचैनी से हाॅस्पिटल के काॅरिडोर में टहल रहे थे । उनकी पत्नी को अंदर लेबर रूम में ले गए थे । वो खुशखबरी की प्रतीक्षा कर रहे थे । कुछ समय पश्चात नर्स बाहर आई , और गोद में कपड़े में लिपटे बच्चे को पकड़ाते हुए बोली शर्मा जी बधाई हो आप एक परी सी बच्ची के पिता बन गए हैं । ये सुन कर उनका उत्साह ठंडा पड़ गया । उन्होंने बच्ची को देखा और नर्स को वापस पकड़ा दिया ।

शर्मा जी दो पुत्रियों के पिता थे । उन्हें इस बार बड़ी उम्मीद थी कि बेटा होगा पर पुनः बेटी होने से निराश हो गए थे । नर्स के दिए सामन का लिस्ट लेकर वो उन्हें लेने चले गए ।

जब सामान लेकर लौटे तो उनकी पत्नी सावित्री को रूम में शिफ्ट किया जा चुका था । उन्हें सामने देख सावित्री ने उदासी से मुंह दूसरी ओर कर लिया । अरविंद जी ने सावित्री के पास रक्खे स्टूल पर बैठ कर उसका हाथ अपने हाथ में लेकर सहलाते हुए बोले मुंह क्यों फेर रही हो ? देखा तुमने हमारी बेटी कितनी सुंदर है ? नर्स तो उसे परी कह रही थी । सावित्री ने उदासी से देखते हुए कहा तुम मुझे दिलासा दे रहे हो । अरविंद जी बोले हां ; मुझे बेटे की चाह थी , पर ईश्वर प्रसाद जो भी दें वो खुशी से स्वीकार करना चाहिए । पति के समझाने पर सावित्री भी चिंता मुक्त हो गई।

समय बीतता गया तीनों बच्चियां हनी , मनी और परी बड़ी होने लगी । पर शर्मा दम्पती के हृदय में पुत्र की इच्छा प्रबल होने लगी । वो ऐसा कोई भी भगवान का दर ना बचा होगा जहां अपनी अर्जी ना लगाई हो । जहां-जहां कोई भी बताता वो वहां जरूर मन्नत करने जाते ।

बहुत तपस्या के बाद भगवान ने उनकी विनती सुन ली । सावित्री फिर एक बार मां बनने वाली थी । पूरा समय बहुत एहतियात के साथ बीता । आज फिर अरविंद जी हाॅस्पिटल के काॅरीडोर में बेचैनी से टहल रहे थे । कुछ समय बाद ही नर्स आई , और कपड़े में लिपटे बच्चे को गोद में देते हुए बोली बधाई हो शर्मा जी आप एक सुंदर बेटे के पिता बन गए हैं । अरविंद जी ने बालक को अपने सीने से लगा लिया । दो बूंद खुशी के आंसू गालों पर लुढ़क गए । वो बोले क्या मैं सावित्री से मिल सकता हूं । नर्स बच्चे को लेते हुए बोली बस दस मिनट में हम सावित्री जी को रूम शिफ्ट कर दे रहे हैं । फिर आप मिल लीजिएगा ।

अरविंद जी प्रसन्नता से कमरे में प्रवेश करते

हुए सावित्री से बोले क्यूं भाग्यवान खुश तो होना। सावित्री भी मुस्कराते हुए बोली,

"मैं उदास ही कब थी..! इसी के साथ दोनों खिलखिला पड़े। बालक सो रहा था । उसे देखते हुए अरविंद जी बोले देखना सावित्री हमारा बेटा बहुत ही होनहार होगा। प्रत्युत्तर में सावित्री ने प्यार से बच्चे को देखते हुए उसके माथे पर हाथ फेरा।

दोनों बहुत खुश थे।

पांच दिन बाद सावित्री हाॅस्पिटल से घर आ गई । तीनों बेटियां नन्हे-मुन्ने भाई को पाकर बहुतप्रसन्न थीं । बारी बारी से तीनों उसे गोद में लेती । परी सबसे छोटी थी इसलिए सावित्री उसे अपने सामने ही गोद में देती । पर हनी और मनी तो उसे गोद से उतारती ही नहीं थी ।

सवा महीने पर अरविंद जी नेअखंड रामायण का पाठ करवाया सारे रिश्तेदार और इष्ट मित्रों को भी बुलाया गया । अरविंद जी ने अपनी मां को नामकरण की जिम्मेदारी दी । उन्होंने बड़े विचार के बाद बच्चे को गोद में लेकर कहा इससे कीमती तुम्हारे जीवन में कुछ भी नहीं । इसका कोई मोल नहीं । दोनों हाथों से उसे ऊपर उठा कर बोली ये तो हमारा अनमोल है अनमोल। सब ने दादी की ओर तारीफ से देखा । एकदम भावना के अनुकूल नाम रखा था उन्होंने । हर कोई गोद में लेकर प्यार करना चाह रहा था अनमोल को । गोरा चिट्टा अनमोल बिल्कुल मक्खन की तरह लग रहा था । दादी के लाए सुर्ख लाल बाबा सूट में बहुत ही सुन्दर लग रहा था ।बुआ के लाए काले नजरिया (बच्चों के हाथ में पहनने का चूड़ी की तरह आभूषण ) उसके गोरे गोरे गोल गोल कलाइयों में दूर से ही चमक रहे थे ।

उस दिन हवन पूजन के बाद दावत भी अच्छे से निपट गयी। जो पास के मेहमान थे वो तो उसी दिन चले गए । पर जो दूर से आए थे वो रात में रूक गये । सुबह वो सब भी चले गए । बस दादी और बुआ जी थी । नन्हे से अनमोल की देखभाल करने के लिए ।

कुछ दिनों तक रूक कर दादी भी चली गई ।

गांव में फसल तैयार हो गई थी । उन्हें कटवाने के लिए उनको जाना पड़ा । अनमोल को छोड़ कर जाने की उनकी बिल्कुल भी इच्छा नहीं थी । परन्तु जाना जरूरी था इसलिए भारी मन से वो गांव चली गई ।

बड़े लाड़ प्यार सेअनमोल पलने लगा। हनी मनी और परी उसे एक मिनट के लिए भी अकेला नहीं छोड़ती थी। हनी और मनी स्कूल से आकर सीधा भाई को देखती फिर कुछ देर बाद मां के डांटने पर ही कपड़ा बदलने जाती थी । परी जो अभी स्कूल जाना शुरू हीं की थी वो तो लाख समझाने और डांट मार के बाद भी भाई को छोड़कर स्कूल जाने को तैयार नही होती। बोलती मैं घर में ही दीदी से पढ़ लूंगी और जब भाई स्कूल जाएगा तब मैं भी जाऊंगी ।

अगले भाग में पढ़िए की अनमोल के आगे की कहानी..!!