घुसपैठिए से आखिरी मुलाक़ात के बाद - 2 Pradeep Shrivastava द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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घुसपैठिए से आखिरी मुलाक़ात के बाद - 2

घुसपैठिए से आखिरी मुलाक़ात के बाद

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 2

मैं वापस बाइक के पास पहुंचा। उसे स्टार्ट करने लगा, चार-पांच किक के बाद स्टार्ट हुई। हेड लाइट ऑन कर टट्टर के पास पहुंचा। अंदर की आहट से यह साफ था कि मुझे टट्टर की झिरियों में से देखा जा रहा है। मैंने करीब पहुंच कर कहा ‘देखिए मेरी मदद करिए। मेरी तबियत खराब होती जा रही है। यहां आगे जाने के लिए ना कोई साधन मिल रहा है और ना ही कोई छाया जहां रुक सकूं। मैं एक नौकरीपेशा आदमी हूं। डरने वाली कोई बात नहीं है।’

यह बात मैंने इतनी तेज़ आवाज़ में कही थी कि बारिश के शोर के बावजूद भी अंदर साफ-साफ सुना जा सके। छप्पर के ऊपर पड़ी पॉलिथीन पर बारिश की पड़नें वाली बूंदों के कारण पट-पट की आवाज़ माहौल को और डरावना बना रही थीं। अपनी बात पूरी करने के बाद मैंने कुछ क्षण इंतजार किया कि अंदर से कोई उत्तर मिले। मगर अंदर रहस्यमयी खामोशी छायी रही। मैंने फिर विनम्र शब्दों में कहा कि ‘देखिए परेशान होने वाली कोई बात नहीं है। इस आफ़त में बस आपसे थोड़ी मदद मांग रहा हूं। रातभर इस बारिश में रहा तो मैं बच नहीं पाऊंगा। मैं बी.पी. और हार्ट का भी मरीज हूं। आपकी थोड़ी सी मदद से मेरी जान बच जाएगी। कोई आदमी हो तो मेरी बात करा दें।’

इस बार अंदर से आवाज़ आई ‘अरे! एकदम पीछेह पड़ि गए हौ। कहा ना और कहूं ठौर ढूंढ लेओ।’ मैंने फिर निवेदन किया कि ‘आप अच्छी तरह जानती हैं कि इस आंधी-तुफान में दूर-दूर तक कहीं कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। ठौर-ठिकाना इस विराने में कहीं है ही नहीं। आप बारिश रुकने तक बस एक किनारे बैठने भर की जगह दे दें। मेरी वजह से आप लोगों को कोई तकलीफ नहीं होगी। कोई हो तो मेरी बात करा दें। चाहें तो आप लोग मेरी तलाशी ले लें तब अंदर आने दें।’ मैं अपनी बातें कहते-कहते पांच-छः बार छींक चुका था। अंदर से फिर कोई आवाज़़ नहीं आई तो मैंने सोचा जमाना तो पैसे का है। कोई क्यों बिना किसी फायदे के किसी की मदद करेगा। फिर अरूप की तोड़ी-मरोड़ी एक कहावत उस कठिन परिस्थिति में भी याद आई।

वह रहीम दास जी के दोहे को इस तरह कहता कि ‘रहीमन पैसा राखिये, बिन पैसा सब सून। पैसा गये न ऊबरे, मोती, मानुष, चून।’ उसने रहीम दास जी के दोहे में पानी की जगह पैसा जोड़ दिया था। सैलरी मिलने में देरी होने पर वह सब के सामने बार-बार यही दोहराता था। मैंने सोचा इस मौसम में यदि यहां कहीं होटल या धर्मशाला कुछ होता और मैं वहां रुकता तो हज़ार-दो हज़ार तो खर्च हो ही जाते। यह झोपड़ी इस वक़्त मेरे लिए किसी होटल से कम नहीं है। यह डूबते का तिनका नहीं पूरा-पूरा लग्जरी क्रूज़ है। यह सोचते ही मैंने फिर आवाज़ दी। ‘देखिए मैं आपसे मुफ्त में मदद नहीं लूंगा। मेरे पास करीब चार-पांच सौ रुपए हैं। मैं वह सब आपको दे दूंगा।’

इस बार भी कोई आवाज़ नहीं आई तो मैंने अपनी बात थोड़ी और ऊंची आवाज़ में दोहराते हुए टट्टर पर दो-तीन बार दस्तक भी दी। इस बार वह बोली मगर कुछ खीझी हुई आवाज़ में। ‘तुम तौ एकदम आफत कई दिनिहयो हो। रुको खोलित है।’ इसके साथ ही टट्टर में बंधी चेन के खुलने की आवाज़ आई। फिर वह दरवाजा अंदर की तरफ छः-सात इंच खिसका। और वह औरत लालटेन लिए सामने आई।

लालटेन उसने अपने आगे कर रखी थी। फिर पूछा ‘का बात है, बताओ, काहे पाछै पड़े हौ, अत्ती रात मां औऊर कहूं जगह नाहीं मिली तुमका।’ मैंने इस बार उसकी आवाज़ में काफी नरमी देखी। इससे मेरी उम्मीद के दिए की लौ एकदम भभक पड़ी। मैंने कहा ‘देखिए मेरी वजह से आप को जरा भी परेशानी नहीं होगी। मैं बाल-बच्चों वाला एक नौकरी-पेशा आदमी हूं। आपकी थोड़ी सी मदद चाहिए बस। मेरी गाड़ी ठीक होती तो मैं रुकता ही क्यों? ’

फिर मैंने उसे मोटर साइकिल का पंचर पहिया दिखाते हुए कहा ‘ये देखिए पंचर है। मैं एकदम मजबूर हूं। नहीं तो आपसे ना कहता। मेरे पास जो पैसा है सब आपको दे दूंगा।’ यह कहते हुए मैंने यह भी जोड़ा ‘आपको डरने की जरूरत नहीं है।’ मेरी बात पूरी होने के बाद वह कुछ क्षण तक चुपचाप कभी मोटर साइकिल को तो कभी मुझे देखती रही। फिर मैंने देखा उसने लालटेन एक तरफ रख दी। और आधी खुली चेन को पूरा खोल दिया। टट्टर को पीछे इतना खिसकाया की अंदर जाने की जगह बन जाए। मुझे समझते देर नहीं लगी कि यह मुझे अंदर रुकने देने के लिए तैयार हो गई है। भूख से तड़पते आदमी के सामने खाने की भरी थाली रखने पर जैसी व्याकुलता होती है मैं अंदर जाने की लिए वैसे ही तड़प उठा।

टट्टर पीछे खिसका कर उसने पहले से कहीं ज़्यादा मुलायम आवाज़ में कहा ‘आओ।’ खुद दो कदम बाएं तरफ हट गई। मैं मात्र पांच फिट ऊंचे उस दरवाजे से झुक कर झोपड़ी में दाखिल हो गया। मैंने जैसा सोचा था, झोपड़ी अंदर से वैसी नहीं थी। वह काफी बड़ी थी। वह पीछे करीब सोलह-सत्तरह फिट तक चली गई थी। उसकी डायमेंशन कहने भर को आयताकार पंद्रह गुणे सत्तरह की थी।

अंदर जिस तरह से सामान रखे हुए थे उससे साफ था कि वह सिर्फ़ दुकान नहीं पूरा एक घर है। जिसमें गृहस्थी थी। दो चारपाइयां पड़ी थीं। एक तरफ रसोई का सारा साजो-सामान था। एक तरफ टिन के छोटे बड़े दो बक्से थे। एक लालटेन जल रही थी। दूसरी रसोई वाले स्थान पर बुझी हुई रखी थी। एक तरफ एक तार पर कुछ जनाना और कुछ मरदाना कपड़े टंगे थे। मतलब साफ था कि इस घर में कोई मर्द भी रहता है। लेकिन इस समय वो वहां नहीं था। तब मैं समझ गया कि यह महिला इसी कारण दरवाजा खोलने से इतना हिचक रही थी।

मैंने देखा औसत कद से कुछ ज़्यादा लंबी और मजबूत जिस्म की सांवली सी महिला की आंखों में कोई संशय या भय के भाव नहीं थे। जबकि मैं जरूर अंदर-अंदर भयभीत था। मैं टट्टर से लगी दीवार के करीब खड़ा हो गया तो उसने टट्टर बंद कर दिया लेकिन चेन नहीं बांधी। फिर वह तीन-चार कदम दूर पड़ी चारपाई के पास खड़ी हो प्रश्न-भरी दृष्टि से मुझे देखने लगी।

मैं जहां खड़ा था वहां के आस-पास की जमीन मेरे कपड़ों से चूते पानी के कारण भीगी जा रही थी। अंदर आते ही दो बार और छींक चुका था। अब मेरे मन में यह बात उठ खड़ी हुई कि इन गीले कपड़ों का क्या करूं? इन्हें बदले बिना तो बात बनेगी नहीं। इन गीले कपड़ों में रहना और बाहर भीगते रहने में कोई ख़ास फर्क तो है नहीं। मगर चेंज करूं तो कैसे? एक सूखा रूमाल तक तो पास में है नहीं। इसके लिए भी मेरा ध्यान उसी महिला की तरफ गया और मैंने बिना समय गंवाए अपनी बात आगे बढ़ाई।

कहा ‘इस मदद के लिए आपको धन्यवाद देता हूं। आप मदद नहीं करतीं तो इस विराने में मेरा ना जाने क्या होता? सुबह तक शायद ही बच पाता। मैं जीवन भर आपका अहसानमंद रहूंगा। इस पर वह बोली ‘बार-बार कहत रहेउ, खट्खटाए लागेउ तो हम कहेन खोलि देई। कबए भीगत रहेउ। नाहीं हम अत्ती रात मां खोलित ना। तुम्हरी हालत देइख के हमका लागि तुम नीक मनई हो, कोऊनो डर नाय है।’ अपने लिए उसके मुंह से नीक मनई सुन कर मैं निश्चिंत हो गया कि इस बारिश के बंद होने तक यहां ठहर सकता हूं।

उसकी भाषा ने मुझे जरूर असमंजस में डाल दिया था कि यह कौन सी, किस क्षेत्र की हिंदी बोल रही है। जहां तक फतेहपुर जिले की बात है तो यहां भी यह शैली नहीं बोली जाती। मगर क्षण में इस असमंजस को किनारे लगा मैंने बात आगे बढ़ाई कहा ‘आप की बात सही है। मैं नौकरी करता हूं, मेरा परिवार है, एक बेटा है। फतेहपुर काम से जा रहा था। लखनऊ से जब चला तो मौसम साफ था। बाद में एकदम बिगड़ गया।

इस बीच मैंने एक बात और मार्क की कि पान-तम्बाकू की वह जबरदस्त शौकीन है। शौकीन ही नहीं बल्कि उसकी लती कहना ज़्यादा सही है। उसके सारे दांत एकदम कत्थई हो रहे थे। उस समय भी उसके मुंह में तम्बाकू भरी हुई थी। जिसकी तीखी गंध मेरे नथुनों तक पहुंच रही थी। बिस्तर पर एक बीड़ी का बंडल और माचिस भी दिखाई दे रही थी। वह अब भी मुझसे मात्र तीन फीट की दूरी पर खड़ी थी।

अब तक मैं सहज हो चुका था। मेरी हिम्मत बढ़ चुकी थी। तो मैंने उससे कहा ‘मौसम का भी कोई ठिकाना नहीं कब बदल जाए। अरे! हां मैंने आपसे पैसे के लिए कहा था।’ यह कहते हुए मैंने पैंट की जेब से पर्स निकाला। वह भी पानी से तर था। मैंने पर्स इस ढंग से खोला कि वह भी उसे अंदर तक ठीक से देख सके। उसमें सौ-पचास और कुछ दस की नोटें थीं। मैंने सब निकाल कर जो संयोग से पांच सौ ही थे उसकी तरफ बढ़ा दिए। कहा ‘मेरे पास इतने ही हैं। इन्हें आप रख लें।’

उसने बिना एक पल गंवाए हाथ बढ़ा कर नोट ले लिए। अरूप की बात दिमाग में फिर कौंध गई कि ‘‘पैसा बिन सब सून।’’ मैंने देखा नोट लेते वक़्त उसके चेहरे के भाव भी कुछ बदले थे। मैंने कहा ‘भीगे हैं, इन्हें कपड़ों के नीचे दबा कर रख दिजिएगा सूख जाएंगे।’ उसने यही किया सारे नोट तकिए के नीचे दबा कर रख दिए। नोट रखने के बाद वह उसी चारपाई के आगे खड़ी हो गई तो मैंने कुछ संकुचाते हुए कहा ‘कोई तौलिया या अंगौछा दे दीजिए तो अपना पानी पोंछ लू।’

मैं यह बात पूरी भी ना कर पाया था कि मेरे एक के बाद एक लगातार तीन छींकें आईं। छींक बंद होने के साथ ही उसने मुझे अंगौछा दे दिया। मैंने देखा उसकी बॉडी लैंग्वेज बड़ी सहयोगात्मक हो रही है। सिर के बाल वगैरह पोंछने के दौरान वह अपनी जगह खड़ी रही। मैंने बाल पोंछने के साथ ही उससे फिर हिम्मत करते हुए कहा कि ‘बड़ा संकोच हो रहा है कहते हुए कि अगर एक लुंगी मिल जाती तो मैं इन भीगे कपड़ों को काम भर का सुखा लेता।’ मेरी इस बात पर भी वो कुछ बोली नहीं बस तार पर पड़ी लुंगी ला कर मुझे थमा दी और फिर दूसरी वाली चारपाई पर थोड़ा आड़ में बैठ गई।

लुंगी देते समय वह जब मेरे ज़्यादा करीब आ गई थी तो मुझे उसके मुंह से देशी शराब का भभका सा महसूस हुआ। मैं हफ्ते में दो-तीन दिन पीने वालों में हूं। मुझे लगा कि मुझे समझने में कोई गलती नहीं हुई है। इसने थोड़ी ही सही लेकिन पी जरूर है। कम से कम दो घंटे पहले पी है। लूंगी पाते ही मैंने जल्दी-जल्दी सारे कपड़े उतार कर उसे पहन लिया। और अंगौछा कंधे पर से ओढ़ लिया। फिर कपड़ों को निचोड़ कर दीवार पर लगी दो-चार कीलों पर टांग दिया। और उसकी तरफ मुखातिब होते हुए कहा ‘धन्यवाद’।

असल में यह कह कर मैं उसका ध्यान आकर्षित करना चाहता था। वह दूसरी तरफ मुंह किए हुए बैठी थी। आवाज़ सुनते ही वह मेरी तरफ घूम गई। मैं तब तक थक कर चूर हो चुका था। उसको बैठा और दूसरी चारपाई को खाली देख कर मेरा मन बैठ कर आराम करने के लिए मचल उठा।

मैंने कहा ‘अब जा कर राहत मिली। घंटों से भीगते रहने के कारण बुरी तरह थक गया हूं।’ मैं अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि उसने मुझे बैठने को कह दिया। मैं दूसरी चारपाई पर बैठ गया। दोनों चारपाई आमने-सामने पड़ी थीं। जिस पर वह बैठी थी उस पर दरी, चादर, तकिया सब था। मैं जिस पर था उस पर केवल दरी बिछी थी। लालटेन इन दोनों चारपाइयों के बीच में रखी थी। उसके मटमैले पीले प्रकाश में झोपड़ी का माहौल रहस्यमयी सा लग रहा था।

बाहर अब भी तेज़ बारिश हो रही थी और अब मेरी भूख जोर मारने लगी थी। मुझे डिक्की में रखे कबाब, पराठे, रोस्टेड चिकेन और व्हिस्की की याद आयी। मैंने उससे कहा ‘मेरी बाइक में कबाब, पराठे और रोस्टेड चिकेन मतलब भुना हुआ मुर्गा रखे हैं। आप कहें तो निकाल लाऊं। बहुत थक गया हूं, भूख लग रही है।’ मेरी इस बात पर उसने अजीब सा मुंह बना कर ऐसे देखा मानों कह रही हो ऊंगली पकड़ कर पहुंचा पकड़नें की बात कर रहे हो।

उसने बड़े भद्दे ढंग से उबासी ली फिर बोली ‘लै आओ।’ काफी देर बाद बोली थी। बाहर निकलने पर भीगने से बचने के लिए मैंने उससे छाता मांगा तो उसने एक बड़ी सी पॉलिथीन थमा दी। जिसे ओढ़ कर मैं बाइक से कबाब, पराठे, चिकेन ले आया। पैकेट को मैंने चारपाई पर रख कर खोला। चिकेन, कबाब की खुशबू नाक में भर गई। मैंने उसे भी खाने को कहा तो पहले तो ना नुकुर की। फिर मैंने कबाब, पराठे की तारीफ के पुल बांधते हुए कहा ‘यह लखनऊ की सबसे मशहूर दुकान का है। संकोच ना करें। बहुत ज़्यादा हैं। दोनों आराम से खा सकते हैं।’ कई बार कहने पर वह तैयार हो गई। पहली बार उसके चेहरे पर मुस्कान की एक लकीर दिखी। वह अपनी चारपाई से उठी और एल्युमिनियम की दो थाली मेरे सामने रख दी।

थाली बड़ी साफ-सुथरी दिख रही थी। लेकिन मन मेरा कुछ हिचक रहा था। मगर अनिच्छा को दबाते हुए मैंने आधे-आधे कबाब, पराठे और एक-एक लेग पीस सहित चिकेन थाली में रख कर उसे भी अपनी ही चारपाई पर सामने बैठने को कहा तो वह तुरंत बैठ गई। जरा भी हिचक नहीं दिखाई। फिर खाना शुरू किया। और कोई वक़्त होता तो मैं इस तरह का ठंडा कबाब, पराठा और चिकेन कभी नहीं खाता। मगर तब भूख के कारण वे बहुत बढ़िया लग रहे थे।

बड़ा अजब अनुभव हो रहा था। बाहर बारिश, एक अनजान झोपड़ी में अनजान महिला के साथ, आधी रात को कबाब, पराठे, चिकेन की दावत उड़ा रहा था। और मन बार-बार डिक्की में रखी व्हिस्की की तरफ जा रहा था। मगर उसके लिए हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। हालांकि तब तक यह कंफर्म हो चुका था कि वह महिला पहले से ही पिए हुए है।

उस समय एक चीज उसकी मुझे बड़ी तकलीफदेह लग रही थी। उसका खाते समय चप्प-चप्प आवाज़ करना। खाते समय मुंह से आवाज़ करने पर मुझे इतनी नफरत होती है कि खून खौल उठता है। मन करता है कि सारा खाना उठा कर सामने वाले के सिर पर दे मारूं। मगर उस समय उस आवाज़ को बर्दाश्त करने के सिवा मेरे पास कोई रास्ता नहीं था। जिस स्पीड से उसने चार पराठे और छः कबाब और आधा चिकेन चट किए उससे साफ था कि वह उसे बहुत अच्छे लगे थे। खाने के दौरान ही मैंने उससे नाम पूछा तो उसने कमला बताया।

मैंने मन में ही कहा अजब संयोग है जिस कमला के पास जा रहा था वहां बारिश ने पहुंचने नहीं दिया। जिसके पास रुकने को विवश कर दिया वह भी कमला। लेकिन दोनों में कितना फ़र्क है। एक जब बोलती है तो लगता है कि बस उसे सुनते ही रहो। और यह है कि मन करता है कि बस चुप हो जाए। एक फूलों सी मासूम कोमल दिखती है। तो दूसरी कठोर, सख्त लगती है। खैर खाना खत्म हुआ। वह एक जग, दो गिलास में पानी भी लेकर आई जिसे देख कर व्हिस्की की प्यास और बढ़ गई।

बाहर बादलों का गर्जन-तर्जन बराबर अब भी जारी था। मानसून की पहली बारिश ही उम्मीद से कहीं ज़्यादा हो रही थी। मैं बातचीत करके अब तक उससे घुल-मिल चुका था। इसी बीच उसने यह बता दिया था कि पति श्याम लाल किसी मुआवजे आदि के चक्कर में लखनऊ गए हैं। आज काम नहीं हुआ तो वहीं दारुलसफा में ही एक नेता के साथ रुके हुए हैं। उसी ने काम कराने के लिए बुलाया था। दस हजार रुपए भी ले चुका है। बहुत दिन से लटकाए हुए है, इसीलिए पति आज उसके पीछे पड़े हैं। उसने बताया कि ‘ऊ कहिन रहै कि संभाल कै रहेऊ, अंधियार होतै बंद कई लिहौ, सवेरे तक खोलेयो ना।’ यह कहते हुए उसने खीसें बा दीं फिर बोली ‘लेकिन तुम ऐइस पाछे पड़ि गैओ कि तुमका अंदर बैइठा लीनिह।’

उसकी हंसी ने मेरा उत्साह बढ़ा दिया। मैंने कहा ‘पानी ने मज़बूर कर दिया नहीं तो परेशान नहीं करता।’ फिर मैंने उसकी तारीफ के पुल बांधते हुए कहा ‘आप बड़ी हिम्मती हैं। शुरू में तो मैं आपकी हिम्मत देख कर सहमा हुआ था। और सच कहूं कि इन कबाब, पराठों, चिकेन के साथ मैंने एक बोतल बढ़िया अंग्रेजी शराब भी ले ली थी। वह अब भी डिक्की में रखी है। खाते समय बड़ी इच्छा हो रही थी। मगर मैं आपसे पूछने की हिम्मत नहीं कर सका।’ मैं यह कहते हुए उसके चेहरे के भावों को खास तौर से पढ़ने की कोशिश कर रहा था। मैंने साफ देखा कि वह भी अंग्रेज़ी शराब सुनते ही चहक उठी। बस खुल कर बोलने में हिचक रही थी। तो मैंने कहा ‘आप परेशान ना हों, अगर कहेंगी, वह भी खुशी-खुशी तभी मैं उसे छुऊंगा।’

कुछ क्षण चुप रह कर वह बोली ‘अब इहां दारूह पिऐ का मन कैइ रहा है तौ पी लेऊ। जब खाए लिए हौ तो पियू लैओ, पहिलै बताए होतेव कि गाड़ी मा रखै हो। जाओ लै आओ’ मैंने उसे और चेक करने की गरज से कहा ‘नहीं मैंने तो बस आपको बात बताई। आप का मन हो तभी इज़ाज़त दिजिएगा। वैसे भी अकेले पीने में मुझे ज़्यादा मजा नहीं आता।’

इस पर वह हंसी और बोली ‘अरे! जाओ लै आओ, हम देखि रहेंन कि अब वहिकै बिना तुमका चैन ना परी। जाओ लै आओ।’ लेकिन उसे मैंने आखिरी बार टटोलते हुए कहा ‘छोड़िए अकेले क्या पीना।’ इस पर उसने फिर खींसें निकालते हुए कहा ‘अरे लै आओ, साथे खाए लिहिन तो वहूमां देखिबै।’ उसकी बात और हंसी से मुझे जब कंफर्म हो गया कि वह भी पियक्कड़ है तो फिर मैंने वही पॉलिथीन ओढ़ी और बोतल उठा लाया।

रॉयल स्टैग की पैकिंग देख कर वह बोले बिना ना रह सकी कि ‘ईतो बहुत महंगी वाली लागि रही।’ मैंने कहा ‘हां। और ये पूछ रहा था कि आप तंबाकू तो खाती हैं क्या ये ....।’ मैंने बात अधूरी छोड़ते हुए बोतल की ओर इशारा किया तो बड़ी चालाकी से सारी बात मुझ पर थोपती हुई बोली ‘अब कहि तो रहेन कि इत्ता तुम कहि रहे हो तो लाओ।’

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