बहती रहना माँ गंगा शिखा श्रीवास्तव द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बहती रहना माँ गंगा

अपना अंतिम पर्चा खत्म करके जैसे ही नैना परीक्षा-भवन से निकली उसकी सहेलियों ने उसे घेर लिया।

"अरे सुन नैना, हम सबने छुट्टियों में गोवा जाने की योजना बनायी है। तू भी हमारे साथ चल रही है।" सबने समवेत स्वर में कहा।

उनकी बात सुनकर नैना का चेहरा खिल उठा। लेकिन तभी कुछ याद आते ही उसने उदास स्वर में कहा "नहीं यार, इस बार मैं तुम लोगों के साथ नहीं जा सकती। माँ ने पहले ही छुट्टी की योजना बना ली है।"

"इस बार क्या, हर बार तू यही कहती है। जा तू अपनी माँ के साथ ही जा। ज़िन्दगी भर माँ की बिट्टो रानी बनी रह।" सारी सहेलियों ने नाराज होते हुए कहा और वहाँ से चली गयी।

उनकी बात सुनकर नैना का मूड खराब हो गया। अपने गुस्से को किसी तरह काबू करते हुए वो घर की तरफ चल पड़ी।

"अरे आ गयी बिट्टो रानी? कैसा गया पर्चा?" नैना की माँ सुनीता जी ने नैना को देखते ही पूछा।

नैना बिना कोई जवाब दिये अपने कमरे में चली गयी।

सुनीता जी घबराकर उसके कमरे में गयी और बोली "क्या बात है नैना? सब ठीक है ना? अगर पर्चा ठीक नहीं हुआ तो कोई बात नहीं। अगली बार और मेहनत कर लेना।"

"ऐसा कुछ नहीं है। बस मुझे थोड़ी देर के लिए अकेला छोड़ दो आप।" नैना ने अपना गुस्सा छुपाने की कोशिश करते हुए कहा।

नैना की माँ सुनीता जी को हमेशा से ही घूमने का बहुत शौक था। लेकिन ना उनके माता-पिता को इतनी फुर्सत थी कि उन्हें कहीं लेकर जाते और ना अब शादी के बाद उनके पति को ही घूमने में दिलचस्पी थी। वो दिन-रात बस अपने व्यापार में ही डूबे रहते थे। तब सहेलियों के साथ बाहर जाने की बात कल्पना से भी परे हुआ करती थी।
नैना सुनीता जी की उनकी एकलौती बेटी थी। जबसे नैना बड़ी हुई, सुनीता जी उसकी छुट्टियों में उसे साथ लेकर घूमने की अपनी इच्छा पूरी करती थी।
नैना भी हमेशा छुट्टीयों में नयी-नयी जगह देखने के लिए उत्साहित रहती थी।
लेकिन इधर जबसे वो कॉलेज में गयी थी, तबसे सहेलियों को समूह बनाकर घूमने जाता देखकर उसकी भी इच्छा होती थी की वो भी माँ की जगह उनके साथ जाये। लेकिन हर बार सुनीता जी पहले से ही योजना तैयार रखती थी, जिसे मना कर पाने की हिम्मत नैना में नहीं होती थी।
आज भी ऐसा ही कुछ हुआ था जिसके कारण नैना का मूड खराब हो गया था और उसे सुनीता जी पर गुस्सा आ रहा था कि वो योजना बनाने से पहले कभी उससे क्यों नहीं पूछती।
इसलिए वो उनकी बात का जवाब दिये बिना सीधे अपने कमरे में आ गयी।

वो सोच में डूबी ही थी कि तभी फिर सुनीता जी की आवाज़ आयी "लगता है सारे इडली-सांभर आज मुझे अकेले ही खाने होंगे।"

इडली-सांभर नैना की कमजोरी थी। वो तुरंत उठी और हाथ-मुँह धोकर खाने की मेज पर आ गयी।

खाते-खाते नैना ने पूछा "तो माँ, इस बार हम कहाँ जा रहे हैं?"

"इस बार हम गंगोत्री जा रहे हैं। मेरी कबसे इच्छा थी कि माँ गंगा को हिमालय से निकलते हुए देखूँ।" सुनीता जी ने उत्साह से कहा।

गंगोत्री जाने की बात सुनकर नैना अजीब सा मुँह बनाते हुए बोली "क्या माँ तुम भी। ये कोई मेरी तीर्थ करने की उम्र है? इससे तो अच्छा मैं अपनी सहेलियों के साथ गोवा चली जाऊँ।"

"ओह्ह अब समझी की मेरी बिट्टो रानी का मूड क्यों खराब था। तुझे सहेलियों के साथ गोवा जाना है तो कोई बात नहीं। तू जा। हम फिर कभी चले जायेंगे।" सुनीता जी सहजता से बोली।

नैना ने उनकी तरफ देखते हुए कहा "नहीं ठीक है, हम गंगोत्री ही चलेंगे। मैं तैयारी कर लेती हूँ।"

सुनीता जी मन ही मन सोच रही थी कि अगली छुट्टियों में वो नैना को उसकी सहेलियों के साथ ही भेजेंगी।
उधर नैना सोच रही थी कि अगली बार वो सुनीता जी से कह देगी की वो उनकी बेटी है, हमउम्र सहेली नहीं। इसलिए वो भी अपनी सहेलियों के साथ जाये और नैना को भी अपने तरीके से जीने दे।

अगली सुबह नैना और सुनीता जी गंगोत्री की तरफ निकल चुकी थी। हवाई-जहाज से देहरादून पहुँचकर उन्होंने वहाँ से गंगोत्री के लिए टैक्सी ली। अपने ठहरने के लिए उन्होंने पहले ही होटल की बुकिंग करवा ली थी।
होटल पहुँचते-पहुँचते शाम ढ़ल चुकी थी। इसलिए आज उन दोनों ने थोड़ी देर आराम करने के बाद आस-पास थोड़ा घूमने की योजना बनायी।

गंगोत्री का ठंडा-सुहावना मौसम नैना और सुनीता जी दोनों को बहुत रास आ रहा था।

अगली सुबह तैयार होकर दोनों माँ-बेटी गंगोत्री मंदिर की तरफ चल पड़ी।
नैना तेज कदमों से आगे-आगे चली जा रही थी और सुनीता जी पीछे रह जा रही थी।

"ओफ्फ हो माँ, थोड़ा तेज चलो ना। वरना बहुत भीड़ हो जायेगी।" नैना ने झल्लाते हुए कहा।

सुनीता जी हँसते हुए बोली "अरे बिट्टो रानी, तेरी और मेरी उम्र का फर्क भी तो देख।"

मंदिर पहुँचते-पहुँचते वहाँ दर्शन और पूजा के लिए कतारें लगना शुरू हो चुकी थी।
नैना और सुनीता जी भी कतार में खड़ी होकर अपनी बारी की प्रतीक्षा करने लगी।
मंदिर में पूजा और दर्शन के बाद वो दोनों गोमुख जो कि माँ गंगा का उद्गम है, उस तरफ बढ़ चली। हालांकि गोमुख की चढ़ाई कठिन नहीं थी, फिर भी सुनीता जी की साँस थोड़ी फूलने लगी थी। इसलिए वो बीच-बीच में कुछ देर के लिए रुक जा रही थी।

नैना एक बार फिर उनकी तरफ देखकर झल्लाई "ओफ्फ हो माँ, जब चला नहीं जा रहा तो यहाँ आयी ही क्यों? पहले ही हमें मंदिर में कितनी देर हो गयी। अब यहाँ भी देर कर रही हो।"

"आ रही हूँ बिट्टो रानी। गुस्सा क्यों कर रही है। अभी तो पूरा दिन पड़ा है।" सुनीता जी बोली।

अचानक ही नैना के कानों में किसी की हँसी की आवाज़ गूँजी। नैना ने आश्चर्य से आवाज़ की तरफ देखा तो पाया गंगा की लहरों के किनारे एक वृद्धा बैठी थी। उनके कपड़े जीर्ण-शीर्ण थे और चेहरे पर दुखों की लकीरें छायी हुई थी।
उनकी हँसी भी आँसुओं से भरी हुई प्रतीत हो रही थी।
इसके बावजूद उनके संपूर्ण व्यक्तित्व में कुछ ऐसा आकर्षण था कि नैना बार-बार उनकी तरफ देखने से स्वयं को रोक नहीं पा रही थी।

उनकी हँसी का कारण जानने के लिए नैना उनके पास पहुँची और बोली "आप मुझे ही देखकर हँस रही थी ना? क्या मैं इसकी वजह जान सकती हूँ?"

"बिल्कुल जान सकती हो। जिस तरह तुम अभी-अभी अपनी माँ पर चिल्ला रही थी उसे देखकर मुझे हँसी आ गयी। तुम कलयुगी इंसानों की तो आदत हो चुकी है अपनी जीवनदायिनी को पीड़ा पहुँचाना, उसके प्रति कृतघ्नता का व्यवहार रखना। तुम कभी नहीं सुधरोगे।" वृद्धा ने सहज भाव से कहा।

उनकी बात सुनकर नैना गुस्से से बोली "आप हैं कौन जो इस तरह मुझे जज कर रही हैं? मेरी मर्जी मैं अपनी माँ से चाहे जैसे बात करूँ। ये हमारे आपस का मामला है। आप अपनी हँसी, अपने उपदेश किसी और के लिए बचाकर रखिये।"

वृद्धा ने कोई जवाब नहीं दिया। बस मुस्कुराते हुए नैना को देखती रही।

सुनीता जी के पहुँचते ही नैना उनके साथ आगे बढ़ गयी। लेकिन बार-बार पीछे मुड़कर उस वृद्धा की तरफ देखने से वो स्वयं को रोक नहीं पा रही थी।

गोमुख से वापस लौटते हुए नैना ने देखा वो वृद्धा अब भी वहीं बैठी हुई थी।
ना जाने क्या सोचकर नैना उनके पास पहुँची और बोली "आप अभी तक यहीं बैठी हैं? क्या आप अपने परिवार से बिछड़ गयी हैं या रास्ता भूल गयी हैं? कोई मदद चाहिए आपको तो बोलिये। कहीं जाना है तो बताइए मैं पहुँचा दूँगी।"

वृद्धा ने एक नज़र नैना को देखा और कहा " हाँ, जाना तो है अब इस पृथ्वी से हमेशा के लिए। लेकिन कोई मेरी मदद नहीं कर सकता। अपनी मदद अब मुझे स्वयं ही करनी है। तुम जाओ। और हो सके तो अपनी माँ पर कभी झल्लाना मत।"

नैना उनकी बातों का अर्थ समझने की कोशिश करती हुई सुनीता जी के साथ आगे बढ़ गयी।

सारी रात नैना के दिलों-दिमाग में वही वृद्धा और उनकी बातें घूमती रही। उसने दूसरी बातों में अपना ध्यान लगाने की बहुत कोशिश की लेकिन उसे नाकामयाबी ही मिली। आज नींद भी उससे रूठी हुई मालूम हो रही थी।
अब वो बस बेसब्री से सुबह होने का इंतज़ार कर रही थी।

सूरज की पहली किरण निकलते ही उसने सुनीता जी को जगाया और बोली "माँ, उठो ना प्लीज। जल्दी से तैयार हो जाओ। हमें गोमुख जाना है।"

सुनीता जी अलसाये स्वर में बोली "गोमुख? फिर से? पर क्यों?"

"चलो ना माँ प्लीज। मैं वादा करती हूँ धीरे चलने की वजह से मैं तुम पर गुस्सा नहीं करुँगी।" नैना ने आग्रह करते हुए कहा।

सुनीता जी बिस्तर से उठते हुए बोली "अच्छा, अच्छा ठीक है, चलो चलते हैं।"

थोड़ी ही देर में नैना और सुनीता जी गोमुख के रास्ते पर थे।

कल जहाँ नैना को वो वृद्धा मिली थी वहाँ पहुँचकर नैना ने इधर-उधर देखा लेकिन उसे कोई नज़र नहीं आया। निराश होकर वो लौट ही रही थी कि उसके कानों में आवाज़ आयी "मुझे ही ढूँढ़ रही हो क्या? आओ इधर आ जाओ।"

नैना ने देखा थोड़ी दूर पर लहरों के बीच बैठी हुई वो वृद्धा अपने मैले हाथ-पैरों को साफ करने का जतन कर रही थी।

नैना भी उनके पास एक पत्थर पर बैठ गयी और बोली "माफ कीजियेगा पर आपके शरीर पर इतनी मैल है कि वो आसानी से साफ नहीं होगी। इसमें बहुत वक्त लगेगा।"

"हाँ जानती हूँ। फिर भी नाकामयाब कोशिश करती रहती हूँ। क्या करूँ अब अपना मैला शरीर मुझसे बर्दाश्त नहीं होता।" वृद्धा के स्वर में उदासी की झलक थी।

उनकी बात सुनकर नैना ने कहा "अगर आप रोज स्नान करती, साफ-सफ़ाई करती तो ये मैल कभी जमता ही नहीं।"

"मेरी स्वच्छता जिनकी जिम्मेदारी थी, जब मेरे वो बच्चे अपने कर्त्तव्य से विमुख हो गये तो बुढ़ापे में इस माँ की तो ये दशा होनी ही थी।" वृद्धा ने शून्य में देखते हुए जवाब दिया।

"ओह्ह अब मैं समझी। आपके बच्चे आपको नहाने के लिए साबुन नहीं देते। बड़े दुष्ट हैं। आप पुलिस में उनकी शिकायत कीजिये। मैं मदद करूँगी आपकी।" नैना ने दिलासा देने की कोशिश करते हुए कहा।

उसकी बात सुनकर वृद्धा मुस्कुराते हुए बोली "तुम बड़ी भोली हो बेटी। लेकिन मैंने कल कहा था ना मेरी मदद मुझे स्वयं ही करनी है।"

"ठीक है, आप मेरी मदद मत लीजिये। लेकिन कम से कम अपना परिचय तो दीजिये। आप कौन हैं? और कल से अभी तक यहाँ अकेली क्यों बैठी हैं? ना जाने आपमें ऐसी क्या बात है कि मैं सारी रात बस आपके बारे में ही सोचती रही। और सुबह होते ही आपसे मिलने आ गयी।
और आपने कल कहा था ना कि माँ पर गुस्सा मत करना तो आज मैंने उन पर बिल्कुल गुस्सा नहीं किया। कसम से। आप चाहे तो उनसे पूछ लीजिये।" नैना के स्वर में जिज्ञासा और अधीरता दोनों थी।

उसकी बातें सुनकर वृद्धा ने कहा "मेरा परिचय जानना चाहती हो तो मुझे सच्चे मन से एक वचन देना होगा। दोगी? झूठ बोलकर स्वयं को बुद्धिमान समझने की भूल मत करना।"

"नहीं-नहीं आप ऐसा मत सोचिये। मैं आपकी हर बात मानूँगी।" नैना ने तुरंत जवाब दिया।
वृद्धा के आकर्षण में बंधी नैना स्वयं आश्चर्य में थी कि वो क्यों उनकी हर बात मानना चाहती है।

वृद्धा बोली "बस इतना वचन दो की कभी अपनी माँ पर गुस्सा नहीं करोगी। उनके लिए मन में कोई दुर्भावना नहीं रखोगी। सहेली की तरह उनके सुख-दुख को साझा करोगी। उनके बूढ़े-कमजोर कदमों को अपने कदमों की मजबूती दोगी।"

"मैं वचन देती हूँ। मैं ऐसा ही करूँगी।" नैना के इतना कहते ही वृद्धा ने उसकी आँखों पर अपनी हथेली रख दी।
नैना की आँखें प्रत्यक्ष में बंद थी पर अपने अवचेतन मन के साथ वो उस समय-काल में पहुँच चुकी थी जब उसका जन्म हुआ था और वो नवजात शिशु थी।
उसने देखा कभी उसकी माँ रात-रात भर स्वयं जागकर उसे सुला रही है, और अगली सुबह नियत वक्त पर बिना शिकायत के उठकर रोज के अपने काम भी कर रही है।
कभी अपनी थकान भूलकर उसके पीछे-पीछे भाग रही है, उसके साथ खेल रही है। तो कभी उसकी मामूली सी तबियत बिगड़ने पर भी परेशान होकर कई रातों तक जाग रही है।
कभी उसकी फ़रमाइश पर गर्मी में भी रसोई में लगी है तो कभी उसके चेहरे पर मुस्कान देखने के लिए उसके बचपने में भी उसका साथ दे रही है।
मानों उनका सारा अस्तित्व, सारी खुशियाँ, सब कुछ बस नैना में सिमट गया हो।

ये सब देखते और महसूस करते हुए जब नैना की बंद आँखों से आँसुओं की धार बहने लगी तब वृद्धा ने अपनी हथेली हटा ली और बोली "कभी गहराई से सोचना, पिता अर्थात पुरुष के पास तो फिर भी उनके सहकर्मियों और मित्रों का सहारा होता है, लेकिन एक स्त्री का जीवन अधिकांशतः अपने परिवार और बच्चों के इर्द-गिर्द ही सिमट कर रह जाता है। उसे ही अपनी दुनिया मानकर अपना सुख-संतोष उसी में खोज लेना एक बहुत बड़ी खूबी है उनकी।
तुम याद करके बताओ क्या कभी तुमने अपनी माँ को शिकायत करते देखा कि तुम्हारी देखभाल करने की वजह से वो अपनी सहेलियों के साथ कहीं मौज-मस्ती करने नहीं जा सकी या फिर घर कि जिम्मेदारियों से बंधे-बंधे वो थक गयी हैं और उन्हें तुम सबसे कुछ दिनों का अवकाश चाहिए?"

नैना ने बिना कोई जवाब दिये बस खामोशी से एक बार अपनी माँ की तरफ और एक बार उन वृद्धा की तरफ देखा।

खामोशी को तोड़ते हुए वृद्धा ही पुनः बोली "मैं जानती हूँ इसका जवाब ना ही है।
तुम ही बोलो अब की अगर बड़े होने पर, सक्षम होने पर कुछ पल के लिए अपना व्यक्तिगत स्वार्थ, अपनी पसंद को किनारे रखकर हम अपना थोड़ा सा वक्त अपनी माँ को दे दें, उनके पीछे छूट सके सपनों को उनके साथ मिलकर पूरा करें तो क्या इसमें कोई हर्ज़ है? आखिर वो भी तो अपने बच्चों में ही अपना मित्र, अपनी सखी तलाशती है।"

"आप बिल्कुल ठीक कह रही हैं। मैं कितनी मूर्ख हूँ कि मैंने माँ के साथ मिलकर इस ट्रिप को एंजॉय करने की जगह बेवजह अपना भी मूड खराब रखा और उनका भी। और तो और उन पर गुस्सा भी हुई।
माँ प्लीज मुझे माफ़ कर दो। अब मैं ऐसा कभी नहीं करूँगी।" सुनीता जी के गले लगते हुए नैना बोली।

उन्होंने प्यार से नैना के सर पर हाथ रखते हुए कहा "कोई बात नहीं बिट्टो रानी। सहेलियों के बीच ये सब होता रहता है।"

अब वृद्धा से मुखातिब होते हुए नैना ने कहा "आपने मुझे मेरी गलती का अहसास करवाया। इसके लिए मैं हमेशा आपकी आभारी रहूँगी और आपको कभी नहीं भूलूँगी।
क्या अब आप मुझे अपनी कहानी बतायेंगी? आपकी इस स्थिति के पीछे क्या भेद है? हो सकता है जिस तरह आपने मेरी मदद की, मैं भी आपकी मदद कर पाऊँ।"

"आजकल के बच्चे बड़े ही ज़िद्दी होते हैं। अपनी बात मनवाना उन्हें बखूबी आता है। मैं समझ गयी हूँ बिना मेरे बारे में जाने तुम चैन से नहीं बैठोगी।

इसलिए सुनो, मैं गंगा हूँ, वही गंगा, जिसका स्त्रोत देखने तुम यहाँ गंगोत्री आयी हो।"

"क्या? गंगा? आप? सचमुच?" नैना विस्मय से उन्हें देख रही थी।

नैना की आश्चर्य से भरी हुई आँखों की तरफ देखते हुए वृद्धा बोली "अगर तुम्हें मेरी बात पर भरोसा है तब ही मैं आगे कुछ कहूँगी। वरना जाने दो। तुम अपने रास्ते जाओ, मुझे मेरे हाल पर रहने दो।"

"नहीं, नहीं, आप अपनी कहानी सुनाइये। हमें आप पर पूरा यकीन है। हमारे वेद-पुराणों में भी तो कहा गया है कि गंगा महज एक नदी नहीं देवी हैं, और देवी-देवता हमारी तरह शरीर धारण करने में सक्षम होते हैं।" नैना ने उन्हें आश्वस्त किया।

वृद्धा ने कहा "अच्छा लगा जानकर की किसी ने तो मेरा विश्वास किया। वरना जिसे भी मैं अपना परिचय देती हूँ वो मुझे पागल समझकर हँसता हुआ आगे बढ़ जाता है।"

"नहीं-नहीं माँ, हमारे मन में ऐसी कोई बात नहीं है। अपनी दिव्यता का अहसास तो आप मुझे करवा ही चुकी हैं। इसलिए अब मेरी जिज्ञासा और बढ़ती जा रही है।" नैना बोली।

"कभी-कभी सोचती हूँ काश, तुम इंसानों ने मुझे देवी की जगह साधारण नदी ही समझा होता तो अपने पाप, अपने जीवन की गंदगी मेरे आँचल में डालकर उसे यूँ बदबूदार, गंदगी का घर ना बनाते। आज मेरी ये जीर्ण-शीर्ण दशा ना होती। मैं वैसी ही स्वच्छ और निर्मल होती जैसी अपने पिता के घर में थी।"

और गंगा अतीत की यादों में डूबती चली गयी।

समय- सतयुग
स्थान- ब्रह्मलोक

ब्रह्मा जी अपने लोक में बैठकर भगवान विष्णु के वामन अवतार की लीला देख रहे थे।
पहले दो पगों में महाराज बली से पृथ्वी और स्वर्ग दक्षिणा में लेने के पश्चात अब वो तीसरा पग महाराज बलि के सर पर रख चुके थे।
तभी ब्रह्मा जी की नज़र प्रभु के चरणों पर गयी जो धूल-मिट्टी से सन गयी थी।
तत्काल ब्रह्मा जी ने अपना वेश बदला और एक सेवक के रूप में महाराज बलि के यज्ञस्थल पर पहुँच गये।

वहाँ पहुँचकर उन्होंने भगवान वामन से कहा "प्रभु, समस्त सृष्टि का कल्याण करने के लिए हम सब आपके आभारी हैं।
आपका ये सेवक आपके चरण धोने की आज्ञा चाहता है।"

"अवश्य" प्रभु ने अपने चरण आगे बढ़ा दिये।

ब्रह्मा जी ने अपने कमंडल के जल से उन्हें धोया और फिर उस जल को वापस अपने कमंडल में भर लिया।

कमंडल में पुनः जल भरते ही उनके साथ-साथ वहाँ उपस्थित सभी लोगों के आश्चर्य की सीमा नहीं रही जब उन्होंने देखा कि वो जल पूरी तरह स्वच्छ था।

ब्रह्मा जी ने कौतूहल से भगवान वामन की तरफ देखते हुए कहा "हे लीलाधर, ये आपकी कौन सी लीला है?"

"स्वयं सृष्टि के सृजनहार मुझसे पूछ रहे हैं?" प्रभु के चेहरे पर मोहिनी मुस्कान खेल रही थी।

"अब जब आप मुझे पहचान चुके हैं तो इस अद्भुत जल की भी पहचान बता दीजिये पालनहार।" ब्रह्मा जी अपने स्वरूप में आते हुए बोले।

भगवान वामन ने उनके सवाल का जवाब देते हुए कहा "इस जल की उत्पत्ति आपके कमंडल में हुई है, इसलिए समस्त संसार इसे आपकी पुत्री के रूप में जानेगा। हम इनका नाम रखते हैं 'गंगा'।"
उनके इतना कहते ही कमंडल के जल से एक मनोहारी युवती प्रकट हुई औऱ भगवान वामन को प्रणाम करते हुए बोली "प्रभु, गंगा का प्रणाम स्वीकार कीजिये। साथ ही आशीर्वाद दीजिये की मैं 'विष्णुपदी' के नाम से भी जानी जाऊँ।"

"तथास्तु" कहकर भगवान वामन इस स्वरूप को त्यागकर अपने विष्णु स्वरूप में बैकुंठ के लिए प्रस्थान कर गये।

अब गंगा ने ब्रह्मा जी को प्रणाम किया और बोली "पिताजी, मेरे लिए क्या आज्ञा है?"

"ब्रह्मलोक चलो पुत्री।" गंगा को साथ लेकर ब्रह्मा जी अपने लोक लौट आये।

एक दिन गंगा उद्यान में भ्रमण करती हुई सोच में डूबी हुई थी कि तभी ब्रह्मा जी वहाँ आये और बोले "क्या बात है? किचिंत हमारी पुत्री किसी चिंता में नज़र आ रही है।"

"पिताश्री, मैं सोच रही थी मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है?" गंगा ने अपनी जिज्ञासा सामने रखी।

ब्रह्मा जी मुस्कुराये और बोले " इतनी सी बात? देव हो या मनुज, इस सृष्टि में सभी का एक उद्देश्य होता है, तुम्हारा भी होगा, जो मैं तुम्हें सही वक्त आने पर बताऊँगा। तब तक धैर्य धारण करो गंगे।"

"जो आज्ञा पिताश्री।" कहकर गंगा ने स्वयं को ध्यानमग्न कर लिया।

समय- त्रेतायुग
स्थान- अयोध्यापुरी

कपिल मुनि के श्राप से महाराज सगर के साठ-हजार पुत्रों की मृत्यु हो चुकी थी, लेकिन उन्हें मुक्ति नहीं मिली थी।

क्रोधित कपिल मुनि से अपने पुत्रों की भूल के लिए क्षमा-याचना करने के पश्चात जब महाराज सगर ने उनसे अपने पुत्रों की मुक्ति का मार्ग पूछा तब कपिल मुनि बोले "राजन, जब स्वर्ग में बहने वाली गंगा नदी इस पृथ्वी पर आयेंगी और तुम्हारे पुत्रों की अस्थियों को स्पर्श करेगी तब ही उनका उद्धार होगा।"

ये सुनकर व्यथित महाराज सगर ने अपने पौत्र अंशुमान को अपना राज्यभार सौंपा और स्वयं गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए तपस्या करने चले गये।

महाराज सगर, तत्पश्चात महाराज अंशुमन, फिर उनके पुत्र दिलीप सबने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए तपस्या की, लेकिन असफल होकर मृत्यु को प्राप्त हुए।

तत्पश्चात महाराज दिलीप के पुत्र महाराज भगीरथ ने प्रण लिया कि वो अपनी कठोर और एकनिष्ठ तपस्या से इस अधूरे कार्य को अवश्य पूर्ण करेंगे।

"हे परमपिता ब्रह्मा
करता हूँ मैं आपकी आराधना
दीजिये ये वरदान मुझे
धरती पर लाऊँ मैं माँ गंगा
हो उनके निर्मल जल से
मेरे पूर्वजों का उद्धार
नहीं भूलेगा ये भगीरथ
कभी आपका ये उपकार"

आख़िरकार भगीरथ की तपस्या से भगवान ब्रह्मा प्रसन्न हुए और गंगा को पृथ्वी पर भेजने के लिए तैयार हो गए।

गंगा के जीवन का उद्देश्य अब उनके सामने प्रकट करने का वक्त हो चुका था।
ये विचारकर भगवान ब्रह्मा गंगा के पास पहुँचे "पुत्री, उठो, तुम्हारे जीवन का उद्देश्य तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।"

"कौन सा उद्देश्य पिताश्री?" गंगा ने पूछा।

ब्रह्मा जी ने पृथ्वी की तरफ देखते हुए कहा "महाराज भगीरथ का मनोरथ पूर्ण करने हेतु तुम्हें मृत्युलोक अर्थात पृथ्वी पर जाना है पुत्री, और उनके पूर्वजों का उद्धार करते हुए सृष्टि के अंत तक पृथ्वी पर ही रहकर अपने निर्मल-पवित्र जल से एक माँ की भांति सम्पूर्ण प्राणियों का पालन-पोषण करना है।"

"जो आज्ञा पिताश्री। लेकिन क्या पृथ्वी मेरे जल का अथाह वेग संभाल सकेगी?" गंगा के स्वर में चिंता थी।

गंगा की बात सुनकर ब्रह्मा जी भी चिंतित हो गये और अपनी आँखें बंद कर ली।

कुछ क्षणों के पश्चात जब उनके नेत्र खुले तब उनके होंठो पर मुस्कान खेल रही थी।

उन्हें इस तरह मुस्कुराते हुए देखकर देवी गंगा बोली "जान पड़ता है, पिताश्री ने इस समस्या का समाधान ढूँढ़ लिया है।"

"हाँ पुत्री, तुमने सही समझा।" ये कहकर ब्रह्मा जी पुनः महाराज भगीरथ के पास चले गये।

ब्रह्मा जी को सामने पाकर महाराज भगीरथ ने उन्हें प्रणाम किया और देवी गंगा के पृथ्वी पर अवतरण के बारे में पूछा।

ब्रह्मा जी बोले "वत्स, पुत्री गंगा पृथ्वी पर आने के लिए तैयार है। लेकिन ये इतना सरल नहीं होगा। तुम अपनी तपस्या से भगवान शिव को प्रसन्न करो ताकि वो गंगा के अथाह वेग को अपनी जटाओं में संभालकर उसे पृथ्वी पर उतार सकें, वरना गंगा के वेग से ये सारी सृष्टि पाताल में समा जायेगी।"

"जो आज्ञा भगवन।" कहकर महाराज भगिरथ पुनः तपस्या में लीन हो गये।

"हे महादेव शिव-शंभु
विनती मेरी सुनिये प्रभु
माँ गंगा के अथाह वेग को
दीजिये अपनी जटाओं में उलझा
ताकि उनकी अविरल धारायें
ना ले जाये सम्पूर्ण सृष्टि को बहा
वो प्रकट हो सके धरती पर
और कर सके पूर्ण मनोरथ भगीरथ का"

आख़िरकार उनकी तपस्या के फलस्वरूप भगवान शिव ने गंगा को अपने शिश पर स्थान देना स्वीकार कर लिया। साथ ही पर्वतराज हिमालय को आज्ञा दी कि उनकी जटाओं से निकली हुई गंगा को वो अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार करके उसके पृथ्वी पर जाने का मार्ग प्रशस्त करें।

अपने पिता की आज्ञा लेकर देवी गंगा ब्रह्मलोक से पृथ्वी की तरफ बह चली औऱ भगवान शिव की जटाओं से होते हुए हिमालय पर गोमुख नामक स्थान पर उतरी, जो पृथ्वी पर गंगा का उद्गम-स्थल है, जहाँ पर आगे चलकर गंगोत्री तीर्थ बसा।

"हे माता गंगे
करो स्वीकार पुत्र का प्रणाम
इस धरती पर आगमन हेतु
है सर्वप्रथम आपका आभार
आओ माँ मेरे साथ चलो
अपने निर्मल जल के स्पर्श से
मेरे पूर्वजों को मोक्ष प्रदान करो
दो आशीर्वाद इस भगीरथ को
की युगों-युगों तक इस पृथ्वी पर
तुम कहलाओ भागीरथी भी
तुम्हारी धाराओं के साथ-साथ
ये जग जाने पहचान मेरी भी"

भगीरथ के पीछे चलती हुई गंगा ने उनके पूर्वजों की अस्थियों को स्पर्श करके उन्हें मोक्ष प्रदान किया। तब से उनका एक नाम भागीरथी भी पड़ा।

धीरे-धीरे गंगा के तटों पर अनेक नगर बसे, सभ्यताएँ पनपी। मनुष्यों ने उन्हें पूजनीय देवी का स्थान दिया।

गंगा में स्नान करके लोगों ने स्वयं को पापमुक्त करने की प्रथा शुरू की। और साथ ही शुरू हुई गंगा के दूषित होने की कहानी।
नगरों के उद्योग-धंधों के अवशिष्टों से लेकर नगर की नालियों का गंदा जल भी गंगा में प्रवाहित किया जाने लगा।
अपने घरों का कचरा भी लोग गंगा की गोद में डालने लगे ये सोचकर कि गंगा तो देवी हैं, माँ हैं, सम्पूर्ण अस्वच्छता को अपने आँचल में समेटकर हमें स्वच्छ रखना ही उनका कर्तव्य है। लेकिन माँ के प्रति संतान के भी कुछ कर्तव्य होते हैं इसे कृतघ्न मनुष्य भूल गये।

वृद्धा गंगा की आँखों से बहते अश्रु जब उनकी हथेलियों पर गिरे तब वो अतीत से वर्तमान में अर्थात कलियुग में लौट आयी।

"अब शायद तुम मेरी इस जीर्ण-शीर्ण दशा का कारण जान चुकी हो।" उन्होंने नैना की तरफ गहरी नज़रों से देखा।

वृद्धा गंगा से उनकी व्यथा-कथा जानकर नैना की आँखों में भी आँसू आ गये थे।

उनके आँसुओं को पोंछते हुए देवी गंगा बोली "अब आँसू बहाने से क्या लाभ मेरी बच्ची। तुम इंसानों को जो कर्म करने थे तुम कर चुके। इसके परिणामस्वरूप मैंने तय कर लिया है कि अब मैं इस पृथ्वी पर और अधिक दिनों तक नहीं रहूँगी।
मैं अपने पालक पिता पर्वतराज हिमालय से ये प्रार्थना करूँगी की वो मुझे सदा-सर्वदा के लिए मेरे पिताश्री भगवान ब्रह्मा के लोक वापस जाने की आज्ञा प्रदान करें।"

"नहीं-नहीं माँ। अपने बच्चों को ऐसा कठोर दंड मत दो। आप चली जायेंगी तो ये मानव सभ्यता, ये सृष्टि ही नष्ट हो जायेगी। हम मनुष्यों का अस्तित्व ही मिट जायेगा।" नैना अधीरता से बोली।

"और तुम मनुष्यों ने जो मेरी दुर्दशा की, मेरे स्वच्छ-निर्मल जल को नालियों के जल से भी ज्यादा दूषित कर दिया, की आज मुझे स्वयं अपने अस्तित्व से घृणा होने लगी है, उस दुख का हिसाब कौन देगा?
तुम मनुष्यों के ही कृत्यों का परिणाम है ये की कई जीवनदायिनी नदियां सूखकर विलुप्त हो चुकी हैं, अब मुझे भी इसी मार्ग पर चलना होगा। तभी शायद इस सृष्टि के इतिहास में मैं अपना कुछ सम्मान बचा सकूँगी।" देवी गंगा ने अश्रुपूरित नेत्रों से कहा।

नैना उनके पैरों पर सर रखते हुए बोली "माँ, आज आपने ना सिर्फ मुझे मेरी माँ के प्रति मेरे कर्तव्यों को समझाया है, वरन आपके और इस प्रकृति के प्रति भी मेरे दायित्वों के संबंध में मुझे सजग किया है।
आपकी ये बेटी आपको वचन देती है कि यहाँ से लौटकर वो जी-जान लगाकर आपकी सेवा में जुट जायेगी, लोगों को जागरूक करेगी, उन्हें जीवनदायिनी माँ गंगा के प्रति उनका भूला हुआ कर्तव्य याद दिलायेगी, और सबके साथ मिलकर पुनः आपके जल को स्वच्छ और निर्मल बनायेगी।
ताकि अगली बार जब हमारी मुलाकात हो तो आप अपनी बेटी को इस जीर्ण-शीर्ण अवस्था में नहीं, अपितु अपने मनोहारी धवल रूप में दर्शन दें। बस मुझे आशीर्वाद दीजिये और मेरा मार्गदर्शन कीजिये माँ।"

माँ गंगा ने स्नेह से नैना के सर पर हाथ रखते हुए कहा "यदि तुम्हारा हृदय, तुम्हारा संकल्प सच्चा है तो ईश्वर तुम्हें अवश्य सफलता प्रदान करेंगे मेरी बच्ची।"

"माँ मुझे वचन दीजिये की आप हमारी धरती छोड़कर नहीं जायेंगी। आपका आशीर्वाद हमें यूँ ही मिलता रहेगा।" नैना ने एक बार फिर अधीरता से कहा।

"जब तक इस माँ की गोद में तुम जैसे बच्चे खेलते रहेंगे, ये माँ कहीं नहीं जायेगी। जाओ अपने उद्देश्य में सफल हो।" माँ गंगा नैना को आशीष देते हुए बोली।

नैना ने हाथ जोड़कर उनके चरणों में सर झुकाया।

सुनीता जी की आवाज़ से अचानक नैना का ध्यान भंग हुआ "क्या कर रही हो नैना? यहाँ पानी के बीच क्यों बैठी हो? और किसे प्रणाम कर रही हो?
मैं कब से देख रही हूँ तुम पता नहीं स्वयं से ही क्या बातें किये जा रही हो।
तुम ठीक हो ना बिट्टो रानी?"

नैना ने सर उठाकर देखा तो सामने कोई नहीं था। बस अविरल बहती हुई जलधारा थी।

"अरे वो वृद्धा, मेरा मतलब माँ गंगा कहाँ गयी? उन्हें ही प्रणाम कर रही थी मैं। आपने भी तो देखा था उन्हें।" नैना ने जवाब दिया।

सुनीता जी आश्चर्य से नैना की तरफ देखते हुए बोली "ये क्या बोल रही है तू? कौन वृद्धा? लगता है गोवा ना जा पाने के दुःख में तुझे सदमा लगा है। मेरी ही गलती है। तुझे जबर्दस्ती यहाँ लेकर नहीं आना चाहिए था।"

स्वयं को संभालते हुए नैना ने कहा "नहीं-नहीं माँ, आपने बिल्कुल ठीक किया जो मुझे यहाँ लेकर आयी, वरना मैं कभी जान ही नहीं पाती की मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है।"

एक बार फिर नैना ने आँखें बंद की और माँ गंगा का ध्यान करते हुए मन ही मन बोली "माँ, एक बार फिर आपका आभार की आपने अपने प्रताप से मेरी सोयी हुई चेतना को जागृत किया।आपके धवल रूप में दर्शन की आकांक्षा लिए आपकी ये बेटी एक बार फिर आपकी गोद में जरूर आयेगी।"

अपनी माँ के प्रति सारे पूर्वाग्रहों और शिकायतों को हमेशा के लिए पीछे छोड़कर गंगोत्री से वापस लौटती हुई नैना अपने साथ ले जा रही थी युगों-युगों से मनुष्यों को पापमुक्त करके सदा उनका कल्याण करने वाली माँ गंगा को उनका पुरातन स्वरूप लौटाने की कोशिश करके उन्हें इस धरती से विलुप्त होने से रोकने का एक दृढ़-संकल्प।

गोमुख के मुहाने पर खड़ी माँ गंगा भी अपनी इस पुत्री को आशीर्वाद देते हुए ईश्वर से उसकी सफलता की प्रार्थना में लीन हो चुकी थी।

"बहती रहना माँ गंगे
तुम इस धरा पर सदा
अपनी कृतघ्न संतानों को
कर दो उनकी भूल के लिए क्षमा
हम नहीं दोहरायेंगे अब अपनी गलती
नहीं विसर्जित करेंगे तुममें गंदगी
बनायेंगे अपने प्रयासों से
पुनः तुम्हारे जल को स्वच्छ और निर्मल
तुम ही तो हो जीवनदायिनी
तुम्हारे जल के बिना हे माता
नहीं है इस पृथ्वी का आने वाला कल"