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तीजा

डॉक्टर समीर:

मैं मानस चिकत्सक डॉक्टर समीर। यह मेरा असली नाम नहीं हैं। इस कहानी में सारे नाम काल्पनिक हैं। क्योंकि पेशंट का नाम बताना इथिक्स के खिलाफ़ है। इसलिए तो मैं दुविधा में फँस गया हूँ। मुझे आपका मशवरा चाहिए। नाम बदलकर मैं सारी हक़ीक़त आपको सुनाता हूँ। जी हाँ, हक़ीक़त कोई कहानी या अफ़साना नहीं।

प्रोफेसल माहोरकर की बीवी, साधना, उन्हें मेरे क्लिनीक ले आई थी। माहोरकर के चेहरे पर दिखनेवाली शांती दिखाऊ है, यह बात उनके सिकूडकर बैठने के ढंग से उजागर होती थी। हमारी बातें सुनने के लिए उन्हें ऐसे कष्ट हो रहा था जैसे किसी कोलाहल में दबी आवाज सुनने का यत्न कर रहे हो। साधना उनके बिमारी के बारे में बता रही थी।

साधना जी उम्र में उनसे कुछ ज्यादा ही जवान थी। उनके जैसे अधेड़ उम्र के इंसान की खूबसूरत और जवान बीवी देखकर मेरे मन में जलन सी हो रही थी।

“उन्हें हमेशा किसीकी आपस में बोलने की आवाजें सुनाई देती हैं।” साधना ने उनकी समस्या बताई।

“आपको किसकी आवाज सुनाई देती है, मिस्टर माहोरकर?”

दो बार पूछा तब वे समझे मैं उन्हींसे बातकर रहा हूँ।तीसरी बार वही सवाल दोहराया तब वे हथेलियाँ मलकर टेबल क्लाथ की ओर देखते चुप-चाप बैठे रहे।

शायद बीवी के सामने खुलकर बोलने से उन्हें संकोच हो रहा था। इसलिए मैंने साधना जी को केबीन के बाहर भेज दिया। उनके जाने के बाद मैं उठकर माहोरकर के पास गया। उनके कंधे पर हाथ रखकर कहा,

“मिस्टर माहोरकर, मैं आपका दोस्त हूँ। आपका सहयोग होगा तभी मैं आपकी मदद कर सकुँगा। बेझिझक़ कहिए, आपको क्या तकलिफ़ है।”

वे कुछ नही बोले तब मैंने कहा,

“निश्चिंत होकर कहिए। यहाँ की बात किसी तीसरे व्यक्ति को मालूम नहीं होगी। यहाँ तक के तुम्हारे बीवी को भी पता नहीं चलेगा। देखिए, अगर आपने कुछ बताया नहीं तो मैं आपकी ट्रिटमेंट कैसी कर पाऊँगा? बताओ, आपको कैसी आवाजें सुनाई देती हैं?”

“उँची आवाज में बात करने की।”

“ किसकी?”

“ बसंती की,गुणवंत की।”

“कौन है वे?”

उन्होंने चुप्पी साध ली। वे ऐसे ही बोलते-बोलते चुप हो जाते हैं। फिर कई कोशिशों के बाद मौन तोड़ देते हैं।

उपर लिखे चार शब्द बोलने के लिए चार सेशन लेने पड़े थे। उनके साथ बीताए कई सेशन में- असंबद्ध तुकड़ों में- जो हक़ीक़त सामने आई वह मैं आपके सामने रखता हूँ।

माहोरकर की हक़ीक़त :

मेरा नाम इतिहास संशोधन के कार्य में बड़े आदर से लिया जाता हैं। इतना नाम कमाने में बरसों अथक परिश्रम लेने पड़तें हैं। फलस्वरूप आज मेरे नाम के साथ एक ग्लैमर जुड़ा हुआ हैं।

अगर आप मुझे अपने बारे में पूछेंगे तो मैं विनम्रता से इतना ही कहूँगा कि मैं एक इतिहास का अभ्यासी हूँ। कई सालों से अभ्यास के कारण मेरा ज्ञान आपसे ज्यादा हो सकता हैं। एक ही काम सतत इतने साल करने के बाद आदमी अपने विषय में प्रवीण हो ही जाएगा। और मैं तो रात दिन इसी विषय के अभ्यास में डूबा रहता हूँ। उसका कारण आपको तो पता है।

नहीं? नही से क्या मतलब है आपका? उसकी वजह है, बसंती। बसंती के बारे में मैंने आपको बताया था न? नहीं? ऐसा कैसे हो सकता है? बसंती के बारे में कहना मैं कैसे भूल सकता हूँ? हाँ, हो सकता हैं, तुम्हें याद न आ रहा हो। ठीक है, तुम चाहो तो मैं फिर से तुम्हें बताता हूँ। लेकिन यह अंतिम बार। क्या है, उसकी याद से ही मुझे असहनीय पीड़ा होती हैं।

मुझे नौकरी मिलने के बाद घरवालों ने शादी की बात छेड़ दी। बसंती मुझे पहली नज़र में भा गई। ना कहनें की कोई बात ही नहीं थी। मँगनी के बाद हम प्यार भरें ख़त लिखने लगे। आज भी मैंने सँभलकर रखे हैं।

एक दिन अचानक बसंती के पिताजी मिलने आएं। उनका आग्रह था कि जल्दी से यह शादी हो जाए। मेरे पितीजी के बार बार वजह पूछने पर उन्होंने बताया, बसंती के कॉलेज में कोई लड़का है जो शादी के लिए बसंती के पीछे पड़ा हैं। लड़का मवाली हैं। वह बसंती के साथ कुछ भी कर सकता है। हम लड़की के साथ हर जगह थोड़े ही जा सकते हैं? पुलिस में जाओ तो अपनी ही बदनामी होगी। लड़की के दिल में उसके बारे में कुछ भी नहीं है। वह मासूम हैं।

उनकी बात सुनने के बाद पिताजी ने ‘सोचते है, घरवालों से बात करनी पड़ेगी’ कहकर उन्हें बिदा किया।

सुनकर माताजी ड़र गई। उनके मन में कई आशांकाए उभरने लगी। अगर शादी के बाद भी उस मवाली ने बसंती का पीछा नहीं छोड़ा तो? अगर उसने मुझे कुछ किया तो? तोड़ दो यह शादी माँ ने स्पष्ट कहा, ‘ ऐसी लक्ष्मी क्या काम की जो बवंडर साथ लेकर आती हो।’

पिताजी निर्णय नहीं कर पा रहें थे। अब तक उन्होने सादगी भरा जीवन गुजारा था।

दरमियान हमारी फोन पर बातें हुई। बसंती ने क़सम खाकर कहा उसका उस लड़के के साथ कोई संबंध नहीं हैं। उसका प्यार एक तरफ़ा हैं। लड़के के लिए बसंती के दिल में कोई जगह नहीं है। उल्टा वह उससे नफ़रत करती है।

‘ हमारे पीछे कोई जवान पुरुष नहीं है इसलिए वह बेहयाई करता हैं। आप आकर उसे एक बार घुड़की दो,अभी मेरा पीछा छोड़ देगा।

हमारे मिडलक्लास मानसिकता के कारण हम किसी को धौंस दिखाना, मारपीट करना भूल गए हैं। हक़ की लड़ाई भी हम ‘जाने दो’ कहकर छोड़ देते हैं। हमारे इस बिहेवीअर के कारण ऐसे लोगों का मनोधैर्य बढ़ता हैं। वहाँ जाकर उससे झगड़ा मोल लेनेवाली बात मुझे पसंद नहीं आई। लेकिन हमने तुरंत शादी रचाने का निश्चय कर लिया।

शादी के लिए बस हफ्ता ही बाकी था, तब उनके पिताजी का फोन आया। वे रो रहे थे। कह रहे थे,

‘बसंती जब रास्ते से गुज़र रही थी तो अचानक कहीं से आकर उस मवाली ने उसके चेहरे पर अँसिड फेंका। उसे अस्पताल में भर्ती करवाया हैं। आठ दिन में शादी नहीं हो सकती।’

दिल पर पत्थर रखकर मैं बसंती को मिलने अस्पताल गया। उसके पिताजी मुझे बार-बार मना कर रहे थे। हाथ जोड़कर कहा, ‘ मत जाओ। आप उसे देख नहीं पाओगे। आपका उसे यूँ देखना बसंती को दुखीकर देगा।’ लेकिन उसे मिलें बगैर लौटना मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। सारा धैर्य इकठ्ठा करके मैं उसे मिलने अस्पताल गया। उसकी सूरत देखकर, हाँलाकी मैं पहले से ही जानता था, मैं अपनी प्रतिक्रिया छुपाने में कामियाब नहीं हुआ। यह बात मुझे उसके घायल नजरों ने बताई। चेहरे पर चादर ओढ़कर उसने अपनी निराशा छुपा ली।

शायद मेरे प्रतिक्रिया ने उसके जीने की आख़री उम्मीद पर पानी फेर दिया। उसने चुनरी से फाँसी लगवाकर आत्महत्या कर ली।

बसंती के जाने के बाद शादी का विषय मेरे जीवन में बेमतलब हो गया। मैं अपने आप को उसके मौत का जिम्मेदार समझने लगा। अगर मैं उसी समय उस नालायक लड़के को मिलकर सबक सीखाता था तो आज बसंती जिन्दा होती।

काश मैं उसे मिलने अस्पताल न गया होता। गया भी था तो अपने भावना को काबू में रखना चाहिए था। मैं अपने आप को कोसता रहा। इस अपराधी भावना से पीछा छुड़ाने के लिए मैं काम में व्यस्त रहने लगा।

साधना का मेरे ऑफिस ज्वाईन करना मुझे पसंद नही था। कुछ भी कह लें, पुरुषों के साथ जिस तरह से खुलकर काम कर सकते उतना फ्री हम औरतों के साथ नहीं कर सकते। आप धुम्रपान नहीं कर सकते। देर तक नहीं बैठ सकते। कई बंधन आते हैं।

लेकिन साधना ने मेरे सारे पूर्व-ग्रह बदल दिए। उसे इतिहास संशोधन में रुचि होने के कारण हमारे संस्था के संशोधन में कई उपक्रमों में उसने हिस्सा लिया था। इस विषय पर उसका अभ्यास काफी गहरा था। उसके पती की पचास करोड टर्नओव्हर की कंस्ट्रक्शन कंपनी थी। एक विचित्र दुर्घटना में उनकी मौत हुई थी। उस आघात से वह सँभल गई लेकिन जीवन में सूनापन आया था। उस दुख से उभारने के लिए हमारी संस्था ने- उनके पती ने समय समय पर जो डोनेशन दिया था उसे मध्य नज़र रखकर- उसे जॉब ऑफर किया और उसने मेरी असिस्टंट के रुप में ज्वाईन किया।

मेरे साथ काम करने वालों को हँसने का मौका कम मिलता है। मुझे लतीफ़ा पसंद नहीं। एक बार मेरा हम उम्र प्रोफेसर दोस्त मिलने आया। कोई विनोदी बात हुई और हम हँस पड़े। इतने जोर से हँसते देखकर मेरे सबऑर्डिनेट क्या सोचेंगे यह सोचकर मैंने तीरछी नजरों से साधना की ओर देखा।

वह खिड़की के पास खड़ी थी। वे जता रही थी कि हमारे बातों पर उसका ध्यान नहीं है, फिर भी उसने हमारी बात सुन ली थी। हँसी छुपाने के का असफल कोशिश कर रही थी। उसी क्षण मुझे उसके सौंदर्य का एहसास हुआ। पहली बार मैंने महसूस किया वह केवल मेरी सहायक ही नही बल्कि एक सुंदर स्त्री भी हैं। और मेरे मस्तिष्क ने यह भी निष्कर्ष दिया कि हँसी उसके चेहरे पर खिलती हैं!

उस दिन से मानो मुझ पर उसे हँसाने का जुनून सवार हो गया। छोटी छोटी बातों में मज़ाक करके मैं हँसने लगा। कभी तो मुझे लगता मैं मसखरा बन गया हूँ। लेकिन मज़ा आ रहा था। उसके साथ रहकर मैं उस क्षणों को पकड़ने कोशिश कर रहा था जो मैंने अपनी जवानी में खो दिए थे।

साथ में काम करते करते आदमी करीब आते है। हम दोनों अकेले थे। दिनभर का लंबा समय साथ गुज़ारते थे। अनजाने में हम करीब़ आते गए। जब हमें पता चला हम एक दूसरें से प्यार करने लगे तब बीना समय गवाँए हमने शादी कर ली।

हमारी शादी से किसे को अचरज हुआ; किसे चुभ गई। चुभ इसलिए गई कि साधना बहुत ही सुंदर हैं। और अचरज इसलिए हुआ कि उसने मुझसे- अपनी उम्र से पंद्रह साल बड़े आदमी से शादी कर ली थी। मेरे नजदिकी बहुत कम लोग है, उन्हें खुशी हुई। साधना को देखकर वे मुझे कहते, सब्र का फल मिठा होता हैं। उनकी यूँ चुटकी लेना मुझे भी भा जाती थी। मुझे लगता था इतनी देर से शादी करके मैंने गृहस्थी जीवन का मज़ा गवाँया। लेकिन देरी से शादी की इसलिए तो साधना से मैं शादी कर सका था।

अधेड़ उम्र में मिली बीवी और संतान इंसान विशेष रूप से संभालता है। दिन रात मेरे मन में साधना का ही खयाल रहने लगा था। ऐसे में एक दिन मुझे गुणवंत मिला। ( गुणवंत का नाम लेते समय उनके शरीर में कंपकपी दौड़ी थी।)

गुणवंत एल आय सी एजन्ट था। दुबले शरीर का होने के वजह से कुछ ज्यादा ही ऊँचा लगता था। ऑंखो में गहरी उदासी छाई थी। लगता था जिंदगी ने उसके साथ काफ़ी कठोरता बरती थी। वह जब भी हँसता, हँसी उसको होंठो पर ही खत्म होती। उसके ऑंखो तक न पहुँच पाती। यही कारण था शायद उसकी हँसी बनावटी लगती थी। उसके कपड़े साधारण थे। लगता था उसने तीन दिन से कपड़े नहीं बदले थे। जुतों को आख़री बार कब पॉलिश की थी उसे भी याद न होगा।

छुट्टी के दिन मैं अपने दोस्त के घर गया तब वह पहले से ही वहाँ मौजूद था। मेरे दोस्त ने हमारी पहचान करवाई। वह पॉलिसी बेचनें आया था। जब तक मैं अकेले जिंदगी जी रहा था तब तक मैंने इंशुरन्स के बारे में कभी सोचा नहीं था। लेकिन अब मेरे पीछे मेरी पत्नी थी। उसने कभी नहीं कहा था कि मैंने इंशुरन्स करवा लेना चाहिए। एजंट को देखकर मुझे याद आया, यूँ ही बातों बातो में साधना ने कभी कहा था, ‘इंशुरन्स पीछे रहने वालों के लिए एक वरदान हैं।’ वैसे उसे मेरे पैसों की जरुरत नहीं थी। उसके पती ने ढेर सारी संपत्ती उसे मिली थी। मैंने सोचा पती होने के नाते मेरा भी कोई फर्ज़ बनता हैं। इसलिए मैंने गुणवंत को कभी घर आने को कहा।

मेरे कहने पर वह अच्छे एल आय सी एजंट की तरह तुरंत आने को तैयार हुआ। उसने कहा,

“इनका काम बस हो गया। आप अगर सीधे घर जाते है तो मैं रुकता हूँ। मेरे पास स्कुटर हैं, हम साथ चलेंगे।”

घर मे प्रवेश करते समय मैंने सामने खड़ी पुरानी, सेकंड हँड स्कुटर देखी थी। मेरा जवाब न पाकर वह बोला,

“कोई बात नहीं। आप अगर बिझी हो तो मैं बाद में आऊँगा।”

मैं सोच रहा था, कल से फिर काम में व्यस्त हो जाऊँगा। एक बार काम में सीर डाल दिया तो फिर यह काम पीछे रह जाएगा। मेरे मित्र ने भी यही सलाह दी। शुभस्य शीघ्रम। गुणवंत अपना आदमी हैं, उसे भी बिझनेस मिल जाएगा।

मुझे मित्र की बात जँची। इसलिए मैं गुणवंत को अपने घर ले गया।

वही मेरी पहली ग़लती थी। काश, मैं उसे घर नहीं ले जाता!

गुणवंत को देखकर साधना का हाथ सीने पर गया और उसके मुँह से ‘हाय!’ निकली। देर तक उसका मुँह खुला ही रहा। आँखे बड़ी हुई। वह बुत बनकर खड़ी थी।

गुणवंत के हालात कुछ अलग नहीं थे। द्वार खुला समझकर जाएं और काँच से टकराएं ऐसी उसकी हालात हुई थी। साधना की ओर उँगली उठाकर उसके मुँह से केवल एक ही शब्द निकला, तुम! उसके होंठ भी गोल बनकर रह गए।

अवाक् होकर मैं दोनों की ओर देखता रहा।

तीनों एक साथ होश में आए।

“क्या आप एक दूसरें को पहचानते हो?” मैंने पूछा

साधना ने गरदन हिलाई।

गुणवंत ने कहा, “हाँ, हम एक ही कॉलेज में पढ़ते थे।”

“यूँ अचानक मिलकर आपको अचरज हुआ होगा नही?” मैं माहोल नार्मल करना चाहता था। लेकिन उसका कोई परिणाम हुआ। उनके बीच तणाव बरक़रार रहा। वे आपस में नज़रे चुरा रहे थे।

लगता था उनके बीच गत जीवन में कोई उलझन रही होगी। ऐसा कुछ जिसे उन्होंने मन के, यादों के तह में गाढ़ रखा था। आज अचानक उभरकर सतह पर आया। वे उसे न टाल पा रहें थे ना उसका सामनाकर पा रहे थे। साधना की अवस्था मुझ से देखी नहीं जा रही थी। पर क्या करता, जिसे मैंने खुद घर बुलाया उसे जाने के लिए कैसे कह सकता था?

“ साधना, यह एल. आय. सी. एजन्ट हैं। मेरे मित्र के घर हमारा परिचय हुआ। उन्होंने कहा एकाध पॉलिसी निकालो, तो घर ले आया। चलो, इसी बहाने आपकी मुलाक़ात तो हुई।”

मेरी बात पर दोनों कुछ बोले नहीं।

“ आप चाय लेंगे मिस्टर गुणवंत?’ मैंने सोचा, चाय के लिए साधना किचन में चली गई तो शायद वह खुलकर बात कर पाएगा। साधना को भी सँभलने का समय मिलेगा।

“ नहीं।धन्यवाद। चलो, काम की बात करते हैं” अलिप्त भाव से वह बोला। अब उसे मेरे पालिसी में रुचि नहीं रही थी।

“अभी हमने पॉलिसी के बारे में कुछ सोचा नहीं।” साधना ने उसे तोड़ ही दिया। उसके चेहरे पर कोई बदलाव नहीं आया। शायद उसे यही अपेक्षा थी। साधना की बात सुनकर वह उठ खड़ा हुआ।

“ ओ के सर, आपका ज्यादा समय नहीं लुँगा। मुझे भी और बहुत जगह जाना हैं। जैसे आपका विचार पक्का होगा मुझे बताईए। चलो, इस बहाने आपसे परिचय हुआ,साधना से मुलाक़ात हुई। अच्छा लगा।” वह किसी सेल्समन की तरह भावनाहीन शब्दों में बोल रहा था।

“एक मिनट,” अपनी जगह से उठकर मैंने कहा, “रुकिए, मैं आपको छोड़ आऊँ।”

उसने मना करने पर भी मैं उसके साथ निकल पड़ा।

घर आए मेहमान को ऐसा ही जाने देना मेरे जैसे घर-गृहस्थी वाले मन को बेचैन कर रहा था। उन दोनों के बीच में क्या हुआ था इसका पता तो मुझे साधना से चल जाता लेकिन एक बार गुणवंत के चले जाने के बाद उसका पक्ष मुझे कभी मालूम नही होता। उसे छोडने के बहाने मैं उसे एक रेस्टारां में ले गया। चाय ऑर्डर करने के बाद मैंने उससे सीधा सवाल किया। बातें इतनी साफ नज़र आती थी कि कुछ छुपाने की गुंजाईश ही नहीं थी।

गुणवंत ने माहोरकर को बताई हकिकत:

हम दोनों एक ही कॉलेज में पढ़ते थे। हमारा कॉमन ग्रुप था और हम घुल मिल गए थे। हमारे मन में मित्रों के प्रति विश्वास था। इसलिए कभी ग़लती से मर्यादा भंग हुआ तो भी कोई बुरा नहीं मानता था। खास कर लडकियाँ। लेकिन कितना भी हेल्दी रिलेशन कहो, स्त्री पुरुष में फर्क़ तो पड़ता है। जैसे हम पास आते गए मैं उसकी ओर आकर्षीत होता गया था। वह मेरे बारे में क्या सोचती थी, इसका मुझे कोई अंदाजा नहीं था।

दोस्त होने के नाते वह बेतकल्लुफी से मुझसे बातें करती थी। मैं उसकी बातों का अपने ढंग से मतलब निकालता था। एक दिन मैंने अपने दिल की बात उसे बताई। उत्तर देने के बजाए वह चुपचाप वहाँ से चली गई। आठ दिनों तक उसने मुझसे एक शब्द भी बात नहीं की। मुझसे यह सहा नही गया। मैंने उससे माफ़ी माँग ली। ‘अब हम एक अच्छे दोस्त की तरह रहेंगे’ मैंने उसे आश्वस्त किया।

‘चलो होता है’ कहकर वह भी पहले जैसी रहने लगी। फिर भी हमारे मन पहले जैसे साफ़ नहीं रहे थे। मन में कस़र बाक़ी थी। कोई सीधी बात भी की तो ऐसा लगता था उसका कोई गर्भित अर्थ होगा। दिन ब दिन हमारे बीच दूरियॉं बढ़ती गई। अब मैं बहाने बनाकर ग्रुप को टालने लगा था। यह बात जब उसके ध्यान में आई तब उसने बताया,

‘पिताजी गुजरने के बाद माँ ने उसे बड़ा किया। उसे पिता जी की कमी कभी महसूस न होने दी। इसलिए मैं ऐसा कोई निर्णय नहीं करुँगी जिससे मेरी माँ को ठेंस पहुँचे। इसलिए प्यार-व्यार के चक्कर में फँसकर ऐसा कदम क्यों उठाना जिससे भविष्य में मुझे पछताना पड़ें।’

मैं उसके विचारों से प्रभावित हुआ। फिर से पहले जैसे व्यवहार करने की कोशिश करने लगा। कहते है, इश्क बड़ी कमीनी चीज़ है। साधना के विचारों पर मैं काबू नहीं रख सकता था। हमेशा यही सोचते रहता कि उसे कैसे अपनाऊँ? क्या करुँ के साधना मेरी होगी? यकायक मुझे जवाब मिला। कितना पागल हूँ मैं! साधना ने स्वयं ही रास्ता दिखाया था। वह उसके माता जी के मर्जी के विरुद्ध कुछ नहीं करेगी। अगर उसकी माता जी इज़ाज़त देती हैं तो साधना को क्या एतराज़ हो सकती हैं?

गुणवंत के चेहरे पर उदास मुस्कान आई। अपने विचारों का खोखला पन उसे महसूस हुआ। वह जिस तन्मयता से बयान कर रहा था, लगता आज भी उसे वह सारी बातें साफ नज़र आ रही थी।

वह आगे बोलने लगा,

“ वह उम्र, सोचना कम और करना ज्यादा, ऐसी थी। दिल में खयाल आते ही मैं सायकिल निकालकर उसके घर चल पड़ा।

वह शाम आज भी मुझे याद हैं। आसमान पर बादल छाए हुए थे। पता नहीं कब बारिश शुरु होगी? हवा तो इतनी तेज़ चल रही थी मुझे सायकिल चलाना मुश्किल हो रहा था। फिर भी मैं कौन से जुनून में उसके घर की ओर चला जा रहा था।

जैसे ही घर के फाटक तक पहुँचा, फाटक खोलकर साधना स्कुटी लेकर जल्दी में कहीं निकल गई। मुझे देखकर वह रुकी नहीं, उल्टा ऐसा दिखाया जैसे उसने मुझे देखा ही नहीं। उसके तेवर कुछ बिगड़े हुए थे।

इतने में दरवाजा खोलकर उसकी माताजी बाहर आई। जिस तरह से उन्होंने व्दार खोला था उसे देखकर लगा दोनों के बीच कुछ नाट्यमय संघर्ष हुआ था। मैं कशमकश में बाहर ही खड़ा रहा। मुझे देखते उन्होंने अपने आप को संभाला और कहा,

“चली गई क्या वह पगली? इस ऑंधी में, बारिश होने वाली हैं। जिद्दी लड़की। तू क्यो बाहर खड़ा हैं? अंदर आओ। उसे मिलने आया था ना?”

“ नहीं।मैं यूँ ही आया था। फिर कभी आऊँगा।”

“आ भी जा।इतनी दूर से आ रहा हैं। पानी तो पी।”

शायद इस समय उन्हें किसीके सहारे की जरुरत महसूस हो रही थी। साधना अगर जल्दी लौटकर न आई तो उसे को ढुँढने के लिए भेजना पड़ सकता था। या हो सकता है, मुझे दरवाजे से लौटाना उन्हें अच्छा न लगा हो। जो भी हैं, उन्होंने मुझे अंदर बुला लिया।

“ ऐसे मौसम में वह अकेली कहाँ गई?” मैंने पूछा

“मूर्ख हैं। तुम बच्चों को कुछ समझता नहीं। माँ-बाप आपको बेवकूफ़ लगते हैं। आपको आझादी मिली इसका मतलब उसका नाजायज़ फायदा उठाना नहीं होता।” गुस्से पर काबू पाकर वे बोली।

मैं क्या जवाब देता? मैंने चुप्पी साध ली। वही आगे कहने लगी,

“ यह संकल्प बड़ा छुपा रुस्तम निकला। दिखने में बड़ा सभ्य लगता हैं।”

“ क्या किया उसने काकी?” मैंने सावधानी से पूछा

मुझे लगा हमारी किसी शरारत का उन्हे पता चल गया होगा।

“ तू तो हमेशा घर आता है ना? कभी बताया नहीं मुझे। मुझे तुम से यह उम्मीद नहीं थी।”

मैं दिल में घबड़ा गया। साधना ने मेरी शिकायत तो नहीं की थी? संकल्प से बात मुझ पर आई थी।

“ क्या हुआ काकी?”

“ पगला गई हैं। उससे शादी करना चाहती हैं।”

“ क्या!” मैं कुर्सी पर उछल पड़ा।

मेरे दिमाग़ में विचार आया, लडकियाँ बड़ी चतुर होती हैं। दोस्ती किसी से भी कर लेगी लेकिन पती चुनते समय दुनियादारी भूलती नहीं। उसे मेरे जैसा नेक मध्यमवर्गी लड़का पसंद नही आया। उसे बिल्डर का बिगड़ा हुआ लड़का पसंद आया।

“ पर काकी, मुझे इस बारें में कुछ पता नहीं थी। कभी उनके मुँह से सुना नही। तुम्हारे मुँह से पहली बार सुन रहा हूँ। वैसे संकल्प अच्छा लड़का हैं।” यह कहते हुए मेरे दिल पर जहरिलें सांप रेंग रहे थे।

“मैंने कब कहा, वह बुरा हैं। लेकिन गुणवंत, उसकी शादी पहले से ही तय हैं।”

बाहर जोरों की बिजली कड़की। अच्छा हुआ उनका मेरी ओर ध्यान नही था। वे अपनी धुन में कह रही थी,

“ उसके पिताजी ने उनके मित्र के लड़के से उन दोनों के रिश्ते की बात पक्की कर दी थी। अब साधना के पिताजी इस दुनिया में नहीं है तो क्या हुआ? उनके जुबाँन को बट्टा कैसे लगा सकती हूँ मैं? बता। तुम उसके नज़दिकी मित्र हो। समझाओ उसे। एक बार दी हुई जबान की कीमत होती हैं। उनका शब्द तोड़ दूँ? उनके आत्मा को कितनी घोर यातना होगी!”

उनकी आवाज भर आई। उन्होंने पल्लू से ऑंखे पोंछी। मेरा हृदय बिजल गिरकर कोयला बना था। मैं उन्हें क्या सांत्वना देता?

फिर जोरदार बिजली कड़की और तेज़ हवा के साथ बारिश शुरु हुई।

“ छत पर कपड़े सूख रहे हैं।” वे हडबडाकर उठ गई।

अब वहाँ क्या रखा था जो मैं वहाँ रुकता?

“ मैं भी चलता हूँ काकी, रास्ते में साधना मिलें तो घर भेजता हूँ”

साधना का नाम सुनते उन्होंने मुझे बारिश में जाने से रोका नहीं।

बाहर बारिश की गती बढ़ गई थी। हवा धकेल रही थी। सायकिल चलाना मुश्किल हो रहा था। मुझे उसकी पर्वा नहीं थी। मेरा मन पत्थर की चोट लगे किसी कुत्ते के पिल्ले की तरह बिलबिला रहा था।

फाटक से साधना अंदर आ रही थी।

हमने एक दूसरे की ओर देखा। हमारे बीच कुछ बचा नहीं था। दोनों ने गरदन घुमा ली और विरुद्ध दिशा में चल पड़े।

मैं घर पहुँचा तब माँ बाहर ही खड़ी थी। मुझे देखकर बोली,

“ अभी संकल्प का फोन आया था। साधना की माँ छत से गीर पड़ी। बारिश में कपड़े निकालने गई थी। शायद गिले से पैर फिसल गया या हवा के झोंके से संतुलन चला गया। सर पर गिरने से गरदन की हड्डी टूट गई और तात्काल मौत हुई। दवाखाने ले जाने का भी समय नहीं मिला।”

मैं जड़वत खड़ा रहा।

साधना की माता जी गुजरने के बाद जिदगी धीमे धीमे पूर्ववत् होती गई। लेकिन मेरा जीवन पहले जैसा नहीं रहा। मैंने कॉलेज जाना छोड़ दिया। जीवन के प्रति मेरा आकर्षण खत्म हुआ। कहीं पर मन नहीं लगता था। घरवालों ने कई बार कुरेदकर पूछा लेकिन मैंने कभी किसीसे कुछ नहीं कहा।

एक दिन मैं ‘काम ढुँढने जा रहा हूँ’ इतना कहकर हमेशा के लिए गाव छोड। दिया। तबसे ऐसी बैरागी जिंदगी जी रहा हूँ। दोस्तों से रिश्तेदारों से नाता टूट गया। जीने के लिए जो मिला वह काम करता गया। गाँव-गाँव घुमा। मन को कहीं शांति नही मिली। साधना की याद कलेजे में धधकती रहती। घर गृहस्थी के बारे में कभी सोचा नहीं। अब तो बस इसी ज़िंदगी की आदत हो गई। आज़ाद पंछी। जरा कहीं मन लग गया तो मैं बेचैन हो उठता हूँ।

घुमते-घुमते ऐसे ही एक बार दिवापूर पहुँचा। तब मैं इलेक्ट्रिकल्स चीजों के सेल्समन के रुप में काम करता था। कंपनी नई-नई मार्केट में आई थी। वहाँ तनख़ाह ज्यादा नहीं थी लेकिन अधिकार बड़ा था।

उस नोकरी की याद से उसके चेहरे पर मुस्कान छाई।

उस रात मैं एक पार्टी से मिटींग करके घर लौट रहा था। दिनभर का काम खत्म होने के बाद उसने मिलने का समय दिया था। उसे आने में देर हुई थी। हमारी डिल सक्सेसफुल हुई थी इसलिए खाना बाहर ही खाया था। हॉटेल के बाहर आया तब रात के दस बज रहे थे। अलविदा कहते समय उसने मुझसे पूछा कहाँ जाना है। जब मैंने अपना पता बताया तब वह बोला,

‘अरे, यह रास्ता तो दूर का है। आप ऐसा कीजिए, सीधा जाने के बजाय आप दाएँ मुड़ जाओ। रास्ता थोड़ा टेढ़ा है, लेकिन आप जल्दी घर चले जाओगे’

उसने बताया वैसे मैं हर मोड़ लेते जा रहा था। थोड़ी देर में मेरा आत्मविश्वास डांवाडोल हो गया। मुझे लग रहा था मैंने कहीं गलत मोड लिया हो। आए रास्ते से लौट जाऊँ तो अब वह रास्ता भी याद नहीं आ रहा था। पूछें तो किसे पूछे? धनवानों की बस्ती थी। सर्दी का मौसम था। रास्ते पर कोई नज़र नहीं आ रहा था।

इतने में मेरी नज़र एक बंगले के सामने खड़ी कार पर गई। ड्रायव्हर बंगले का गेट खोलकर कार अंदर ले जाने के लिए स्टार्टकर रहा था। कहीं वह अंदर न चला जाए यह सोचकर मैं तेज़ी से स्कुटर पास ले जाकर पूकारा,

“एस्क्युज मी।”

ड्रायव्हर ने ब्रेक लगाया। उससे बात करने के लिए मैं नीचे झुका

काँच से छनकर आने वाले स्ट्रिट लाईट के रोशनी में मैंने व्हिल पर बैठी साधना को पहली नज़र में पहचाना।

“साधना!”

“अरे!” कार बंद करके वह बाहर आई।

इतने सालों बाद हम एक दूसरें को निहार रहे थे। सच पूछो तो हम ढूँढ रहे थे, क्या अब भी कुछ पहचानी चीज़ हमारे बीच बची हैं ?

“तू..आप यहाँ कैसे?”

“मैं यहीं रहती हूँ।” बंगले की ओर इशारा करके वह बोली, “ अंदर आओ ना। कितने सालों बाद मिल रहा हैं।”

मैंने घड़ी देखी। साढ़े दस हो रहे थे। मेरा बात समझकर वह बोली,

“ समय की फिक्र मतकर। संकल्प यहीं नजदिक पान टपरी पर गया हैं। लौटता ही होगा। तू अंदर चल ना।”

“संकल्प! क्या तुने संकल्प से शादी कर ली?”

“ याने तुझे कुछ पता नहीं? हां बराबर है, तब तुने गाँव छोड़ दिया था।”

उसने संकल्प से कैसे शादी की? मैंने आसमान की ओर देखा। कोई तारा टूटकर गिर रहा था।

“ लेकिन तेरी शादी तो तेरे पिताजी ने किसी और से तय की थी।”

“ तुम्हें कैसे पता?”

“ तुम्हारे माताजी ने बताया था। उस दिन मैं तुम्हारा हाथ माँगने आया था।”

वह गहरे सोच में डूबी। न जाने उसके मन में क्या चल रहा था। मन में चल रहे खयालों को उसने कंधे के साथ झटक दिया।

“ माँ का देहान्त हुआ।बाबा पहले ही गुजर गए थे।”

वह मानो कन्फेशन दे रही थी। हो सकता हैं, मुझे इस बारे में मालूम था इसलिए मुझे सफाई दे रही थी।

“ उनके शब्दो के खातिर मैं अपने जीवन की खुशियों का गला क्यों घोंट दूँ?

मुझे अपना निर्णय खुद करना था। सो मैंने किया।”

निस्तब्धता छाई।

“ चलो,” आखिर मैं बोला, “ अब रहने दो। रात बहुत हो चुकी हैं। अब मुझे घर मालूम हुआ। फिर कभी आऊँगा दिन में, किसी सभ्य आदमी की तरह।”

मेरे शब्दों में अनजाने में जहरीलापन आया। शायद उसने भी महसूस किया। लेकिन उसकी उपेक्षा करके उसने मुझे बाहर जाने का रास्ता दिखाया।

“ और हाँ, जरा ध्यान देना। संकल्प पान टपरी पर गया है। हो सकता है, रास्तें में कहीं मिल जाए।” जब मैं निकल रहा था तब वह बोली।

मैंने हाँ कही, लेकिन मुझे वहाँ से निकलने की जल्दी थी।

दूसरे ही दिन मैंने सारे कामकाज़ को अधूरा छोड़कर वह गांव छोड़ दिया। संकल्प के मौत की खबर मैंने रेल्वे में अखबार में पढ़ी। पुलिस का कहना था वह एक हादसा था। गँग वार में जिस पर गोली चलाई थी उसके कंधे से लगकर संकल्प को लगी। अस्पताल ले जाते समय उसका देहान्त हुआ था।

खबर पढ़कर मुझे दुख तो हुआ, फिर लगा, जिंदगी ने मुझे उससे शादी करने का मौका दिया हैं। वरना पति के मृत्यु के रात हमारी मुलाक़ात क्यों होती? यह कोई ईश्वरीय संकेत हैं।

मैं उसे मिलने उसके घर गया। लेकिन तब तक वह किसी इतिहास संशोधन संस्था में जॉब ढूँढ लिया था। उसने अपना नया पता किसी को बताया नहीं था। आगे उसने अपना बंगला किसी एजंट के जरिए बेंच दिया।

फिर एक बार वह गुमनामी के अँधेरे में खो गई।”

हकिकत खत्म करके वह कुछ देर मौन बैठा रहा।सोच कर बोला,

“ आज अचानक हमारी भेंट हुई। माहोरकर, सोच कर बताओ, पॉलिसी लेने का आयडिया तुम्हारा हैं या उसका?”

“मतलब?”

“ मेरी बात आपको पसंद नहीं आएगी।” उसके चेहरे पर क्रुरता छलकी, “ लेकिन मुझे यक़ीन है, संकल्प से शादी करने में माँ की रुकावट न आएँ इसलिए उसने उनकी हत्या कर दी।”

“अपने माँ की? कैसे हो सकता हैं?”

“ यही तो सोचा होगा सभी ने कि कोई अपने माँ की हत्या कैसे कर सकता हैं? किसी को उस पर शक़ भी नहीं हुआ। वह सलामत छुट गई। घर में वह दोनों ही थी। छत पर जाने का। सुखने डाले हुए कपड़े समेटने वाले असावधान माता जी को एक धक्का देने का। आसान काम। लोगों के नज़र में महज़ एक दुर्घटना।”

“ इतनी बड़ी जोख़म कौन उठाएगा? अगर वह बच जाती तो?

“ आखिर वह माँ थी। क्या वह अपने ही लड़की को कानून के हवाले करती? गेम बड़ा सेफ था। उस केस से छुटने के बाद उसका हौसला बढ़ा। जिस रात हम मिलें उस रात उसका पती पान लाने टपरी पर गया था। इत्तफ़ाक़ से हमारी मुलाकात हुई। उसके मन में वह शाम उभरी होगी जिस रोज उसके माता जी का देहान्त हुआ था। सेम सिच्युएशन। फिर वही बात दोहराने का जज़्बा उससे रोका नहीं गया। इस समय वह मेरा नाम ले सकती थी। मेरे पास उसका खून करने का मक़सद भी था। नफ़रत भरे युवक ने अपने प्रेयसी के पती की हत्या की। जब खून हुआ तब मैं उसी इलाके में मौजूद था इस बात की वह खुद साक्षी थी।”

अब वह मेरी आँखो में आँखे डालकर बोल रहा था,

“ लेकिन उसकी जरुरत नहीं पड़ी। उसने संकल्प पर चलाई गोली किसी के कंधे से सटकर उसे लगी। जिसके कंधे से भीड़कर गई थी वह कोई गँगवार का गुंडा था। किस्मत ने फिर एक बार उसका साथ दिया। अबक दुबक और…”

उसने बात अधूरी छोड़कर मेरे ओर उँगली उठाई। उसकी स्थीर उँगली और ठंडी नजर से मेरे पसीने छुट गए।

“ मिस्टर माहोरकर, अब इस खेल में वह माहिर हुई हैं। इसलिए मैं पूछ रहा हूँ, पॉलिसी निकालने की कल्पना किसकी हैं?

बात तो उसने ही छेड़ी थी।‘ इंश्युरन्स एक अच्छी बात हैं’ ऐसा उसने कहा था। ‘ मेरी बात अलग हैं,’ वह आगे बोली, ‘ मेरा अपना कमाई का ज़रिया हैं।’

वह मुस्काया जैसे मेरे मौन का अर्थ वह समझ गया था।

“ मैं इस बात को कुरेदना नहीं चाहता हूँ, वह आप जाने। इतना कहुँगा मिस्टर माहोरकर आप सावधान रहिए।”

वह जाने के लिए उठा तब दयनीय लग रहा था। किस्मत ने उसे बहुत सताया था। हाथ मिलाकर उपनी पुरानी सेकंड हँड स्कुटर का काला धुआँ उडाते हुए वह चला गया।”

माहोरकर की हक़ीक़त:

घर पर साधना के हालात बिग़डे हुए थे। हमारे जाने के बाद से वह रो रही थी। उसकी नाक लाल हो गई थी। ऑंखे सुज हुई थी। मुझे देखते ही मेरे आगोश में आकर वह रोने लगी।

गुणवंत ने जो बताया,उसके बाद उपर खून का शक़ करने जैसे हालात तो थे। लेकिन उसके खूबसूरत चेहरा देखकर मेरा शक़ हवा हो गया। उसे पास बिठाकर मैंने कोमल स्वर में कहा,

“रो मत साधना।”

“उसने तुम्हें मेरे बारे में क्या कहा?” सीसकी लेकर उसने पूछा

“यही, के वह तुमसे प्यार करता था। तुम्हारा हाथ माँगने तुम्हारे माँ से मिलने आया था, लेकिन उन्होंने शादी से इंकार किया था। साधना, उसने मुझे क्या बताया यह बात को छोड़ दें। मुझे तुम्हारी सफाई सुननी हैं। देख, मुझे तुम पर पुरा भरोसा हैं।”

उसकी ऑंखो में कृतज्ञता छलकी।उसके गत जीवन में क्या हुआ था यह जानने का मेरा अधिकार उसे स्वीकार था। बीना संकोच उसने अपनी हक़ीक़त कहने लगी।

साधना ने माहोरकर को सुनाई हक़ीक़त:

“ गुणवंत हमारे कॉलेज के दोस्तों के ग्रुप में था। अबोल एवं संकोची। किसी भी योजना पर अग्रसर नही रहता। शायद वह गऱीब घर का था। किसी भी फन में सामिल होने से पहले खर्चे के बारे में पूछकर हाँ या ना करता। एक सहपाठी या अपने ग्रुप का मित्र इससे ज्यादा कभी मैंने उसके बारे में सोचा नहीं।

जैसे हमारा मेल जोल बढता गया मेरी समझ में आने लगा वह मुझे ही देखते रहता हैं। मेरे इर्द गिर्द रहता हैं। मैंने कहीं हर बात पर गौर करता।उसे याद रखता। कभी मैं भूल जाऊँ तो मुझे याद दिलाता था। एक दिन मुझे अकेली देखकर वह बहक गया। उसने अपने मन की बात मुझे कह डाली। सुनकर ही मेरे हृदय को धक्का लगा। ऐसे लगा जैसे पालतू कुत्ते ने मालिक को कॉंट लिया। गुस्से से बीना जवाब दिए मैं वहाँ से निकल गई।

संकल्प से मेरे विचार मिलते थे। संकल्प आक्रामक स्वभाव का था। अगर उसे इस बात का पता चल जाता तो दोनों में हाथा पाई होती थी इसलिए मैंने किसी को कुछ नहीं बताया।

हफ्ते भर मैंने उसके कई कोशिशों बावजूद उससे एक बात भी नहीं की। आख़िर उसने माफ़ी माँगी। मुझे उस पर रहम आया। उसे इन्फेरियर न लगे इसलिए समझाया मेरे पिताजी के निधन के बाद मॉं ने मुझे संभाला। उनसे सिवा मेरा इस दुनिया में और कोई नहीं है। मैं उनके मर्जी के खिलाफ़ कुछ नहीं करुँगी।

मुझे पता नहीं था वह इतना ‘चंपट’ होगा। मेरी बात का ग़लत मतबल निकालकर वह एक शाम माँ से मिलने चला आया।

उस शाम-

बाहर बादल छाने के कारण अँधियारा छाया था। हवा भी जोरों से चल रही थी। मैं सोफे पर बैठकर पढ़ रही थी। तभी माँ आकर मेरे सामने बैठी। वह मुझसे कोई बात पूछना चाहती थी। उसे मुझसे बात करनी होती तो वह सीधे बात शुरु करती मगर आज ऐसे ही बेचैन सी बैठी रही। ध्यान में आते ही मैंने पुस्तक बंद की और पूछा

“ क्या बात हैं, माँ?”

“ यह संकल्प, याने कौन है?”

“संकल्प?” मैंने सतर्क होकर बेतकल्लुफ़ी से बोली, “ है, मेरे कॉलेज में पढ़ता हैं। उस दिन अपने घर आया था।”

“ वह मुझे पता हैं। कौन है मतलब-अपना नहीं हैं।”

“ मुझे नही पता।”

“मतलब?”

“ आज कल ऐसे जाति-धर्म के बारे में पूछना पिछड़ापन समझते हैं।”

“ मेरा पिछडापन मेरे पास। मैं आज कल की नहीं हूँ। तुम्हें एक बात साफ कहे देती हूँ, तेरी शादी तेरे पिता के मित्र के लड़के के साथ तय हुई हैं। तेरे पिता ने जुबाँन दी हैं। मैं उनकी जुबाँन को बाट नही लगने दुँगी। देख मत मेरी ओर यूँ घूर के। इसलिए कह रही हूँ कि तुझे पता चलें। कल चलकर हम दोनों में इस बात को लेकर कोई बखेड़ा ना हो।”

“ यह बात तुने आज ही मुझसे क्यों कही?”

“ इसलिए कि मुझे उसकी जरुरत महसूस हुई।”

“ या इसलिए कि संकल्प ‘हमारा’ नहीं है?”

हम दोनों में जमकर झगड़ा हुआ। गुस्से से मैंने किताब फेंक दी और घर से बाहर निकल गई। पुकारते वह मेरे पीछे आई तब तक मैं फाटक तक पहुँच चुकी थी। उसी वक्त मुझे सायकिल पर गुणवंत आते दिखाई दिया। उसे अनदेखाकर के मैं निकल गई।

मन बेचैन हो ऊठता तब कॉलनी में बने कृष्ण मंदिर में जाने की मेरी आदत थी। अब भी मैं वहीं जा बैठी। अकेले बैठने से मेरा गुस्सा शांत हुआ। मैं सोचने लगी। मुझे माँ की बातों में सचाई दिखने लगी। पिताजी के पीछे उसने मुझे किन हालातों में सँभाला था। अगर चाहती थी तो दूसरा ब्याह भी कर सकती थी। मुझे देखकर उसने दूसरी शादी नहीं की थी। मैंने फैसला कर लिया, जो भी हो, मॉं के मर्जी के विरुध्द कुछ नहीं करुँगी। घर जाकर माँ से माफ़ी माँगनी हैं। संकल्प को हमेशा के लिए भुलना हैं।

जब मैं घर के नजदिक पहुँची, तब अचानक जोरों की बारिश शुरू हुई। मैंने फाटक खोला तब गुणवंत घर से बाहर निकल रहा था। मैंने उसे अब भी अनदेखा किया। वह हाथों में सायकिल पकड़े, कंधे झुकाएँ जा रहा था। उसे जाते देखकर मुझे उस पर तरस आया। लेकिन हमारे बीच ऐसा कुछ बचा भी तो नहीं था जो पुकार कर उसे बारिश थमने तक रोक लेती। जो था बस उसका भ्रम था। वह तो कभी न कभी टूटना था, सो आज टूटा। ठीक ही हुआ। मेरे मन निष्ठुर हो उठा।

माँ से मिलने और बात करने को मेरा मन उतावला हो उठा था। मैंने उसे सारे घर में ढूँढा। घर के पिछवाड़े पड़ी मिली। उसके हाथों में कपडे थे जो वह निकालने छत पर गई थी। बारिश में भीग गए थे। खून से लथपथ हो गए थे। बारिश के पानी के साथ खून बह रहा था। मुझे गुणवंत की याद आई लेकिन मैंने उसे मदद के लिए पुकारा नहीं।

मेरे चिल्लाने पर पास पड़ौसी जमा हुए। उसे अस्पताल ले जाने की नौबत ही नहीं आई। कॉलनी में रहने वाले डॉक्टर ने उसे मृत घोषित किया।

माँ गुजर गई। जीवन का एक अध्याय समाप्त हुआ। अब निर्णय लेने के लिए मैं आज़ाद थी। मुझे पिताजी के शब्दों को बोझ उठाने के लिए मजबूर करने वाला कोई नहीं था। मैंने संकल्प से शादी करने का फैसला किया।

शादी के बाद हमने गाँव छोड़ दिया। संकल्प ने अपना अलग व्यवसाय शुरु किया। उसकी दिन ब दिन तरक्की हो रही थी। टॅक्स बचाने के लिए वह आपकी संस्था को डोनेशन दिया करता था। मेरा आपकी संस्था के साथ संबंध ऐसे बना। मुझे इतिहास विषय में रूचि थी। जिन्दगी बड़े मजे से गुज़र रही थी। हर दिन बढ़ने वाले चंद्र कला की तरह हमारे जीवन में बहार आ रही थी। लेकिन पुनम दिन जैसे चाँद को ग्रहण लगता वैसे उस नामुराद रात में गुणवंत की छाया मेरे संसार पर पड़ी।’’

उसके बदन में हल्की सी सरसराहट हुई। मैंने उसे बाहों में भर कर सांत्वना दी। मेरा भाव समझकर वह मुस्काई। आगे कहने लगी,

“ उस रात हम बहुत खुश थे। उसे बहुत बड़ा टेंडर मिला था। सिलेब्रेशन के लिए हम बाहर खाने पर गए थे। उसके हर हरकत में आनंद प्रगट हो रहा था। उसका स्पर्श मिलनोत्सुक था। बंगले पास आने के बाद उसने कार रोक दी। मुझे कार गराज में लगाने के लिए कहकर वह हमारे लिए पान लाने गया। वह हमेशा उसी टपरी से पान लेता था।

उसके जाने के बाद मैंने कार स्टार्ट की। गियर बदला। बस अब ब्रेक छोड़कर कार अंदर लेनी थी। इतने में किसीकी पुकार सुनाई दी। एक सेकंद देर से आवाज़ आती तो गाड़ी अंदर चली जाती। मैंने देखा, स्कुटर पर बैठा गुणवंत मेरी ओर झुककर कुछ पूछ रहा था।

देखते मैंने उसे पहचाना नही। उस शाम के बाद आज पहली बार उसे देख रही थी। कितना बदल गया था वह! उसके कपड़े, पुरानी स्कुटर, अंदर धँसे गाल, आँखे। साफ जाहिर हो रहा था उसका ठीक नहीं चल रहा है। अचरज से सँभलने के बाद मैं उससे बात करने कार से नीचे उतरी।

वह मेरा बंगला हैं यह सुनकर उसे आश्चर्य हुआ। मैंने उसे अंदर चलने के लिए कहा भी। लेकिन इतनी रात गए बाद अंदर आने से उसे संकोच ना लगे इसलिए मैंने उसे बताया,

“ अरे, शर्माओ नही। मेरा पती तेरा दोस्त ही है, संकल्प।”

संकल्प का नाम सुनते उसका चेहरा उतर गया।”

“ लेकिन तेरा ब्याह तो तेरे पिताजी के मित्र के लड़के साथ होना तय था?”

“ तुम्हें कैसे पता?”

“ तुम्हारे माँ ने ही बताया था मुझे।”

“ कब?” मुझे उसकी बात पर यक़ीन नहीं हो रहा था।

“ उस शाम मैं तुम्हारा हाथ मांगने आया था।”

यह बात मेरे लिए नई थी। उसने पूछा,

“ माँ के मृत्यु के बाद अगर मैंने पूछा होता तो क्या तुम मुझसे शादी करती?”

मुझे उसकी दिवानगी पर तरस आया। जवाब देने के बजाए मैंने उसका हाथ पकड़कर खींचाते हुए कहा,

“ पगला है! चल अंदर आ जा। आराम से बैठकर बातें करते हैं। संकल्प अभी आता ही होगा।”

वह बोला, “ अभी रहने दे। रात बहुत हो चुकी है। अब मुझे घर मालूम हुआ। फिर कभी सभ्य आदमी की तरह दिन दहाड़े आऊँगा।”

उसकी बात में तेज़ाब की जलन थी। वह जाने के लिए मुड़ा तब मैंने कहा,

“ हो सकता है, रास्ते में तुम्हारी मुलाक़ात हो।”

स्कुटर की आवाज में उसका जवाब मुझे सुनाई नहीं दिया।

काला धुआँ छोड़कर स्कुटर चली गई। उसके मिलने से मन खट्टा हुआ। गाड़ी पार्क करके मैं घर में गई। थोड़ी देर के बाद दरवाजे की बेल बजी। मैं हैरान हुई। संकल्प होता तो बेल क्यों बजाता? दरवाजा खोलकर देखा तो बहुत सारे लोग़ जमा हुए थे। सारे हमारे इलाके में रहने वाले थे। उन्होंने बताया, संकल्प को गोली लगी है और उसे अस्पताल ले जाया गया हैं। मैं तुरंत अस्पताल दौड़ी। लेकिन हमारी भेंट न हो सकी।”

संकल्प की याद से उसके आँखो से आँसू बहने लगे।

“ गँगवॉर में चलाई गई गोली ग़लती से संकल्प को लगी ऐसा पुलिस का कहना था। मैं फिर एक बार अकेली हुई। मन रिझाने के लिए आपकी संस्था ज्वाईन की। वहाँ मेरी मुलाक़ात आपसे हुई।”

कहानी खत्म हुई फिर भी वह किसी गहरी सोच में डूबी थी। अचानक बोल पड़ी,”

“ अब मेरी समझ में आया। उसीने मेरे माँ की हत्या की।”

“क्या!”

“ उसका प्यार नासूर बना है। मुझे पाने के लिए वह कुछ भी कर गुजरेगा। माँ ने शादी से इन्कार किया होगा। तभी उसने गुस्से में आकर उसे छत से धकेल दिया। संकल्प पर उसी ने गोली चलाई। वरना हमारी मुलाकात के तुरंत बाद संकल्प का खून कैसे हुआ? मुझे ढूँढते वह यहाँ भी आ पहुँचा। मुझे पाने के लिए कहीं वह आपको…”

मेरा कलेजा धक् से हुआ। ड़र छुपाकर मैंने उसे समझाया-बुझाया और नींद की दवा देकर सुला दिया।

माहोरकर की हक़ीक़त:

आधी रात बीत चुकी थी। फिर भी मैं अपनी कुर्सी पर बैठा सोच रहा था। दोनों की बातें रह-रहकर मेरे ज़हन में उठ रही थी। साधना की जगह पर मुझे मेरी सहायता माँगने वाले बसंतीचा चेहरा दिख रहा था। मैं नहीं चाहता था, मेरे ग़लती से बसंती को जो भुगतना पड़ा वह साधना के साथ हो।

ठंड़े…ठंडे दिमाग़ से सोचना चाहिए।

माँ का खून करने का अवसर साधना को था। वजह भी थी। क्या वह संकल्प का भी खून कर सकती हैं? संकल्प का खून करने का मौका उसके पास था, लेकिन मकसद? संपत्ति? संपत्ति की तो वह मालकीन थी। क्या वह पती से आज़ादी चाहती थी। उन दोनों के संबंध कैसे थे, पता नहीं। इस बारें में साधना ने कभी कुछ बताया नही। हो सकता हो, दोनों की बनती न हो। हो सकता है, साधना उससे छुटकारा पाना चाहती हो।

क्या सोच रहा है,तू? मेरे मन ने मुझे धिक्कारा। भगौड़े की तरह सोच भी कैसे सकता है? इसी सोच ने बसंती को जान गँवानी पड़ी। बसंती ने तुम्हें गुहार लगाई थी, एक बार जाकर उस बदमाश को धौंस भरता। उसके बजाए तुने जल्दी शादी करने का फैसला लिया? इतिहास का अभ्यासक कहलाता है अपने आप को, क्या तुम्हें पता नहीं, दुनिया में संपत्ति और सुंदरी के लिए कितना नरसंहार करना पड़ता हैं।

साधना पर शक़ नहीं, खुद से ज्यादा भरोसा करना चाहिए। यही दांपत्ति जीवन रहस्य हैं। भले ही उसके हाथो मेरी मौत हो जाए।

मेरा मन कुछ ज्यादा ही कवि बन गया था। लेकिन एक बात थी, जब मेरे मन में साधना के लिए संशय उत्पन्न होता, बसंती आकर झगड़ने लगती। मेरे सोच को कुंठीत कर देती।

साधना को हटाया तो एक ही व्यक्ति बचती थी- गुणवंत!

मेरे सुखी संसार में बवंडर खड़ा करने वाला। मेरे आँखो के सामने बसंती का जला हुआ चेहरा घुमने लगा।

गुणवंत हमेशा के लिए दूर हुआ तो?

मन की गहरे तह में कब से दबाए रखा विचार सवाल बनकर उभर आया। इस विचार से मैं चौका नहीं। वैसे भी गुणवंत जैसे लोगों की दुनिया को क्या जरुरत हैं? एल. आय. सी. एजंट बहुत है। कौन है जो उसे ढूँढेगा? अचानक गाँव छोड़ना उसकी आदत हैं। उसके जाने से किसे दुख होगा? कौन है जो उसके मौत की तफ्तिश के लिए आग्रह करेगा? हो सकता है, दुनिया में उसकी कमी किसीको महसूस भी नहीं होगी।

खून के लिए हेतु चाहिए। मोटिव्ह! मेरे पास गुणवंत का खून करने का क्या मोटिव्ह हैं? कल तक तो मुझे उसके अस्तित्व का पता भी नहीं था। किसी दोस्त के घर मुलाक़ात हुई थी। पॉलिसी निकालने के बहाने वह घर आया था। जब मेरे बीवी ने कहा, हमारा पॉलिसी खरिदने का कोई प्लान नही है, तब वह चला गया। दोबारा हम मिलें ही नहीं।

जरा होशियारी से काम लिया तो यह हो सकता हैं।

जैसे मैं सोचते गया मुझे सारी बातें आसान नज़र आने लगी।

गुणवंत के खून का निश्चय हुआ तब रात्रि के दो बज रहे थे।

सबेरे पाँच बजे अलार्म से मैं जाग गया। रोज छः बजे मॉर्निग वॉक जाना मेरी आदत हैं। लेकिन आज जाने से पहले मुझे विशेष आयोजन करना था इसलिए एक घंटा पहले ही उठा। कहीं व्याख्याता के रुप में जाने के लिए जिस तरह से अभ्यास करता था उसी शांत भाव से तैयारी कर रहा था। साधना निश्चिंत सो रही थी। कल के घटना से उसका मानसिक तणाव बढ़ गया था इसलिए वह नींद की गोली लेकर सोई थी। मेरे मन में क्या उलथ-पुलथ हो रही, उससे बेख़बर।

मोबाईल के लोकेशन से मालूम करा सकते हैं, आप कहाँ थे। इसलिए मैंने अपना मोबाईल घर पर ही रख दिया। कार लेकर निकल पड़ा। सरदी कुछ ज्यादा ही थी। सारा रास्ता सुनसान पड़ा था। गुणवंत ने दिया हुआ उसका कार्ड मेरे पास था। उस पर लिखा पता मैंने याद कर लिया था। नीचलें मध्यमवर्गीय स्तर के बस्ती में उसका फ्लैट था।जहाँ वाचमन एवं सी सी कॅमेरा होने की संभावना नहीं थी।

अपार्टमेंट के बाजू एक मैदान था। मैदान से भी दूर एक तरफ मैंने कार रोक दी। देखने वालो को लगें, मैदान में घुमने हेतु कोई बूढ़ा हो। मैंने जाकिट पहन रखा था। हाथ में दास्तानें पहने थे, जो की ठंड के दिनों में स्वाभाविक लगते थे। सर पर टोपी पहन रखी थी। किसीने मुझे देख भी लिया तो दुबारा पहचान न पाता।

सावधानी से सीढ़ियाँ चढ़कर उसके ब्लॉक के सामने खड़ा हुआ। मुझे किसीने देखा नहीं था। ठंड का मौसम और इतवार के कारण कोई इतने जल्दी जागने की संभावना नहीं थी। दो बार बेल दबाकर भी किवाड़ खुला नहीं। मैंने तीसरी बार बेल दबाई। बार-बार बेल की आवाज सुनकर कोई बाहर न झाँके इसलिए मैंने बेलपर उंगली नहीं दबाएं रखी। मेरी आहट सुनकर कोई बाहर न झाँके यही मुझे ड़र था।

व्दार खुलने के इंतजार में मेरी ऊँगलियाँ बेसब्री से जेब में रखे डोरी पर घुम रही थी।

दरवाजे के पास पैरों की आहट सुनाई दी। आने वाला अधखुली नींद में था। उसने यह भी न पूछा कि बाहर कौन हैं? उसने दरवाजा खोला। पहली नजर में उसने मुझे पहचाना नहीं। मैं इतनी सुबह उसके घर आऊँगा यह उसने सोचा भी न था।

“ आप?” चकित होकर वह बोला

“ क्या मैं अंदर आ सकता हूँ?” मुझे जल्दी इसलिए थी की बाहर कोई मुझे देख न ले। इससे पहले वह बाजू हटकर रास्ता बनाएं, मैं अंदर चला गया।

“आईए ना।” वह बोला, “ इतने सबेरे?”

“ आपसे कुछ बात करनी है।” दरवाजा बंद करके मैंने कहा।

“बैठिए।” इकलौती कुर्सी की ओर निर्देश करते हुए उसने कहा और वह स्वयं पलंग की ओर जाने के लिए मुड़ा। जैसे ही उसकी पीठ मेरी ओर हुई मैंने झटके से ड़ोरी जेब से निकाली और उसके गले में डाल दी।

उसे पलंग पर लिटाके मैं बाहर आया। मुझे देखने वाला कोई नहीं था। धीमें गती से चलकर मैं कार के पास पहुँचा। अंदर बैठकर न जाने कब तब लंबी साँसे लेता रहा। गुणवंत के लिए दुखी होने की कोई वजह नहीं थी। साधना को जब उसके मौत का पता चलेगा तो वह चैन की साँस लेगी। हमारे गृहस्थी को लगने वाला ग्रहण पहले ही टल गया था।

धीमे गती से गाड़ी ड्राईव्ह करके मैं उस पार्क में गया जहाँ मैं रोज मॉर्निग वॉक को जाता था। तब छः बजकर दस मिनट हो रहे थे। रोज मिलने वाले लोग़ आ गए थे। मेरा अपना ग्रुप मिला। मेरे लेट आने पर उन्होंने साधना की ओर इशारा करते चुटकियाँ काँटी। मैं इस तरह धुल मिल गया जैसे कुछ हुआ ही नहीं था।

मैं घर पहुँचा तब साधना नींद से जाग गई थी। गहरी नींद होने के कारण उसके चेहरे पर ताज़गी झलक रही थी। मुझे देखकर उसने प्यारी सी मुस्कान बिखेर दी। उसके कंधे पर हाथ रखकर मैंने पुकारा,

“साधना”

गर्दन झुकाकर, तीरछी नज़र से उसने मेरी ओर देखा।

“ मुझे तुम पर पुरा भरोसा है। तुम मेरा साथ तो न छोड़ोगी?”

अचरज से वह बोली,

“ ऐसी बातें क्यों करते हो। कल जो कुछ हुआ उसे देखते यह सवाल मैंने पूछना चाहिए।”

“कसमें वादे लेने देने की उम्र से अब हम गुज़र चुके हैं। तुमसे बिछड़ने के बारे में मैं सोच भी नहीं सकता।”

तभी उसका फोन बज उठा और मैं अपनी बात पुरी न सका। मेरे आगोश से निकलकर वह फोन उठाने गई।

“हॅल्लो?” कोई अजनबी नंबर था। “ पुलिस स्टेशन? हाँ। मैं ही बोल रही हूँ।”

उसकी बात सुनकर मैं ड़र गया। साँस सीने में अटक गई।

“ क्या?” वह बोल रही थी। मैं उसकी बात सुनने की कोशिश कर रहा था। “ हाँ..हाँ.. खून हुआ!” मेरे पीठ पर पसीना बहने लगा। “ खुनी मिल गया? गुणवंत? नहीं? आज कल मैं वहाँ नहीं रहती। जी…जी। पक्का। हाँ, ताबड़ तोड।”

फोन बंद कर के वह मेरी ओर मुड़ी। मैं कुछ भी सुनने की तैयारी करके टेंशन में खड़ा था। मेरी ओर देखकर वह हंसी। उसमें संकोच था। कहने लगी,

“ पुलिस चौकी से फोन था।”

मैं धड़ाम से सोफे पर बैठ गया। जैसे टांगो की शक्ति निकल गई।

“ संकल्प का खुनी पकड़ा गया हैं। उसने क़बूल कर लिया हैं कि संकल्प की हत्या उसीने की। संकल्प को जो बड़ा टेंडर मिला था उसके चलते किसीने उसकी हत्या कर दी। मुझे सूचना देने के लिए वहाँ से पुलिस ने फोन किया था।

कंधे उचकाकर वह खुशी से मुस्कुराने लगी।

“ इन्सान का मन भी कैसा होता हैं! कल तक मुझे गुणवंत पर शक था। उसके मिलने के बाद मृत्यु की घटना दोहराई थी। इसलिए मेरे मन में ड़र सा बैठ गया था। हमारे में कहावत है, इजा बीजा और तीजा। कोई बात दो बार होती हैं तो तीसरी बार अवश्य घटती हैं। हमारे दो मुलाक़ातों में दो मौत हुई थी। इसलिए मुझे तीसरी बार ड़र लगा।

वह फिर हंसी। मानो अपना ही मज़ाक उड़ा रही हो।

“ कैसी अंध-श्रद्धा होती है! जो दो बार हुआ वह तीसरी बार अवश्य होता हैं। इजा बीजा तीजा। इसलिए कल उसे देखते मैं ड़र गई। उतनी उत्तेजित हो उठी की मैं… खैर जो हुआ सो हुआ। उसे बुलवाकर माफी माँग लुँगी। बुलाओगे ना उसे? कब बुलाते?

वह बोले जा रही थी। मैं पाषाण का बुत बनकर बैठा रहा। मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था।

अचानक खिलखिलाती हँसी कानों पर पड़ी। सुनते ही मैंने पहचान ली वह बसंती थी। उसने हँसकर कुछ कहा। मुझे लगा वह मेरा मज़ाक उड़ा रही है। वह किसी दूसरे इंसान से बात कर रही थी। किससे? ओ हो ! यह तो गुणवंत है! हां गुणवंत ही हैं। वे दोनो हमेशा आपस में बातें करते हैं।”

“ वे आपस में बातें करते है ना? तो करने दो। तुम क्यो ध्यान देते हो?”

“ क्योंकि वह मेरी चुगली करते हैं। मेरा मज़ाक उडाते हैं। कभी कभी उनके साथ वह दोनों भी रहते हैं।”

“ कौन दोनों? मैंने पूछा

“ संकल्प और वह लड़का जो बसंती के साथ पढ़ता था।”

“ क्या वह भी तुम्हें दिखाई देते हैं?”

“ नहीं। उनकी सिर्फ आवाजें सुनाई देती हैं। शुरु में वे आपस में धीमे स्वरों में बोलते थे। दिन ब दिन उनकी आवाजें बढ़ती जा रही हैं। कभी कभी उनके आवाज इतने बढ़ जाते हैं कि मुझे कुछ सुनाई नहीं देता। डाक्टर, कुछ कीजिए। कुछ कीजिए वरना मैं पागल हो जाऊँगा।”

डाक्टर समीर:

अब आप ही बताइए मैं क्या करुँ? उन्हें पुलिस में सरेंडर होने को कहूँ? या मैं खुद पुलिस में जाकर गुणवंत के खून की इत्तला दूँ? या डाक्टरी पेशे के उसूल सँभालकर चूप रहूँ?

मेरा पता, मोबाईल नंबर और ई मेल अड्रेस साथ में लिखा हैं। आपकी राय जरुर लीखिएगा।

तब तक ट्रिटमेंट तो जारी रहेगी।

डाक्टर समीर.

समाप्त

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