कर्मवीर
(उपन्यास)
विनायक शर्मा
अध्याय 5
वक़्त का पहिया ना तो कभी थमा था और न ही कभी थमेगा। जिस तरह इस धरा पर नदियाँ सतत प्रवाहमान है। जिस तरह झरने लगातार बह रहे हैं उसी तरह समय भी निरंतर अपने वेग से बढ़ा जा रहा है। समय जिस तरह बदल रहा होता है उसी तरह समय के साथ साथ चीजें भी उसी तेज़ी से बदल रही होती हैं। जैसे एक बालक समय के साथ किशोर होता है फिर एक युवक का आकर लेता है और फिर बढ़ते समय के साथ वो वृद्ध भी हो जाता है और फिर वो समय के साथ दौड़ से कहीं आगे निकल जाता है। वो इस धरा के परम सत्य को प्राप्त कर लेता है। मृत्युलोक में चला जाता है।कोई वहाँ जाने से नहीं बच पाता।
बढ़ते वक्त के साथ कर्मवीर भी बड़ा हो रहा था और उसके गाँव का परिदृश्य भी बहुत ही तेज़ी से बदल रहा था। काफी लोग शहरी के साथ शहर जाने लग गए थे। गाँव में सुविधाओं की खासी कमी थी। जहाँ शहरों में पानी बिजली की पूरी सुविधा हो गयी थी वहीं कर्मवीर के गाँव में अभी तक पक्की सड़क भी नहीं आ पायी थी। हालाँकि महावीर सिंह और कुछ और लोग थे जो इस कोशिश में लगे थे कि कम से कम पक्की सड़क तो गाँव में आ ही जानी चाहिए। काफी मशक्कत के बाद कभी कभार उन्हें बस आश्वासन मिल जाता था। इससे ज्यादा आज तक वो लोग कुछ भी हासिल नहीं कर पाए थे। अपने गाँव से शहरों में जाते लोगों को भी देखकर महावीर सिंह को बहुत बुरा लगता था लेकिन अब वो उन्हें रोकने के लिए ज्यादा कुछ कर नहीं सकते थे। खेतों में भी खेती के नए तरीके आ जाने से दूसरे राज्य या दूसरे गाँव के लोग तकनीक का इस्तेमाल कर ज्यादा फसल उगा ले रहे थे जिसके कारण अब फसलों की भी उचित कीमत उस गाँव के किसानों को नहीं मिल पा रहा था। महावीर सिंह अपने आप को थोड़ा बेबस भी मानने लगे थे। पहले वो गाँव वाले को बाहर जाने से रोकते थे तो उनके पास सौ दलीलें होती थी को वो गाँव में ही रहकर शहर से अच्छी जिंदगी जी सकता है लेकिन अब ऐसी बात नहीं रह गयी थी। अब गाँव के करीब आठ दस नवयुवक शहर में जाकर कमाने खाने लगे थे। और फिर वो भी जब गाँव आते मनोहर जिसे लोगों ने शहरी नाम दे दिया था, की तरह दीखते थे। महावीर सिंह की भी उम्र धीरे धीरे हो चली थी अब उन्हें कोई और नहीं दिख रहा था जो उनकी बागडोर संभाल ले उनके बेटे को बड़ा होने में अभी भी वक्त था अभी वो आठवीं कक्षा में ही आया था।
आठवीं कक्षा में एक बार उसके विद्यालय में वार्षिकोत्सव हुआ। उस वार्षिकोत्सव में परीक्षाफल प्रकाशन भी होना था और फिर सभी अभिभावकों को आमंत्रित भी किया गया था। कर्मवीर फिर से अपनी कक्षा में प्रथम आया था। महावीर सिंह अपना सीना चौड़ा किये वहाँ मौजूद थे। गणेश भी पढने में ठीक हो गया था और उसका कक्षा में तीसरा स्थान था। शीर्ष के तीन स्थान पाने वाले हरेक विद्यार्थी को पारितोषिक भी दिया गया था। पुरस्कार ग्रहण करते वक्त उन बच्चों के अभिभावकों को भी स्टेज पर आमंत्रित किया गया था। गणेश के पिता वार्षिकोत्सव में नहीं आये थे। गणेश के अलावा करीब सात आठ विद्यार्थियों के अभिभावक उस दिन वहाँ मौजूद नहीं थे। ये बात कर्मवीर के दिमाग में पैठ कर गयी।
अगले दिन विद्यालय में उसने पूछा
“गणेश कल वार्षिकोत्सव में बहुत मजा आया न। यार मुझे तो पता ही नहीं था कि हमारी कक्षा में भी इतने होनहार लोग है। कोई इतना अच्छा गा सकता है कोई इतना अच्छा अभिनेता है तो कोई इतना अच्छा नृत्य कर लेता है। मैं तो सचमुच आश्चर्य में डूबा रह गया अपने इतने प्रतिभावान दोस्तों को देखकर।”
“हाँ कल सचमुच जो वार्षिकोत्सव हुआ वो बहुत ही मनोरंजक था। बड़ा मजा आया मुझे भी।” गणेश ने कर्मवीर को उत्तर दिया।
“मित्र ये बताओ कि कल तुम्हारे पिताजी वार्षिकोत्सव में क्यों नहीं आये अगर वो आते तो तुम्हें तीसरे स्थान पर देख बहुत खुश होते तुम तो हमेशा मुझे ये कहते रहते थे कि तुम्हारे पिताजी कि इच्छा है कि तुम कम से कम अपनी कक्षा में शीर्ष के तीन विद्यार्थियों में रहो और जब इस बार तुम तीसरे पायदान पर आने में सफल हो गए तो तुम्हारे पिताजी ही ये देखने के लिए कार्यक्रम में उपस्थित नहीं थे बताओ भला ये क्या बात हो गयी। ऐसी क्या व्यस्तता थी उनकी?” कर्मवीर ने अपने मन में कल से घुमड़ रहे सवाल को गणेश के सामने रख दिया।
“मित्र वो यहाँ हैं ही नहीं तो फिर कार्यक्रम में उपस्थित कैसे हो जाते जरा बताना।” गणेश ने कर्मवीर के प्रश् का उत्तर दिया।
“अच्छा तो वो कहीं बाहर गए हुए हैं? तो तुमने उन्हें बताया क्यों नहीं कि उस दिन वार्षिकोत्सव है वो कहीं भी न जाएँ किसी और दिन चले जाएँ।”
“अरे वो कहीं बाहर ऐसे नहीं गए हैं कि वो एक दो दिन में वापस आ जाएँगे। वो अब साल भर में दो या बहुत ज्यादा तीन बार आते हैं। इससे ज्यादा वो अब नहीं आते।”
“क्यों ऐसा क्यों भाई?” कर्मवीर ने बहुत ही उत्तेजना से प्रश्न किया।
“वो इसलिए क्योंकि वो बाहर रहकर ही कमाते है। और बार बार घर ही आते रहेंगे तो उन्हें काम कौन देगा?”
“तो यहाँ पर खेतों का क्या होता है?”
“अरे हमारे पास खेत ही कहाँ थे थोड़ी बहुत जमीन थी उसमे बस खाने भर सब्जियाँ उग जाती थीं और दस पाँच रूपये की सब्जियाँ रोज बिक जाती थीं उससे क्या होने वाला था। सो वो शहर ही चले गए शहरी चाचा के साथ।”
“तो अब सबकुछ सही चल रहा है?”
“ऐसा ही समझ लो।” उसके ऐसा ही समझ लो से कर्मवीर ये समझ गया कि स्थिति में ज्यादा कुछ बदलाव नहीं आया है बस मन में एक संतोष होगा कि बाहर रह कर कमा रहे हैं तो कभी न कभी हालत में सुधर जरूर होगा। इसके बाद कर्मवीर ने कुछ नहीं कहा। वो चुप होकर कुछ सोचने लग गया।
विद्यालय खत्म होने के बाद जब वो अपने घर गया तो उसने महावीर सिंह से पूछा,
“पिताजी कल आपने विद्यालय के कार्यक्रम में कोई बात ध्यान दी कि नहीं?”
“हाँ तुम बच्चों का कार्यक्रम बहुत ही अच्छा था। और सबसे अच्छी बात तुम प्रथम आये थे। ये मुझे बहुत ही अच्छा लगा। मेरा सीना चौड़ा हो गया था। इसी तरह मन लगाकर पढ़ते रहो और मेरा और अपने गाँव का नाम रौशन करते रहना।”
“वो सब तो ठीक है पिताजी लेकिन शायद आपने एक और बात पर ध्यान नहीं दिया। और वो ये कि गणेश के साथ साथ और भी कुछ विद्यार्थी ऐसे थे जिनके अभिभावक वहाँ मौजूद नहीं थे। इस बात पर आपने गौर नहीं दिया लगता है?” महावीर सिंह बहुत ही ध्यान से अपने बेटे की शक्ल देखने लगे। वो गाँव में अपना उत्तराधिकारी खोज रहे थे और आज उन्हें ये यकीन हो गया कि उनके बेटे से ज्यादा लायक और कोई नहीं है जो इस गाँव की भलाई के काम के लिए उनका उत्तराधिकारी बन पाए। वो अपने पुत्र को छोटा समझ रहे थे लेकिन उनका बेटा अब बड़ा भी हो गया था। वो सारी चीजों को बहुत ही बारीकी से समझने लगा था। उसे समझाते हुए उन्होंने कहा,
“हाँ बेटे जिस रफ़्तार से लोग शहरों की ओर आकर्षित हो रहे हैं वो वास्तव में सोचने का विषय है। गाँव भी अब पिछड़ता जा रहा है। शहरों की चकाचौंध लोगों को आकर्षित कर रही है। शहर जाना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन गाँव के लिए सोचने वाला कोई नहीं बच रहा है चिंता का विषय यही है।”
“कोई बात नहीं पिताजी मैं हूँ न मैं बड़ा होकर गाँव को शहर से भी अच्छा बना दूँगा। लोग शहरों से मेरे गाँव आया करेंगे।” अपने बेटे के मुँह से गाँव के लिए कुछ कर गुजरने वाली बात सुनकर महावीर सिंह का दिल आनन्दविभोर हो उठा। वो अपने बेटे को बड़े ही प्यार से देखने लगे।
इस घटना ने कर्मवीर को बहुत ज्यादा बदल दिया। वो अब हमेशा यही सोचने लगा था कि सारे लोग अगर गाँव से बाहर शहर ही चले जाएँगे तो फिर गाँव का क्या होगा। गाँव में कौन रहेगा कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि गाँव का अस्तित्व ही ख़त्म हो जाएगा। पहले कितना अच्छा रहता था गाँव का जीवन कितना सुखमय होता था। खैर जो ज्यादा पढ़ लिख ले और उसके लायक अगर गाँव में काम नहीं है और वो शहर जा रहा है तो एक बात समझ आती है लेकिन लोग बस मजदूरी करने के लिए भी शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं ये बात समझ ही नहीं आती। मैं तो कितना भी पढ़ लिख लूँ लेकिन मैं कभी भी शहर में रहकर अपना जीवन यापन नहीं करूँगा। मुझसे अपना ये गाँव छोड़ा नहीं जाएगा मैं तो यहीं आकर गाँव की ही भलाई में लगा रहूँगा जैसे मेरे पिताजी सारी जिंदगी लगे रहे अपने गाँव और गाँव वालों के भलाई में। अपनी जिंदगी अपने स्वार्थों से ज्यादा भी तो कुछ होता है। इस गाँव का जो कर्ज मुझपर हिया वो मैं कैसे चुका पाऊंगा। इसकी मिट्टी ने जो मुझे इतना बड़ा किया हिया है और बड़ा कर ही रही है उसका कर्ज भी तो मुझे चुकाना होगा। इन्हीं सारी बातों पर कर्मवीर अब अक्सर मनमंथन करता रहता था। उसका अब केवल और केवल एक ही ध्येय था और वो था अपने गाँव की सेवा करना अब उसके दिमाग में बस यही चलते रहता था।
उधर उसके पिताजी महवीर सिंह गाँव में एक पक्की सडक लाने को दिन रात एक किये हुए थे। अगर गाँव में पक्की सडक आ जाती तो शहर जाना आसान हो जाता लोग अपने गाँव में उगाई गयी सब्जियाँ वगैरह भी खुद जाकर शहरों में मंडियों में बेच पाते। उनके गाँव में बस भी रूकती जिससे कहीं किसी और गाँव में आने जाने में समय काफी कम लगता। खेती के लिए बदलती तकनीक की जो मशीनें आई थीं वो उनके गाँव तक आ पाती और उनकी भी पैदावार अच्छी हो पाती। एक बार पक्की सडक से गाँव जुड़ जाता तो उसके अनेक फायदे थे। सबसे ज्यादा तो महावीर सिंह को ये लग रहा था कि अगर गाँव में कुछ भी अच्छा हो गया तो लोग जिस रफ़्तार से शहरों की ओर भाग रहे हैं वो रफ़्तार धीमी हो जाएगी। वो लोगों को ये विश्वास दिला पायेंगे कि शहरों में जाकर भूखे रहकर मजदूरी करने से अच्छा है कि यहाँ अपने गाँव में रहकर अपने परिवार के साथ सुकून से रहा जाए। गाँव भी अब बदल रहा है लेकिन ऐसा कुछ हो तब तो।
कर्मवीर दसवीं कक्षा में चला गया था और इन दो सालों में अथक परिश्रम करने के बावजूद महावीर सिंह अपने गाँव को पक्की सड़क से नहीं जोड़ पाए थे। हालाँकि इस साल ऐसा हो जाने का उन्हें एक बार फिर से आश्वासन मिला था। वो सीधे विधायक के पास गए थे। विधायक ने कहा
“कि मुझे बहुत खेद है कि अभी तक मेरी विधानसभा के गाँव पक्की सड़क तक से नहीं जुड़ पाए हैं। ये तो बुनियादी सुविधाओं में आता है। आप निश्चिन्त रहें अब आपका गाँव पक्की सडक से जरूर जुड़ जाएगा।” इतने दिनों में छोटे अफसरों और पदाधिकारियों के दफ्तर के चक्कर लगाने के बाद ये पहला मौका था जब महावीर सिंह विधायक से मिल पाए थे। विधायक ने फिर से पूछा,
“आप उस गाँव के मुखिया हैं न?”
“नहीं नहीं मैं कोई मुखिया नहीं हूँ मैं तो उस गाँव का एक आम आदमी हूँ।” महावीर सिंह के ये बात विधायक को जमी नहीं। उसके आत्मसम्मान को जैसे ठेस लग गयी। यूँ तो वो था जनप्रतिनिधि ही लेकिन इस तरह एक आम जन उससे कुछ करने को कह दे तो ये उसे जंच नहीं रहा था।
“अरे तो आप क्यों आ गए। आपको अपने मुखिया को भेजना था न। भाई आपलोगों ने मुझे चुना है सही बात है आप मेरे पास आये। लेकिन मुखिया जी को भी तो वोट दिया गया है कुछ उत्तरदायित्व तो उनका भी बनता है न। जाइए अपने मुखिया जी को भेजिएगा। जरा मैं भी तो देखूँ उन्हें फिकर भी है कि नहीं अपने गाँव वालों की और उन्हें ये जानकारी भी है कि नहीं कि उनका गाँव आज भी पक्की सड़क से नहीं जुड़ पाया है।
महावीर सिंह अपने हाथ में अपना दरख्वास्त ढेर सारे अधिकारीयों का दस्तखत किया हुआ लेकर वापस आ गए। वो मंगरू के साथ विधायक के दफ्तर में गए थे। दफ्तर क्या आवास पर गए थे। महावीर सिंह फिर से घर वापस आ गये वो बहुत दुखी थे। उन्हें ये समझ नहीं आ रहा था कि अगर उन्हीं के कहने पर विधायक सड़क बनवा देता तो क्या बिगड़ जाता। बहुत ही दुखी होकर उन्होंने मंगरू कसे कहा।
“मंगरू ये दुनिया बहुत बेकार है लोगों की ही मदद करो तब उसी में से कोई आदमी तुम्हारे साथ नहीं आएगा। जहाँ मदद के लिए जाओ वहीं तुम्हें अपमान भी झेलना होगा। बताओ मैं कौन सा अपने घर के लिए सड़क बनवाने के लिए बोलने गया था, सडक बनेगी तो फिर पूरे गाँव को उससे फायदा होगा न। मगर नहीं वो विधायक बाबू हैं जी कैसे मुझ जैसे मामूली आदमी के कहने पर वो एक बार में सडक बनवा देंगे ये तो उनके शान के खिलाफ हो जाएगा न। खैर मैं भी हार मानने वालों में से नहीं हूँ। मैं भी मुखिया को लेकर ही जाऊँगा विधायक के पास, मैं भी देखता हूँ कि मेरे गाँव में पक्की सड़क कैसे नहीं आती।”
“नहीं बाबूजी पता है क्या बात है हमलोग उतने पढ़े लिखे नहीं हैं न तो हमें कोई भी कुछ कहता है तो हम वो मान लेते हैं। देखिएगा वही जब अपना कर्मवीर पढ़ा लिखा रहेगा न जब वो पूरी तरह बड़ा होकर बाहर से पढ़कर गाँव वापस आएगा न तो देखिएगा उसको कोई भी उल्लू नहीं बना सकता उसे कोई भी ज्यादा इधर उधर नहीं दौड़ा सकता। वो जहाँ भी जाएगा वहाँ एक बार में ही उसका काम होना ही होना है।” मंगरू ने बहुत ही उत्त्र्जना के साथ उत्तर दिया।
“हाँ वो तो है इस साल वो दसवीं पास कर जाएगा फिर उसे भी बाहर ही भेजना पड़ेगा। यहाँ तो आगे की पढ़ाई की कोई व्यवस्था तो है नहीं। अभी तो बोलता है कि पढ़ लिख कर भी वो वापस आकर गाँव में ही रहेगा और गाँव की ही भलाई का कम करेगा लेकिन पता नहीं जब एक बार उसे भी शहर की हवा लगा जायेगी तो जैसा वो अभी है वो वैसा रह पायेगा या नहीं।”
“नहीं बाबूजी वो बिल्कुल वैसा ही रहेगा आप चिंता मत कीजिये। वो आपका ही खून है। मैंने देखा है उसकी आँखों में बचपन से ही वो गाँव की ही भलाई के लिए काम करना चाहता है। अभी ही देख लीजिये न वो अपने से छोटे बच्चों को जो पढाता है जो भी बच्चे कमजोर हैं उन्हें बड़े ही प्यार से सारी चीजें पढाता और समझाता है। पता है गाँव में तो लोगों ने कहना भी शुरू कर दिया है कि महावीर सिंह जैसे हैं उनका बेटा भी बिल्कुल वैसा ही है। वो भी बस गाँव और गाँव वालों की भलाई के लिए ही सोचता रहता है।” मंगरू ने उत्तर दिया।
“बस शहर जाकर भी वो न बदले तो समझो मुझे तो सबकुछ सूद समेत मिल जाएगा और क्या चाहिए मुझे जीवन में।”
“नहीं बदलेगा बाबूजी आप निश्चिन्त रहिये।” मंगरू ने महावीर सिंह को आश्वासन दिया।
अगले दिन मंगरू और महावीर सिंह दोनों मुखिया के पास गए और सारी बातें उसे सुना दीं। मुखिया भी महावीर सिंह की बहुत ही ज्यादा इज्जत करता था इसलिए उसने तुरंत ही कहा
“अगर ऐसी बात थी तो आप उसी समय मुझे लेकर जाते। खामख्वाह आपको तकलीफ हुई। चलिए मैं कल ही चला जाऊँगा इस आवेदन के साथ विधायक जी के पास आपको जाने की कोई जरुरत नहीं है।” मुखिया ये जानता था कि अगर वो मुखिया है तो बस महावीर सिंह की ही बदौलत है उसने अपनी कृतज्ञता भी उजागर की।
“अरे नहीं मैंने सोचा तुम्हें और भी तमाम काम रहते होंगे इसलिए मैं चला गया, लेकिन विधायक मेरी बात ही नहीं मान रहा। कल फिर मैं चलूँगा तुम्हारे साथ।”
“जैसी आपकी मर्जी मैं आपको मना नहीं कर सकता।” मुखिया ने बहुत ही नम्रता के साथ जवाब दिया। महावीर सिंह और मंगरू वहाँ से चल दिए।
अगले दिन सभी विधायक आवास पहुँचे जहाँ एक बार फिर से काम हो जाने का आश्वासन मिल गया। इस बार उम्मीद ज्यादा थी क्योंकि अगर अब भी सड़क नहीं बन पाती तो इसके बाद कहाँ जाना है ये महावीर सिंह को पता भी नहीं था। इस सड़क के चक्कर में पहले तो कुछ लोग महावीर सिंह के साथ भाग-दौड़ करते थे लेकिन जब समय बीतता गया और कोई प्रतिफल मिल नहीं रहा था तो लोगों ने कन्नी काटना शुरू कर दिया और कुछ ने तो महावीर सिंह को भी बैठ जाने की सलाह दे दी कि अगर सडक बननी होगी तो खुद बन जायेगी अब उनके भाग दौड़ से कुछ नहीं होने वाला है।
कर्मवीर के दसवीं का परिणाम आ गया और वो पूरे जिले में प्रथम आया था। पिता के लिए इससे ज्यादा गर्व की बात कुछ और हो ही नहीं सकती थी। उसी दिन उसके दसवीं का परिणाम आया और फिर उसी दिन से सड़क भी बननी शुरू हो गयी। महावीर सिंह के लिए ये दोहरी ख़ुशी की बात थी। दोनों में उनकी सालों की मेहनत लगी हुई थी। सडक बनने के कारण लोगों ने एक बार फिर उनका लोहा माना। सबने यही कहा कि सब पीछे हट गए लेकिन महावीर सिंह लगे रहे और आज उसी का परिणाम है कि उनके गाँव में भी पक्की सड़क बन रही है।
कर्मवीर में भी उन्होंने वर्षों अपनी मेहनत सुखाई थी तब जाकर ये रत्न सामने आया था लेकिन अभी भी वो उसे हीरा नहीं ही मान रहे थे। उनके हिसाब से वो हीरा तभी होता जब आगे की पढाई करने की बावजूद वो अपने गाँव की ही भलाई के लिए काम करे। दोहरी ख़ुशी के मौके पर उन्होंने पूरे गाँव में मिठाई बंटवाई। बेटे के जिले में प्रथम आने से ज्यादा उन्हें सडक बनने की ही ख़ुशी थी। लोग फिर से उनका गुणगान करते नहीं थक रहे थे।
कर्मवीर का दोस्त गणेश भी अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण हुआ था। लेकिन कर्मवीर के अंक उससे बहुत ज्यादा थे। अब बारी थी उच्च शिक्षा की क्योंकि गाँव में बस दसवीं तक की ही शिक्षा की व्यवस्था थी। तो इससे पहले कि कर्मवीर और उसके साथ पास हुए साथी गाँव से विदा होते उनके लिए विद्यालय की तरफ से एक विदाई समारोह की व्यवस्था की गयी थी। जितने दिन कर्मवीर गाँव में रहा था पढ़ाई के साथ साथ वो गाँव के लिए जो कुछ कर सकता था उसने किया था। वो बाकी बच्चों को पढाता था किसी भी मौके पर किसी बच्चे को कॉपी या कलम की जरुरत पड़ जाती तो वो बेहिचक दे देता था। जाते जाते भी उसने गाँव वालों को समझाने के लिए कुछ करने की योजना बनाई थी। उसने गणेश को बताया था कि विदाई समारोह में वो एक नाटक खेलना चाहता है जिसकी पटकथा वो लिख चुका है। बस अच्छे से अभिनय करने की जरुरत है इसके लिए कुछ अच्छे अभिनय करने वाले छात्रों की जरुरत पड़ेगी जिससे कि उनके अभिनय को देखकर देखने वालों को ये लगे कि ये सारी घटनाएं सचमुच उनके सामने ही घट रही हों और उनके जेहन में ये नाटक कुछ सवाल छोड़ जाए।
गणेश बहुत अच्छा अभिनय करता था और इसीलिए उसे ये पता था कि विद्यालय में और कौन कौन अच्छा अभिनय कर लेते है। जिसकी जिस चीज में जितनी ज्यादा रूचि होती है उसकी जानकारी भी उस चीज में उतनी ही ज्यादा होती है। गणेश और कर्मवीर ने मिलकर नाटक मंडली तैयार कर ली और फिर विदाई समारोह से पहले रियाज करना शुरू कर दिया। कर्मवीर खुद अभिनय नहीं करता था उसका मानना था कि जो काम खुद से ही न लगे कि हम अच्छा कर रहे हैं वो नहीं करना चाहिए। कर्मवीर ने इस नाटक के निर्देशन का जिम्मा उठा रखा था।
जब इन लोगों का विदाई समारोह हो रहा था तो वो विद्यालय का वार्षिकोत्सव ही था। लेकिन इस बार विद्यालय से बाहर जा रहे छात्रों को उनके हिसाब से प्रोग्राम तय करने को कहा गया था। कर्मवीर ने बस वो नाटक अपने हिसाब से तय किया था और बाकी सारे छात्रों ने मिलकर भी कुछ और कार्यक्रम रखे थे। जब कर्मवीर के नाटक का मंचन शुरू हुआ तो सब तरफ शान्ति थी।
उसके नाटक की शुरुआत हुई तो बस से एक गाँव वाला आदमी शहर के बस स्टैंड पर उतरा था। उसके एक हाथ में एक कपड़े की गठरी थी और दूसरे हाथ में एक कागज़ का टुकड़ा था जिसपर शायद उसके दोस्त का पता लिखा हुआ था। कुछ लोगों को इधर से उधर जाते एक पर्दे को चलायमान करके दिखाने की कोशिश की गयी। बड़ी मुश्किल से गाँव के उस आदमी ने एक आदमी को रोककर पता पूछने की कोशिश की वो शहरी आदमी घड़ी दिखाता हुआ ये बता कर चला गया कि उसके पास समय नहीं है। पूरा नाटक मूक चल रहा था। किसी को भी एक भी शब्द बोलना नहीं था। वो आदमी थोड़ी देर और चला तो उसे गर्मी लगने लगी उसने अपनी गठरी से पानी की बोतल निकाली और पानी पी लिया। उसे अपने दोस्त का पता नहीं चल रहा था।
चलते चलते शाम हो गयी लेकिन इतने बड़े शहर में वो अपने दोस्त को ढूँढ नहीं पाया। उसके पास कुछ पैसे थे जिसे देकर उसने सडक किनारे एक दूकान से कुछ खाने का खरीद लिया। ये सब या तो पीछे से बोल दिया जाता था और वो आदमी खाने का अभिनय करने लगता था या फिर परदे पर उसे दिखा दिया जाता था। अभिनय करने वाला कोई भी व्यक्ति मतलब छात्र कुछ नहीं बोल रहा था।
जब उसने थोड़ा सा खा लिया तो फिर सुसताने लगा। उसे थोड़ी थोड़ी नीन्द आने लगी। वो सड़क किनारे ही फुटपाथ पर अपना अंगौछा बिछाकर सो गया। उसने कपड़ों की हो गठरी ले राखी थी उसे अपने सर ने नीचे दबा कर वो सो गया। कुछ घंटे सोने के बाद जब वह जगा तो देखा कि गठरी उसके सर के नीचे ही है। उसके ऊपर वाली जेब में दोस्त का पता था जिसे उसने एक बार फिर से निकाला। और कुछ आते जाते लोगों से पता करने की कोशिश की लेकिन किसी ने कुछ नहीं बताया। वो वहीं फुटपाथ किनारे बैठ गया और रोने लगा। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे।
रात आने पर फिर से वो वहीं सो गया। जब वो सुबह जगा तो सबसे पहले उसने अपनी गठरी टटोली गठरी मिल जाने पर उसे तसल्ली मिली। इधर उधर कुछ नजर दौड़ाया तो उसे एक मैदान दिखा चूँकि बहुत ही जल्दी वो जग गया था इसलिए कोई वहाँ नहीं था। वो वहीं बैठ कर नित्य क्रिया से निवृत हो गया। कुछ देर और बीतने के बाद जब दिन की शुरुआत हुई तो उसे भूख लग आई। उसने अपने कुरते के नीचे वाली जेब में कुछ पैसे रख रखे थे जब खाने वाली दूकान के पास उसने अपनी जेब टटोली तो उसे कुछ भी नहीं मिला। उसकी जेब भी काट ली गयी थी। उसे समझ नहीं आया कि वो क्या करे। दोस्त का पता भी कोई नहीं बतला रहा था।
उस दिन जब वो अपनी किस्मत से हार गया तो उसे अपना घर अपना गाँव बहुत ही ज्यादा याद आ रहा था। एकबार को मन आया कि वो गाँव वापस जाने वाली ट्रेन पकड़ ले लेकिन अब उसके पास पैसे भी नहीं थे। उसने खाने वाली दूकान के पास ही एक आदमी से पूछा कि यहाँ पर कहीं कोई काम मिल जायेगा क्या? जिस आदमी से उसने पूछा उस आदमी ने उसे ऊपर से नीचे देखा और फिर कहा कि हाँ काम तो मिल जाएगा लेकिन काम मजदूरी का है और पचास रूपये रोजाना के मिलेंगे। उसने सोचा कि ये भी अच्छा ही है दस बीस रूपये में दिन भर में एक या दो बार खा लेगा तब भी तीस रूपये रोज के बचेंगे मतलब लगभग हजार रूपये महीना वो बचा ले सकता है।
उसने काम करने के लिए हामी भर दी और उस आदमी के पीछे पीछे चलने लगा। वो आदमी उसे एक ऐसी जगह ले गया जहाँ बहुत ही ज्यादा निर्माण कार्य चल रहा था। शहरी आदमी ने वहाँ के ठेकेदार से कुछ रूपये लिए और उस गाँव वाले आदमी की तरफ इशारा करके वो चला गया।
“लो भाई तुम तो मेरे लिए बहुत भाग्यशाली साबित हुए। मैं तुम्हें यहाँ लेकर आया तो मुझे मेरा कई दिनों का बकाया पैसा भी मिल गया। खूब मेहनत से काम करना अगर मेहनत से काम करोगे तो हो सकता है सेठ जी तुम्हारी पगाड़ भी बढ़ा सकते हैं।” जाते जाते शहरी आदमी ने गाँव वाले आदमी से कहा।
“मैं आपका एहसान जिंदगी भर नहीं भूलूँगा।” कहकर गाँव वाला आदमी लगभग नतमस्तक सा हो गया।
ठेकेदार ने गाँव वाले आदमी को बुलाया और काम समझा दिया। चूँकि काम मजदूरी का ही था इसलिए ज्यादा समय नहीं लगा। जब शाम हुई तो ठेकेदार सभी मजदूरों को पैसे देने लगा था। ये गाँव वाला आदमी भी पंक्ति में खड़ा हो गया था। जब इसकी बारी आई तो उसे ठेकेदार ने बताया कि उसे चार दिन बाद पैसा मिलेगा। इस पर वो गाँव वाला आदमी उसके सामने गिडगिडाने लगा कि आज पूरे दिन उसने भूखा रहकर मजदूरी की है और तीन दिन वो कैसे भूखे प्यासे काम करेगा।
“अरे तुम्हें जो आदमी यहाँ छोड़ने आया था उसने तीन दिन की तुम्हारी तनख्वाह ले ली है और हम एक दिन की तनख्वाह अपने पास रख के दूसरे दिन से पैसा देते हैं कि अगर कोई बिना बताये ना भी आये तो हमें कोई दिक्कत ना हो।” उसकी ये बात सुनकर तो जैसे गाँव वाले आदमी पर वज्रपात सा हुआ। उसे तो यकीन ही नहीं आ रहा था कि जिस आदमी ने उसे काम दिलाया वो उसे ठग कर ही भागा था।
“मैंने सुबह से कुछ नहीं खाया दिन भर काम करके मेरा ऐसा हाल हो गया है कि लगता है मैं मर जाऊँगा। कृपया मेरे खाने का ही कुछ बंदोवस्त कर दीजिये बदले में आप पांचवें दिन मेरी तनख्वाह से पैसा काट लीजियेगा।” ठेकेदार ने उसे वहाँ से जाने को कहा। लेकिन वो गाँव का आदमी वहाँ से हिल नहीं रहा था। इसके बाद ठेकेदार ने उसे ऊँगली से एक ओर इशारा किया जहाँ एक आदमी ठेकेदार के टिफिन से खाना निकालकर कुत्ते को खिला रहा था। उस आदमी को ठेकदार ने रुकने को कहा और इसे वहाँ भेज दिया। गाँव वाला आदमी तेज़ी से लपका और फिर उस आदमी के पास गया और सारा बासी खाना लेकर खा गया। उसने मन ही मन ठेकेदार का शुक्रिया भी कहा। सोने के लिए वापस वो उसी फुटपाथ पर चला गया।
इतना दृश्य दिखाने के बाद पर्दा बंद हुआ और जब दुबारा पर्दा खुला तो तो इस बार गाँव का दृश्य था। कुछ बच्चे एक साथ खेल रहे हैं कहीं कुछ लोग साथ बैठ कर बातें कर रहे हैं। सभी की जिंदगी बहुत ही आराम से कट रही है। सभी के चेहरे पर मुस्कान खिली हुई है। उस दृश्य में दिखाया गया कि एक बच्चा खेलते खेलते गिर गया और चोटिल हो गया वहाँ मौजूद आदमी जो उसका पिता नहीं था फिर भी उसे गोद में उठाकर पहले प्राथमिक उपचार केंद्र ले गया उसके बाद उसे उसके घर पहुँचा दिया। उसके पिता ने उसे बहुत ही ज्यादा शुक्रिया कहा और बहुत बहुत आभार प्रकट किया।
एक और दृश्य दिखाया गया जिसमे कोई अनजान आदमी गाँव में आ गया है उसके हाथ में भी कागज़ का एक टुकड़ा है उसपर पता लिखा हुआ है। वो इस गाँव में एक आदमी से उस पते के बारे में पूछता है उस आदमी को पढ़ना लिखना नहीं आता है वो इसमें अपनी असमर्थता जताते हुए उसे अपनी दालान पर बैठने का आग्रह करता है और गाँव के एक पढ़े लिखे बच्चे को बुलाकर लाता है । जब वो बच्चा उस पते को पढता है तो फिर पता चलता है कि ये पता तो इस गाँव का है ही नहीं बगल वाले गाँव का है और अभी अँधेरा होने पर वहाँ जाना ठीक भी नहीं होगा। वहाँ जाने में कम से कम आधा घंटा लगेगा। इसलिए उस पथिक से वहीं पर विश्राम करने का आग्रह उस आदमी ने किया और ये बताया कि सुबह में उसकी बैलगाड़ी भी उसी ओर जायेगी तो वो उसपर बैठ कर जा सकता है। वो आदमी भी राजी ख़ुशी रुकने के लिए तैयार हो गया। पथिक को रात में बहुत अच्छे से भोजन करवाया गया और सोने की अच्छी व्यवस्था कर दी गयी। उस आदमी ने भी वहाँ रात भर विश्राम किया और फिर सुबह बैलगाड़ी से अपने गंतव्य को निकल गया। उसने उस किसान का बहुत जी ज्यादा शुक्रिया अदा किया।
अगला दृश्य गाँव का ये दिखाया गया कि खेतों में सब एक दूसरे की मदद कर रहे हैं। सभी के चेहरे पर बराबर मुस्कान है। गाँव के हर दृश्य में भाई चारा दिख रहा था। फिर अगला दृश्य ये आया कि किसी के लड़की की शादी थी गाँव के हर घर से उसके घर में मदद के लिए कुछ न कुछ दिया जा रहा था। सभी लोग भाग दौड़ में भी पूरी सहायता कर रहे थे। पूरी तरह ख़ुशी ख़ुशी उस आदमी के लड़की की शादी हुई और जब विदाई हो रही थी तो पूरा गाँव एक साथ रो रहा था।
नाटक में मंचित सारे दृश्य लोगों की संवेदना को कुरेदते रहे। इस नाटक के माध्यम से कर्मवीर ने ये दिखाने की कोशिश की थी कि जिस शहर की जिंदगी को यहाँ के लोग एकदम सुखमय और मजेदार समझ रहे हैं वो वास्तव में वैसी है नहीं। असली सुख गाँव में ही रहकर अपने लोगों के साथ जीने में है। नाटक ख़त्म होने के बाद वहाँ मौजूद सभी लोग भावविभोर हो गए थे। ऐसा कोई नहीं था जिसकी आँखें सजल नहीं थीं। कुछ लोगों ने तो ये सोच लिया था कि चाहे जो हो जाए वो गाँव छोड़कर कभी नहीं जाएँगे। कुछ युवा भी इस बात से सहमत थे कि शहर जाकर कमाने से अच्छा है गाँव में ही रहकर मेहनत करना।
महावीर सिंह के आँखों से ख़ुशी की आँसू रुकते नहीं रुक रहे थे। वो आज उन्होंने पक्का ये मान लिया था कि चाहे जो हो जाए उनका बेटा अब कभी नहीं बदल सकता। उसके खून में गाँव की सेवा करना ही बह रहा है वो कुछ और सोच ही नहीं सकता है। उन्हें अपने बेटे पर बहुत ज्यादा गर्व हो रहा था। उनके बगल में बैठा उनकी मनोदशा समझ रहा था उसकी भी आँखें ख़ुशी से गीली हो गईं। विदाई समारोह का समापन हुआ और सभी विद्यार्थियों को पुरस्कार प्रदान किया गया। इस कार्यक्रम में आये मुख्य अतिथि ने कर्मवीर द्वारा निर्देशित नाटक की मुक्तकंठ प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि अगर इस नाटक में जो दिखाया गया सच में अपने गाँव के लिए पढ़े लिखे युवक इतना सोचने लग जाएँ तो कोई भी अपना गाँव छोड़कर बाहर नहीं जाएगा। सभी अपने गाँव में ख़ुशी पूर्वक अपनी जिंदगी बसर कर सकते हैं।
कर्मवीर और गणेश दोनों ने आगे की शिक्षा के लिए शहर में कॉलेज में आवेदन दे दिया था। सडक निर्माण का कार्य भी बहुत तेज़ी से चल रहा था। दोनों दोस्तों का नामांकन कॉलेज में हुआ और सडक निर्माण कार्य भी पूरा हो गया। लोगों का प्यार महावीर सिंह से जग जाहिर था। लोगों ने उद्घाटन के लिए आये विधायक जी से ये कहवा दिया था कि इस सडक का नाम महावीर सिंह जी पथ होगा। इस बारे में महावीर सिंह को कुछ पता नहीं था। गाँव के मुखिया ने विधायक से सहमती ले ली थी इस नाम के लिए और एक शिला भी तैयार कर दी गयी थी जिसपर लिखा था महावीर सिंह पथ। जब उदघाटन के लिए विधायक जी आये तो उन्होंने महावीर सिंह को ही उद्घाटन के लिए आमंत्रित किया। जब महावीर सिंह ने एक बार मना करने के बाद फिर उदघाटन करना स्वीकार किया और उस शिला से पर्दा हटाया तब उन्हें अपना नाम देखकर एक सुखद आश्चर्य हुआ। कर्मवीर को भी उस शिला पर अपने पिता का नाम देखकर गाँधी और विवेकानन्द की तस्वीर याद आ गयी।
अगली सुबह जब कर्मवीर बस पकड़ कर शहर जा रहा था आगे की पढाई करने तो वो उस गाँव का पहला यात्री था जो नयी बनी सड़क पर यात्रा करने जा रहा था। बस में बैठकर वो और गणेश शहर चले गए आगे की पढ़ाई करने के लिए।
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