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सुखविंदर

सुखविन्दर
प्रतापसिंह एक वीर, ईमानदार योद्धा, बिलकुल उनके जैसा ही उनका पौत्र "सुखविन्दर", मानो अपने दद्दू की कार्बन कॉपी। देशभक्ति जैसे उसे दादाजी से विरासत में मिली हो। बचपन में दादी से सुने अपने दद्दू की बहादुरी के किस्सो से प्रभावित सुखविन्दर अपने दद्दू की तरह आर्मी में भर्ती होकर देश के लिए कुर्बान होना चाहता है और जब तक आर्मी में भर्ती ना हो तब तक देश सेवा में समर्पित होने का प्रण लेता है। दादी को दद्दू से कोई शिकायत नहीं रही, हा अफ़सोस जरूर था की वे उनके साथ नहीं रहे पर, बचपन की गरीबी और चंद लोगो के तिरस्कार का शिकार हो चुके विश्वनाथ (सुखविन्दर के पिता) के दिमाग में ईमानदारी के बिज फूटना अब बंजर जमीन की तरह नामुमकिन बन गया था। सुखविन्दर घर में ट्यूशन क्लास चलता था, एक ऐसा क्लास जिसमे विद्यार्थियों को नाकि सिर्फ पुस्तकों वाला ज्ञान दिया जाता था बल्कि समाजव्यवस्था, अनुशाशन, निडरता और अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए भी उनको जागृत किए जाते थे। वैसे उसने ह्यूमन रिसर्च (एच.आर) में मास्टर डिग्री प्राप्त की है। फुरसत के वक़्त बॉर्डर, लक्ष्य और फौजियों की देशभक्ति वाली फिल्में देख वो खुदका हौंसला बढ़ाता रहता है। रहन-सहन, अनुशासन, दूसरों को सम्मान और प्रेम देने की भावना, देश के प्रति जूनून और हमेशा चौकन्ने रहने वाले गुण जो एक फ़ौजी में होने चाहीए वे सभी गुणों का तालमेल सुखविन्दर में है। लंबाचौड़ा कद और सिर पर पंजाबी पगड़ी उसकी फौजी सी पर्सनालिटी जता रहे थे।
स्नातक होने के बाद "यु.पी.एस.सी एवं कंबाइन डिफेन्स सर्विस" की परीक्षा में अव्वल आए सुखविन्दर का आर्मी में भर्ती होना निश्चित हो चूका था। पांच दिन लिए गए कड़क इंटरव्यू में सफलता के बाद "इंडियन मिलिट्री अकादमी ऑफ़ देहरादून" ने उसे तिन साल की तालीम के लिए बुलाया।
दरवाजे की घंटी बजी। सुखविन्दर, लड़को को अन्याय के खिलाफ कैसे लड़ना है और भ्रष्टाचारीयोँ को कैसे सबक सिखाना है उस विषय में तालीम दे रहा था, दरवाजे की घंटी सुनकर उसने दरवाजा खोला। उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। पोस्टमेन ने उसे सुबह सुबह ख़ुशी के समाचार दिए, कूरियर में आर्मी में भर्ती होने का प्रस्ताव पत्र था। ख़ुशी से जूमते हुए उसने पोस्टमेन को गले से लगाया। विश्वनाथ के अलावा घर के सारे सदस्य (उसकी मम्मी, दादी और बहन) उसकी सफलता से ख़ुश थे। क्लास के सभी लड़को के साथ घर में कैक काटी गई। ठीक छे दिन बाद उसे देहरादून अकादमी में हाजिर होना था। उसने उसी दिन अपना सारा सामन बांध लिया। माँ भी दिल पर पत्थर रख बहादुरी से उसे आर्मी में भर्ती करवाने को तैयार थी। पांचवे दिन वो पंजाब से देहरादून की और रवाना हो गया। रेल्वे स्टेशन छोडने आए माँ, बहन और दादी की आँखों में आंसू थे, विश्वनाथ उसे छोड़ने नहीं आए।
एक फौजी के परिवार का दर्द उस वक्त नजर आ रहा था। जाने वाला लौट के वापिस आएगा भी या नहीं वो फ़िक्र हमेशा एक फौजी के परिवार को सताए रहती है। हर त्योहार उनके बिना फीके होजाते है, माँ का आँचल सुना हो जाता है, बीवी का सिंधुर सुना हो जाता है, बुजुर्गों का आँगन सुना हो जाता है, बहन का प्यार और बाप का दुलार सुना होजाता है जब एक फौजी सरहद पर लड़ने जाता है। बारिश में आँगन की भीगी हुई मिट्टी की सुगंध फीकी पड जाती है। बचपन और जवानी के भुत को भूलकर, माँ, बाप, बहन, भाई, परिवारजनो की सारी यादों को समिट कर सैनिक जब सरहद पर बन्दुक तान के खड़ा होने जाता है उस बख्त सारे देशवासियो उस पर गर्व होना चाहिए। वो है तो हम है। देश में चैन, शांति और अमन बनाए रखने में वो जो बलिदान दे रहे है उनके लिए उन्हें हजारो सलाम, उनके जैसा काम कोई नही कर सकता। रोते वक़्त भी उसकी मम्मी, बहन और दादी गर्व से उसे हौंसले के साथ बीदा कर रहे थे।
अगले दिन शाम ही सुखविन्दर देहरादून आर्मी अकादमी पहुच गया। दूसरे दिन सुबह वो ट्रेनिंग अधिकारी से मिला, वहा के सोल्जर्स उन्हें "ग्रांडमास्टर" के नाम से पुकारते थे। करीबन ४० साल की उम्र, लंबाचौड़ा कद, हलकी दाढ़ी और फौजी हेयर स्टाइल मेंं उनके व्यक्तित्व मेंं एक गजब की खुमारी नजर आ रही थी। उनकी आँखों में देश के लिए कुछ कर गुजरने की राह दिखाई दे रही थी। उन्होंने सुखविन्दर को आर्मी में प्रवेश करने हेतु धन्यवाद किया साथ ही साथ एक उत्तम सैनिक बन देश के लिए कुछ कर दिखाने का हौंसला भी दिया। दूसरे ही दिन उसकी ट्रेनिंग शुरू हो गई।
तीन साल उसकी तगड़ी ट्रेनिंग चली, उन तीन सालो में उसने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा, देखा तो सिर्फ एक लक्ष्य "काबिल आर्मी ऑफिसर बनना"। दूसरे साल के अंत में उसे हौंसला देने वाली अपनी प्यारी दादी का देहांत हो गया। उसका बुलंद हौंसला और काबिल ऑफिसर बनने का लक्ष्य बिच रह में ही बिखर रहा था, वो अंदर ही अंदर टूट रहा था की ग्रांडमास्टर ने सारी परिस्थिति संभाल ली। उसे घर जाने का फरमान दिया गया, पर दादी की उसे काबिल आर्मी ऑफिसर बनाने की इच्छा पूरी करने उनकी अंतिम विधि में भी वो शामिल नहीं रहा और अपनी ट्रेनिंग जारी रखी। 
उस तीन साल की ट्रेनिंग में उसे एक सामान्य सैनिक को दिए जाने वाली तालीम  जिसमे पहले तो एक जवान को जात-पात, धर्म और स्वार्थ से परे रहकर कैसे देश में आने वाली विकट और आपतकालीन परिस्थितियों में साथ सहयोग देना है वो सिखाया गया। सैल्यूट कैसे करना है, शिस्तपालन और अनुशाशन में कैसे रहना है, एक जवान के कपडे कैसे होते है और कैसे पहने जाते है, वर्दी की ईज्जत कैसे की जानी चाहिए, जुलुस और परेड़ की अहमियत के बारेमे अवगत करना वगेरह सिखाया गया। साथ ही साथ सारीरिक क्षमता में बढ़ावा कर फिटनेस संबंधी तालीम भी दी गई। सुबह जल्दी उठना, लंबी दौड़ और ऊंचाई पर रस्सी के बल चढ़ाई, आत्मबचाव और फिटनेस संबंधी कार्यक्रम रोजाना थे।
ट्रेनिंग का पहला पड़ाव ख़त्म हो चूका था। धीरे धीरे उसकी ट्रेनिंग कठोर होने लगी। कसरत एवं क्रिकेट और फुटबॉल जैसे खेल के माध्यम से उसने अपना सरीर पहले से ही एक सैनिक की तरह परिपक्व बना लिया था फिर भी आर्मी की ट्रेनिंग ने उसके छक्के छुड़ा दिए, उतना आशान नहीं होता। 
राइफल कैसे चलाई जाती है, लश्करी शस्त्रो का कैसे उपयोग किया जाता है, समय, संजोग और हालात को ध्यान में रख स्थिति कैसे संभालनी है, सतर्क रहना, युद्ध के दौरान इलाकों को जानना, समजना, इलाक़े में रही चीजों जैसे लकड़ी, पानी, खड़क, पेड़ वगेरह का जरूरियात और बचाव के लिए कैसे इस्तेमाल करना है, दुश्मन पक्ष क्या चाहता है उनकी निति क्या होगी, स्थिति के हिसाब से उनका अगला स्टेप क्या हो सकता है और वो जान दुश्मनो को मार गिरना, घुसपैठ करना, बचाव हेतु रास्ता निकाल भाग छुटना, छोटे छोटे हथियार जैसीकी चाक़ू, पिस्तौल कहा छुपानी है और किस संजोग में उसका उपयोग करना है वो सब दूसरे पड़ाव का हिस्सा था, जो कड़ी लगन और तगड़ी महेनत के साथ उसने पार किया।
तीन साल ख़त्म हुए, इन तीन सालो में वो कभी अपने घर नहीं गया। सरहद पर जाने से पहले उसने १० दिन की छुट्टी ली, जो वो अपने परिवार और ट्यूशन के लड़को के साथ बिताना चाहता था। वो पंजाब के लिए रवाना हुआ। सबसे पहले सुखविन्दर उन लड़को से मिला जो उसके ट्यूशन क्लास में उसके पास निडरता, अन्याय का विरोध करना और भ्रष्टाचार ख़त्म करने के पाठ पढ़ रहे थे। उसे बेहद ख़ुशी हुई जब उसने उन लडको से मुलाकात की, उसने लड़को को रेलवे प्लेटफार्म पर ही बुला लिया था। लड़को ने कमाल कर दिया था, उनके साथ एन्टी करप्शन ब्यूरो जैसी कई संस्थाए थी, जो भ्रष्टाचार मिटाने की राहमें उनका साथ दे रही थी। कई काबिल पुलिस ऑफिसर, इंजीनियरसॅ, कई मीडिया न्यूज़ वाले भी उनके साथ थे और सबसे अधिक उनका ग्रुप बहुत बड़ा हो चूका था जो अलग अलग राज्यो मेंं लोकजागृत्ति अभियान चला रहा था जिससे भ्रष्टाचार हो सके उतना कम हो। उन्होंने वेबसाइट और टोलफ्री नंबर की सहायता से ये काम आसान कर दिया था, जिन लोगो को तकलीफे और समस्याए होती थी वे सभी उनकी वेबसाइट और टोलफ्री नम्बर पर कंप्लेन दर्ज करवाते थे और रंगे हाथ उन अव्यवस्था फ़ैलाने वालो को पकड़ा जाता था। आर्मी में भर्ती होने से पहले चंद लड़को से शुरू किए जाने वाले सुखविन्दर के क्लास ने आज पुरे पंजाब की स्थिति बदल दी थी, यह देख सुखविन्दर काफी खुश था और सबसे अधिक वो तब ख़ुश हुआ जब उसे पता चला की लड़को ने जहा जहा छापा मार है वहा अधिकतम विश्वनाथ का कारोबार चलता था।
सुखविन्दर अपने घर पंहुचा, विश्वनाथ जैल जा चुके थे, माँ की ममता अश्रुओं से छलक उठी जब उन्होंने अपने बेटे को तीन साल के बाद देखा। बहन मीरा ने भाई की पसंदगी की सब्जी बनाई थी। विश्वनाथ के जैल जाने पर उन्हें कोई गम नहीं था बल्कि उससे चौगुनी ख़ुशी सुखविन्दर के घर लौटने पर हुई। सुखविन्दर ने सबसे पहले अपनी प्यारी दादीमाँ के फ़ोटो को प्रणाम किया और रोते हुए उनसे बड़बड़ाने लगा। उसकी ख़ुशी में दादी की नामौजूदगी उसे रुलाए जा रही थी। "जिस व्यक्त्ति की उम्मीद पर हमने सपने देखे हो और उसे पुरे किए हो वो सपने पुरे हो जाने पर उस व्यक्त्ति की अनुपस्थिति जीवन का सबसे बड़ा अफ़सोस निशानी के तोर पर छोड़ देती है।" वो सिर्फ १५ दिनो के लिए आया था, कश्मीर बॉर्डर पर उसे कर्नल की पदवी दी गई थी पर उसने सैनिको के साथ एक जवान की तरह रहने का फैसला किया। 
दोपहर वो विश्वनाथ से मिलने जैल गया।  
विश्वनाथ सुखविन्दर को देखकर: "अब क्या लेने आए हो यहाँ?, जो तुम चाहते थे वो तो हो चुका।"
सुखविन्दर: "जी नहीं, एक बेटा कदापि नहीं चाहेगा की उसका बाप जेल जाए। मैं तो चाहता था की आप ये काले धंधे बंध कर दे और एक अच्छे, ईमानदार नागरिक बन देश सेवा में सहयोग दे। यु भ्रष्टाचार फैलाकर, देश से ग़द्दारी कर आपको जेल होनी ही होनी थी, यह सब आप के कर्मो का ही फल है।"
विश्वनाथ: "तेरे कहने का मतलब यह है की मैं ग़द्दार हु और जो देश की सरकार ने हमसे ग़द्दारी की उसका क्या? तेरे दद्दू एक वीर सिपाही की तरह लगातार देश के लिए लड़ते रहे। मैं और तेरी दादी कैसे है, किस हाल में है वो वे कभी देखने भी नहीं आए। लड़ते लड़ते उन्होंने दोनों पैर गवा दिए और इसी कारण उन्हें नौकरी से इस्तीफा देना पड़ा। जिन्होंने देश सेवा हेतु अपना परिवार पीछे मुड़कर नहीं देखा, उनके अपाहिच होनेपर सरकार ने भी उनके सामने नहीं देखा। पूरस्कारो का कोई मोल नहीं रहा। इस्तीफा देने के बाद कम पेन्सन में घर चलना और मेरी पढाई का बोज़ वे उठा ना सके और खुदको बेबस समझ, हार कर उन्होंने आत्महत्या कर ली। मेरी उम्र करीब १८ साल थी, पैसो की कमी की वजह से सिर्फ ७वीं कक्षा पढ़े मुजे कोइ नौकरी पर रखने को तैयार नहीं था। मैंने कई बार ईमानदारी की राह पर चलने की कोशिश की। लोगो की गड्डियां साफ़ की, ओफ़ीस में टिफ़िन बॉक्स पहुचाए, अखबार भी बेचे, पर हाँसिल हुआ उनका धृतकार, तिरस्कार और गालिया। गड्डियां साफ़ करने के बाद भी फिर से साफ़ करवाते थे, टिफ़िन या अख़बार वक़्त पे नहीं मिले तो कल से मत आना हम दूसरे को बोल देंगे कहकर धृतकारते थे। साला छोटे आदमियोँ की तो कोई इज्जत ही नहीं। तब से सोच लिया, चाहे बेईमानी करनी पड़े पर बड़ा आदमी बनना ही है। इस तिरष्कृत करते हुए लोगो ने मुझे भ्रष्टाचारी और बेईमान बनने पर मजबूर किया, और आज बेईमानी के रस्ते पर चलते हुए भी लोग मेंरी इज्जत करते है तो उनकी मूर्खता का फायदा मेंं अवश्य उठाऊंगा। आखिर एक फौजी की नौकरी से क्या मिला उन्हें?, ना तो चैन की जिंदगी, ना सुकून, ना तो खुद का मकान और ना तो मुझे मेरी पढाई, मिला तो सिर्फ दुःख-दर्द। "
सुखविन्दर: "लोग तुम्हारी इज्ज़त नहीं करते, डरते है तुमसे की कही तुम्हारे विरूद्ध जाने पर तुम उन्हें कुछ कर ना दो। डरपोक प्रजा और उनका भोलापन ही तुम्हारे सबसे बड़े सस्त्र सरंजाम है, उनको डराकर ही तुम अपना धंधा चलाते हो। मेरे 'दद्दू' एक वीर सिपाही थे, खुद की परवाह ना करके भी वे देश के लिए लड़ते रहे। हालाँकि परिस्थितियाँ और हालात इंसान को मजबूर बना देते है, पता है की उन्होंने काफी महेनत की, दर्द सहे, अपने परिवार से बरसो दूर रहे, पर वे अपने देश के प्रति वफादार रहे, कभी कोई गलत काम नहीं किए। वो वीर थे और हमेशा वीर ही रहेंगे।"
विश्वनाथ: "अच्छा तो उन्हों ने अपनी वीरता आत्महत्या से साबित की, ऐसा?, आत्महत्या तो कायर लोग करते है। अपने आप से हार जाने से बड़ी कायरता और क्या हो सकती है, बिच राह मेंं हमें छोड़कर चले जाना ये क्या उनकी बहादुरी थी?, उन्होंने एक बार भी नहीं सोचा की उनके चले जाने के बाद हमारा क्या होगा, कैसे जिएंगे हम? बाप होने के बावजूद मुझे बाप का साया नसीब नहीं हुआ। यह मेंरी सबसे बड़ी बदनसीबी थी और अगर आज मेंं जो कुछ भी कर रहा हु उस सभी के जिम्मेंदार सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे दद्दु ही है, नफरत है मुझे उनसे। देश के लिए लड़ने मेंं भले ही वे कामियाब रहे पर अपने बीवी बच्चे की नजर मेंं वे हमेंशा हारे ही रहेंगे।"
कभी कभी जिंदगी एक अजीबोगरीब मोड़ पर लाकर खड़ी कर देती है। विश्वनाथ भले ही काले धंधे कर रहा था पर वे उनके अतित की ऐसी कई सारी हारी हुई परिस्थितियों का शिकार थे जिसके कारण उन्होंने बईमानी और गैरक़ानूनी रास्ते को पसंद किए। बाप सच्चा देशभक्त और ईमानदार होने के बावजूद कुछ हाँसिल ना हुआ यह बात उसके दिमाग मेंं सुई की तरह रोजाना चुभ रही थी।  विश्वनाथ ने भी तो शुरुआत ईमानदारी से ही की थी, पर मिला क्या?, लोगो की गाली और तिरस्कार!, "बड़ा बेईमान है ज़माना।" साला इमानदारो की ईज्जत नहीं और बेईमानो को इज्जत के साथ नवाज़ा जाता है। 
सुखविन्दर अभी भी विश्वनाथ को समजाते हुए......,
सुखविन्दर: "मैं समझ सकता हु की वे आप के गुन्हेगार थे, पर आप के साथ हुए अन्याय का बदला आप इन भारतवासियोँ से क्यों ले रहे हो, उन्होंने आपका क्या बिगाड़ा है?"
विश्वनाथ: "देश की जनता ने ही मुझे बेईमान और भ्रष्टाचारी बनाया है। मेने सच्चाई और ईमानदारी की रह पर चलने की कोशिशे की थी पर लोगो के तिरस्कार, धृतकार और गालियों ने मुझे बेईमान बनने पर मजबूर किया। अब मुझे इन लोगो से कोई हमदर्दी नहीं है। मुझे बस अपना बिछड़ा हुआ बचपन वसूलना है, ऐसे कई हसिन पल जो मैंने गवाँ दिया वो सबकुछ वसूलना है इन जनता से।"
सुखविन्दर: "आप को हुए अन्याय मेंं इन निर्दोष प्रजा का कोई हाथ नहीं है, दद्दू जैसे ऐसे कई वीर फौजी देश के लिए अलग अलग सरहदों पर अपनी नींद, सुख, चैन, अपना परिवार, अपनी खुशी को न्यौछावर कर दिन-रात, सर्दी, गर्मी, बारिस, बर्फ, जंगल, पर्वत, नदिया, समंदर, के बिच खाने पीने और अपनी जान की परवाह किए बिना देश मेंं अमन बनाए रखने मेंं अपना किमती सहयोग दे रहे है और आखिर तक लड़ते रहते है। कई माँ, बीवी, बेटियाँ, बहन, भाई, पिता उनका इंतेजार करते रहते है और सहिद बन लौटे अपने बेटे, पति, पिता, भाई की लाश को शान से सर उठाकर सलामी ठोकते है और उनसे प्रेरणा लेकर फिर उन जैसा बन फिर देश सेवा मेंं अपनी जान न्यौछावर करने की कसम भी खाते है। ऐसे कई वीर योद्धा जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपना लहू बहा दिया, उनकी कुर्बानी यु ही जाने नहीं देंगे। जी नहीं...... अब देश को भ्रष्टाचार से फिर गुलाम नहीं बनने देंगे, चाहे जो हो जाए, पर देश को भ्रष्टाचार से मुक्त करना ही करना है।"
विश्वनाथ: "जो तू चाहता है वो तो होने वाला है नहीं, जिस भ्रष्टाचार की तू बात कर रहा है वो आज लोगो मेंं भगवान की तरह कण कण मेंं बसा हुआ है। और बिना महेनत के आए भगवान को कोई क्यूँ ऐसे ही जाने देगा। वैसे भी यहाँ आलसी लोगो की संख्या कुछ ज्यादा ही बढ़ चुकी है। रहने दे बच्चे, तुजसे कुछ भी नहीं होने वाला, कुत्ते की दूम कभी सीधी नहीं होती, मुझे जो करना है मेंं करूँगा तू अपना काम कर।"
सुखविन्दर: "पता था, आप समजाने पर भी नहीं समजेंगे, पर आपके गुनाह अब छुपे नहीं रहे, जनता जग चुकी है। मैं चलता हु...दुआ करता हु वाहेगुरु आप की आँखे खोल दे।" सुखविन्दर वहासे चल निकला।
वक़्त फिर आ गया अपनों से बिछड़ने का। कश्मीर की सरहद पर अपनी ड्यूटी निभाने का जिम्मा उठाने का फैसला किए सुखविन्दर को पांचवे दिन ही बुलावा आ गया जिसका कारण था कश्मीर में आई भयानक बाढ़। जा रहे सुखविन्दर को उसकी माँ और बहन ने एक बार फिर अश्रु भीनी आँखों के संग दिलपर पत्थर रख बिदा किया। अब उसका लौटना तय नहीं था क्योंकि बख्त था कुछ कर दिखाने का। पूरी फ़ौज के साथ वो कश्मीर में बाढ़ से लोगो को बचाने के लिए तैनात हो गए। काफी मुश्किल था, बाढ़ में फसे हुए करीब चालीस लोगो को बचाने का उनका मिशन चुनोतियों से भरपूर था। पानी का प्रवाह तेज होता चला जा रहा था, बारिश रुकने का नाम नहीं ले रही थी, उस बिच रस्सी के सहारे बड़े टायर ट्यूब को बांधकर एक एक कर लोगो पूरी ताकत और स्फूर्ति के साथ वायुसेना को समर्पित किया गया। ट्रेनिंग के वक़्त सिखाए गए उन सारे पैंतरों का उसने सही से उपयोग किया। निःस्वार्थ भाव से जात-पात और धर्म से परे किए हुए जवानो द्वारा बचाव ने कश्मीर की जनता के साथ साथ पुरे भारतवर्ष ने सलाम किया। वायुसेना ने भी आर्मीफोर्स का धन्यवाद किया।
बाढ़ की आफत टली और बचाव सफल रहा पर जवानो को आराम का मौक़ा नहीं मिला, क्योंकि बॉर्डर पर रात के तीन बजे यकायक दुश्मन देश ने पास के गांव के लोगो को बेवजह मारना शुरू कर दिया जिसमें बचाव दौरान ४ फौजी भी मारे गए। बाढ़ बचाव में अच्छा प्रदर्शन करने के बाद कर्नल ने सुखविन्दर को मिशन का प्रतिनिधित्व सोंपा। मिशन का सिद्धान्त पिढ़ पीछे वार करना नहीं था पर सामने से वार कर दुश्मन में ऐसा ख़ौफ़ पैदा करना था की दोबारा शांति और अमन के प्रतिक रूप भारत देश को वे दोबारा उग्र बनाने की जुर्रत ना कर सके। प्लान के मुताबिक आतंक फ़ैलाने वाली छे दुश्मनी छावनियों में दो घंटे पहले सूचित कर हमला बोल करीबन डेढ़सो से ज्यादा आतंकियों ख़ात्मा कर दिया गया। जो आतंकियों को करारा जवाब था। 
●धन्यवाद●




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