दीन दयाल उपाध्याय का एकात्म-मानवतावाद और हमारा साहित्य
रामगोपाल भावुक
मो0 9425715707
आज हम एकात्मवाद का दर्शन पर विचार करें। उसके पहले उसे समझें कि यह एकात्मवाद क्या है? प्ं. दीन दयाल उपाध्याय के एकात्मवाद का उनका अपना पक्ष यह है कि उस पर सर्वतोन्मुखी होकर ही विचार करना चाहिए। हम सर्वात्म के पक्षधर हैं। हमारा सत्-चित्- आनन्द में विश्वास है। हम हैं कि हर पहलू को खण्ड खण्ड करके देखते हैं।
मैंने दीनदयाल नगर ग्वालियर में हाउसिंग वोर्ड से मकान क्रय कर लिया था। उस समय तक मैंने उनका नाम ही सुना था। जैसे ही उनके नाम की कालोनी में मकान लिया । उस विषय पर जानने की इच्छा जाग्रत हो गई। उसके बाद तो जब भी उनके विषय में कहीं कुछ लिखा दिख जाता मैं उस पर मनन करने लगता।
प्ं. दीन दयाल उपाध्याय का यह दर्शन हमारी सनातन संस्कृति की ही देन है। आज हमें अपने अस्तित्व के सम्बन्ध में खुलकर विचार करना होगा। हम कौन थे किन्तु आज क्या हो गये। आज हम अपने राष्ट्र और मानवता के लिये बाधक तो नहीं बनते जा रहे हैं। हम श्री राम के काल की याद करते हैं, उस समय का वह दौर कहाँ और कैसे विलीन हो गया! इत्यादि प्रश्न हमें हमारे भूतकाल के सभी दृश्यों से रू-ब-रू करा देते हैं। हम उन तत्यों पर विचार करने के लिये तत्पर हो जाते हैं।
हम जिस साहित्य का सृजन करते हैं वह यदि कहीं एकात्म मानवतावाद से भटक गया तो हमारा साहित्य भी भटकाव वाला ही सिद्ध होता दिखाई देता है। वह पाश्चात्य सभ्यता का प्रतीक बन कर रह जाता है। हमारा साहित्य मानवतावादी एवं सबका उत्थान करने वाला होना चाहिए। वह सर्वपक्षीय, सार्वदेशिक एवं सार्वविषयी होना चाहिए। इन बातों के उसमें समाहित होने पर ही वह सबका कल्याण कर हो सकता है। प्ं.दीन दयाल उपाध्याय का एकात्म मानववादी चिन्तन इसी पथ से आगे जाकर सत् साहित्य को समर्थ बनाता है।
ईश्वर ने हमें शरीर दिया है, उसके अवगुण देखते रहने की एवं आत्मग्लानी के भाव को लेकर भी चलने की आवश्यकता नहीं है। समाज में फैले छुआछूत एवं भेदभाव को दूर करने की जरूरत है। हमें पश्चिम के अनुकरण की भी आवश्यकता नहीं है। हमें यथार्थवादी बन कर ही आगे बढ़ना है ।
हम साहित्यकारों को इन्हीं सब बातों को ध्यान में रख कर अपनी लेखनी चलाने का प्रयास करना चाहिए तभी हमारा लेखन यथार्थवादी, सभी के लिये कल्याण कर होगा और हम नर से नारायण बनने के पथ पर अग्रसर हो सकेंगे ।
इस तरह हम जो लिख रहे हैं उसे इसी दपर्ण में देखते चलें तो ही हमारा लेखन सार्थक हो सकता है। मैंने अपनी कृतियों चाहे रत्नावली,एकलव्य, भवभूति उपन्यास हो अथवा पंचमहली बोली की मंथन, बागी आत्मा और गूंगा गाँव आदि कृतियाँ हो , वे जातिवाद से सधर्षरत हैं अथवा कुरीतियों पर प्रहार कर रही हैं, उनका दृष्टकोण मानवतावाद की सेवा का ही रहा है। मानव उत्कर्ष के सोच के बिना कोई भी साहित्य चिर स्थाई नहीं रह सकता।
इस तरह प्ं.दीन दयाल उपाध्याय के एकात्म मानवतावाद से हम सब लाभान्वित हो सकेंगे ।
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सम्पर्क - कमलेश्वर कालोनी (डबरा)
भवभूति नगर जि0 ग्वालियर, म0 प्र0 475110