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Sandukchi

Introduction.

नाम- आशा पाण्डेय
उम्र- ४१
लेखन- कविता, कहानी, लघुकथा। कहानियो के अनुवाद गुजराती से हिंदी, बंगला से हिंदी। कविता और कहानियो में स्वर। हिंदी अख़बार और विशिष्ट पत्र पत्रिकओं में कहानी, लघुकथा और कविताये प्रकाषित।
शीघ्र प्रकाषित: साँझा काव्य संग्रह।

संदूकची
मिस्टर बेनर्जी अपने हाथो में अपना चेहरा पकडे सोच रहे थे कि "इतना भीड़ इतने लोग तो एक साथ मेरे घर में 20 पहले भी नहीं आये थे जब केया...." तभी पीछे से छोटे भाई ने आवाज़ दी"दादा इधर आओ तुम्हारे बीना कोई फैसला कैसे होगा?"|
अपने उम्र से ज़्यादा बूढे हो चूके मिस्टर शुभाशीष बेनर्जी खुद को अपने ही पैरों पर घसीटते चल पड़े बैठक में जहाँ पूरा ख़ानदान ,नए रिश्तेदार और 'वो'थी जिसके लिए ये हलचल ये भीड़ ये सवाल और ये फैसले की घड़ी |
शुभाशीष सोचते जा रहे थे कि "क्या सच मेरे बीना कोई फैसला किसी का रुक सका था जो आज मुझे बुला रहे "।
शुभाशीष जब ड्राइंगरूम में आ कर अपने निर्धारित कुर्सी पे बैठे तो पूरे कमरे में मरघट सी शांति पसर गई,जिसमें उनका दम घुटने लगा।
शुभाशीष ने नज़र उठा कर देखा तो सब उन्हें घूर रहे थे,जैसे 20 साल पहले उनके दो छोटे भाई स्नेहाशीष ,सोंखोशीष उनकी बीवियां मधुरिमा ,अंतरा उनके बेटे,शुभाशीष की 2 बेटियां उनका जमाई ,जमाई का वो दोस्त जो शायेद 2या 4 साल बाद उनके पीहू से ब्याह कर उनका छोटा जमाई बने ।
और 'वो'खड़ी थी सामने चुपचाप सब के आँखों में एक सवाल बन कर जिस पर शुभाशीष को फैसला देना था।
नज़र उठा कर उसे देखा शुभाशीष ने एक पल को और मुस्कुरा दिये,उनकी मुस्कान को सब ने अपनी-अपनी सोच में अपने तरह से सोचा।
वो जो सामने खड़ी थी मन ही मन मुस्कुराई'न भोय नेई ओ आमय आजो भालो बासे'(न डर नहीं अब मुझे वो अब भी मुझे प्यार करते है)|
भाईयों ने एक दूसरे के आँखों में कहा'यही डर था',दोनों की बीवियों ने गुस्से में मुँह बिचकाया।
बड़ी बहु ने छोटी को देख धीरे से कहा 'भीमरोटि'छोटी बहु मुस्कुरा दी,दोनों बेटों ने शर्म से नीचे देखने लगे। बड़ी बेटी अपनी आंसू नहीं रोक पा रही थी ये सोचते हुए'बाबा आज भी?'|
छोटी बेटी पीहू कल शाम से ही बूत बनी बैठी थी ,जमाई समर और उनका दोस्त कुछ समझ नहीं पा रहे थे।
स्नेहाशीष ने चुपी तोड़ी "दादा हँस क्यों रहे हो?इतना बड़ा सवाल आ कर खड़ा है हमारे सामने कल दुनिया को क्या बतायें गे ,कल क्या होगा सोचा है?"एक सांस में कह के ग्लास का पानी उठा लिया |
अब कमान सम्हाली श्रीमती स्नेहाशीष ने 'छीछी छी कि लोज्जा ऎसा किया 20 साल पहले भी और आज फ़ीर वही बात दादा चुप मत रहो कहो कुछ"|
संखोशिश ने कहा "दादा तुम्हारा चुप रहना ही सब मुसीबत की जड़ है ये क्यों नहीं समझते हो ?अब तो बदलो कुछ तो बोलो??|
शोंखोशीष की बीवी ने कहा "रहने दो दादा को मैं ने बचपन से देखा है जब तुम्हारे पड़ोस में रहती थी,तब से अब तक कुछ बोला है दादा ने जो अब बोलेंगे"अब बेटों ने कहा "हम ने तो कहा बाबा को कुछ कहना नहीं है बस आप डिसीज़न लो"
बड़ी बेटी ने कहा "सुन तो ले क्या कहने आई है",
और इन सब में "वो"चुपचाप खड़ी थी|
शुभाशीष ने फिर से गर्दन ऊपर उठाई आँखों पर चश्मा लगया और हाथों को कुर्सी के पर कस्ते हुए उठ गए,बड़े इत्मीनान से चलते हुए गये और फ्रीज से पानी ले जा कर 'उसे ' दियेएक कुर्सी दे कर कहा बैठो |
मुझे आज सच में कुछ कहनहै अपने 68 साल की ज़िन्दगी में जो नहीं कहा वो सब तुम सब से अच्छा है ये भी आ गई और अरुणाभ् भी है ,सब को बता दूँ अपने ज़िन्दगी की हर बात ,'उसे' कुर्सी पर बिठा कर मुड़े और अपने परिवार को देख कर मुस्कुरा कर कहा"हम तो किताब नहीं है ,सो अच्छा है सब डायरी समझ के एक बार में ही पढ़ लो"|
1971 में जब बांग्लादेश बना मैं 29 साल का था हम शरणार्थी बन के कोलकाता आ गए , किसी तरह से ज़िन्दगी सुरु की दो वक़्त केभात के लड़ाई में कूद पड़ा सिलहट(पूर्वी बंगाल)के ज़मींदार परिवार ।
ये जो अंतरा बेठी है न इसके बाबा ने गुदाम में बही-खाता लिखने का काम दिलवाया था,हमारे बाबा को और मुझे एक जूट-मिल में नोकरी याद है तुम्हे अंतरा | हम 3 भाई और माँ -बाबा नई दुनिया में जीना सीख़ रहे थे,इन दोनों भाइयों को कॉलेज में भर्ती
करा दिया था,एक रोज मैं मिल से लौटा तो देखा माँ किसी से बात कर रही थी बसन्त का मौसम था हल्के पीले तात की साड़ी में एक लम्बी चोटी वाली लड़की थी माँ के साथ जिसकी बड़ी बड़ी आखों में मैं पहली बार ही डूब गया ।
वो केया थी माँ के पूर्वी बंगाल के सखी की बेटी वो भी अब सरणर्थि थे ,माँ ने अपनी विधवा सखी और उनकी दो बेटियों को अपने पड़ोस में बुला लिया और बिना मुझ से या केया से पूछे हमारी शादी तय कर दी।
बाबा का अपना ज़िद थे उनका अपना घर जिसके लिए मुझे और बाबा को डबल काम करना पड़ता था ,ये दोनों भाई तब पढ़ाई कर रहे थे
घर बना हमारी शादी हो गई,माँ घर सम्हालती केया ने भी संगीत क्लास सुरु कर दिया था घर पे ही,ज़िन्दगी पटरी पे आ रही थी दोनों भाईयों ने पढ़ाई पूरी कर ली थी इनकी शादी हो गई ,
हम भी दो बच्चों के बाप बन गए और केया माँ|
पर हम केया को कभी नहीं बोल पाया कि 'केया तोमार चोख खूब गोभीर आमी एते डूबे थाकते चाई(केया तुम्हारे आँख बहुत सुन्दर है मैं इनमें डूब जाना चाहता हूँ).
इन दोनों भाईयों की शादी हो गई एक अमेरिका चला गया बड़ा डॉक्टर बनने और एक दिल्ली बड़ा ऑफ़िसर ।
तब तक पापिया भी केया के गोद में आ गई थी,और केया का गाना भी थोडा कम हो गया था हाँ झगड़ा बड़ गया था शिकायत भी और मैं और पैसे कमाने में बिजी हो गया था।
केया का 2,4गाने का रिकॉड आ चूका था तब तक उसका भी नाम होने लगा था कि तभी पता चला केया फ़िर से माँ बनने वाली है ,केया का ज़िद अब और बच्चा नहीं चाहिए पर हम ने कहा ये बच्चा हम पाले गा तब जब केया ने कहा कि "ठीक"तो कहाँ अर्थ समझ आया था हमें।
और पीहू के अन्नप्रासन के दिन केया एक चिट्ठी रख के चला गया ।दोनों बेटों को स्नेहाशीष अमेरिका ले गया मुझ से पूछ कर नहीं बता कर ,और दोनों बेटियों को मैं ने पाला माँ बन कर तब नहीं पूछ पाया हम कि केया तुम क्यों गया पर आज पूछता है तुम 20 साल बाद क्यों आया केया?!!
अपनी बात पूरी कर वो "उसे"घूर रहे थे जो कभी उनकी बीवी थी और आज भी उनके बचो की माँ है ।
केया उठ कर खड़ी हुई मुस्कुराती हुई केया ने कहा "तुमि माँ के भालो खोखा थे,बाबा के भालो बेटे भाईयों के दादा भाई सब भालो तुम फिर भालो बाबा भी तुम|"
फिर जरा रुक के केया ने कहा "पर शुभो तुम मेरे कब हुए?".आधी रात को कुछ पल के मिल्न को जिसमे सिर्फ तन मिलता था मन नहीं" आज से 20 साल पहले और धर्य नहीं बचा था कि गीली लकड़ी सी सुलगती रहूं इस घर के कोने में सो चली गई थी ।
पीहू जो अब तक बूत बानी बैठी थी अब उठ कर मुस्कुराई और अंदर से एक पुरानी संदूकची उठा लाई जिसे सब ने शुभाशीष के कमरे में देखा था उस संदूकची को ला कर पीहू ने केया के सामने उल्ट दिया और अरुणाभ् से कहा "ये सब जान कर भी मुझ से शादी करो गे?"अरुणाभ् ने हां में सर हिलाया और सारे लोग उसके साथ कमरे से चले गये। अब कमरे में बिखरे हुए कुछ पुराने ख़त थे जिनके बीच केया खड़ी थी और शुभाशीष बैठे थे ,एक ख़त हाथ में लिए केया रो रही थी और सोच रही थी इस संदूकची को काश खोल कर देख लेती जब रोज शुभो इसमें कुछ रखते थे"
एक ख़त जो पीहू के जन्म के दो दिन बाद के डेट की थी उसके दो पंकित को पढ़ केया के आँख छलक आई "हारिये जावा नाकचोबिर मोटो खुजे पाव जोडी आमय /फिरिये देबे ना फिरिये नेब आमय(खोये हुए नाक की लौंग की तरह अगर मुझे ढूढ़ लो कहीं /खुद के करीब रखो गी मुझे या खुद से दूर कर दोगी मुझे").
केया रो रही थी कि तभी शुभाशीष ने उठ के सारे चिट्ठी को समेत कर उठ गए और जाते जाते कहा "केया ये अगर मैं ने किया होता तो क्या तुम मुझे अपना लेती??उठो केया अपनी दुनिया में जाओ ,इस युग मैं हो यहीं रहो न तुम अहिल्या न बनो मैं राम नहीं हूँ ".......
केया जैसे आई थी वेसये चली भी गई ,पर क्या सच में चली गई केया???........

निर्जन टापू।

उन् दोनों ने अपने रिश्ते को एक और मौका देने का सोचा। उन्हें लगा शेहेर की भीड़ भाड़ भागमभाग उन्हें एक दूसरे से और दूर कर रही है। उनके मध्य पसरी इस अँधेरी चुप के लिए शायद शेहेर, भीड़ और व्यस्तता ज़िम्मेदार है। सो वे १ हफ्ते की छुट्टी ले कर, फ़ोन, लैपटॉप , बच्चे सब को घर पर रख कर बस कुछ कपडे संग समंदर के इस निर्जाण से टापू पे आ गए जहा न बिजली न कोई भीड़ दूर तक दिखती। सिर्फ समंदर और इक्के दुक्का दीखते लोग।
पर यह क्या! वोह दोनों तो कुछ नहीं लाये थे साथ अपने बैग में, न शिकवा। फिर कैसे यह चुप्पी कब और कैसे साथ आ गयी उनके? कहा छूप कर आई या अब वह एक हिस्सा बन गयी है उन् दोनों के जीवन का?! वो सुबह उठ के निर्जन समंदर के किनारे आ जाती कितना अद्भुत दृश्य होता! अचानक किसी छुपे हुए बच्चे सा लाल मद्धम रौशनी लिए सूरज का समंदर की गोद से उछाल कर निकलना! वो घंटो उस बाल सूरज को तेजवान युवक होते देखते रहती और अचानक बच्चे की याद बच्चो की शरत की तरह उसे घेर लेती अपने आगोश में। और वो धीरे धीरे अपने कॉटेज की ओर मूढ़ जाती। वो अब तक सो रहा है जैसे सदियों की नींद बकाया है और ७ दिन में उसे सो लेना है।
पर क्या वो सचमुच सो रहा है? नहीं वो भी सोच रहा है हर काम इतनी मुस्तैदी के साथ करने वाला, बात बे बात ठहाके लगाने वाला शक्श घर के अन्दर आते ही उसमे से छिटक के कहा रह जाता है? तभी तोह उसे ही ढूंढने को आया है!
पर हाय रे लगता है वो शक्श GMail के password सा खो गया है। उसके अन्दर से कहीं और यहाँ करने को कुछ नहीं। टीवी भी नहीं की मैच देखे या न्यूज़ सुने। एक हफ्ते इस समंदर सी खरी गहरी और दिखती चुप इस औरत से करे यही सोचता वह छूप चाप सोने की कोशिश करता रहा।

बदलाव।
शाम के वक़्त ऑफिस ऐसे निकलते समय रीमा सोच रही थी, "फिरसे भीड़ का हिस्सा बनना होगा बस में। और वो लिजलिजा सा स्पर्श आज फिर उसे परेशान करेगा।" इतने पैसे नहीं की वो रोज टैक्सी करके घर जाए और माँ से शिकायत करने पर माँ कहती हैं, "मामोनी रास्ता का धुल गन्दगी घर में आ के धो लो। नहा लो और भूल जाओ।" पर आज रीमा ने सोच कर रखा है की धोना नहीं धो देना है। बुस्में चढ़ने के साथ ही जैसे की उम्मीद थी वो स्पर्श फिर उसके हाथो पे महसूस हुआ। उसने पलट कर देखा और कहा, "दादा ज़रा हाथ हटा लीजिये।" उस शकश ने दात दिखाते हुए कहा, " क्या करेगा हम क्रिकेट खेलता था तो मेरा हाथ सुनता नहीं है" और ठहाका लगाने लगा। अगले ही पल ठहाके के जगह उस शक्श की छींक गुञ्जि। और वो अपना घुटना पकड़ चिल्लाने लगा, "की यह क्या बद्तामाज्ज़ी है? लात क्यूँ मारा?" रिम ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "क्या करेगा दादा बचपन में हम फुटबॉल खेलता था मेरा पैर मेरा बात नहीं सुनता है।" और मुस्कुराते हुए बस से उतर गयी।

लैंडलाइन।
वो घर की सफाई कर रही थी। अचानक किताबो की अलमारी से एक किताब निचे गिरी। और उसमे से एक पुरानी पर्ची फर्श पर आ गयी। उसे हाथ में ले वो चौक गयी। यह पुराण लैंडलाइन नंबर था। उस पर्ची का सिर थामे वो अतीत में खो गयी। जब वो उसे पढता कम और मारता ज्यादा था। और बात बात पे कहता था, "अरे कुछ पढ़ ले झल्ली यह पढ़ाई ही तेरे काम आएगी। दुनिया को समझने के लिए पढना ज़रूरी है।" उस वक़्त वो मुस्कुरा देती और कहती, "तू पढ़ रहा है न मुझे समझा दीजो।" वो सुनी निगाहों से उसे देखता और कहता, "अरे मैं क्या हमेशा रहूँगा? अब बड़ी हो जा।" पर वो अपनी ज़िद्द पर अड़ी रहती।
वो खुद तो बड़ी नहीं हुई पर घर वालो के लिए बड़ी हो गयी। और उसकी शादी तये कर दी गयी। उस दिन वह बड़े शेहेर चला गया पढने के लिए। उसकी शादी में वो आया और एक लैंडलाइन नंबर उसे दे गया और कहा, "यह मेरा नया नंबर है कभी नहीं बदलूँगा, जब कभी झल्ली बड़ी हो जाये मुझे एक कॉल कर लेना।" ……

पिला स्वेटर।
मैं अप्रैल की एक शाम चथ पर ठहेल रही थी, की अचानक देखा सामने की चथ पर मिस्टर शर्मा पीले रंग में स्वेटर में ठहेल रहे हैं। कोल्कता में दिसम्बर में ठण्ड नहीं पढ़ती तोह अप्रैल की शाम स्वेटर देख कर चौंक गयी। और पूछ बैठी, "भाई साहब सब ठीक है न? इतनी गर्मी में आपने स्वेटर पहना हुआ है?" मिस्टर शर्मा निगाहों से देखा और स्वेटर पर हाथ फेरते हुए कहा, "हा भाभी। आज सीमा का जन्मदिन है।" मैं चौंक गयी। उनकी पत्नी को गुज़रे २ साल हो गए थे। मिस्टर शर्मा जैस खुद ही कहते चले गए, "आप तो जानती ही हैं भाभी उसे बुनाई का शौक था। और मुझे इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसके जीते जी मैंने बनी स्वेटर नहीं पहनी पर वो बुनती ज़रूर थी और कहती थी, 'इन् धागों में मैं भी हूँ।' इस पीले स्वेटर को बुनन कर उसने मुझे चो से दिखाया था और कहा था, 'इसे अलमारी के ऊपर वाले ताक पर रख देती हूँ। जब कभी मेरी याद आये पेहेन लेना।'" और वो मुझे देख कर मुस्कुराने लगे…।

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