Fir aana akhilesh aur hansna books and stories free download online pdf in Hindi

फिर आना अखिलेश और हंसना...

फिर आना अखिलेश और हंसना जोर-जोर से...


# चण्डीदत्त शुक्ल

पंखा हिल रहा था। खट-खट की आवाज़ें आतीं पर हवा नहीं। हिचकोले खाता मैं। ठंडी, और ठंडी होती जा रही पीठ के नीचे की ज़मीन और माथा पसीने से तर-ब-तर। बल्कि सारा जिस्म ही भीगा हुआ। दिल धड़कता तेज़-तेज़ और उसी रफ्तार से और, और ज्यादा हिलने लगता बदन। सामने की बर्थ पर तीन छोटे बच्चे रो रहे थे…मां डांटती तो सुबकने लगते और मौका मिलते ही चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगते। अजब मौसम था। फरवरी के आख़िरी दिन। बाहर जाती हुई ठंड थी। डिब्बे में उमस। मिला-जुला मौसम। दमघोंटू पर पंखा बंद था। खिड़िकयां खुली थीं और ये गोंडा से दिल्ली आ रही ट्रेन थी…शहीद एक्सप्रेस। बोगी, सी-7।

पर मैं इतना पसीना-पसीना क्यों? चोरी की थी? पास में टिकट नहीं था, या वेटिंग का था, या कोई गड़बड़। कुछ भी तो नहीं…बस इतना कि पैन कार्ड गिर गया था…पैन कार्ड के बिना ई टिकट क्या है…विदाउट टिकट ही तो। जैसे-जैसे रफ्तार बढ़ती, ट्रेन हिचकोले खाती, मैं करवटें बदलता, एक के बाद एक कर अलग-अलग दिशाओं में। कभी गमछे से मुंह ढकता, कभी पैर सिकोड़कर दूसरी तरफ लेट जाता, जैसे—टीटी देख नहीं पाएगा।

टीटी? ट्रेन का यमदूत? काला कपड़ा पहने ऐसे धमकते हैं टीटी, जैसे काले भैंसे की सवारी कर आए हों। मरता हुआ इंसान दुआ करता है—यमराज या उनके दूत ना आएं, बेटिकट, वेटिंग और कम टिकट लिया इंसान भी तो—काले कपड़े वाला ना आए। सारे टीटी ऐसे ही होते हैं, ऐसा भी नहीं पर रेल की धरा पर बहुसंख्यक टीटी इसी तरह के पाए गए हैं…सो मंगलवार की रात मंगल ही मंगल मनाते हुए मैं दुबका जा रहा था।

ट्रेन चलते डेढ़ घंटा बीत चुका था, कोई धमक नहीं हुई, तो दिल का बल्लियों उछलना भी कम हुआ..तभी किसी ने पैरों के पास थपकी दी…भइया! सो गए क्या? मैं बुदबुदाया—ये भिखारी कहीं भी जीने नहीं देते। मेला हो, मंदिर, अस्पताल, चाहे श्मशान, हर जगह हाज़िर। झल्लाते हुए मैंने गमछा हटाया, देखा, सामने काले कपड़ों वाला, उससे थोड़ा ही कम काला, बल्कि सांवला रंग, हल्की-हल्की मूंछें, चमकती और कुछ-कुछ पनीली आंखें, सलीके से संवारे गए बाल और चेहरे पर बेतकल्लुफी भरी मुस्कान…। दिल फिर धड़का तेज-तेज और ट्रेन की रफ्तार भी उसी लम्हा बढ़ गई।

`जी—जी!’ आवाज़ जैसे हलक से बाहर नहीं निकल रही थी। थूक सटकते हुए चेहरे से बहता पसीना पोंछते हुए पूछा—जी, बताइए! हालांकि कहना तो ये चाहता था—मेरा पैन कार्ड खो गया है. अब क्या करना होगा? पर ओढ़ी हुई हिम्मत संभालते हुए `बताइए’ भर कहा। बदले में कोई धौंस नहीं आई, बिजली नहीं कड़की. सांवले चेहरे पर जैसे सूरज खिला। नौजवान, जो टीटी था, बोला—कुछ नहीं मित्र। सबसे पहले तो मैं अपने बारे में कुछ बता दूं। हां, तो क्या बताऊं। नाम? हां, मेरा नाम है अखिलेश यादव और आपका?

`मैं?’, `जी मैं मंथर।’

`हूं, बहुत सुंदर नाम। गोंडा से आ रहे हैं और दिल्ली ही जा रहे होंगे है ना!’

`जी!’

`चौंकिए नहीं भाई। आपकी बर्थ नंबर के हिसाब से मेरे चार्ट पर तो यही लिखा है। यूं तो, आपका नाम भी मुझे पता है मंथर बाबू, लेकिन मैंने सोचा आपकी ज़ुबानी ही सुन लूं…हा हा हा हा’

वो हंसने लगा…बिना तकल्लुफ के, भरपूर…बाहर छलकती हंसी और ये क्या हुआ…अब तक शोरगुल से भरा, थका, छलकता, महकता डिब्बा जैसे समंदर की लहरों में बदल गया। खनकती हुई, घंटियों सी मीठी हंसी। हां, लड़के भी ऐसी हंसी हंस पाते हैं। मैं अचरज में था, थोड़े शक के साथ…पर अब तो जैसे संदेह पक्का ही हो गया। मन में आया—ये और टीटी? कोई बहुरूपिया है। तब तक अखिलेश ने हाथ बढ़ा दिया था। मैंने जेब से पैन कार्ड खोने की तहरीर निकाली। अखिलेश ने वो कागज जैसे झपट लिया और मेरे हाथ से हाथ मिला लिया…नहीं, जोर-जोर से हिलाया नहीं, कुछ देर बस थामे रखा। फिर गूंजीं वही घंटियां और तब आवाज़—`भाई! क्या दो मिनट बात भी नहीं करेंगे? बहुत व्यस्त हैं?’

बातें क्या थीं, जैसे ज़िंदगी एक पल में आंखों से गुज़र गई। वो अखिलेश यादव था। उम्र-32 साल। एमए सोशियोलॉजी। अब तक कुंवारा। गोरखपुर का रहने वाला और हां, वो टीटी ही था, बहुरूपिया नहीं। अखिलेश ने दिक्कत कम सुनी, समझी ज्यादा। कहा—इतनी फॉर्मेलिटी क्यों? आपने टिकट खरीदा ना…चुराया तो नहीं और फिर हंसने लगा।

मेरी बर्थ के पास से हटते हुए उसकी आंखों में चमक दोगुना हो चुकी थी और मेरी ज़ुबान पर उसकी दी टॉफी घुलती ही जा रही थी धीरे-धीरे…। डिब्बे में शोरगुल थम चुका था…खिड़की से हवा भी खूब, खूब बहने लगी थी अंदर की ओर।

पर अखिलेश कहीं और कहां गया। ऊपर की बर्थ से झांककर मैंने देखा—वो नीचे आरएसी वाली सीट पर बैठे एक लड़के के कंधे पर हाथ रखकर उससे बतिया रहा था। हॉस्टल में गप्पें मारते दोस्तों की तरह। कुछ देर में ही अखिलेश और वो लड़का, दोनों गहरे साथी बन चुके थे…पर डिब्बे में सबकी निगाहों में शंका थी। डर भी था। बेटिकट लोग टॉयलेट की ओर और सरकने लगे।

मेरी बर्थ के पास बैठे एक मोटे सेठ बेचैन हो रहे थे…मैंने फुसफुसाकर पूछा—क्या हुआ? क्यों परेशान हैं? टिकट नहीं है क्या? सेठ बोले—टिकट तो है, लेकिन दोनों बच्चों का नहीं लिया। सोचा था, टीटी को पचास-पचीस दे देंगे, लेकिन ये तो बहुत मीठा ज़हर मालूम देता है। कहीं मुखबिरी तो नहीं कर रहा डाकुओं की।

मैं चुप रहा। क्या कहता, चीनी उसमें ज्यादा है और ज़हर आपमें। सेठ कसमसाते रहे। धीरे से ये भी बोले—`साला, ज्यादा दिक्कत करेगा, तो डीआरएम को बोलूंगा। मेरा दोस्त है।‘ मंथर बाबू को चुप ही रहना था, मंथर बाबू यानी मैं। दो कौड़ी का मध्यवर्गीय क्रांतिकारी, जिसके पास वचन नहीं होते, बोल वचन ही है सबकुछ! पर मैं तो मुग्ध था। अखिलेश फिर लौटा और उसने सचमुच सेठ जी को लूट लिया। सेठ जी ने उसे अपने पास से दो केले खिलाए और अखिलेश उनके बच्चों को पारले जी का एक पैकेट देकर आगे बढ़ा। अब सेठ बच्चों समेत खिले हुए, खिलखिलाए हुए थे।

चुनांचे, ख़बर तो कुछ नहीं, रिपोर्ट भी नहीं, इसमें कथा जैसी कोई बात भी नहीं, लेकिन हुआ…यूं हुआ कि मुझ पर जादू चल गया। अखिलेश ने थोड़ी ही देर में सारा डिब्बा लूट लिया। बिना हथियार निकाले, ज़ुर्माने,चालान की स्लिप दिखाए बिना। एक बार को सीटी भी नहीं बजाई। पुलिस नहीं बुलाई। चिल्लाए नहीं। हां, टीटी ही था वो, लेकिन पता नहीं क्यों? आरएसी वाली सीट पर एक ही लड़का था, उस पर एक बुजुर्ग को एडजस्ट करा दिया। लड़के ने अंकल जी के लिए सरककर जगह खाली कर दी। बेटिकट भीड़ अगले स्टेशन पर खुद उतर गई। हां, एक बुढ़िया नहीं उतरी। मैंने पाया कि वो एक खाली बर्थ पर पसरी हुई थी।

क्या सोचता…कुछ सोचने ही नहीं दिया। ट्रेन अब ठहर चुकी थी। रात के साढ़े बारह बजे अखिलेश की हंसी गूंज रही थी..हर तरफ। हर बर्थ की बगल से आती हुई। ये नश्वर संसार है…अखिलेश भी नश्वर है, लेकिन प्लेटफॉर्म पर उतरते ही मेरी कमर में ये किसकी बांह थी। हां, अखिलेश ही तो है एकदम सटकर खड़ा हुआ। अखिलेश तुम क्या हो…बुद्धू या एकदम सयाने? सारी गाड़ी के लोगों को परेशान कर डाला…दो घंटे की ऑक्सीजन देकर खुद को महान तो बहुत समझ रहे होगे तुम! और अब? हम सब अपनी सपाट ज़िंदगियों का क्या करें? ओढ़ें या बिछाएं या बगल में दबाए यूं ही गुज़रते रहें? हमारा जीवन क्या है…सपाट, बंजर, बे-हलचल। जैसे पानी से बाहर पड़ी मछली। जीने के लिए उछलती-तड़पती हुई।

अजीब हो अखिलेश। ना ज़ुर्माना लिया, ना चिल्लाए। हाथ मिलाकर हालचाल पूछते रहे। बुढ़िया ने बाद में बताया कि उसकी टिकट के पैसे अपनी जेब से भरे। क्या सेठ सही कहता था—तुम मीठा ज़हर हो। फिराक लेने आए कोई लुटेरे। इस बार निगरानी कर गए…सुराग ले गए और जल्द ही गैंग के साथ आओगे। बुढ़िया की पोटली तो नहीं छीन लोगे? नहीं, अखिलेश। मैं जानता हूं…तुम कर ही नहीं सकते…क्योंकि तुम इंसान हो। असमय खो गई एक ज़रूरी ज़िंदगी। तुमने ही बताया था कि दस बरस हो गए तुम्हें ऐसा करते हुए। फिर तुम घर क्या ले जाते हो अखिलेश? हां, जवाब भी याद है—हंसी और खुशी!

पर मुझे हंसी क्यों नहीं आती? अभी उस दिन ही तो सब्जीवाले ने सड़े आलू दे दिए, तो उससे बहस करने की जगह आंख नम हो गई। तुम बहुत याद आए। घर से बड़े भइया का फोन आया, तब भी तुम्हारी याद उभरी। तनख्वाह देर से मिली और पता नहीं क्यों..और कोई नहीं, तुम ही तो थे खड़े हंसते हुए मेरे सामने, कहते हुए—मस्त रहो ना! सब ठीक हो जाएगा। क्यों इतने खुश हो तुम…कैसे?

तुमसे जलन होती है अखिलेश, फिर भी कहता हूं—तुम आना…बार-बार आना। सपने बनने, बुनने और टूट जाने से पहले ही आना…। तुम्हारी जेब में बहुत-सी उम्मीदें हैं और हमारे हाथ खुले हैं उन्हें पाने के लिए मचलते हुए। और हां…वो बुढ़िया इंतज़ार कर रही होगी…इस बार भी टिकट नहीं ले पाई बेचारी। एक और मंथर का पैन कार्ड गायब हो गया है। अच्छा, वो मुल्लाजी भी रुके हैं अब तक… जिन्हें तुमने दिल्ली में हज वाले दफ्तर का एड्रेस नोट कराया था..और वो लड़का, जिसके साथ बैठ तुम पीओ के एक्जाम की तैयारी कराने लगे थे…हंसते-हंसते। अमां भाई…सी-7 की हर सवारी तुम्हारा इंतज़ार कर रही है…उन सबने बताया है कि वो तुमसे मिलने के लिए शहीद एक्सप्रेस में बार-बार सफर करेंगे! मैं खुद भी शहीद से ही रिज़र्वेशन कराऊंगा…लेकिन वादा करो…तुम मिलना ज़रूर। तुम बदलना नहीं। ऐसे ही आते रहना, हंसते, गुनगुनाते हुए, लोगों को टॉफी-बिस्किट खिलाते हुए। हंसते रहना अखिलेश…बहुत कमी है यार हंसी की…



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