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कुट्टी

कुट्टी

“यह आपको बहुत याद कर रही थी---आज खींच लायी---“

“बहुत अच्छा किया----“ मैंने मीनू को अपनी ओर खींच लिया और पास बैठाकर प्यार करने लगा. उसने एक जापानी गुड़िया पकड़ रखी थी. मैं उसे देखने लगा. मीनू ने सहज ही गुड़िया मुझे दे दी और बोली, “अंकल, कितनी प्यारी है यह डॉल!”

“हां, बिल्कुल तुम्हारी तरह.”

उसने गुड़िया ले ली और उसे चूमने लगी.

“आज ही खरीदी है---पापा---हमने इसे कहां से खरीदा?” मीनू बाजार का नाम भूल गई थी.

“चांदनी चौक से.” सुधीन्द्र बाबू बता रहे थे, “गाड़ी से उतरकर पहले सोचा सीधे आपके यहां ही चलूं, लेकिन मीनू की जिद थी कि पहले डॉल खरीदो---तब चलेंगे---.”

“शटल से आए?”

“हां---अ---.”

मीनू ने एक पत्रिका उठा ली और उसके चित्र देखने लगी.

“कुछ देर आपको अकेले बोर होना पड़ेगा---मैं चाय बना लूं---मीनू के लिए भी कुछ---.” मैं उठने लगा.

“कष्ट न करें---मीनू चांदनी चौक में खूब खा-पी चुकी है---और मैं भी---.” सुधीन्द्र बाबू ने रोका.

“हां, अंकल—हम खूब छके हुए हैं---आप बैंठे---हम तो आपसे बातें करने आए हैं—ढेर सारी बातें---. आप तो मेरे घर का रास्ता ही भूल गए हैं, अंकल---.”

“तुम तो बड़ी-बड़ी बातें करने लगीं मीनू---.” उसके गाल सहलाते हुए मैंने कहा.

“क्यों नहीं, अंकल---सेकंड ’ए’ में पढ़ती हूं----.”

“हूं—तो यह बात है बिटिया रानी.”

“हां, यही बात है अंकल—लेकिन आपने बताया नहीं कि आप मेरे घर क्यों नहीं आते? पहले रोज आते थे शाम को---मुझसे नाराज हैं?”

“अरे—रे---मैं भला नाराज हो सकता हूं रानी बिटिया से—न---न—कभी नहीं. --.” मैंने कान पकड़े, “इतनी प्यारी---जापानी डॉल-सी---मीनू बिटिया से भला मैं नाराज हो सकता हूं----.”

“फिर बताते क्यों नहीं?”

“पापा ने नहीं बताया तुम्हें?” मैंने सुधीन्द्र बाबू की ओर देखा. वे मुस्करा रहे थे. उनकी बड़ी-बड़ी चमकीली आंखें चश्मे से बाहर मीनू के चेहरे पर टिकी हुई थीं.

“क्यों पगली, मैंने तुझे बताया नहीं था कि अंकल का दिल्ली ट्रांसफर हो गया है---.”

“आप झूठ बोलते हैं---अंकल मुझसे नाराज हैं---तभी तो----.” मीनू बीच में ही चीख उठी.

“नहीं, बेटे---सच ही मेरा यहां ट्रांसफर हो गया है----मैंने तुम्हें बताया था. तुम भूल गयी हो.”

“तो आप मुझसे नाराज नहीं हैं?”

“”तुमसे किसलिए नाराज?”

“मैंने उस दिन आपके ऊपर ’वोमिटिंग’ कर दी थी---आप उस दिन के बाद से ही तो नहीं आए मेरे घर.”

मैंने मीनू को गोद में उठा लिया और प्यार कर बोला, “बेटा, उस दिन तुम्हें बहुत जोर का बुखार था---तुमने कोई जान-बूझकर थोड़े ही उलटी की थी.”

“फिर भी आपके कपड़े गंदे हो गए थे न!”

“कपड़े मीनू बिटिया से ज्यादा प्यारे थोड़े ही हैं.” मैंने उसे फिर प्यार किया.

“तो सच में आप नाराज नहीं हैं?” गोद से उतरते हुए वह बोली.

“बिलकुल सच---.”

“भगवान कसम!”

मैं हंसने लगा. मुझ जैसे नास्तिक से वह भगवान की कसम कहलवाना चाह रही थी.

“आप हंसते कयों हैं, अंकल? सच है तो खाइए न भगवान की कसम.”

मैं हंसता रहा. सुधीन्द्र बाबू भी हंसने लगे थे. मीनू संदेहास्पद दृष्टि से बारी-बारी से हम दोनों की ओर देखती रही. उसका चेहरा रुआंसा हो रहा था. क्षण भर बाद ही वह रोने लगी. उसने जापानी गुड़िया फेंक दी और रोते-रोते बोली, “मुझे मालूम था---मुझे मालूम था---आप झूठ पकाते हैं---झूठ---झूठ---.”

मैं सकपका गया.

मैंने उसे पुनः गोद में उठा लिया और पुचकारता हुआ बोला, “मीनू, बेटे---सच ही मैं अब दिल्ली में रहने लगा हूं. तुम देख ही रही हो मेरा यह घर---अब भी तुम्हें विश्वास नहीं हो रहा है और मैं नाराज भी नहीं हूं.”

“नहीं, आपने भगवान की कसम नहीं खाई.”

“अगर मैं तुम्हारे भगवान की कसम खा लूं तो तुम चुप हो जाओगी.”

उसने फिर संदेहास्पद दृष्टि से मुझे देखा.

“अच्छा बाबा, भगवान कसम---मैं तुमसे नाराज नहीं हूं.”

मीनू की पलकों में श्वेत बिन्दु तो टंगे थे, लेकिन रोना उसने बंद कर दिया था. सुधीन्द्र बाबू ने खड़े होकर उसे गोद में ले लिया, “इसी दुलार के लिए तू अंकल को याद करती रहती है.” उन्होंने कहा.

मैंने मीनू की आंखें पोंछ दीं और पूछा, “अब खुश!”

मीनू मुस्करा पड़ी.

“अंकल, मैं तो झूठ पका रही थी. मुझे मालूम था कि आप नाराज नहीं हैं.” और वह ताली बजाकर हंसने लगी.

“धत पगली!” सुधीन्द्र बाबू ने उसके गाल सहला दिए.

तभी सड़क पर आइसक्रीम वाले की आवाज सुनाई पड़ी.

“पापा, आइसक्रीम---पापा---.” मीनू सुधीन्द्र बाबू का हाथ पकड़कर दरवाजे की ओर खींचने लगी.

“चलता हूं---चलता हूं---.” सुधीन्द्र बाबू उठ खड़े हुए.

“आप जब तक मीनू को आइसक्रीम दिलवाते हैं---मैं चाय तैयार कर लेता हूं---और हां, मीनू बिटिया---मछली चलेगी न!”

“अरे अंकल---मछली चलती नहीं---वह तो तैरती है.” वह फिर ताली बजाकर हंसने लगी.

मैंने उसके गाल पर चिकोटी काटी, “मुझे भी मालूम है दादीजी---मेरा मतलब है मछली बना दूं---खाओगी न---!”

“श्योर अंकल---पापा हर ’संडे’ मुझे मछली पकाकर खिलाते हैं.”

“तुम आइसक्रीम लेकर आओ---मैं भी तुम्हारे लिए मछली पकाउंगा.”

“आप परेशान न हों---पिछले संडे को---“ सुधीन्द्र बाबू आगे कुछ कह पाते कि आइसक्रीम वाले की आवाज दोबारा सुनाई दी.

“पापा, आप लोग बातें ही करते रहेंगे और आइसक्रीम वाला चला जाएगा.” मीनू की आवाज सुन सुधीन्द्र बाबू ने बात बीच में ही छोड़ मीनू से बोले, “हां---हां---चलो.”

“बाय अंकल---मैं जा रही हूं आइसक्रीम खाने.” दरवाजे पर पहुंचकर वह मुस्कराई और हाथ हिलाकर फिर बाय! कहा. जवाब में मैंने भी हाथ हिला दिया.

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मीनू को जब सुधीन्द्र बाबू मुरादनगर लेकर आए उसके पीठ में कूबड़ निकला हुआ था, जिसके कारण चलते समय उसकी छाती आगे की ओर निकली रहती और उसे चलने में परेशानी होती थी. उसकी टांगें कमजोर थीं और अधिक दूर तक चलने से वह हांफ जाती थी. उसे देखकर मैं भयभीत हो उठा था. सुधीन्द्र बाबू ने बताया था कि उसे टायफायड हुआ था. घर में किसी ने ध्यान नहीं दिया. टांगे सिकोड़कर पूरे समय लेटी रहने के कारण ऎसा हुआ था. बनारस में वह मां के पास थी,जहां किसीने उसके कूबड़ के लिए उपचार नहीं करवाया. सुधीन्द्र बाबू ने लाते ही उसे मोहननगर अस्पताल में दिखाया. बहुत-से टेस्ट हुए और डाक्टरों ने बोनमैरो की संभावना व्यक्त की थी. दो सालों से वहीं का इलाज हो रहा था. डाक्टरों ने विशेषरूप से उसे खाने में मछली और अण्डे देने की सलाह दी थी.

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आदमी बाहर की बातों से उतना अधिक नहीं टूटता, जितना अंदर की बातों से. ऎसा ही कुछ सुधीन्द्र बाबू की जिन्दगी में घटित हुआ. कौन नहीं है उनके. अच्छा भरा-पूरा परिवार—पत्नी, तीन बेटे और दो बेटियां---लेकिन सब कुछ केवल कहने के लिए. उम्र की इस दहलीज पर पहुंचते ही सब उनसे दूर होते चले गए. बावन-पचपन के मध्य झूल रहे सुधीन्द्र बाबू---अब मीनू में ही अपने सारे सुख-दुःख तलाशते रहते हैं. पारिवारिक विघटन का कारण वे पत्नी को मानते हैं.

दरअसल सुधीन्द्र बाबू एक साधारण-से किसान परिवार से थे जो किसी तरह इंटरमीडिएट कर खेती की ओर मुड़ने की बजाय कानपुर में आर्डनैंस फैक्ट्री में क्लर्क की नौकरी पाने में सफल रहे थे. नौकरी में प्रत्येक चार-पांच वर्ष बाद उनका स्थानांतरण होता रहा. एक शहर में जब तक जमने का प्रयत्न करते, दूसरे शहर के लिए स्थानांतरण कर दिया जाता. जितना ही वह आर्थिक स्थिति संभालने का प्रयत्न करते, उतना ही वह लड़खड़ा जाती. पत्नी ने शादी से पूर्व कभी आर्थिक संकट देखा नहीं था. वह उसे सुधीन्द्र बाबू का निकम्मापन मानती थी. पत्नी के पिता यानी सुधीन्द्र बाबू के श्वसुर थानेदार थे और थानेदार की बेटी को यह इत्मीनान था कि प्रत्येक सरकारी नौकरी में रिश्वत चलती है---फिर उसके पति रिश्वत क्यों नहीं लेते? और नहीं लेते इसलिए तंग रहते हैं---पैसे-पैसे के लिए परेशान.

सुधीन्द्र बाबू पत्नी को जितना ही समझाने की कोशिश करते कि न तो उनके दफ्तर में रिश्वत लेने-देने की गुंजाइश है और यदि ऎसा होता तो भी वह रिश्वत नहीं लेते---भले ही सारा परिवार भूखा रहे---. लेकिन पत्नी समझने के बजाय भड़क उठती---परिणाम में कलह होती और परिवार में दो-चार दिनों के लिए सन्नाटा रहता. इस सबका जो परिणाम होना था, वही हुआ. बच्चे दुष्प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके. दो बड़े लड़कों को सुधीन्द्र बाबू ने खींच-खांचकर किसी प्रकार इंटरमीडिएट करवा दिया और कानपुर की ’एल्गिन मिल’ में लगवा दिया, लेकिन तीसरा लड़का आवारगी के गर्त में डूब गया. उसे सुधारने की सुधीन्द्र बाबू की सारी कोशिशें व्यर्थ रहीं. और एक दिन उसी को लेकर वह सब घटा, जिसकी कल्पना भी उन्होंने नहीं की थी.

उन दिनों कई शहरों की खाक छानने के बाद वह कानपुर में थे और जूही कॉलोनी में रह रहे थे. उनके उस बेटे ने दो अन्य लड़कों के साथ रामस्वरूप कॉटन मिल के एक चौकीदार को पीट दिया था. रात लगभग दो बजे पुलिस के दो सिपाहियों ने उनके गेट की कुंडी खटखटाई थी. वे हड़बड़ाकर उठे और जैसी उनकी आदत थी, दरवाजा खोल बाहर जाने से पहले उन्होंने चारपाई के पास रखा अपना डंडा संभाला, फिर दरवाजा खोल बाहर आ गए.

“कौन है---इतनी रात गए?” उन्होंने बरामदे की बत्ती जानबूझकर नहीं जलाई.

“स्साले—मादर—पूछता है कौन है---इधर पहले गेट खोल, फिर बताता हूं कौन हूं.” एक सिपाही लाठी पटकता हुआ गुर्राया.

“जुबान संभालकर बोल—पहले यह तो पता चले कि तू है कौन?” वे भी तू-तड़ाक पर उतर आए.

अब तक उनके दोनों लड़के भी जाग चुके थे.

“तेरा बाप थाने में बंद है---तुझे थाने चलना है.” दूसरा सिपाही था.

उन्होंने गेट का ताला खोल दिया और जैसे ही वह बाहर आए, पहला सिपाही उनकी पीठ पर लाठी से प्रहार करता हुआ चीखा, “स्साला पूछता है कौन है---देखता नहीं तेरा बाप सामने खड़ा है.”

सुधीन्द्र बाबू तिलमिला उठे. हाथ का डंडा संभाल उन्होंने उलटकर सिपाही पर प्रहार कर दिया. जब तक दूसरा प्रहार करते, सिपाही चीखा, “मार डाला—स्साले ने मार डाला.” सुधीन्द्र बाबू के हाथ रुक गए. सिपाही भाग खड़ा हुआ.

उनके दोनों बेटे बाहर आ गए थे. उन्हें देख दूसरा सिपाही भी भाग खड़ा हुआ. लेकिन वे समझ गए थे कि मामले ने गंभीर रुख ले लिया है. संयोग ही था कि पत्नी बेटियों सहित उन दिनों बनारस में अपने पिता के यहां थीं. उन्होंने बेटों से कहा कि वे तुरंत घर में ताला बंद कर कहीं चले जाएं और कुछ दिनों तक फैक्ट्री भी न जाएं. उन्होंने स्वयं जल्दी से कुछ कपड़े लिए और घर छोड़ दिया था.

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और वही हुआ जो उन्होंने अनुमान किया था. वह सस्पेंड कर दिए गए थे. केस चला था—तीन वर्षों तक. वह कानपुर की एक फर्म में उन दिनों चुपचाप नौकरी करने लगे थे और परिवार से अलग रहते थे. पत्नी बेटियों के साथ बनारस में ही रह रही थी, तीसरा बेटा भी सजा काटने के बाद मां के पास पहुंच गया था.

तभी एक और हादसा हुआ था. बड़ी बेटी एक व्यवसायी के बेटे के साथ भाग गई थी. वह एकाएक चिंतित हो उठे थे मीनू को लेकर. उन्हें मीनू को टायफाइड होने की जानकारी तो थी, लेकिन उस कारण वह कुबड़ी हो चुकी थी यह पत्नी ने उनसे छुपाया हुआ था. वह मीनू को ले आए और उर्सला अस्पताल में उसका इलाज प्रारंभ करवा दिया. और उन्हीं दिनों तीन वर्षों के संघर्ष के बाद वह मुकदमा जीत गए थे और नौकरी में बहाल होकर उन्हें ऑर्डनैंस फैक्ट्री मुरादनगर में पोस्टिंग मिली थी. फैक्ट्री एस्टेट में मकान मिल गया. मीनू के सुख-दुःख में वह अपने अतीत को भूलने का प्रयत्न करने लगे थे. पत्नी को न वह साथ रखना चाहते थे और न ही वह रहना चाहती थी. उन्होंने बेटों से भी संबन्ध तोड़ लिए थे.

अब उनके लिए मीनू ही सब कुछ थी. मीनू भी पिता को इतना चाहती थी कि मां और भाइयों को भूल गई थी.

हम दोनों एक ही दफ्तर में थे. मैं बैचलर और सुधीन्द्र बाबू विवाहित बैचलर थे. प्रतिदिन शाम को मैं उनके घर जाता—घंटों बैठता---मीनू के साथ खेलता---उसे कहानी सुनाता. धीरे-धीरे सुधीन्द्र बाबू के घर जाना विवशता-सी हो गई. जब तक मीनू से मिल न लेता बेचैनी-सी रहती.

स्कूल के बाद दिनभर अड़ोस-पड़ोस में रहकर शायद मीनू भी बोर हो चुकी होती थी. सुधीन्द्र बाबू और मेरे साथ उसकी शाम प्रायः मुखर हो उठती. मीनू का पिछला ’बर्थ-डे’ मैंने ही अरेंज किया था. दफ्तर के लोगों को बुलाया था. पास-पड़ोस के बच्चे भी आए थे. अच्छी चहल-पहल रही थी.

उस बर्थ डे पार्टी के एक माह बाद ही मेरा ट्रांसफर दिल्ली कार्यालय हो गया. दिल्ली आकर मैं नौकरी में यूं उलझा कि चाहकर भी मीनू से मिलने नहीं जा पाया था.

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“हैलो, अंकल---हम आ गए.” मीनू की आवाज ने मुझे चौंका दिया.

“बहुत देर बाद लौंटीं बेटे---देखो, मैंने तुम्हारे लिए क्या-क्या बना लिया है?” मैं किचन से ही बोला.

सुधीन्द्र बाबू भी किचन में आ गए. पीछे-पीछे मीनू भी.

“आइसक्रीम लेकर बोली पापा थोड़ी दूर तक घुमा दो---और चौराहे तक घसीट ले गई.” सुधीन्द्र बाबू बताने लगे थे.

“चाय इंतजार करती ठंडी हो गई.”

“गरमाओ---अभी पीते हैं.”

“नहीं, अब खाना खाकर ही पिएंगे---दूसरी बना लेंगे.”

“ओह, अंकल---आपने तो पापड़-वापड़ भी बना डाले.” किचन में घुसकर मीनू ने पापड़ उठा लिया.

“मीनू बेटे, कमरे में चलो---मैं खाना ला रहा हूं---सबके लिए.”

“ओ.के., अंकल!”

खाना खाते समय मीनू एक कहानी सुनाती रही. वापस जाते समय मैं उन्हें ट्रेन में बैठाने नई दिल्ली स्टेशन गया. ट्रेन में बैठते समय मुझे मीनू से वायदा करना पड़ा कि आने वाले शनिवार को छोड़कर दूसरे शनिवार को मैं उससे मिलने आउंगा. और मीनू उंगलियों पर गिनने लगी थी, “आज सैटर्डे—कल संडे—फिर मंडे—तो अभी पूरे पन्द्रह दिन हैं अंकल---चलिए, कोई बात नहीं---लेकिन याद रहे---अगर नहीं आए तो---.”

“तो---?” मैंने पूछा.

“तो कुट्टी---आम-दाम—कौआ बोले---सौ साल की कुट्टी---नहीं, जिन्दगी भर की कुट्टी---समझे बच्चू!” दोनों गालों में उंगली गड़ाकर सिर हिलाती हुई बोली मीनू.

मैं हंस पड़ा और उसके मुंह के पास मुंह ले जाकर बोला, “कुट्टी नहीं, मीनू, पप्पी.”

और उसने गाल आगे कर दिया था.

“बड़ी मीठी है.”

मीनू मुस्करा दी. गाड़ी ने दूसरी सीटी दी और मैं प्लेटफार्म पर आ गया था. गाड़ी रेंगने लगी तो सुधीन्द्र बाबू ने हाथ हिलाया. मीनू भी हाथ हिलाकर टा-टा करने लगी. मैं भी हाथ हिलाने लगा. और दूर जहां तक मेरी आंखें देख सकती थीं, मीनू के टा-टा करते हाथ को मैं देखता रहा था.

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लेकिन मीनू सचमुच कुट्टी कर लेगी, यह मैंने नहीं सोचा था. मीनू से वायदा करके भी मैं चार महीने तक मुरादनगर नहीं जा पाया. कार्यक्रम प्रति शनिवार-रविवार के लिए बनता, लेकिन जाने का दिन आते ही किन्हीं अपरिहार्य कारणों से स्थगित करना पड़ता. दिन टलते रहे और चार महीने बीत गए.

और अब जब मैं वहां जाने की तैयारी कर रहा हूं तब मीनू नहीं है. मुझे कुछ देर पहले ही फोन पर बताया गया कि मीनू नहीं रही. इस सूचना पर विश्वास करने का मन नहीं हो रहा था. इस तरह हंसती, बोलती—खेलती—इठलाती—रूठती—मनाती जीवंत मीनू किस बात से नाराज होकर कुट्टी कर गई! रीढ़ की हड्डी की बीमारी ने उसे निगल लिया था.---फोन पर बताने वाले ने सूचना दी थी कि मीनू पांच दिन से बीमार थी---दो दिन से उसे निमोनिया था. मीनू सुधीन्द्र बाबू के लिए सब कुछ थी---अब उनका क्या होगा?

दिमाग ने आगे सोचना बंद कर दिया है. अंदर तूफान उठ रहा है---और कदम बस-स्टैंड की ओर बढ़ने लगते हैं.

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