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पहला ख़त

पहला ख़त !!


तेज़ भागने के बावजूद मेरी क़मीज़ थोड़ी भीग गयी थी । मेस से हॉस्टल का रास्ता खुले आसमान से गुज़रता था और अगस्त की बारिश कश्मीर में कोई नयी बात नहीं थी । मुझे हज़रतबल रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज में दाख़िला लिये पूरा एक महीना हो चला था । मैं लखनऊ से वहाँ पढ़ने आया था और मेरे जैसे कई और आये थे हिन्दुस्तान के कोने कोने से ।


कश्मीर में उस समय अलगाव वाद तो न था लेकिन आमतौर पर कश्मीरी अपने को आज़ाद कश्मीर का मानते थे और हमें हिन्दुस्तान का । एक तरफ़ कश्मीरी लड़के हमें बिन वीज़ा के टूरिस्ट कहते थे तो दूसरी तरफ़ कशमीर की वादियों में डल और नगीन लेक के बीच बसा ये कालेज रोज़ ये यक़ीन दिलाता था कि दुनिया में कहीं जन्नत है तो कश्मीर में है । उम्र सोलह की थी लेकिन एक महीने में ही इतना तो अच्छी तरह पता चल गया था कि दुनिया का स्वर्ग कश्मीर नहीं अपना घर है और दुनिया का सबसे बड़ा तोहफ़ा है माँ के हाथ का खाना । चलते समय माँ ने आटे के लड्डुओं का एक डिब्बा साथ दिया था जो मैं दोस्तों से छुपाकर रखता था और ख़त्म हो जाने के डर से बड़ी किफ़ायत से खाता था । लेकिन इसके बावजूद माँ के हाथ का खाना रोज़ याद आता था ।


समय १९७९ का था जब पैसे और साधन दोनों सीमित थे । लखनऊ से श्रीनगर का रास्ता पूरा करने में ३६ घंटे लगते थे । २४ घंटे में जम्मू पहुँचने के बात क़रीब १२ घंटे का बस का सफ़र होता था जो खूबसूरत तो बहुत था लेकिन कभी कभी ख़तरनाक भी लगता था । जीवन में पहली बार घर से बाहर निकला था और वो भी इतना दूर । घर वालों को भी अच्छी तरह मालूम था कि मैं उन्हें कितना याद करता होऊँगा इसलिये मेरा छोटा भाई और बहन रोज़ मुझे ख़त लिखते थे और जिसमें पढ़ाई के साथ तंदरूस्ती का ध्यान रखने की माँ की हिदायत ज़रूर लिखी होती थी । हालाँकि माँ ने लिखने के लिये मना किया था लेकिन फिर भी वो मुझे बता देते थे कि माँ मुझे याद करके कितना रोती है और कैसे हरेक खाने की चीज़ बनाते समय मुझे याद करती है ।


अपने कमरे की तरफ़ बढ़ते समय मैने जेब से कमरे के ताले की चाबी निकाल ली थी क्योंकि माँ कहती थी कि बारिश के गीले कपड़े जल्द से जल्द बदल लेने चाहिये । लेकिन पास पहुँच कर देखा कि कमरा पहले से ही खुला हुआ था । मेरा रूम पार्टनर मुझसे पहले आ चुका था ।


"कहाँ रह गया था तू ? मैं तुझे ढूँढ रहा था " उसने कहा , "तेरा एक ख़त आया है , तेरी मेज़ पर रख दिया है"


"कुछ नहीं यार , कुछ सीनियर मिल गये थे और उनका रैगिंग का शौक़ अभी पूरा नहीं हुआ था " मैने खिसियाते हुए कहा ।


उसने मेरी तरफ़ देखा और हंस पड़ा फिर बोला "और सुना गाने और चुटकुले सबको"


मैं सबसे पहले क़मीज़ बदलना चाहता था लेकिन फिर सोचा पहले ख़त पढ़ लूँ । पते की लिखावट देखकर साफ़ पता चलता था कि ये मेरी बहन गुड़िया ने लिखा है । मोतियों सी लिखावट थी उसकी । मैं घर के सारे ख़त बड़े ध्यान से खोलता था जिससे वो ख़राब ना हों और पढ़ने के बाद उन्हें क़रीने से अपनी दराज़ में रख लेता था । इसको भी मैने ध्यान से खोला । ख़त खोला तो पहली नज़र में लिखावट पहचान न सका । शायद मंजू की थी । मंजू मेरे मामा की बेटी थी जो हमारे साथ रहती थी और उसका दाख़िला अभी अभी दूसरी कक्षा में कराया गया था । फिर ख़त में नीचे नज़र पड़ी जहाँ लिखा था - तुम्हारी माँ । लगता है इस बार माँ ने मंजू को ख़त लिखना सिखाने के लिये ख़त उससे लिखवाया है । " तुम्हारी माँ " पढ़कर आँखों से बरबस आँसू छलक आये । पल भर के लिये ये महसूस हुआ कि मैने माँ के हाथों को पकड़ रखा है । फिर धीरे धीरे ख़त को पढ़ना शुरू किया .....


मेरे प्यारे बेटे


आशा है तुम सकुशल होगे । जब से तुम गये हो एक मिनट के लिये तुम्हारी सूरत आँखों से दूर नहीं होती है । तुम्हारे बिना सब कुछ सूना सूना लगता है । रोज़ ही जाकर तुम्हारी कुर्सी पर बैठ जाती हूँ और सोचती हूँ कि मेरा बेटा यहीं बैठकर पढ़ता था । हर समय याद करती रहती हूँ कि इस समय मेरा बेटा ये कर रहा होगा तो इस समय ये कर रहा होगा । किसी खाने में कोई स्वाद नहीं आता है ये सोचकर कि मैं यहाँ अच्छा खाना खा रही हूँ लेकिन मेरे बेटे को होस्टल में अच्छा खाना मिलता होगा या नहीं । तुम अपना ध्यान रखना और पैसों की बिलकुल फ़िकर मत करना । रोज़ जूस पीना और सुबह शाम दूध ज़रूर लेते रहना । बेटा सेहत है तो सब कुछ है । कल ही लड्डू बनाये थे और तुम्हारी बहुत याद आयी । गुड़िया भी कहती है कि भइय्या की बहुत याद आती है । कल राखी ख़रीदते समय बहुत रो रो के बुरा हाल किया था उसने । चिन्टू भी तुम्हारे बिना अकेला सा हो गया है और कई दिनों से खेलने तक नहीं गया है ।


बेटा , पढ़ाई कितनी ज़रूरी है ये तुम अच्छी तरह जानते हो । मन लगाकर पढ़ाई करना । ठीक से पढ़ लिख लोगे तो जीवन में आगे बढ़ोगे । मै इतनी दूर से आशीर्वाद के सिवा तुम्हारे लिये कुछ नहीं कर सकती ।


सुना है बेटा वहाँ ठंड बहुत होती है , गर्म कपड़े पहन कर रखना । तुम्हें वैसे ही ज़ुकाम की शिकायत रहती है । रज़ाई अगर कम पड़े तो कंबल ज़रूर जोड़ लेना । हाँ , कपड़े खुद मत धोना , धोबी से धुलवा लेना ।


याद रखना बेटा कि तुम्हें जीवन में सफल भी होना है और एक अच्छा इन्सान भी बनना है । इंसानियत की बुनियाद पर खड़ी सफलता ज़्यादा ख़ूबसूरत और स्थायी होती है ।


और हाँ जब भी पाँच छै दिन की छुट्टी हो , घर आ जाना और पैसों की ज़्यादा फ़िकर मत करना । मैं अपने बेटे का इन्तज़ार करूँगी ।


ढेर सारा आशीर्वाद !


तुम्हारी माँ


ख़त को एक बार फिर से पढ़ा और ना जाने कितनी बातें एक एक कर आँखों के सामने घूम गयीं । मेरी बहन कहती थी कि मैं माँ का सबसे चहेता हूँ , शायद सबसे बड़ा हूँ इसलिये । माँ बताती है कि गाँव के रिवाज के मुताबिक़ उनकी शादी १२ साल की उम्र में हो गयी थी । पापा उनसे दो साल बड़े थे और दसवीं नें पढ़ते थे । बचपन से ही घर को सम्भालना सिखलाया गया था उन्हें - कढ़ाई बुनाई से लेकर खाना बनाने तक । शादी के बाद पहले ही दिन माँ ने शगुन में १२ लोगों का खाना बनाया था और दादा जी ने कहा था कि बहू अच्छा खाना बनाती है । उनके लिये ये ही सबसे बड़ा इनाम था । माँ तब अट्ठारह की थी जब मैं पैदा हुआ । पापा गाँव के ना सिर्फ़ पहले ग्रैजुएट हुए बल्कि इंजिनियर बने । पापा जब तक पढ़े , माँ मुझे लेकर गाँव में दादा दादी के साथ रहीं । माँ के संयम और इच्छा शक्ति का सारा घर क़ायल है । याद तो नहीं लेकिन अंदाज़ा लगा सकता हूँ कि सब कुछ कितना मुश्किल रहा होगा । लखनऊ से चलते समय रेलगाड़ी की खिड़की से दिखता माँ का चेहरा बरबस याद आ गया , एक हाथ हिलाकर मुझे बिदा कर रहीं थीं और दूसरे हाथ से लगातार गिरते आँसुओं को पोंछ रही थी । सामने मेज़ पर रखे माँ के फ़ोटो पर नज़र पड़ी और आँखे भर आयीं ।


कब तक माँ का फ़ोटो देखा पता नहीं । जब ध्यान टूटा तो ख़त लिफ़ाफ़े में रखने के लिये हाथ बढ़ाया । लेकिन ये क्या ? उसमें एक और काग़ज़ था मोड़कर रखा हुआ । जल्दी जल्दी खोला । ये गुड़िया की लिखावट थी । एक बार में ही पढ़ गया । आँसू झर झर कर बहने लगे थे और रूकने का नाम नहीं ले रहे थे । बार बार माँ का फ़ोटो देखता था और आँसुओं की धार और तेज़ हो जाती थी । मेरी क़मीज़ अब तक पूरी तरह से भीग गयी । सिसकियाँ बंध गयी थी और रूकने का नाम नहीं ले रहीं थी । मेरा रूम पार्टनर घबरा गया था और मेरी तरफ़ आने लगा । मैने उसे दूर ही रहने का इशारा किया । वो समझदार था , मुझे कमरे में अकेला छोड़कर बाहर निकल गया ।


बाहर तेज़ बारिश की आवाज़ आ रही थी । मैने रोते रोते खिड़की खोल दी । रात के अंधेरे में बाहर कुछ दिखाई नहीं दे रहा था । कमरे के बाहर बादल बरस रहे थे और अंदर मैं । आँसू थे कि थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे । ना जाने कब तक रोता रहा और फिर कब हाथ में ख़त लिये लिये ही मेज़ पर सर रखकर सो गया ।

चिड़ियों की आवाज़ से अचानक आँख खुली । बाहर मौसम साफ हो गया था । बारिश रूक गयी थी और खिड़की से दूर कहीं डल लेक दिखाई दे रही थी । पानी में झाँकता नीला आसमान दूर तक बिखरी हुई चाँदी सा नज़र आ रहा था । ख़त अभी तक मेरे हाथ में था । मैने उसे खोला और एक बार फिर से उसे पढ़ने लगा । गुड़िया ने लिखा था :


प्यारे भईय्या ,


हम सब जानते थे कि माँ आपको बहुत प्यार करती है । लेकिन हमें भी ये नहीं पता था कि माँ आपको इतना ज़्यादा प्यार करती है । बचपन से माँ जब भी हम सबको पढ़ने बिठाती थी तो हमेशा कहती थी कि उन्हे इस बात का बहुत अफ़सोस है कि वो पढ़ लिख न सकीं । लेकिन जिस दिन आप का पहला ख़त आया और हमनें उन्हें सुनाया तो वो बहुत रोईं और रोते रोते बोलीं कि मैं अपने बेटे को अपने हाथों से ख़त लिखूँगी । उस दिन से माँ रोज़ सारा काम ख़त्म करके मुझसे पढ़ती हैं और फिर रात भर उसे दोहराती हैं । और आज जो ख़त मैं भेज रही हूँ वो माँ ने अपने हाथ से खुद लिखा है । भइय्या आप बहुत भाग्यशाली हैं कि माँ ने अपने जीवन की पहली चिट्ठी अपने सबसे प्यारे बेटे आपको लिखी । कितने आश्चर्य की बात है कि एक महीने से भी कम समय में उन्होंने ख़त लायक लिखना पढ़ना सीख लिया । अब तो आपको भी यक़ीन हो गया होगा कि माँ को दुनिया में सबसे प्यारे आप ही हैं और हाँ , आज मुझे इस बात का यक़ीन हो गया है कि एक माँ अपने बच्चे के लिये कुछ भी कर सकती है ।


आपकी छोटी बहन


गुड़िया


एक बार फिर पलकें आँसुओं से भर गईं । मैने रोते रोते एक काग़ज़ निकाला । आँख का आँसू गाल पर ढलक गया । आँसू के गिरने से आँख का धुन्धलापन कुछ कम हुआ और मैं ख़त लिखने लगा ::


मेरी प्यारी माँ .......


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