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अनूठा प्रयोग

अनूठा प्रयोग

मौका था, स्कूली दिनों के अपने एक दोस्त के यहांॅ गृह-प्रवेश आयोजन में सम्मिलित होने का। बाकी आमंत्रित मेहमानों के साथ मैं भी नवनिर्मित मकान के उस हाॅलनुमा बड़े से ड्राइंग-रूम में बैठा था। मैंने ध्यान दिया तो पाया कि आसपास सोफे और कुर्सियों पर बैठे लोगों में कुछ ही मेरी जान-पहचान के थे, ज्यादातर से मैं अनजान ही था। शायद, दोस्त के दूर या नजदीक के रिश्तेदार रहे होंगे। गो कि खुद को अलग-थलग महसूस न करूंॅ, मैं भी वहांॅ उपस्थित जनों की बात-बतकहियों संग मशगूल हो गया।

रचनावी कुटेव या जिज्ञासावश कह लीजिए, अपने आसपास के माहौल, हो रही घटनाओं, परिघटनाओं से असम्पृक्त, निरपेक्ष भी तो नहीं रहा जा सकता। रचनाकार तो वैसे भी हर वक्त, हर मौके-मुआयने पर अपनी उपस्थिति की सार्थकता सिद्ध करते, देश-काल-स्थिति-परिस्थितियों की पुरअसर तरीके चाक्षुष समीक्षा करते, खोज-खबर लेते, कहीं परकाया-प्रवेश के बहाने तो कहीं कल्पना की उड़ान भरते, परिदृश्य की खूबियों-खामियों की गफ-गझीन, उलझे-सुलझे, आड़े-तिरछे खाके खीचने में मुब्तिला ही रहता है।

सो बैठे-बैठे मेरी पारखी नजर, वहांॅ उपस्थित मेहमानों के चेहरे पढ़ते, उनके मनोभावों का सूक्ष्म-विश्लेषण करते, उनकी बातचीत, उनकी बाॅडी-लैंग्वेज पर ही थी। दैनन्दिन की खबरों पर रटी-रटायी क्रिया-प्रतिक्रिया। बीच-बीच में ‘गुरू जी’, मेरे दोस्त को वहांॅ उपस्थितजन इसी नाम से सम्बोधित कर रहे थे, के मलाईदार पोंिस्टग, फर्श पर लगे उम्दा मार्बल, दरवाजे-पल्लों में लगे कीमती सागौन की लकड़ियों पर भी चर्चा हो जाती। एक सज्जन, जो पता नहीं किस जनम का बैर निकालने मेरे बगल में ही बैठ गये थे, नाॅन-स्टाॅप अपान-वायु छोड़ रहे थे। गनीमत कि सम्पन्न हो चुके पूजा-हवन की वजह से वातावरण अभी भी सुवासित था, अन्यथा तो वहांॅ बैठना मुश्किल हो जाता।

प्रसाद-मिष्ठान्न ग्रहण करने के बाद भी, उपस्थितजन के चेहरों पर प्रसन्नता का दूर-दूर तक नामोंनिशान न था। सभी के चेहरों को देखने से पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था, जैसे सभी जन बेहद उद्वेलित, हैरान-परेशान, हलकान से हैं। चंूॅकि, समय चुनावों का था। सो ज्यादातर उपस्थितजन प्रत्याशियों की हार-जीत पर अपना-अपना गणित भिंड़ाए चुनावी चर्चा में मशगूल थे। सेण्टर-टेबल के सामने बैठे तीन सज्जन, एक्जिट-पोल, ओपिनियन-पोल के नफे-नुकसान पर बहस-मुब्तिला थे।

उसी बीच हेलमेट लगाए-लगाए ही एक सज्जन ने ड्राइंगरूम में प्रवेश किया। आते ही कार्यक्रम में देर से पहुंॅचने के लिए वहांॅ उपस्थित जनसमूह से क्षमा मांॅगते, आंॅगन में बैठी मित्र की माता जी का पांॅव छूकर, वे हम सब के बीच ही आ विराजे। काफी थके-थके से लग रहे थे। माथे पर उनके पसीने की बंूॅदे अभी भी चुहचुहा रही थीं। बातों-बातों में, देर से आने का कारण, उन्होंने अपने स्कूटर में पेट्रोल का खत्म हो जाना बताया। लगभग दो किलोमीटर से अपनी स्कूटर पैदल ही खींच कर ले आये थे। मित्र के ड्राइंगरूम में पधारते ही शिकायत भी की...‘‘का गुरू...? एतनी दूर वीराने में, शहर से बाहर मकान बनवाए की का जरूरत रही, जहांॅ आने-जाने का ढं़ग का कोई साधन भी नहीं? आसपास कोई पेट्रोल-पम्प भी नहीं? ऐसे वीराने में अचानक अगर किसी की गाड़ी में पेट्रोल खत्म हो जाये, या पहिया पंक्चर हो जाय, तब तो बेचारे को लेने के देने ही पड़ जायेंगे।’’

‘‘भाई साहब, आपको यहांॅ तक आने में असुविधा हुई, इसके लिए क्षमा चाहता हूँ। वैसे चिन्ता मत कीजिए। मैंने अपनी गाड़ी में पेट्रोल फुल करा रखा है, लौटानी में आपके स्कूटर में इतना पेट्रोल तो डलवा ही दंूॅगा कि आप इत्मिनान से अपने घर तक पहुंॅच जायेंगे, और हो सकेगा तो अगले दिन आॅफिस भी पहुंॅच जायेंगे...हें-हें-हें। ’’ उनकी बातें सुन दोस्त ने उनसे क्षमा मांॅगते, उन्हें आश्वस्त किया।

दोस्त की इस बात से उन सज्जन के चेहरे पर लौट आयी हरीतिमा देखने से ऐसा लगा मानों वो सज्जन ऐसे ही किसी सन्तोषजनक आश्वासन का इन्तजार कर रहे थे। सो वो निश्चिन्त हो इत्मिनान से बैठते, चाय-नाश्ते पर हाथ साफ करते, हमारे बीच हो रहे गपाष्टक में मशगूल हो गये। बातचीत की रौ में जैसे वो भूल ही गये कि उनकी स्कूटर में पेट्रोल खत्म हो गया है, और मेरे दोस्त की मदद से ही वे अपने घर लौट सकेंगे। अभिनेता, नेता, राजनेता, कोहराम, प्रचार, दुष्प्रचार, ऐतिहासिक, पौराणिक...आदि शब्दों, वाक्यों पर उनके श्रीमुख से सधे हुए कमेण्ट्स ऐसे निकल रहे थे, मानों वे इन शब्दों, विषयों के एक्सपर्ट हों।

सामने की दीवाल से टंॅगा टी.वी. भी आॅन था, जिससे बीच-बीच में वो टी.वी. पर आ रहे किसी धारावाहिक में नायिका की साड़ी के रंगों, और उससे प्रभावित होकर बाजार में आयी साड़ियों की नयी खेप, वैरायटी पर भी उसी ओजपूर्ण भाषा में भाषण झाड़ ले रहे थे।

‘‘भाभी जी, आपकी साड़ी बिलकुल मीनाक्षी जैसी लग रही है।’’ अब उन सज्जन ने मुझसे दो कुर्सी बगल बैठी एक खूबसूरत महिला की ओर देखते कहा।

‘‘कौन मीनाक्षी?’’ उस महिला ने तनिक अचकचाते, उनसे प्रति-प्रश्न किया।

‘‘टी.वी. में एक सीरियल आता है। उसी में जो साड़ी मीनाक्षी जी पहने हुए हैं, आपकी साड़ी बिलकुल उनके जैसी ही है।’’ उन सज्जन ने बेवजह की उत्सुकता दिखानी चाही।

‘‘कब और किस दिन ये सीरियल आता है?’’ उस महिला ने तनिक अनमने से पूछा।

‘‘जी, दोपहर में। अब किस दिन आता है, उसका कुछ ध्यान नहीं।’’ उन सज्जन के चेहरे पर आये भाव से स्पष्ट था कि उन्होंने तनिक निराशा से यह बात कही थी।

‘‘एक्चुवॅली, मैं कामकाजी महिला हूँ। दोपहर में आॅफिस में रहती हूँ। वैसे भी मुझे टी.वी. सीरियल्स में खास रूचि नहीं है।’’ उस महिला ने उन्हें उपेक्षित स्वर में संक्षिप्त सा जवाब दिया। जवाब सुनकर उनके हाव-भाव से ऐसा लगा, जैसे वो सज्जन उस महिला से बतियाने का बहाना ढंूॅढ़ रहे थे, पर सफल नहीं हुए। तिलमिला कर रह गये।

थोड़ी देर बाद हमारे दोस्त भी उन्हीं सज्जन के बगल में आकर बैठ गये।

‘‘गुरू जी, ये आपने बहुत बढ़िया काम किया, जो मकान बनवा लिया। नहीं तो आजकल के लड़कों का कुछ ठिकाना नहीं। कब बेच खायें।’’ अब वो मेरे मित्र से मुखातिब थे।

‘‘भाई साहब, जिन्दगी में इन्होंने यही तो एक ठो अच्छा काम किया है।’’ पीछे से आती दोस्त की पत्नी ने उन जनाब की बातों का समर्थन किया।

‘‘देखिये भाभी जी, एक घर तो अपना होना ही चाहिए। देश-दुनिया में कहीं भी घूम आइये, जो सुकून अपने घर में है, वो कहीं नहीं।’’

‘‘अउर नही ंतो क्या? अब देखिये न! हम अपने घर में जिस तरह, अण्डरवियर-बनियान में ही चैड़े से पैर फैलाकर किसी भी कमरे में बैठ लेते हैं। जो मन में आये खाते-पीते हैं। क्या दूसरे के घर में या दफ्तर में ऐसा कर सकते हैं?’’ इस बार दोस्त ने हस्तक्षेप किया था।

‘‘सवाल ही नहीं उठता। हें-हें-हें।’’ वो जनाब ठठा कर हंॅस पड़े।

‘‘हें-हें-हें।’’ अब वे दोनों एक-दूसरे की जांॅघों पर हाथ मारते खिलखिला कर हंॅस उठे।

एक सज्जन ने शायद मौन व्रत ले रखा था। किसी से बतिया नहीं रहे थे। केवल सेण्टर-टेबल के नीचे वाले खाने से थोड़ी-थोड़ी देर पर अखबार या पत्रिकाएं निकालते, उन्हें उलटते-पलटते, फिर वापस रख देते। मैंने उन्हें उनके हाल पर ही छोड़ना उचित समझा।

एक जनाब, जो शायद किसी मुद्दे पर अपने बगल बैठे खल्वाट सी खोपड़ी वाले महाशय से बतिया रहे थे, बीच-बीच में हाथ जोड़ते...‘येन-केन प्रकारेण’...‘सर जी, आप तो अन्तर्यामी है, जिस विध भी काम हो सके’...कहते उनसे कुछ याचना भी करते जा रहे थे। मैंने ध्यान दिया तो उन्हें कहते पाया...‘‘देखिये सर जी, बड़ा वाला तो शुरूए से लाखैरा था। बाद में नेतागिरी करने लगा। पर लाख हाथ-पांॅव मारने के बाद भी जब वहांॅ दाल नहीं गली तो, ठेकेदारी करने लगा। अब अपना खाने-कमाने भर का खर्चा-पानी निकाल लेता है। पिछले खरमांस से पहले हमने उसकी शादी भी कर दी थी। उसने अपने लिए अलग मकान भी बना लिया है। उसकी गाड़ी तो ठीक-ठाक खिंच रही है। बस्स, एक ठो चिन्ता है तो छोटकू महाराज की। छोटकू को शाॅर्ट-हैण्ड, टाइपिंग और थोड़ा-बहुत कम्प्यूटर का भी नाॅलेज है। कहीं ‘अर्जेस्ट’ करा दीजिए। आप ही की बिरादरी का़ हूँ। लड़का कामकाजी हो जायेगा तो, भाई-बन्धु-समाज में चार लोगों के बीच मान-सम्मान बढ़ेगा। कृपा कर देंगे तो आशीर्वाद ही दंूॅगा। आपको हम सब ताउम्र याद रखेंगे। आप तो जान ही रहे हैं, आजकल नौकरी का कैसा टोटा सा है? बी.टेक. और पी.यच.डी. वाले तक चपरासी की नौकरी के लिए लाइन लगाए हुए हैं।’’

‘‘सो तो है भई। पर...आप तो जान ही रहे हैं। ये काम कितना मुश्किल है?’’ अन्तर्यामी जी ने अपना सिर हिलाया।

‘‘दान-दक्षिणा की चिन्ता मत कीजिएगा सर। मेरा तो मानना है कि ‘जिसने किये श्रम, उसने तोड़े क्रम।’ बस्स, किसी जुगत हमारा ये लड़का कहीं सैटल हो जाये...तो समझिये हम दून्नौ परानी गंगा नहायें।’’ उन्होंने उन खल्वाट खोपड़ी वाले महाशय की दोनों हथेलियांॅ अपने हाथों में लेते, एक आंॅख हल्के से दबाते हुए कहा। इस पर अन्तर्यामी जी ने ऐसे सिर हिलाया मानो वो ऐसी सांकेतिक भाषा समझने में सिद्धहस्त हों। पर मैं उनकी बातों, संकेतों के मायने डेसिफर नहीं कर पाया।

‘‘आप कहांॅ काम करते हैं?’’ मेरी तन्द्रा भंग करते, मेरे पीछे बैठे एक बुजुर्ग सज्जन ने हस्तक्षेप किया।

‘‘जी, जंगलात विभाग में हूँ।’’ मैंने जवाब दिया।

‘‘तभी तो सोचंूॅ कि आपको कहांॅ देखा है? मैं भी वहीं से रिटाॅयर हुआ हूँ। अगले महीने हमारी शादी की पचासवीं सालगिरह है। आप आइयेगा। वैसे आप किस बिरादरी के हैं?’’

‘‘जी...?’’

‘‘अरे! तिरलोचन चाचा। ई तनी कम सुनत हैं। तनिक जोर से बतलावा जाय।’’ मैं उन्हें अपनी बिरादरी बताता कि उसी बीच मेरा दोस्त, जो पास ही पड़ी एक कुर्सी खींच कर हमारे पास आकर बैठ गया। उसने मेरे बारे में उन्हें जानकारी दी। अब तिरलोचन चाचा का मुंॅह देखने लायक था। वो दूसरी तरफ मुंॅह करके बैठ गये। हमारा परिचय, हमारी बात, अधूरी ही रह गयी।

कुछ लोग वहांॅ निरूत्साहित भाव, अन्यमनस्क से भी बैठे थे। शायद वे एक-दूसरे से अपरिचित थे। खुल कर बोलने𝔠ाने में संकुचा रहे थे।

‘‘सुनिए! चीनी का डिब्बा नहीं मिल रहा। आपने सुबह चाह बनाई थी, फिर कहांॅ रख दिया?’’ दोस्त की पत्नी ने किचन से ही गुहार लगाया। मेरा दोस्त वहांॅ से फौरन उठकर, किचन में गया और चीनी का डिब्बा ढंूॅढ़ कर पत्नी के हवाले करते...‘कंॅखरी लरिका गांॅव गोहार’...ये लो। गैस-सिलिण्डर के बगल में ही तो रखा था।’...कहते, भुनभुनाते, हमारे बीच आकर बैठ गया।

एक जनाब जो मेरे ठीक बगल में ही बैठे थे, बीच-बीच में अपने मोबाॅयल पर किसी आॅर्किटेक्ट से बतिया ले रहे थे। बातचीत में प्लम्बर, कारपेण्टर, पाइप, एल्बो, टी, मिस्त्री, टाॅइल्स, माॅर्बल्स जैसे शब्दों की आवाजाही से साफ लग रहा था कि उनके मकान में कुछ निर्माण कार्य चल रहा था। उनकी बातचीत से ये भी अंदाजा हुआ कि अगले खरमांस के बाद ही उन्हें अपने नये मकान में शिफ्ट होना है। इस वजह से वो और भी चिन्तातुर दिख रहे थे। शायद फोन में आवाज साफ न आने के कारण वो फोन पर बतियाते, रह-रह कर दूसरी तरफ के आदमी को तेज आवाज में भी जरूरी हिदायतें दे रहे थे। इस तरह ड्राइंगरूम में उपस्थित जनों के हो-हल्ले में अच्छे-खासे हाट-बाजार का सा माहौल बन गया था।

वहांॅ उपस्थित जनों की बातों में कभी टी.वी, कभी अखबार, कभी चुनाव तो कभी एक सेलिब्रिटी की हाल ही में हुई शादी की खबरें छायी हुईं थी। वे सभी क्या, क्यों, कहांॅ, कैसे और कब जैसे विस्मयादिबोधक, प्रश्नवाचक शब्दों का प्रयोग ऐसे कर रहे थे, जैसे उनमें सब कुछ जानने की उत्कट इच्छा हो। यद्यपि उनमें एक-दूसरे को सुनने में कम, कहने में ज्यादा दिलचस्पी थी। कभी-कभी तो वे बेवकूफी भरे विषय पर इस कदर ताव खा जाते, मानों भिंड़ जायेंगे। ‘सूत न कपास जुलाहों में लट्ठम-लट्ठ’ टाइप स्थिति भी हो जाती। ये अलग बात है कि ढ़ेर सारी निथरी जानकारियों के वाबजूद, उनकी बातों में कहीं-कहीं निर्णयात्मकता की भी झलक दिखाई-सुनाई पड़ जाती।

इसी बीच पता नहीं और किसी का ध्यान गया कि नहीं, मैंने गौर किया। एक दस-बारह साल का बच्चा जो वहीं किनारे सोफे पर चुपचाप गुमशुम बैठा, हम सब की विद्वतापूर्ण, गुरू-गम्भीर बातें? सुन रहा था, या शायद हमारी बातें उस मासूम की समझ से परे थीं, हमारे बीच बैठे खुद को असहज महसूस करते, अचानक उठकर पोर्च की तरफ चला गया। मैंने ध्यान दिया कि पोर्च में एक सज्जन तख्त पर लेटे थे, और उन्हीं के बगल में एक नन्हा सा पिल्ला भी सोया था। वो बच्चा उसी पिल्ले से खेलने में मगन हो गया। ऐसे में उस पिल्ले के किंकियाने, बच्चे के खिलखिलाने से तख्त पर ऊंॅघते सज्जन की नींद में खलल पड़ना स्वाभाविक था। उन्होंने उस बच्चे को जोर से डांॅट कर वहांॅ से भगा दिया। डांॅट खाकर मन मसोसते, मुंॅह लटकाये अब वो बच्चा फिर हमारे बीच आकर सोफे पर बैठ गया।

चंूॅकि हमारे बीच चल रही बहस-मुबाहिशें, गूढ़ बातें, उस बच्चे की समझ से परे थीं। वो हमारे बीच सोफे पर बैठा बेतरह असहज भी लग रहा था। भला उसे हमारी दुनियावी बातों में क्यों और किस कर दिलचस्पी होगी? उस बच्चे के हाव-भाव से मैंने अन्दाजा लगाया, वो वहांॅ संयत होकर बैठ नहीं पा रहा था। आश्चर्य कि उस बच्चे के मनोभावों-मनोदशा को समझने की फिक्र, वहांॅ मौजूद उसके पिता को भी नहीं थी। मैंने ध्यान दिया तो पाया कि उस बच्चे के पिता को ही हंॅसी-ठठा करते, बहस-बीच बढ़-चढ़ कर प्रतिभाग करने में सबसे ज्यादा दिलचस्पी थी। बातचीत की रौ में उन्हें शायद इल्म ही नहीं था कि उनके बगल ही उनका बेटा, अनमना, उदास सा बैठा है।

इसी बीच वो बच्चा एक-दो बार छत पर भी गया, लेकिन वहांॅ भी खेलने जैसी अपने मतलब की कोई चीज न पाकर, वापस ड्राइंग-रूम में हम-सब के बीच आकर सोफे पर बैठ गया। मकान का ऊपरी हिस्सा अभी आधा-अधूरा ही बना था। सीढ़ियों पर रेलिंग्स भी नहीं लगीं थीं। फर्श पर लगे मार्बल्स पर ताजा घिसाई के बाद धान की भूसी बिखरी होने के कारण फिसलन भी थी। जिससे फर्श पर असावधानीपूर्वक चलने से फिसल कर गिरने का भी भय था। इसी वजह से दोस्त की पत्नी भी उस बच्चे को बार-बार सीढ़ियों के रास्ते दौड़ते हुए छत पर जाने से रोकते, हिदायतें देते टोक दे रही थीं। बच्चे के पिता ने भी उसकी इस हरकत पर उसे घूरते, डांॅटते, वहीं चुपचाप सोफे पर बैठे रहने की हिदायत देते, सेण्टर-टेबल के नीचे पड़े एक अखबार की प्रति निकाल कर उसमें छपे ‘सुडोकू’ को हल करने की हिदायत दे डाली।

पता नहीं क्यों...मेरा पूरा ध्यान उस बच्चे की हरकतों पर ही था। पिता की सख्त हिदायतवश वो बच्चा, अखबार का टुकड़ा लिये बैठा अभी भी हम-सब को घूर रहा था। सुडोकू हल करने में उसे कोई रूचि नहीं थी। वो एक बार फिर वहांॅ से उठ कर जाने को उद्यत हुआ तो पिता ने उसे फिर आंॅख दिखाते, निकष अपनी ही स्टाॅयल में सख्ती से डांॅटते...‘‘अरे! कहांॅ चले, मेरी जान के दुश्मन? तुम्हारी महतारी भी तुमसे ए ही लिए परेशान रहती हैं। इहांॅ आराम से बइठे मां तुम्हें कउनो दिक्क्त है का? हमार मूड़ न पिरवावौ। इहांॅ चुप्पै बइठो।’’ उसे वहीं चुपचाप बैठे रहने की हिदायत दी।

‘‘मुझे बड़े जोर की सू-सू लगी है।’’ इस बार वो बच्चा डरते-सहमते, अपने पिता को कानी ऊंॅगली दिखाते, बाथ-रूम की ओर तेजी से भागा।

उस पिता का अपने पुत्र पर इस तरह बार-बार बिफर जाना मुझे बिलकुल भी अच्छा नहीं लग रहा था। जैसी कि मेरी जानकारी है, आबालबृद्ध...हम-सब-जन के अपने-अपने मनोविज्ञान हैं। यदि बचपन में बच्चों को ज्यादा डराया-धमकाया जाय, तो आगे चलकर उनमें मनोविकार आने से इन्कार नहीं किया जा सकता। मैंने कहीं पढ़ा है कि बच्चों को उनकी गलतियों पर डांॅटने-फटकारने के बजाय प्यार से समझाना चाहिए। सार्वजनिक रूप से तो उन्हें कत्तई डांॅटना-मारना, या उन पर व्यंग्य-तंज नहीं करना चाहिए। इससे उनके मन-मस्तिष्क पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। बच्चे कह भले न पायें, परन्तु बड़ों की नकल बहुत अच्छी तरह कर लेते हैं।

बाथरूम से वापस आकर वो बच्चा पुनः हाथ में अखबार लिए ‘सुडोकू’ हल करने में तल्लीन हो गया।

यहांॅ एक बेहद जरूरी बात पर ध्यान आकृष्ट करना लाजिमी है। वो बच्चा सोफे पर जहांॅ बैठा था, उसी के बगल दीवान पर एक नन्हा शिशु जो काफी देर से सोया था, अब जाग चुका था, और दीवान पर लेटे-लेटे ही अपने दोनों पैरों को सायकिल चलाने की मुद्रा में घुमाते, खेलने में मगन था। उस नन्हें शिशु की इस हरकत की तरफ किसी का ध्यान नहीं था।

थोड़ी देर बाद उस शिशु की मांॅ वहांॅ ड्राइंग-रूम में आयीं, और शिशु के मुंॅह में दूध का बोतल पकड़ाकर वहांॅ से चली गयीं। वो बच्चा, उस शिशु की हरकतों पर नजर रखे हुए था। दूध पी चुकने के बाद वो शिशु अब उठने का प्रयास कर रहा था। ऐसे में उस बच्चे को जाने क्या सूझी, उसने शिशु को अपनी गोद में उठाकर सेण्टर-टेबल पर सीधा बिठा दिया। बच्चे की ये हरकत, वहांॅ बैठे उसके पिता को बहुत ही नागवार लगी। उन्होंने शिशु को इस तरह सेण्टर-टेबल पर बिठाने के लिए अपने बच्चे पर आंॅखें तरेरते, उसे जोर से डांॅटा। जिसे सुनकर वो बच्चा रूंॅवासा सा, कमरे से बाहर चला गया।

बच्चे को सार्वजनिक रूप से तेज आवाज में डांॅटते देख, वहांॅ आसपास बैठे लोगों ने बच्चे के पिता के इस व्यवहार पर घोर विरोध जताते आपत्ति भी की। कुछ लोगों ने तो बाल-मनोविज्ञान पर अच्छा-खासा लेक्चर भी झाड़ दिया।

परन्तु ये क्या! एक मासूम शिशु को हंॅसते-खिलखिलाते अपने बीच पाकर वहांॅ मौजूद लोगों की बातचीत का विषय अब बदल चुका था। अब लोगों की बातचीत का विषय, आकर्षण का केन्द्र सेण्टर-टेबल पर बैठा वो नन्हा शिशु था। लोगों संग वो शिशु भी खूब खिलखिलाकर हंॅस रहा था। सभी के चेहरों पर स्वाभाविक हंॅसी खिली हुई थी। उस बच्चे के इस अनूठे प्रयोग से ऐसा लग रहा था मानों हम सभी का बचपन वापस लौट आया हो। अब किसी के भी चेहरे पर तनाव, रोष या किसी प्रकार की तल्खी नहीं दिख रही थी। सभी उस शिशु संग खेलने में मशगूल हो गये। सभी के आकर्षण का केन्द्र अब वो नन्हा शिशु था।

इस बीच सामने दीवान पर पड़े अखबार के उस टुकड़े पर अनायास ही मेरी नजर चली गयी। उस बच्चे ने ‘सुडोकू’ का पूरा सवाल हल कर लिया था, पर कब...? हम जान ही नहीं पाये।

राम नगीना मौर्य,

5/348, विराज खण्ड, गोमती नगर

लखनऊ - 226010, उत्तर प्रदेश,

मोबाॅयल न0-9450648701,

ई मेल- ramnaginamaurya2011@gmail.com

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