उम्मीदों का पेड़ - कोशिशें Pranav Pujari द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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उम्मीदों का पेड़ - कोशिशें

पौ फटने का समय दूर था, पर माधव तो तड़के चार बजे ही उठ गया था। धान की रोपाई की रुत थी, तो पंछियों के चहचहाने से पहले ही, गांव के ज्यादातर घरों के किवाड़ खुल गए थे। बिना कोई आहट किए, उसने धीरे से दरवाजा खोला, बाल्टी में रखे पानी को छपाक से चेहरे पर मारा और खेत की ओर चल दिया। शांति की नींद भी टूट गई थी, पर पिछ्ले दिन की थकान और आने वाले दिन के कामों का खयाल आते ही उसने कुछ देर और सोने का फैसला किया।

चार साल हो गए थे माधव और शांति की शादी को और शादी के एक साल बाद, सूरज के नन्हे पैरों ने उनकी जिंदगी में कदम रखा। माधव के पिताजी को गुजरे अभी तीन महीने ही हुए थे, पर माँ के अंतिम दर्शन हुए छह साल बीत गए थे। तीन लोगों का सरल परिवार था यह, दो कमरों का घर, और एक बीघा जमीन, काफी थे उनकी चंद जरूरतें पूरी करने के लिए।

धान की फसल बहुत परिश्रम मांगती है। पहले खेत की जुताई, खेत के एक कोने पर बनी मेढ पर होने वाली बुआई, फिर पौध के बड़े होने का इंतज़ार, और इन सबसे ज़रूरी, खेत की सिंचाई। करीब दो हफ्तों के लिए, खेत को पानी से डेढ़- दो फुट तक लबालब भरना पड़ता है, तब कहीं जाकर पौंध की रोपाई की जाती है। यही सबसे महत्वपूर्ण समय होता है, धान की फसल के लिए और रोपी हुई पौंध की जड़ें जमने के लिए। अब आप ही सोचिये, यदि जल का कोई पर्याप्त स्त्रोत ना हो, तो इंद्र देव की कृपा के बिना ये सब हो पाना कहाँ मुमकिन है।

बुआई सफल रही थी और पौध रोपने के लिए तैयार थी। माधव दो बाल्टी पानी तो घर से उठा लाया था, पर रोपाई के लिए खेत को पानी से लबालब भरना था। तो वह दोनों बाल्टियां लेकर तालाब से पानी खेत में भरने लगा। छह बज गया था और शांति गुड़ और चाय लेकर खेत पर पहुँच गई। "लो चाय पी लो, ये मैं करती हूँ", शांति ने माधव से बाल्टी लेते हुए कहा। माधव चाय पीने लगा और शांति बाल्टी लेकर तालाब की ओर चल दी।

जाने कितने विचार उमड़-घुमड़ आते माधव के मन में, जब भी वो अपने खेत को ऐसे देखता। एक पल वो पौंध को देखकर खुश होता, अगले ही पल बारिश की चिंता उसे सताने लगती। "सूरज के लिए हल्की वाली एक गेंद ले आना लौटते हुए, कब से जिद कर रहा। और पीले रंग की ही लाना, पता नहीं कहाँ से शौक चढ़ा नया।" माधव तो अपने खयालों में ही गुम था, उसने कुछ सुना ही नहीं। "अरे सुन रहे हो क्या, सूरज के लिए एक पीली गेंद लानी है, आज ही" इस बार थोड़ा ज़ोर से बोला शांति ने। "हाँ ठीक है, शाम को ले आऊँगा", माधव ने जवाब दिया। शांति माधव की चिंता का कारण जानती थी, "देखना इस बार बहुत अच्छी बारिश होगी, ऐसी जो पिछ्ले कई सालों में नहीं हुई। और इस बार हम एक रेडियो लेंगे, बहुत सारे गाने आते उसमें तो।" माधव मुस्कुरा दिया, "हाँ क्यूँ नहीं मालकिन, सब आपकी इच्छा से होगा, ठीक। अब जाओ सूरज उठ गया होगा। और दिन का खाना जल्दी ले आना।" "जो आज्ञा सरकार" कहकर शांति घर को चल दी।

अब सभी किसान बंधुओं की तरह, माधव को भी बारिश का इंतज़ार था। ज्येष्ठ मास का अंत, और आषाढ़ का महीना शुरु हुआ। पूरे गांव में मानसून के आगमन को लेकर की ही चर्चा थी। गांव के पंचायत घर में हर शाम रेडियो पर मौसम का हाल सुना जाने लगा। उस पाँच मिनट के प्रसारण को सुनने के लिए, हर परिवार से कम से कम एक सदस्य उपस्थित रहता। और पहले पंचायत घर में, फिर हर एक घर में, मानसून की ही बातें होती। ऐसा इंतज़ार, तो माँ को नजरों से दूर अपने बच्चों का, या विरह में तड़पते प्रेमी को अपने संगी की एक झलक पाने का होता है। फिलहाल, प्यासे को पानी की दरकार थी।

पर न मौसम से कोई खुशखबरी मिली, न मौसम विभाग से। जुलाई आधा बीत चुका था और सावन का महीना शुरु हुआ। बादलों के दर्शन तो मिल जाते कभी, पर बारिश की एक बूँद के लिए सभी तरस गए थे। पूरे गांव में तालाब ही पानी का एकमात्र स्त्रोत था, पर इस निर्जल मौसम में वह भी सूखने लगा। रोजमर्रा के कामों से बचाकर लोग सिंचाई के लिए जो पानी रखते थे, वो पहले ही खेतों के लिए पर्याप्त नहीं था। पर अब तो घर की जरूरतों के लिए ही पानी कम था। तो खेत सूखने लगे, जमीन जलशून्य थी और धान की पौंध मुरझाने लगी, पर इंद्र देव की तो थोड़ी सी भी कृपा नहीं बरसी।

हर घर में मायूसी थी। माधव की परेशानी उसके चेहरे पर साफ झलकने लगी थी। पर सूरज के सामने वह अपनी चिंता का एक अंश भी नहीं दर्शाता, या शायद वो सब भूल जाता था सूरज को देखते ही। शांति चाहकर भी कुछ नहीं कर सकती थी। वो बस सुबह-शाम, जागते-सोते, भगवान से प्रार्थना करती, बारिश की दुआ मांगती। पर उस अकेली की क्या, पूरे गाँव की फरियाद भी कुछ न कर पाई, और इस वर्ष की धान की फसल खराब हो गई।

अब न खाने को अन्न था, ना खरीदने के पैसे। उधारी में दिन तो जैसे-तैसे कट रहे थे, पर आने वाले की चिंता माधव को हर क्षण सताती रहती। शांति का मुरझाया चेहरा और सूरज की नन्ही सी ख्वाहिशें भी पूरी न कर पाने का दुख, माधव को अंदर ही अंदर खाये जा रहा था। एक पति और एक पिता के रूप में, वो खुद को अक्षम समझने लगा। शांति को माधव की परेशानी ज्ञात थी, पर उसके पास भी कोई हल न था। जहाँ पहले हँसी-ठिठोली गूंजती थी, अब एक अजीब सा सन्नाटा छाया रहता उस घर में। बहुत सोच-विचार के बाद माधव ने एक बड़ा निर्णय लिया, अपनी जमीन को गिरवी रखकर शहर जाने का। अपनी विरासत किसी को यूँ देना उसके लिए किसी पाप से कम न था, मानो अर्थ को पाने के लिए वो अनर्थ कर रहा हो। पर मजबूरी इंसान से सब कुछ करवाती है। पूर्वजों और ईश्वर से क्षमा माँगकर, दिल पर पत्थर रखकर, वो साहूकार के पास गया, और अचल के बदले, चल सम्पत्ति ले आया।

एक ओर तो वो शांति को शहर जाने के लिए मनाने के तरीके सोच रहा था, वहीं दूसरी तरफ शहर में रुकने और कमाने के जरिये टटोल रहा था। "हम कल दोपहरी शहर के लिए निकलेंगे, ज़रूरत का सारा समान रख लो, और सूरज का भी", शांति से नज़रें चुराते हुए माधव बोला। "कितने दिन के लिए जाना है, और रुकेंगे कहाँ ? अब तो कोई है ही नहीं वहाँ। एक काकी थी वो भी गुजरे बरस ईश्वर को प्यारी हो गई, मैनें तो सुना है भाऊ ने वो घर ही बेच दिया और कहीं दूसरे शहर चले गए।" शांति के इतने सवालों का जवाब न था माधव के पास, बस इतना बोला, "साहूकार से बात की है मैनें, उनका परिचित है कोई, उनके घर रहने का इंतजाम हो जाएगा।" अब शांति की माथा कुछ ठनका, "साहूकार के पास क्यों गए थे ? और शहर जाना क्यों है ? साफ़-साफ़ बताओ।" "मैनें यहाँ की जमीन गिरवी रख दी है, और शहर जाकर पैसे कमाने का निर्णय लिया है। वहाँ बहुत मौके मिलेंगे कमाने के, फिर जब पूंजी इकट्ठी हो जाएगी तो वापस आ जाएँगे। जमीन के पैसे भी चुका दूँगा और तब तक नई फसल का समय भी आ जाएगा। फिर हम खुशी से यहीं अपने घर में रहेंगे।"

शांति की आँखों में आँसू थे, कुछ गुस्से के, कुछ अपनी दयनीय स्थिति के। "पर ज़रूरत क्या है वहाँ जाने की, नहीं चाहिए मुझे कोई रेडियो, मैं सूरज को भी समझा दूँगी कि ये रोज-रोज के नए शौक बंद करे। नहीं जाते हैं ना", वो रोते हुए बोली। माधव ने बड़ी मुश्किल से अपने आँसुओं को चेहरे पर आने से रोका और बोला, "कुछ ही समय की तो बात है, यहाँ ऐसे हाथ पर हाथ धरे बैठने से अच्छा ही है ना, कि कहीं हाथ-पैर मारे जाएँ, कुछ पैसे ही आ जाएँगे और मन भी लगा रहेगा। मैं वादा करता हूँ सब पहले जैसा हो जाएगा बस तुम थोड़ी हिम्मत रखो।" शांति ने हाँ में सिर हिलाया, पर उसके आँसू रुक न रहे थे। "या फिर मैं ही जाता हूँ, तुम दोनो यहीं रुको, बीच-बीच में मिलने आता रहूँगा","नहीं, बिलकुल नहीं, जहाँ भी रहेंगे, सब साथ रहेंगे, मैं सामान रखना शुरु करती हूँ", इतना कहकर शांति अंदर के कमरे में चली गई।

माधव ने सूरज को पुकारा, और वो तुरंत आशा भरी निगाहों के साथ उसके सामने आ गया, जैसे उसे कुछ मिलने वाला हो। माधव ने उसे गोद में उठा लिया और बोला "हम सब कल शहर जा रहे हैं, तो अपनी वो नई गेंद, लाल वाला लट्टू, और जो कुछ भी तुझे चाहिए अपनी माँ को दे आ, वो सम्भाल कर रख देगी।" सूरज की आँखों की चमक देखते ही बनती थी, "हम शहर जाएँगे ?", "हाँ", "मोटर गाड़ी में बैठेंगे ?", "हाँ", "मेले भी जाएँगे ?", "हाँ रे छुटकू", "मैं गोल-गोल वाले झूले में बैठूंगा", "हाँ बैठ जाना, पर अभी अपने खिलौने माँ को दे, वरना अगर झोले भर गए तो तेरा सामान ना आना, फिर मत बोलियो कुछ"। सूरज तुरंत गोद से उतरा, और अपने सभी खिलौने एक-एक कर के शांति को देने लगा, लगभग सभी रखवा दिये थे उसने तो। फिर तेजी से घर से बाहर भागा, जोर से चिल्लाते हुए "मैं शहर जाऊँगा"। शांति और माधव भी असमंजस की स्थिति में थे, सूरज की खुशी में खुश हों, या फिर घर छोड़ने का गम करें।
कैसी परिस्थिति है ना, कभी नादान होना, समझदार होने से ज्यादा सुकून देता है।

अगली दोपहर वो बस पकड़कर शहर को चल दिये, शाम तक पहुँच भी गए। माधव सीधा साहूकार के दिये हुए पते पर पहुँच गया, कोई शर्मा जी थे। शर्मा जी को साहूकार ने सब बताया ही था, तो रहने के लिए उनके घर के पीछे की एक कमरे वाली खोली मिल गई। सामने एक छोटा सा आंगन था, एक अशोक का पेड़ और उस पेड़ से सटा हुआ एक नल लगा था, जिसमें सुबह सिर्फ़ एक घंटे के लिए पानी आता था। सूरज के लिए ये आंगन उसके घर के आंगन से छोटा था पर वो फिर भी खुश था। किराया भी कम ही था, पर चुकाने के लिए काम तो चाहिए था। माधव ने ये परेशानी भी शर्मा जी के सामने रखी। अब पाँचवी पास के लिए रोजगार के ज्यादा विकल्प तो थे नहीं। तीन किमी दूर एक मॉल की इमारत तैयार हो रही थी, तो शर्मा जी ने वहीं मजदूरी करने का प्रस्ताव माधव के सामने रखा। माधव ने तुरंत हामी भर दी। शर्मा जी ने एक कॉल पर मॉल के ठेकेदार से माधव का परिचय कराया और ध्याड़ी की सारी बातें भी तय हो गई। माधव ने तहे दिल से शर्मा जी का शुक्रिया अदा किया, और शांति को ये खबर देने चल दिया। माधव सुकून में था, तो शांति आने वाले कल के लिए चिंतित। खैर सुबह जल्दी निकलना था, तो बिना ज्यादा चर्चा किए खाना खाकर दोनों सो गए।

अगले दिन दोनों सुबह जल्दी उठ गए, माधव नहा धोकर काम के लिए निकल गया और शांति उसकी सलामती के लिए प्रार्थना में लग गई। अब ये उनकी रोज की दिनचर्या थी, हर शाम ध्याड़ी मिल जाती तो घर में खुशी थी। किराया चुका दिया गया था, सूरज के नए कपड़े और खिलौने आ गए थे, और शांति के लिए एक नई साड़ी। सबकुछ उम्मीद के मुताबिक चल रहा था। जितना भी पैसा बचता, माधव संभालने के लिए पूरा शांति को दे देता। दो महीने बीत गए और उनकी पूँजी धीरे-धीरे बढ़ने लगी। उधर मॉल की इमारत भी अपनी आखिरी मंजिल पर थी। पर नए काम की चिंता अब माधव को न थी, ठेकेदार से साथ उसके सम्बंध अच्छे थे, तो उसे विश्वास था की फिर से काम मिल ही जाएगा।

उन दिनों घर के पास मेला लगा था। सूरज की जिद थी तो माधव भी तैयार हो गया। अगले दिन सुबह जल्दी उठा और काम पर पहुँचते ही ठेकेदार से जल्दी वापसी की इज़ाज़त माँग ली। काम के प्रति उसकी निष्ठा ही थी, कि उसने जाने से पहले अपने हिस्से का काम पूरा करने की ठानी। छत के जंगले का काम चल रहा था, माधव सीमेंट-रेते का मसाला तैयार कर के मिस्त्री को देने छत के कोने पर गया ही था, कि आधी टूटी ईंट पर उसका पैर पड़ा, और वो लड़खड़ाकर चौथी मंजिल से सीधा नीचे ज़मीन पर आ गिरा।