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एक लेखक की ‘एनेटमी‘ - 2

एक लेखक की ‘एनेटमी‘

प्रियंवद

(2)

इन उलझे और आपस में लड़ते चीखते विचारों के पार उसके अंदर मृत्यु की गहरी तड़प थी।

यह तड़प पहली बार एक तिलचट्‌टे की हत्या करने के बाद पैदा हुयी थी। उस रात, जब चाँद बेमन से आसमानी चौखट के बाहर निकल रहा था, और उल्लू अपनी चोंच में भरा हुआ चूहा ला कर अपने बच्चों को खिला रहा था, और दीए की रोशनी में नितम्बों की मांसलता का वैभव अंहकार में एेंठ रहा था, और दुर्भाग्य से बचाने के लिए कोई पहना हुआ तावीज टूट कर फर्श पर पड़ा था, बलूत की चौखट की बनी खिड़की पर लगे मकड़ी के जाले के पार, चाँद साबुन की टिकिया की तरह घुल रहा था। उसका सफेद झाग, फर्श पर उसके पाँवों के चारों तरफ फैला था। तिलचट्‌टा कुछ देर से उस झाग पर रूका हुआ था। उसे लगा कि अगर उसने इसे नहीं मारा तो अपने मुँह पर लगे, हिलते हुए दो लम्बे पतले तारों के साथ उसके पंजे पर चढ़ना शुरू कर देगा। इस सोच ने उसे दहशत और नफरत से भर दिया। हो सकता है उसकी असली दहशत और असली नफरत उसके अंदर पहले से ही किसी और कारण से रही हो जिसे इस तिलचट्‌टे ने उगल कर बाहर आने का तर्क और अवसर दे दिया हो। कुछ क्षण उसने तिलचट्‌टे के खत्म होने वाले जीवन के आखरी क्षणों को गहरी निसंगता के साथ देखा, फिर पूरी निर्दयता और तेजी के साथ अपना पाँव तिलचट्‌टे पर पटका। ‘चट‘ की हल्की आवाज हुयी। उसने पाँव हटा कर देखा। तिलचट्‌टा अब दो टुकड़ों में टूट गया था। चाँदनी के सफेद झाग में उसके बदन की किरचें कत्थई फूल की पंखुरियों की तरह बिखरी थीं। उसने इत्मीनान और संतोष की गहरी साँस ली। वह उठा। नल पर जाकर उसने मुँह पर पानी के छीटें मारे। सोने के कमरे में लौटा और बिस्तर पर गिर पड़ा। सुबह जब वह उठा और कमरे में आया तो तिलचट्‌टा वहाँ नहीं था। उसने इधर उधर देखा। फर्श के एक कोने की दीवार पर, कुछ ऊँचाई में उसके रोए चिपके थे। चीटियों की एक कतार बचे हुए तिलचट्‌टे को ढकेल रही थी। उसने हैरानी से देखा। तेजी से चलती हाँफती चीटियाँ तिलचट्‌टे के बड़े टुकड़ों को खींच कर दीवार पर ले जा रहीं थीं। फर्श पर अब तिलचट्‌टे की मौत का कोई निशान नहीं था। एक सम्पूर्ण जीवन अचानक पूरी तरह लुप्त हो गया था। उसी क्षण, ठीक उसी क्षण पहली बार उसके अंदर मृत्यु की तेज तड़प पैदा हुयी थी। ऐसी ही शांत, अचानक होने वाली मृत्यु, जिसका कोई चिन्ह नहीं, कोई अवशेष नहीं। सिर्फ अचानक, पूरी तरह लुप्त हो जाना।

यह तड़प दूसरी बार तब पैदा हुयी, जब उसने शहर के सबसे बड़े और बूढे़ लेखक की लाश देखी थी। घर के शानदार कमरे में हजारों किताबों के बीच उसकी लाश रखी थी। आँखों पर दो सिक्के थे। पेट पर जुड़ी हुयी हथेलियाँ थीं। उसने कुछ देर लाश को देखा फिर बेनियाज़ी के साथ खिड़की पर खड़ा हो कर बाहर देखने लगा। उसकी दिलचस्पी लाश की सफेद हो चुकी खाल, सिक्कों से ढकी आँखों और चेहरे की शिकन पर चिपकी आखरी तड़प या शायद आखरी चीख में खत्म हो चुकी थी। वह उत्सुकता से खिड़की के बाहर देख रहा था। बाहर नीले आकाश के बड़े टुकड़े पर कुछ सफेद परिन्दे तैर रहे थे। सड़क पर जिंदगी अपने पूरे जोश और बदहवासी के साथ दौड़ रही थी। उस जिंदगी में मृत्यु का कोई अहसास नहीं था। वहाँ जादू था, सपेरा था, बच्चों की कौतूहल भरी आँखें थीं। उन आँखों में बहुत सी उम्मीदें और बहुत ज्यादा मासूमियतें थीं। बेचैन रूहें थीं, तड़पते जिस्म थे। वह खिड़की के बाहर फैली कायनात की रंगो जोश भरी ताजगी और कमरे के अंदर मृत्यु की खामोशी की दहलीज पर सहमा खड़ा था, उसी तरह सहमा, भटका और खोया हुआ, जैसा वषोर्ं से था। एक ऐसे मकबरे की तरह जो बारिश धूप और मिट्‌टी की तहों के नीचे रेशा रेशा चटकता जा रहा था। उस जानवर की तरह जिसकी खोपड़ी पर थोड़ी थोड़ी देर में तूफानी हथौड़े पड़ रहे हों। जहरीली समझदारी और अज्ञानी प्रेम के बीच वह उसी तरह जी रहा था, जिस तरह उस कमरे की लाश और खिड़की के बाहर की दुनिया के बीच निराशा और पराजय के उस क्षण में जी रहा था। ‘‘मुझे मरना है, जल्दी से जल्दी और इसी तरह‘‘ वह बड़बड़ाया। कमरे में उसकी बड़बड़ाहट सुनने वाला कोई नहीं था। खिड़की के बाहर नीले आसमान पर घूमते सफेद परिन्दे अब नहीं थे। वहाँ अब गोधूलि का मटमैलापन द्दाट रहा था। उसके पीछे रोशनी की बची हुयी आखरी चमक थी। ‘‘मुझे ऐसी ही मौत चाहिए... जितनी जल्दी हो सके...वह बुदबुदाया और होठों पर जीभ फेरता हुआ, बिना लाश की ओर देखे कमरे से बाहर निकल आया।

मृत्यु की इस तड़प के बाद जीवन का अनिवार्य पटाक्षेप था।

एक रात जब गाँव की इकलौती सांवली वेश्या अपनी बूढ़ी माँ की माँग पर उसके लिए बाजरे, खजूर और गुड़ के लड्‌डू बना रही थी, गाँव के चुंगी अधिकारी के घर शहर से आए कुछ कलाकार, लेखक रात के भोजन, नृत्य और खुली बहस के लिए जमा हुए। चुंगी अधिकारी खुद नाटक लिखता और अभिनय करता था। अक्सर दूसरे शहरों के कलाकारों, लेखकों को बुला कर बैठक जमाता था। इसमें कोई भी शामिल हो सकता था। शामिल होने की दो ही शतेर्ं थीं। पहली, दरवाजा खटखटाने पर जब रेलवे की छोटी खिड़की की तरह बनी साथ की खिड़की खुले, तो कुछ ऐसा पक्तियाँ सुनाती होतीं जिससे शामिल होने वाले की बौद्धिक पात्रता सिद्ध होती हो। इसे ‘पासवर्ड‘ कहा जाता था। दूसरी, योग्यता सिद्ध हो जाने के बाद खिड़की के अंदर शराब की छोटी या बड़ी बोतल रखनी होती थी। इसे ‘गेट पास‘ कहा जाता था।

प्रेमियों के लिए जलते चिराग जैसे घर में रहने वाला वह आदमी, उस रात गाजर का रस पीने के बाद खाँसता हुआ घर से निकला। कुछ कच्ची सड़कें पार करने के बाद, सफेद फूलों वाली बेल के पीछे छुपे चुंगी अधिकारी के घर के दरवाजे को उसने खटखटाया। खिड़की खुली। अंदर से कद्‌दू की तरह गोल सर, मोटी मूँछो और फूले गालों वाले एक आदमी ने झाँका। ‘पासवर्ड‘ खरखराती आवाज में वह बोला। उसने कुछ क्षण उसे देखा फिर दो पक्तियाँ सुनायीं, ‘हाउ आर द ट्रीज डूइंग/हार्ड टु से, इट इज विंटर यू नो‘। उसने संतुष्टि से सर हिलाया। ‘गेटपास‘? वह फुसफुसाया। उस आदमी ने लम्बे कोट की गहरी जेब से थोड़ी खाली शराब की बोतल खिड़की के अंदर सरका दी। मूँछ वाले ने बोतल ले कर खिड़की बंद कर दी। कुछ क्षण बाद दरवाजा खुला। फूलों वाली बेल हटा कर वह आदमी दरवाजे के अंदर घुस गया।

अंदर एक बड़े हॉल में कुछ लोग जमा थे। दो चार के गुट में बैठे बातें कर रहे थे। उनकी आवाजें मक्खियों की तरह भिनभिना रहीं थीं। हॉलनुमा कमरे में सिगरेट का धुँआ, मसालों की महक, शराब और सस्ते इत्र की तेज गंध भरी थी। दीवारों पर लगे पीले बल्ब से रोशनी गिर रही थी। उस रोशनी के बीच कहीं कहीं अंधेरा कुकुरमुत्तों की तरह उगा था। हाँल के एक कोने में बहुत पुराना पियानो रखा था। उसकी लकड़ी की चमक और नक्काशी अभी तब बची थी। चुंगी अधिकारी का दावा था कि यह पियानो, उस समय दुनिया की सबसे मशहूर पियानो बनाने वाली कम्पनी ‘जॉन ब्रॉडवुड एंड संस‘ ने बनाया था। पियानो पहले पेरिस मेें था और शोपिन ने इस पर गाया था। बाद में उसके पुरखों में कोई घूस की शक्ल में इसे उठा ले गया था। जब फ्रांसीसी हिन्दुस्तान के एक हिस्से पर कब्जा करके रहने लगे, तब यह पियानो पेरिस से भारत आया था।

फिलवक्त एक आदमी उस पर झुका अपनी उंगलियाँ चला रहा था। हॉल के एक कोने में तीन जंगली सुअरों की टंगी खाल के नीचे एक लम्बा कांउटर था। उस पर सबकी लायी हुयी शराब की बोतलें रखी थीं। गिलास, पानी, बर्फ, तले हुए हरे मटर, मछली के कबाब भी रखे थे। कुछ स्टूल थे। वह एक स्टूल पर बैठ गया। उसने अपने लिए एक गिलास में शराब बनायी। कुछ घूँट लिए फिर लोगों को देखने और उनकी बातें सनने लगा।

सबसे बड़े गुट में एक बूढ़ा बोल रहा था और आठ आदमी सुन रहे थे। स्त्री के एक वक्षस्थल वाली मूठ की उसकी छड़ी उसकी कुर्सी के पीछे टंगी थी। वह बड़ा गोल हैट लगाए था जो उसके माथे को ढक रहा था। उसकी आँखों पर सुनहरे फ्रेम का मोटे शीशों वाला चश्मा था। उसके एक हाथ में गिलास और दूसरे हाथ में सुनहरे धागों से कढ़ाई किया हुआ सफेद रूमाल था। चेहरे से बहुत पढ़ा लिखा, किसी प्रोफेसर जैसा लग रहा था। थोड़ी थोड़ी देर में घूँट लेता हुआ, रूमाल से होठों के कोनों पर चिपकी शराब की बूंदों को पोछता हुआ, मछली के कबाब को टुकड़ा चबाता हुआ, दमदार आवाज में बोल रहा था। लोग ध्यान से सुन रहे थे। ‘‘जब लिखना शुरू किया तब मेरे लिए लिखने का क्या अर्थ है या क्यों लिखता हूँ, इस पर गम्भीरता से कभी सोचा नहीं था। अगर सोचा भी तो उत्तर नहीं ढूँढ पाया। लेकिन जब एक दिन सैमुएल बैकेट की बातें पढ़ीं तो लगा कि, हाँ, मेरे लिखने का भी बिल्कुल यही कारण है।‘‘ एक घूँट लेने के लिए वह रूका। उसने सबको देखा। वे सब तल्लीनता और उत्सुकता से सुन रहे थे। उसने संतोष से सर हिलाया। घूँट लेकर फिर बोलने लगा, हम अपने गुरूओं से सीखते हैं। हमेशा हमारे सवालों के उत्तर देते हैं।‘‘बैकेट से जब पूछा गया कि तुम क्यों लिखते हो, तो उसने कहा ‘मैं इसलिए लिखता हूँ क्योंकि मैं मनुष्य की सतह के सबसे नीचे, वहाँ जाना चाहता हूँ जहाँ उसकी सबसे विश्वसनीय और प्रामाणिक कमजोरियाँ होती हैं और जिन्हें वह छुपाने की कोशिश करता है। मुझे लगता है इनको तलाशने का कठिन काम करने में शब्द असमर्थ हैं। उनमें इतनी क्षमता नहीं है। अगर कोई सचमुच लोगों की बरबादी, सम्पूर्ण विनाश, दुख और यातना की गहराई में चला जाए, तो वह सब इतना गहरा, इतनी पर्तों वाला और इतना अधिक है कि कोई भी शब्द इसे व्यक्त करने के लिए अपर्याप्त होगा। वह एक क्षण रूका। उसने सबके चेहरे देखे। वे अब तने हुए थे। बूढ़े ने रूमाल से होठों के किनारे पोछे फिर बोला ‘‘पर बात इतनी आसान और सीधी नहीं थी। बैकेट ने शब्दों की शक्ति और क्षमता को पूरी तरह नकार दिया। वहीं दूसरी तरफ, बैकेट का बौद्धिक गुरू और शुरूआती आदर्श रहा जेम्स जॉयस बिल्कुल अलग सोचता था। उसे सिर्फ शब्दों पर ही भरोसा था। वह कहता था कि तुम सिर्फ शब्दों को सही अर्थ के साथ, सही क्रम में रख दो, तुम जो चाहे व्यक्त कर सकते हो। उसने यह करके दिखाया भी। उसने शब्दों के प्रचलित अर्थ से अलग उनको नए अर्थ दिए। उसने बिल्कुल अलग तरीके से उन्हें क्रम में रखा और इस तरह उनके नए अर्थ, नयी लय पैदा की। उनके उच्चारण और ध्वनियों से भी वह नए अर्थ पैदा कर देता था। उसको इसमें बहुत आनन्द आता था। उसने शब्दों का खजाना जमा किया था। किसी भी भाषा का कोई भी नया, आकर्षक शब्द वह लिख लेता था। उसका इस्तेमाल करता था। यूलिसीस में उसने शब्दों के नए प्रयोगों से ही मनुष्य के सबसे जटिल, गहरे, गोपनीय और अपवित्र अन्तर्मन को व्यक्त किया। मनुष्य के अंदर की वे सारी गुफाएं, वे सारे पाताल मथ डाले जिनकी बात बैकेट कर रहा था और जिसे व्यक्त करने में वह शब्दों को असमर्थ समझता था।‘‘ बूढ़े ने अब गिलास मेज पर रख दिया। बूढ़े ने गहरी साँस ली ‘‘हर लेखक की यह समस्या होती है। आज तक मुझे नहीं पता कि शब्दों का सच क्या है। उनकी ताकत, उनकी क्षमता, उनकी जरूरत रचना में कितनी होती है? वे रचना में किस तरह आना चाहिए? बरसात में उगने वाले फोड़े फुंसियों की तरह या फूल से रस पीती मधुमक्खी की तरह शब्द मुझे खींचते हैं। कंचे की गोलियों की तरह उनसे खेलना मुझे अच्छा लगता है। कंचों के आपस में टकराने की आवाजें, उनके अंदर बने रंग, उनकी चिकनी गोल बनावट जिस तरह बचपन में जादू करती थी, उसी तरह आज शब्द करते हैं। जब किसी शब्द को मरता हुआ या दफनाया जाता देखता हूँ तो बहुत दुख होता है। मैं बहुत से शब्दों को इस्तेमाल करना चाहता हूँ, उन्हें बार बार बोलना और लिखना चाहता हूँ, पर कहाँ यह करूँ? शब्दों की कब्रगाह बड़ी होती जा रही है। धूप में खेलती अचानक मरती हुयी नन्हीं चमकदार चिड़ियों की तरह ये शब्द मर रहे हैं‘‘

‘‘जैसे‘‘कौन से शब्द‘‘? एक ने पूछा। बूढ़े ने उसे देखा

‘‘जैसे असूर्यम्पश्या, जैसे नूपुरशिंजन, जैसे वृष्टिलेखा, जैसे चारागर, जैसे संदल, जैसे ख्वाबगाह, जैसे न जाने कितने शब्द। सोचो जरा, जो शब्द मर गए, उन्होंने कभी इंसानों की कितनी मदद की थी। कितने बड़े दोस्त रहे थे उसके। पर कम्बख्त इंसान । जब अपनों को कब्र में दबा देता है, तो शब्दों को क्यों छोड़ेगा‘‘? बूढ़ा बिल्कुल चुप हो गया। पियानो पर उगलियाँ चलाने वाले ने अचानक धुन बंद कर दी थी। दो कबूतर ऊपर के रोशनदान से अचानक अंदर आए, हॉल में चाराें ओर फड़फड़ाए फिर वापस उड़ गए। एक का पर टूट कर तैरता हुआ उनके बीच गिरा।

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