यह कहानी नंदलालों के समय को व्यंग्यात्मक रूप में प्रस्तुत करती है जब सरकारी दफ्तरों की कमी थी और लोग बेगारी से बचने के लिए इधर-उधर भागते थे। उस समय खुली आज़ादी थी, जिससे लोग आराम से जीवन जीते थे। लेखक इस बात पर चिंता व्यक्त करते हैं कि कैसे बाद में खाकी, खद्दर, टोपी और झंडों ने देश की स्थिति को बिगाड़ दिया। कहानी में नब्बू का एक संवाद है, जिसमें वह बताता है कि आजकल की राजनीति में कोई उत्साह नहीं है। चुनावों में ना तो झगड़े होते हैं और ना ही किसी प्रकार की धांधली। पहले के समय में लोग पैसे लेकर वोट देते थे, लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं होता। नब्बू उस समय की याद दिलाता है जब राजनीति में मस्ती और रंगीनियत थी, जबकि आज सब कुछ सन्नाटे में गुजर रहा है। कहानी एक सटीक व्यंग्य है, जो राजनीति की स्थिति और समाज में आए बदलाव को दर्शाती है।
नन्द लाल छेड़ गयो रे
sushil yadav द्वारा हिंदी पत्रिका
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विवरण
भइय्या जी, बात ये है कि आजकल की राजनीति में दम नहीं है हम रोज अखबार पढ़ते हैं ,आप भी देखे होंगे ....न छीन झपट,न जूतम पैजार .... न किसी के अन्गदिया पैर उखाड़े जाते ,न एक दूसरों की सरे आम वस्त्र उतारने की बात होती सब सन्नाटे में बीत जाता है
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