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बेटियां

बेटियां

भवानी प्रसाद की आंखों से नींद कोसों दूर थी। शरीर पलंग पर था मगर दिल कहीं ओर। वे समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर वे करें तो करें क्या? उनके सामने एक तरफ कुआं-दूसरी तरफ खाई थी। एक तरफ उनकी आत्मा उन्हें धिक्कारती कि उन्होंने मोह-माया में फंसकर अपनी तमाम उम्र की पूंजी गंवा दी। अपने वे सिद्धान्त जिनके लिए वे बड़े अधिकारियों व पूंजीपतियों की भी परवाह नहीं करते थे, आखिर क्या थे! जिन्हें निभा कर उन्होंने जमाने भर की नाराजगी और भीषण परेशानियां झेली थी। अब वे पूरी तरह कंगाल हैं! आदर्श के रूप में देखने वाली नई पीढ़ी उन्हें दोगला कहकर चिढ़ा रही है। दूसरी ओर उनकी फूल सी बच्ची... नहीं... नहीं... नहीं...! कल्पना करके ही सिहर उठे भवानी प्रसाद!

भवानी प्रसाद को लगा कि वे किसी चक्रव्यूह में फंस गए हैं। ऐसे चक्रव्यूह में जिसमें से निकलने का रास्ता शायद अभिमन्यु को भी ज्ञात नहीं था। पैंतीस वर्ष की अपनी सरकारी नौकरी में भी उनके सामने ऐसी उलझन कभी नहीं आई जैसी आज आ रही है। नगर परिषद के अधिशासी अभियन्ता जैसे कमाऊ पद से सेवानिवृत्त होकर वे आर्थिक रूप से भले ही ज्यादा सुदृढ़ नहीं थे लेकिन चारित्रिक रूप से वे शहर के बड़े-बड़े लोगों से कहीं ज्यादा मजबूत और ऊंचे थे। जिन्दगी में जाने कितनी बार उन्होंने सोने-चांदी के चमचमाते सिक्कों और शराब व शबाब के मदमाते प्रस्तावों को ठोकर मारी थी। उनके पास ईमानदारी, सेवा, सत्य, निष्ठा और सिद्धान्तों की जो पूंजी थी, उसने उन्हें कभी किसी से नीचा नहीं होने दिया। लोग उनकी मिसाल दिया करते थे कि सूरज पूर्व के बजाय भले ही पश्चिम से उदय हो जाए, पर भवानी प्रसाद की बात में कभी फर्क नहीं आ सकता।

सेवानिवृत्ति के पश्चात भी वे अपनी बेबाकी और दिलेरी के कारण अलग पहचान रखते थे। वे इस सिद्धांत से सहमत थे कि जुल्म करने वाला तो अपराधी है ही, जुल्म सहने वाला उससे भी बड़ा अपराधी है। बल्कि वे तो इस बात को कुछ और आगे बढ़ाकर कहते थे- जुल्म होते देखकर भी चुपचाप कन्नी काट जाने वाले लोग सबसे बड़े अपराधी हैं। जो गलत को गलत कहने की हिम्मत नहीं रखता, उसे समाज में रहने का कोई अधिकार नहीं।

भवानीप्रसाद भूले नहीं हैं कि नौकरी के दौरान भी न तो उन्होंने किसी की जी हजूरी की और न ही ऐसे लोगों को कभी पसंद किया। वे तो आयुक्त और सभापति के गलत निर्णय पर भी टिप्पणी करने से नहीं चूकते थे। चोर को चोर कहने की अपनी बेबाकी के कारण जाने कितनी बार उन्हें तबादले की पीड़ा भी झेलनी पड़ी। वे असंख्यं लोगों की आंख की किरकिरी भी बने लेकिन कभी अपने सिद्धांतों से नहीं टले। अपनी जीवन शैली बदली, न ही काम करने का अंदाज!

वैसे उनके साथी श्यामलाल भी ईमानदार थे लेकिन वैसे नहीं जैसे भवानी प्रसाद चाहते थे, खरे सोने जैसे! क्योंकि वे खुद तो कभी गलत काम नहीं करते थे लेकिन दूसरे के गलत काम पर आंख भी मूंद लेते थे। इस मुद्दे पर जब कभी श्यामलाल से चर्चा होती, भवानी प्रसाद कहते, 'आदमी की सिर्फ दो ही नस्लें होती हैं! ईमानदार या बेईमान! बीच का कोई रास्ता नहीं होता! यह नहीं चल सकता कि मैं खुद रिश्वत नहीं लूं, कोई गलत काम नहीं करूं लेकिन अपने ईर्द-गिर्द होते हजारों गलत कामों पर आंखें मूंदे रहूं। गलत काम देखकर चुप रहना भी गलत काम करने वालों के साथ साझेदारी करना है! उसे प्रोत्साहन देना है!

'आदमी को कभी नौकरी नहीं करनी चाहिए... श्यामलाल कहते, 'नौकरियां आदमी को डरपोक और दब्बू बना देती हैं। खास-तौर से अपने से अयोग्य व्यक्ति के अधीन काम करना तो खुद को तिल-तिल मारने जैसा ही होता है। नौकरी से बेदखली का भय और भविष्य की सुरक्षा आदमी से वह सब करवा लेती है, जिसे उसकी आत्मा स्वीकार नहीं करती!

'इसे ही तो नपुंसकता कहते हैं! भवानी प्रसाद जोर देकर कहते, 'अगर आपका काम सही है तो कोई माई का लाल आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकता! फिर हमें जरूरत क्या है ठकुर सुहाती करने और लोगों के गलत कामों पर मोहर लगाने की?

'तुम हिम्मत वाले हो... श्यामलाल हार मान लेते, 'हमें तो तीन-तीन बच्चे पालने हैं! तुम्हारा क्या है? पत्नी और एक बेटी। तीन जीव हो। कहीं भी गुजारा कर लोगे।

'पत्नी और बेटी... श्यामलाल की वर्षों पूर्व कही बात याद आते ही भवानी प्रसाद की आंखें फिर नम हो आईं और नम आंखों में उनकी बेटी कुसुम का मुस्कुराता हुआ चेहरा तैर गया! इसी साल उसकी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी हुई है और उसे देश की एक प्रतिष्ठित कम्प्यूटर कम्पनी में नौकरी का प्रस्ताव भी मिला है। शुरू से ही पढ़ाई में अव्वल रहने वाली कुसुम को उन्होंने अपनी तरह ईमानदारी और सत्य का पाठ पढ़ाया था। इकलौती संतान होने के बावजूद भवानी प्रसाद के लाड-प्यार ने उसे बिगाड़ा नहीं था अपितु बेईमानी के सरल-सुगम और सुविधाओं से भरे मार्ग के बजाय सिद्धांतों के कंटीले और दुर्गम पथ पर चलना सिखाया था। उन्हें खुशी इस बात की थी कि कुसुम मेें भी सुख-सुविधाओं के पीछे भागने की नहीं, कठोर श्रम और निष्ठा से कार्य करने की प्रवृत्ति थी। वह विषम परिस्थितियों में भी हिम्मत नहीं हारती और हर मुसीबत का दिलेरी से मुकाबला करती है। लोग उसकी हिम्मत देखकर अक्सर कहते हैं- आखिर बेटी किसकी है! लेकिन यह सोचते-सोचते उनकी आंखों में बसी अपनी बेटी की तस्वीर एकाएक बदल गई। अब मुस्कुराती हुई कुसुम के बजाय भयभीत हिरणी-सी कुसुम उनकी आंखों के सामने थी। उन्हें लगा कि हवस के भूखे भेडिय़ों ने कुसुम को अपने नुकीले पंजों में जकड़ रखा है और छटपटाती हुई कुसुम उन्हें पुकार रही है- पापा बचाओऽऽऽ! पापा बचाओऽऽऽ!

'नहीं... नहीं... नहीं... चीख पड़े भवानी प्रसाद।

उनकी चीख सुनकर पत्नी और कुसुम दौड़ कर आई। उन्हें झिंझोरते हुए पत्नी बोली, 'क्या हुआ कुसुम के पापा? डर गए थे क्या? कोई डरावना सपना देखा? कुछ बोलते क्यों नहीं?

उन्होंने भयभीत निगाहों से पहले पत्नी और फिर बेटी को देखा। दोनों के चेहरों पर हवाइयां उड़ रही थी। अपने नाम के अनुरूप हमेशा फूल की तरह खिली रहने वाली कुसुम का चेहरा कुम्हला गया था। उसकी आंखों में एक अनजाना-सा भय तैर रहा था। उन्होंने पत्नी व बेटी को इस तरह बदहवास देखा तो खुद को सम्भाल कर बोले, 'कुछ नहीं। यूं ही एक बुरा सपना देखा था। तुम दोनों अपने कमरे में जाकर सो जाओ।

वे फिर सोने का प्रयास करने लगे। पत्नी कुसुम को लेकर उसके कमरे की तरफ बढ़ गई। उस घटना के बाद वे कुसुम को अकेली नहीं छोड़ते थे। रात को भी भवानी प्रसाद की पत्नी अपनी बेटी के साथ उसके कमरे में सोती थी। खुद भवानी प्रसाद अपनेे कमरे में अकेले सोने लगे थे। कभी-कभी उन्हें लगता कि डरी हुई कुसुम नहीं, वे खुद हैं। उन्हें खुद अकेला नहीं रहना चाहिए। फिर वे खुद ही अपने मन को तसल्ली देते, 'हिम्मत से काम लो। यूं कोई जंगलराज थोड़े ही है कि कुछ भी हो जाए। आखिर कानून व्यवस्था भी कोई चीज है।

'लेकिन ये लोग कानून की कहां परवाह करते हैं। भवानी प्रसाद का मन फिर अंधी गलियों में भटकने लगा, 'कानून को तो वे मात्र खिलौना समझते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो क्या मजाल थी कि आज वे यूं घर में घुसकर न सिर्फ बदतमीजी कर जाएं बल्कि भयंकर अंजाम की धमकी भी दे जाएं।

भवानी प्रसाद फिर अपनी बेटी के बारे में सोचकर परेशान होने लगे। उन्हें लगा कि वे भीतर से कहीं टूट रहे हैं और उनके अंदर कुछ किरच-किरच बिखर रहा है। वे स्वयं को बेहद असहाय और कमजोर महसूस कर रहे थे। उनकी सारी शक्ति, आत्मविश्वास और दृढ़ता जाने कहां चली गई थी। भवानी प्रसाद सोचने लगे, 'क्या सचमुच बेटियां आदमी को कमजोर बना देती हैं? बेटियों का भविष्य बाप की सारी शक्ति और ऊर्जा को सोख लेता है?

'नहीं... नहीं... बेटियां तो अपने पिता के घर की शान होती हैं। वे कमजोर नहीं, शक्तिशाली बनाती हैं। भवानी प्रसाद की अंतरात्मा ने कहा तो वे उठकर बैठ गए और उस घटना पर विचार करने लगे जिसने उनकी जिन्दगी में भूचाल ला दिया था।

उस दिन वे दिल्ली से लौटे थे और रात को बारह बजे पैदल ही स्टेशन से अपने घर आ रहे थे। उनका घर स्टेशन से कुछ दूर नवविकसित कॉलोनी में है। गली के मोड़ पर उन्होंने किसी की चीख सुनी और आवाज की दिशा में दौड़े। जब नजदीक पहुंचे तो दंग रह गए। गुण्डेनुमा चार युवक गंगाप्रसाद की जवान लड़की सुषमा को उठाकर जीप में डालने का प्रयास कर रहे थे। सुषमा उनसे बचने के लिए हाथ-पांव मार रही थी लेकिन उसका बस नहीं चल रहा था। गुस्से में भवानी प्रसाद ने जोर से ललकारा, 'लड़की को छोड़ दो!

अचानक ललकार सुनकर चारों युवक घबरा गए और लड़की को वहीं छोड़कर जीप में सवार हो फरार हो गए। गंगा प्रसाद का मकान हाल ही में बना था और आस-पास कई भूखंड खाली पड़े थे। इसलिए लड़की की चीख कॉलोनी के घरों तक नहीं पहुंच पाई थी। वे उसे पहुंचाने घर गए तो पता चला कि सुषमा के परिवारजन रिश्तेदारी में किसी विवाह में गए हुए थे। सुषमा अपनी बीए अंतिम वर्ष की परीक्षा के कारण नहीं जा सकी थी और घर पर अकेली थी। भवानी प्रसाद को सुषमा के परिवारजनों पर बहुत गुस्सा आया कि वे लड़की को अकेली छोड़ गए थे। उन्होंने घर को ताला लगाया और डरी हुई सुषमा को अपने घर ले आए। घर में कुसुम का साथ पाकर सुषमा संयत हो गई थी। अगले दिन जब गंगा प्रसाद आए तो उन्हें घटना की जानकारी हुई और अपनी गलती का एहसास भी। वे इस घटना को बुरा सपना समझकर भूल जाना चाहते थे लेकिन भवानी प्रसाद और कुसुम के समझाने पर वे उन युवकों के खिलाफ पुलिस थाने में अपहरण व बलात्कार के प्रयास का मुकदमा दर्ज करवाने के लिए पहुंचे। सुषमा ने उन चारों युवकों को पहचान लिया था। वे चारों उसी के कॉलेज में पढ़ते थे। कॉलेज में लड़कियों से छेड़छाड़ और लोगों से मारपीट करना उनका शगल था। अमीरजादे होने के कारण उन्हें न तो कॉलेज प्रशासन की परवाह थी और न ही कानून व्यवस्था की।

सुषमा ने नामजद रिपोर्ट लिखवाई और चश्मदीद गवाह के रूप में भवानी प्रसाद के बयान भी दर्ज हुए। थोड़ी हील हुज्जत के बाद पुलिस ने चारों को गिरफ्तार किया और चालान पेश कर दिया। अगले दिन वे जमानत पर छूट गए। अदालत में मुकदमा चल पड़ा। भवानी प्रसाद पर गवाही से मुकरने के लिए दबाव बनाया जाने लगा। पहले मित्रों से दबाव डलवाया और फिर पचास हजार रुपए देने की पेशकश हुई लेकिन भवानी प्रसाद को न टलना था, न टले।

एक रात, रात के बारह बजे किसी ने उनके घर का दरवाजा खटखटाया। दरवाजा खोलते ही सात-आठ गुंडों ने उन्हें धर दबोचा और अंदर से दरवाजा बंद कर लिया। दो युवक उनकी पत्नी व बेटी को भी पकड़ लाए थे। उन गुण्डों में वे चारों युवक भी शामिल थे जिन्होंने सुषमा को उठाने का प्रयास किया था। उनमें से एक युवक ने झपटकर कुसुम का दुपट्टा खींच लिया था और बोला था, 'बुड्ढïे। अब भी अगर तूने बयान नहीं बदला तो तेरी बेटी का सिर्फ दुपट्टïा नहीं खींचेंगे। वह सब भी करेंगे जो उस रात उसके साथ नहीं कर पाए थे। समझ रहा है न तू। कहते हुए वे लौट गए थे।

भवानी प्रसाद निस्तेज हो गए। उन गुण्डों द्वारा कुसुम का दुपट्टïा खींचना और आतंकित कुसुम का बेबस निगाहों से उन्हें देखना, उनके लिए असहनीय हो गया था। जीवन में पहली बार उन्हें बेटी की आबरू का ख्याल आया था और उन्हें लगा कि अगर बदमाश अपने मकसद में कामयाब हो गए तो... ? जीवन में उन्हें पहली बार लगा कि आदर्शों, ईमानदारी और सत्य के लिए बेटी को खतरे में डालना मूर्खता होगी। कभी उनकी आत्मा उन्हें सत्य का पाठ पढ़ाती तो कभी डरपोक पिता अपनी बेटी की इज्जत का हवाला देता। इसी ऊहापौह में रात गुजर गई।

पूर्व दिशा में लालिमा फूट रही थी तो किसी ने दरवाजा खोला। देखा, कुसुम चाय की प्याली लिए खड़ी थी। उसके चेहरे पर वही दृढ़ता और आत्मविश्वास था जो हमेशा रहता था। उसने प्याली मेज पर रखने के बाद कहा, 'पापा, चाय!

उन्होंने बेटी की तरफ प्रश्नवाचक निगाहों से देखा।

'पापा... कुसुम ने कहा, 'जीवन में आप कभी नहीं हारे। अगर इस बार हार गए तो आप, मैं और मम्मी क्या जीते जी मर नहीं जाएंगे? जो सुषमा के साथ हुआ, वह मेरे साथ होता तो भी क्या आप बयान देने से पहले इतना विचलित होते?

'पर बेटी... कुछ कहने के लिए उनके होठ खुले तो

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