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पिंजरा...

बहुत सिफारिश के बाद एक कस्बें में मुझे नौकरी मिल गई तो वहाँ जाकर रहने का मसला पैदा हो गया,इसलिए कुछ दिनों के लिए मैनें एक मंदिर की धर्मशाला में शरण ली,दिनभर दफ्तर में काम-काज करता और सुबह-शाम रहने के लिए कमरा तलाश करता,कमरें भी ऐसी जगह मिलते कि वहाँ रहने लायक ही नहीं था,जैसे कि कहीं बदनाम बस्ती, तो कहीं किराया ज्यादा होता, तो कहीं बिजली और पानी की सुविधा नहीं होती,इसलिए रात को मंदिर की धर्मशाला में चटाई पर पड़ा रहता,एक हफ्ते गुजरे ही थे कि पुजारी जी को मेरी हालत पर तरस आ गया और मंदिर में सुबह शाम आने वाली एक भक्तिन से मेरी सिफारिश की कि वें मुझे उनके घर पर रहने का ठिकाना देदें,इकहरे बदन और साँवले से रंग वाली उस शुष्कमिजाज महिला ने मुझे सिर से पैर तक देखा और फिर मुझसे पूछा....
कितने बच्चे हैं?
"जी!अभी तक शादी नहीं हुई मेरी",मैने कहा...
"चलो अच्छा है,शोर शराबे से तो मेरा जी भी घबराता है",वो बोलीं...
फिर वें पुजारी जी से सख्त लह़जे में बोलीं....
पुजारी जी!आप इन्हें समझा दें, समय पर किराया मिल जाना चाहिए,बिजली का अलग से देना होगा और बाकी हिदायतें मैं बाद में समझा दूँगी और इतना कहकर उन्होंने अपने प्रसाद की टोकरी उठाई और चलीं गईं....
उनके जाने के बाद पुजारी जी मुझसे बोले....
"देखो बेटा!ये हरि देवी थीं,बेचारी विधवा है,शादी के दो महीने के बाद ही इनके पति का स्वर्गवास हो गया था,तब से वो बहुत चुप सी रहने लगी है,जितना किराया उन्होंने बताया उतने कम किराए पर किसी अच्छी जगह कमरा मिलेगा भी नहीं,शरीफ़ो का मुहल्ला है इसलिए एहतियात और जिम्मेदारी के साथ वहाँ रहना,पिछली तरफ लड़कियों का स्कूल है,इसलिए तुम छत पर मत जाया करो,यार दोस्तों को कमरें में जमा करके हुल्लड़बाजी मत करना,रेडियो सुनना हो तो धीमी आवाज़ में सुनना और रात को देर से कमरें में मत लौटना.....
पुजारी जी की बात सुनने पर मैनें हाँ में सिर हिला दिया,लेकिन मन में सोचा इतनी हिदायतों से तो अच्छा है कि इन्सान जेल ना चला जाएँ,फिर भी मैं ख़ामोश रहा क्योंकि मेरा दफ्तर भी उस कमरें से ज्यादा दूर नहीं था और वहाँ से रेलवें स्टेशन और बस अड्डा वगैरह भी पास थे इसलिए मुझे कोई दिक्कत नहीं थीं...
फिर पुजारी जी बोले....
"हरि देवी बहुत अच्छी और सात्विक महिला हैं,बस थोड़ी सख्तमिजाज हैं,अपने काम से मतलब रखतीं हैं,पिछले किराएदार को उन्होंने इसलिए घर से निकाल दिया था कि उसने घर के पीछे बने स्कूल की किसी लड़की को देखकर सीटी बजा दी थी...."
पुजारी जी की बात सुनकर मैनें सोचा,जब लड़कियों का स्कूल होता है तब तो मैं अपने दफ्तर में रहूँगा,इसलिए इसका मुझे डर नहीं है और वैसे भी मुझे इन लफड़ो से बहुत डर लगता है,अब तो नौकरी लगने के बाद घरवाले मेरे लिए रिश्ता तलाशने लगे हैं,तो कुछ दिनों में मेरी नाक में वैसे भी नकेल डलने वाली है और वैसें भी मैं छत पर जाकर क्या करूँगा क्योंकि मैं तो सिगरेट भी नहीं पीता....
फिर अगली सुबह मैं मंदिर के भगवान और पुजारी जी के चरण स्पर्श करके अपना थोड़ा सा सामान ले करके हरि देवी के घर पहुँच गया,पहले तो उन्होंने मुझे पहचानने से इनकार कर दिया लेकिन जब मैनें उनसे पुजारी जी के बारें में कहा तो उन्हें याद आ गया,फिर वें मुझे दरवाजे पर छोड़कर अन्दर चली गई और बाहर वाले कमरें का दरवाजा खोलकर उन्होंने मुझे अन्दर आने को कहा...
मैनें कमरें के भीतर जाकर देखा कि वो कमरा छोटा सा था,छत से बिजली के तार वाला होल्डर खाली लटक रहा था,इसका मतलब था कि मुझे बल्ब का इन्तजाम स्वयं करना था,गली की तरफ खुलने वाली छोटी सी खिड़की थी,बिना किवाड़ों की एक अलमारी थी..
हरि देवी ने मेरा सामान देखा,दरी में लिपटा हुआ बिस्तर,एक पुरानी सी लोहे की संदूक,तीन चार किताबें और एक खटारा सी साइकिल,उनका मेरे सामान को ऐसे देखना मुझे असहज सा कर गया,फिर मैने अपनी जेब से किराया निकाला और उन्हें दे दिया तब वें सख्त लहजे में बोलीं...
" चारपाई का बंदोबस्त कर लेना..."
और इतना कहकर वें चलीं गईं और उन्होंने भीतर से दरवाजा बंद कर लिया,वहाँ अब अँधेरा और सन्नाटा दोनों थे,इसलिए मैनें बाहर जाने का सोचा और कमरें की बाहर से कुण्डी लगाकर चला गया क्योंकि मेरे पास अभी ताला नहीं था,बाजार जाकर ताला और बल्ब दोनों नहीं मिले क्योंकि उस दिन बाजार बंद था,कमरें पहुँचा तो बिलकुल अँधेरा था और बैठने की जगह भी नहीं थी क्योंकि हर जगह मिट्टी ही मिट्टी थी,मैं सोच ही रहा था कि क्या करूँ?कुछ नहीं सूझा इसलिए मैं फिर से बाहर चला गया,रेलवें स्टेशन पहुँचा और कुछ होटल खुले थे,वहीं मैं ने रात का खाना खाया और फिर कुछ देर बाद कमरें लौटा,सब जगह खामोशी छाई थी,मैनें खिड़की खोली तो सड़क में लगे बाहर वाले खम्भे से लटक रहे बड़े से बल्ब की कुछ रोशनी खिड़की के द्वारा कमरें में आ रही थी और मैं सोच रहा था कि बिस्तर कहाँ लगाऊँ? तभी बीच वाला दरवाजा आहिस्ते से खुला और हरिदेवी देहरी पर खड़ी नज़र आईं और गुस्से से बोलीं...
"कमरे का ताला लगाकर क्यों नहीं गए थे"?
"जी!बाजार बंद था,ताला और बल्ब दोनों ही नहीं मिले",मैं ने जवाब दिया...
"आज यहीं जमीन पर सोओगे क्या"? उन्होंने पूछा...
"जी!सो रहूँगा जमीन पर,और कोई रास्ता भी तो नहीं हैं,मैं बोला....
इसके बाद वें कुछ नहीं बोलीं,भीतर चलीं गईं और दूसरे ही क्षण एक झाड़ू और लालटेन लेकर वापस लौटीं और बोलीं...
"ये रही रौशनी और ये रही झाड़ू,कमरा बुहारकर ही बिस्तर बिछाना"....
इतना कहकर वें चलीं गईं और मैने कमरा बुहारकर अपना बिस्तर बिछा लिया और यूँ ही कुछ सोचते सोचते ना जाने कब मुझे नींद आ गई....
दूसरे दिन जब शाम को मैं आँफिस से लौटा तो साथ में एक बल्ब भी लेता आया,मेरे आने के बाद हरि देवी मेरे कमरें की देहरी पर आकर बोलीं...
तुम सुबह नल खुला छोड़ गए थे...."
"जी!गलती हो गई"मैंने कहा...
"ऐसी गलती दोबारा ना हो"वें बोलीं....
"जी!अब से याद रखूँगा"मैनें कहा....
वें जाने लगी लेकिन एकाएक रूककर पीछे मुड़कर बोलीं....
"खाने का क्या करते हो?"
जी!होटल में खा लेता हूँ,मैं बोला....
मेरी बात सुनकर वें फिर कुछ ना बोलीं और चलीं गईं,उनके जाते ही ही मैनें तार से लटक रहे होल्डर पर बल्ब लगाया और हाथ मुँह धोकर,दरवाजे पर ताला लगाकर रेलवें स्टेशन की ओर खाना खाने निकल गया,वापस लौटा तो और जैसे ही ही कमरें के भीतर घुसा ही था तो दन्न से बीच का दरवाजा खुला और वें सख्ते लहजे में बोलीं...
"तुम बल्ब जलता हुआ छोड़कर चले गए थे"
अब मुझसे रहा ना गया और मैनें उनसे कहा....
जी!दारोगा जी!फिर से गलती हो गई....
इतनी लापरवाही अच्छी नहीं,वें बोलीं....
जी!दारोगा जी! अबसे ऐसी लापरवाही ना होगी,मैनें कहा....
वें फिर बिना बोलें वहाँ से चली गईं और ऐसे ही मुझसे रोज कोई ना कोई गलती हो जाती और वें मुझे यूँ ही धमकाकर चलीं जातीं,लेकिन एक दिन हद तो तब हो गई जब मैं अपने एक सहकर्मी को अपने साथ अपने कमरें ले आया,उस दिन शान्ति देवी का गुस्सा सातवें आसमान पर था ,सहकर्मी के जाते ही वें मेरे कमरें की देहरी पर आई और बोलीं....
"तुमसे मना किया था ना कि यहाँ तुम्हारे कोई यार दोस्त नहीं आने चाहिए,लेकिन तुमने आज यहाँ अपने दोस्त को बुला लिया,ये सब मुझे बिल्कुल पसंद नहीं,यहाँ मेरे मनमुताबिक रहना होगा नहीं तो कमरा खाली कर दो....,"
अब मेरा गुस्सा भी काबू में नहीं था,इसलिए मैं भी बोल पड़ा और मैनें उनसे कहा...
"मैं जीता जागता इन्सान हूँ,एक परिन्दे की तरह खुली हवा में उड़ना चाहता हूँ,हँसना चाहता हूँ,जीना चाहता हूँ,साँस लेना चाहता हूँ,आपकी तरह मैं इस चारदीवारी के पिंजरें में कैद नहीं रह सकता,मुझे आपकी तरह लोगों से शुष्क व्यवहार रखना नहीं आता,मैं आपकी तरह चौबीस घण्टे दारोगा जी बनकर लोगों पर हुक्म नहीं चला सकता,ये मेरी जिन्दगी है और इसे अपनी तरह जिऊँगा आपके मनमुताबिक नहीं जिऊँगा......"
मेरा इतना कहने पर भी वें चुपचाप मेरी बात सुनतीं रहीं और मेरे शान्त होने के बाद चुपचाप वहाँ से चली गईं और बीच का दरवाजा बंद हो गया,उनके जाने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मैनें आवेश में आकर उन्हें कुछ ज्यादा ही खरीखोटी सुना दीं ,उनके जाने के बाद मैं गैर मन से उठा और खाना खाने रेलवें स्टेशन की ओर निकल गया,बाहर से लौटा और चुपचाप बिस्तर बिछाकर सो गया,सुबह जागा तो हरि देवी मेरे सामने नहीं आईं,शाम को लौटा तो भी वें मेरे सामने नहीं पड़ीं,तब मुझे लगा कि उन्हें मेरी बात से बहुत ज्यादा दुख पहुँचा है,वें मुझे डाँट नहीं रहीं थीं ,कुछ कह नहीं रहीं थीं तो मुझे अच्छा नहीं लग रहा था,इसलिए मैं जानबूझकर नल खुला छोड़ गया लेकिन जब लौटा तो दारोगा जी ने कोई शिकायत नहीं की ,फिर रात को खाना खाने जब बाहर गया तो तब बल्ब भी जलता हुआ छोड़ गया,लेकिन लौटने पर कोई शिकायत नहीं, लेकिन अब मुझे उनका चुप रहना अच्छा नहीं लग रहा था,ऐसे ही हफ्ता भर बीत गया और उन्होंने मुझे ना तो डाँटा और ना ही बात की....
फिर एक दिन मैं दफ्तर से लौटा तो मेरे बाहर वाले दरवाजे की किसी ने कुण्डी खड़काई ,तब मैनें पूछा...
कौन...कौन है?
तब उधर से आवाज़ आई....
"मैं....दारोगा जी"
मैनें दरवाज़ा खोला तो वें खड़ी थीं और उनके पीछे एक आदमी एक चारपाई लेकर खड़ा था,उन्होंने उस आदमी से चारपाई को मेरे कमरें में डालने को कहा और उसे रूपए दिए ,रूपए लेकर वो चला गया,तब वें मुझसे बोलीं....
चौमासा चल रहा है,जमीन पर लेटना ठीक नहीं,कीड़े मकोड़ो का डर रहता है,इतना कहकर वें जाने लगी तो उन्हें कुछ याद आया और वें पुनः बोलीं....
एतराज़ ना हो आज मेरी रसोई में खाना खाने आ जाना...
फिर वें कुछ ना बोलीं और चलीं गईं,कुछ देर बाद मैं हाथ मुँह धोकर उनके यहाँ पहुँचा और मैनें आवाज़ दी...
"दारोगा जी!कहाँ हैं आप?"
"सीधे चलो आओ यहाँ,रसोई की ओर",वें बोलीं....
और मैं चला गया,वें चूल्हे के पास बैठीं पूरियाँ बेल रहीं थीं,चूल्हें से उठतीं रौशनी उनके चेहरे पर पड़ रही थी और उस रौशनी में वें किसी देवी के समान लग रहीं थीं,उन्होंने अपने सामने बिछे आसन पर मुझे बैठने को कहा और मैं बैठ गया,तब उन्होंने पीतल की एक थाली में दो कटोरियाँ रखीं और खाना परोसने लगी,एक कटोरी में उन्होंने आलू की मसालेदार तरी वाली सब्जी परोसी,दूसरी में खीर परोसी और कटोरियों के बगल में आम का अचार रखकर ,चार पूरियाँ तलकर मेरी थाली में रख दीं और मुझसे बोलीं....
"खाओ"
मैं चुपचाप खाने लगा तब वें मुझसे बोलीं....
"तुम्हें पता है जब मैं इस घर में ब्याहकर आई थी तो मैं सोलह बरस की थी और शादी के दो महीने बाद ही विधवा हो गई,पति के जाने के बाद मेरी विधवा सास पाँच बरस तक जिन्दा रहीं,मैं तब तक उनकी सेवा करती रही,उनके जाने के बाद मैं बिल्कुल अकेली पड़ गई,मेरे माँ बाप भी जिन्दा नहीं थें,चाचा चाची थे जिन्होंने मुझे पालपोस कर बड़ा किया था और मेरा ब्याह करके मुझसे छुटकारा पा लिया था,मेरा एक चचेरा भाई था,जो मुझे बहुत चाहता था,तुम्हें देखकर मुझे उसकी याद आ गई,तुम्हें देखकर कहीं भावुक ना हो जाऊँ इसलिए तुम्हें डाँट देती थी,केवल अपना भाई समझकर,आज मेरा जन्मदिन था कोई मेरे साथ मेरा जन्मदिन मनाने वाला नहीं था,इसलिए सोचा क्यों ना अपने भाई के साथ अपना जन्मदिन मना लूँ,तुम्हारी बातों ने उस दिन मेरा मन झकझोर दिया,सच में मैनें एक दायरा खीच रखा है अपने चारों ओर,मैं खुद इस पिंजरे से आजाद होना नहीं चाहती,विधवा हूँ तो क्या हुआ?जीने का हक़ तो मुझे भी ,इसलिए आज मैं अपना पिंजरा तोड़कर उस पिंजरें से बाहर निकल आई और इतने सालों बाद अपना जन्मदिन तुम्हारे साथ मनाने का सोचा,अच्छा लग रहा है अपने साथ जीकर,अपनी खुशियों में शामिल होकर"
हाँ!दारोगा जी!मैं यही तो चाहता था,मैनें उनसे कहा....
शुक्रिया!तुम्हारा,मुझसे मुझी को मिलाने के लिए,वें बोलीं....
और फिर उस दिन के बाद उनका शुष्क व्यवहार नर्म होता चला गया,उन्होंने अपने उस पिंजरें को तोड़कर खुश रहना शुरू कर दिया था.....

समाप्त.....
सरोज वर्मा.....


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