यह कहानी साधुओं की वास्तविकता और उनकी खोज के बारे में है। लेखक बताता है कि साधू हर जगह नहीं मिलते, जैसे पहाड़ों में माणिक और जंगलों में चंदन के पेड़ नहीं मिलते। साधुओं का अपना कोई घर-बार नहीं होता, और वे रमता-जोगी की तरह किसी भी जगह पाए जा सकते हैं। कई साधू केवल दिखावे के लिए साधू बनने का प्रयास करते हैं और कुछ तो गलत कार्यों में लिप्त होते हैं। साधुओं का राजनीति में शामिल होना और धन कमाना आम बात है, जिससे आश्रमों में भव्यता और ऐशो-आराम का माहौल बन जाता है। लेखक स्वयं एक सच्चे साधू की तलाश में है और वर्षों से जंगलों, पहाड़ों और गुफाओं में भटकता रहा है। वह कई साधुओं से मिलता है, जो उसे बताते हैं कि उसका भला सोचने वाला कोई नहीं है। अंत में, लेखक को एक साधू 'त्रिगुण नाथ शास्त्री' का पता चलता है, जो निरामिष और निराहार जीवन जीने का दावा करता है। कहानी में साधुओं की भक्ति, उनके वास्तविक और दिखावटी रूप, और सच्चे साधू की खोज की गहराई को दर्शाया गया है।
साधू न ही सर्वत्र
sushil yadav द्वारा हिंदी पत्रिका
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विवरण
वे जो साधू होने का स्वांग रचते हैं, विशुद्ध बनिए या याचक के बीच के जीव होते हैं साधू का अपना घर-बार नहीं होता घर नहीं होता इसलिए वे कहीं भी, रमता-जोगी के रोल में पाए जाते हैं ’बार’ नहीं होता इसलिए वे पीने की, अपनी खुद की व्यवस्था पर डिपेंड रहते हैं
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