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बेटे के मोह में फंसा योद्धा : द्रोणाचार्य

हस्तिनापुर में राजकीय आवास कुए के बाहर धत्तराष्ट्र के 100 पुत्र और पांडु के 5 पुत्र मिलकर गेद खेल रहे थे , अकस्मात उनकी गेद कुएं में गिर गई। बच्चे परेशान थे कि कैसे निकाले ? कि उन्होंने देखा एक सांवले से रंग का व्यक्ति हाथ में धनुष बाण लिए पास से निकल रहा है ! पांडवों ने कहा “ धनुष वाले इस कुएं में से हमारी गेद निकालो ना!”

धनुष वाले को अपनी कला दिखाने का मौका मिल गया उन्होंने धनुष में सीक का बाण बनाया और नीचे मार दिया। बाण गेद में लगा दूसरा बाण उन्होंने सीक में लगाया । इस तरह एक के ऊपर एक सीक लगाते हुए कुएं में बहुत ऊपर तक का स्तंभन गया तो उससे उन्होंने गेद को खींच कर बाहर निकाल दिया । इसी बीच दुर्योधन को लगा कि यह तो अलग तरीका है, तो ना अंगूठी फेंक दी जाए दुर्योधन ने अपनी अंगूठी कुएं में फेंक दी तो उसी पद्धति से धनुष में सीक बाण के साथ धनुष वाले ने अंगूठी भी निकाल ली ।

अब तो बड़े अचरज की बात थी यह समाचार हस्तिनापुर में फैल गया और राजकुमारों में से किसी ने तो भीष्म पितामह को बताया । वे दौड़े हुए आए और उन्होंने धनुष वाले द्रोणाचार्य को सम्मान दिया] कौरव पांडवों को अस्त्र शस्त्र चलाना सिखाने के लिए उनको एक अभ्यास साला बना कर दी गई । आवास दिया गया और राजकीय सम्मान भी दिया गया।

जब वे कौरव पांडवों को अस्त्र शस्त्र सिखा रहे थे तभी अपने बेटे अश्वत्थामा को छिपा कर कौरव पांडवों से ज्यादा अस्त्र शस्त्र चलाना सिखाते रहे। अश्वत्थामा में द्रोणाचार्य की जान बस्ती थी , उसका सिरदर्द भी होता तो द्रोण का पूरा बदन दुखने लगता था। उसी के किये वे राज परिवार में आकर ग्रह शिक्षा देने लगे थे, उसे उन्होंने ब्रह्मास्त्र नामक सबसे भीषण अस्त्र की शिक्षा प्रदान कर दी।

द्रोणाचार्य दरअसल महर्षि भारद्वाज और घृताची नाम की अक्षरा के बेटे थे । द्रोणाचार्य ने अपना बचपन अपने पिता महर्षि भारद्वाज के आश्रम में व्यतीत किया और वहां उन्होंने सारे वेद और शास्त्रों की शिक्षा प्राप्त की । बे धनुर्विद्या के बड़े जानकार थे । उन्हीं के साथ अपने पिता के आश्रम में राजा परिषद के लड़के द्रुपद भी शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। शिक्षा प्राप्त करने के दौरान दोनों की मित्रता प्रकार हो गई और दोनों विपरीत परिस्थितियों में साथ में रहे तो राजा द्रुपद द्रोणाचार्य से कहा कि जब मैं राजा बनूंगा तो आधा राज आपको दूंगा। जब पूरी तरह से शिक्षा प्राप्त हो गई तो उन्हें पता लगा कि परशुराम जी अपना सब कुछ दान कर रहे हैं । तो वे भागते हुए परशुराम जी के पास पहुंचे, तब तक परशुराम जी ने अपना ध्यान और अपनी संपत्ति दान कर दी थी और उनके पास अपना शरीर, अस्त्र शस्त्र ही बचे थे , प्राचार्य को देखकर उन्होंने कहा में सब कुछ जान कर चुका हूं तुम क्या चाहते हो, मेरे पास अस्त्र-शस्त्र बचे हैं । द्रोणाचार्य ने कहा ठीक है अब यही बचा है और आपकी दान करने की इच्छा है तो मुझे अपने अस्त्र-शस्त्र और इन को चलाने की विद्या दे दीजिए । परशुराम जी अपने जमाने में हर अस्त्र और शस्त्र चलाने के बड़े योद्धा माने जाते थे और अकेले ने एक-एक हजार योद्धाओं को युद्ध में हराया था । परशुराम जी ने अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा दी तो द्रोणाचार्य अस्त्र-शस्त्र के ज्ञाता विश्व के महान योद्धा के रूप में सामने आए थे ।

कृपि और कृप जिन्हें भीष्म पितामह ने पाला था और दोनों बहन भाइ इंद्रप्रस्थ में रहते थे। कृप ने उचित योग्य वर समझकर द्रोणाचार्य से अपनी बहन कृपि के साथ कर । द्रोणाचार्य और कृपि बहुत गरीबी में जीवन व्यतीत कर रहे थे और एक दिन जब बेटे अश्वत्थामा को भूख लगी और उसने मां से कहा कि दूध चाहिए तो कृपि ने आटे को भूलकर भी दूध अश्वत्थामा को पीने को दे दिया। जिसे देखकर द्रोणाचार्य को बहुत दुख हुआ ।अश्वत्थामा ने दूध नहीं पिया और भूखा रह गया । तो द्रोणाचार्य को द्रुपद का कथन याद आया, विराट नगर का राजा बन चुका था पांचाल नरेश बन चुका था । द्रोणाचार्य पांचाल पहुंचे उन्होंने कहा राजा द्रुपद आधा राज चाहिए । राजा द्रुपद ने हंसते हुए कहा कि किसी गरीब ब्राह्मण और राजा में दोस्ती नहीं हो सकती। बचपन की बातों को तुम गंभीरता से ले रहे हो और ऐसा कह कर उन्होंने द्रोणाचार्य को अपने सभा से निष्कासित किया ।

जब वे कौरव पांडवों को अस्त्र शस्त्र सिखा रहे थे , कर्ण भी जब धनुर्धर बनने की शिक्षा लेने आया तो द्रोणाचार्य ने उसे सूत पुत्र कह कर शिक्षा देने से इनकार कर दिया। भील का बेटा एकलव्य उनसे सीखने के लिए आया । वह उनका सेवक बनके आश्रम में रहा औऱ बाद में कहा कि वह धनुर्विद्या सीखना चाहता है। द्रोणाचार्य ने भीष्म पितामह से वादा किया था कि वे केवल कौरव पांडवों को ही दिखाएंगे । इस कारण उन्होने कहा कि भील को धनुर्विद्या से क्या काम यह तो राजकुमार की विद्या है । ऐसा कहके एकलव्य को नही सिखया भगा दिया। कुछ दिनों सेवक रूप में रहे एकलव्य ने सुन सुन कर लक्ष्य पर नजर गड़ाना सीख लिया था, सो जब धनुर्विद्या सीख नहीं पाया , इंकार कर दिया तो लौट कर बाहर चला गया और अपने गांव ना जाकर रास्ते की एक उद्यान में द्रोणाचार्य की प्रतिमा को स्थापित करके धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा, बाद में अर्जुन से भी बड़ा धनुर्धर बन गया। एक बार कौरव पांडव एजलवय के आश्रम के पास से निकले तो उनका कुत्ता भोंकते हुए भील एकलव्य के पास पहुंचा। शान्त स्वभाव के एकलव्य ने बिना नोक के सौ बान चला के कुत्ते का मुंह बंद कर दिया। यह विचित्र दृश्य देख कर कौरव पांडव र कुत्ते को लेकर एकलव्य के पास पहुंचे तब उन्होंने पूछा कि तू कौन है तो उसने कहा कि मैं गुरु द्रोणाचार्य का शिष्य हूं और अचरज से भरे कौरव पाण्डवो ने द्रोणाचार्य से पूछा कि आप तो कहते थे आपने हमारे अलावा किसी को धनुर्विद्या नहीं सिखाई है तो यह शिष्य कैसा। द्रोण को एकलव्य ने बताया कि वह बचपन मे सेवक बन कर द्रोण के कहे वाक्य याद रखता रहा था और जब धनुर्विद्या सिखने से मना किया तो यहाँ आकर द्रोण को गुरु मानके उनकी मूर्ति बना कर रख ली और उसके सामने धनुष चलाने का अभ्यास करते हुए यह विद्या सीख गया। शिष्यों के कहने पर द्रोणाचार्य ने एकलव्य से गुरुदक्षिणा में उसका दाहिने हाथ का अंगूठा माँग लिया था जिससे कि वह दांये हाथ से धनुष न चला पाए और अर्जुन से छोटा धनुर्धर रह जाये।

जब पूरी तरह से शिक्षा प्राप्त हो गई तो अर्जुन ने जब गुरुदक्षिणा की बात की तो द्रोणाचार्य जी ने उससे कहा कि पंचाल नरेश द्रुपद को हरा के मेरे सामने पेश करो, अर्जुन ने अपनी वीरता से द्रुपद को हरा डाला और बन्दी बना के उन्हें द्रोणाचार्य के समक्ष पेश किया तो द्रोणाचार्य ने आधा पांचाल अपने पास रख लिया और आधा ध्रुपद को दे जे कहा कि अब यह गरीब ब्राह्मण भी तुम्हारे बराबर के राज्य का मालिक हो गया अब तो बराबर का होने से हमारी दोस्ती होगी।

द्रोणाचार्य महाभारत ग्रँथ में बड़े योद्धा, होशियार कूटनीतिज्ञ और व्यूह रचना में सफल सेनापति व्यक्ति के रूप में सामने आते हैं,एक ब्राह्मण हो के भी परशुराम के सिवाय कोई ऐसा कुशल योद्धा नही पाया जाता।

महाभारत युद्ध मे वे कौरवों की ओर से सेनापति नियुक्त किए गए थे।सेनापति के होने की वजह से द्रोणाचार्य ने बहुत सारे व्यूह यानी कि सैनिको की पंक्तियो की रचना करते हुए सैनिक मोर्चे बनाये और पाण्डवो को बड़ी क्षति पहुचाई। किशोरावस्था के अभिमन्यु को चक् व्यूह में घेर के मरवा देने की वजह से सारे पाण्डव उनसे नाराज हो गये। उन्होंने राजा द्रुपद,विराट और द्रुपद के तीन पोत्रो को यद्ध में मार गिराया तो कृष्ण को चिंता हुई कि द्रोणाचार्य को हटाया जाए तभी पाण्डव बचेंगे। द्रोणाचार्य का अपने बेटे के प्रति अगाध लगाव देख कृष्ण ने सोचा कि अश्वत्थामा को मार दिया जाए तो द्रोण टूट जाएंगे, लेकिन अश्वत्थामा तो अमर रहने का वरदान पा चुके थे सो कृष्ण ने मालव नरेश इंद्र वर्मा के अश्वत्थामा नाम के हाथी को मार देने का आदेश भीम सेन को दिया । हाथी के मरने पर कृष्ण जी के कहने पर भीमसेन ने द्रोणाचार्य से कहा कि अश्वत्थामा मारा गया है,भीम की बात को झूठा मान के द्रोणाचार्य ने सत्यवादी युधिष्ठिर से पूछा कि “सत्य क्या है युधिष्ठिर क्या सचमुच अश्वत्थामा मृत्यु को प्राप्त हुए ?

तो कृष्ण जी के इशारे पर युधिष्ठिर ने जोर से कहा कि” हाँ अश्वत्थामा मारा गया,” फिर धीमें स्वर में बोले कि “हाथी भी हो सकता है औऱ मनुष्य भी।“

युधिष्ठिर के मुँह से ऐसा सुनकर द्रोणाचार्य ने अपने हथियार फेंक फिये और रथ में बैठ कर पुत्र अश्वत्थामा के शोक में विलाप करने लगे कि ठीक उसी समय द्रोपदी के भाई दृष्ट धुम्न ने तलवार से द्रोणाचार्य का सिर काट लिया।

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