Swabhiman - Laghukatha - 26 books and stories free download online pdf in Hindi

स्वाभिमान - लघुकथा - 26

बड़ी नाक वाला लड़का

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ऐ.सी.थ्री टायर की साइड अपर बर्थ पर उनींदी हो रही प्रभा को आभास था कि कुछ छोटे मोटे स्टेशन्स चुपके से गुजर चुके हैं और अब "चाय, गरमागरम चाय, बढ़िया मसाले वाली चाय" और "पेपर, सुबह का पेपर"जैसी आवाजों और इमरजेंसी कॉल पर शौचालय की तरफ भागते यात्रियों से सुनिश्चित था कि सुबह हो चुकी है और कोई बड़ा स्टेशन है।

"आप चाय लेंगे?" पास ही लॉन्ग अपर बर्थ पर लेटे पति सुधीर से पूछा। हामी के बाद दो चाय ले ली गयी और बीस रुपये का नोट दे दिया गया।

पेपर वाला लड़का आठ दस साल का ही था लेकिन चेहरे पर लड़कपन वाली मस्ती की जगह एक गंभीरता थी। पेपर लेने के बाद उसे दस का नोट थमाया तो बोल पड़ा "ऑन्टी जी, खुल्ले पाँच रुपये नहीं है!"

यही प्रश्न अब उछलकर सुधीर की बर्थ पर आ चुका था। उसने दायीं बाई की जेबो को गहराई तक टटोलकर जवाब दिया "नहीं हैं भाई।"

"पाँच रुपये रख लो"प्रभा के शब्द उसे नागवार गुजरे और तपाक से बोला "नहीं ऑन्टी जी, मैं आपको ला कर देता हूँ न पाँच रुपये।"

कुछ देर वो इधर उधर भागता रहा।पेपर खरीदने का कोई इक्छुक नहीं था।अधिकांश चाय ही ले रहे थे।

स्वाभिमान, आत्मविश्वास, कार्यकुशलता, ईमानदारी खुल्ले पैसों के चक्कर में मजबूरी के दलदल में फँसे हुए थे।सीमित समय में उन्हें सुरक्षित बाहर निकालना था।प्रभा ने त्वरित निर्णय लेते हुए कहा "अच्छा, यूँ करो, एक पेपर और दे दो।"वो सहर्ष तैयार हो गया।चिंता की लकीरें मिट चुकी थी। जैसे चंद शब्दों के परिवर्तन और एक उत्पाद और खरीदने के निर्णय ने उसे उस दस के नोट पर उसका वाजिब हक दिला दिया हो।

"मेरे पास दस रुपये हो गए, अब मैं नाश्ता करूँगा।"लड़कपन वाली मस्ती के साथ ये कहता हुआ वह आहिस्ते से प्लेटफार्म छोड़ती ट्रेन से उतरकर फुर्र हो चुका था।

कपिल शास्त्री. भोपाल।

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'बैकग्राउंड'

"इट वाज जस्ट ए मोमेंट, राकेश!फॉर टाइम बीइंग मैं तुम्हारे कॉन्टेक्ट में थी और वी हेव एंजोएड ए लोट, तुम्हे इतना इमोशनली जुड़ने की क्या ज़रुरत थी, इसके लिए तुम्हारा रूरल बैकग्राउंड ही जिम्मेदार है इसलिए मैं तुमसे ब्रेकअप कर रही हूँ।"

टीना की ये बात उसके स्वाभिमान पर हथोड़े की तरह चोट कर रही थी।लगा जैसे उसकी भावनाओं और शरीर का बलात्कार हुआ हो।दुनिया वीरान नजर आ रही थी और आवेश में उसने इस पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए फन्दे से लटक कर अपनी इहलीला समाप्त कर लेने की ठान ली।

निढाल हो उसने अपना सर टेबल पर रखी किताबों पर पटक दिया और रोने लगा।तभी उसे वो पल याद आये जब वो माँ का पल्लू पकड़कर खेतों में हल चला रहे बाबा को खाना देने जाता था।खेतों की उबड़ खाबड़ मुँडेरों पर उनसे मिलने बेतहाशा भागता था और उसके गिरने से पहले ही बाबा उसको थाम कर ऊपर हवा में उछाल देते थे और फिर झेल लेते थे।दरी पर लेटकर अपने पैरों पर उठाकर "डुकरिया की दीवार गिरी गिरी गिरी"करते थे पर गिरने नहीं देते थे।

ये बैकग्राउंड बदलने के लिए ही तो उसे इस महानगर में उच्च शिक्षा के लिए भेजा गया था।मेट्रोज की भोग विलास की संस्कृति का नंगा सच आज उसके सामने था।बॉयफ्रेंड्स कपड़ो की तरह बदले जा रहे थे और वो था एक मोहरा।

सोचने पर गाँव में बिताए वो पल वो आशाएं इन पलों पर भारी पड़ते गए।अम्मा बाबा की पसीने की बूँदे और पैरों में फटी बिबाई में जमे हुए खून के आगे उसे किसी बेवफा के लिए बहाये गए ये आँसू बड़े बेमानी लगे।उसे लगा जैसे वो अंतरिक्ष से भी गिरेगा तो अम्मा बाबा के हाथ उसे थाम लेंगे।आज उसी बैकग्राउंड ने उसे होंसला दिलाया और उसी फन्दे से उसने अपनी कमर कस ली कुछ कर दिखाने के लिए।

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नहीं अब और नहीं

पूजापाठी और दान धर्म में विश्वास करने वाले सेठ त्रिभुवनदास जी अपनी माताजी की प्रत्येक पुण्यतिथि पर ब्राह्मणों को वस्त्र एवं बर्तन दान किया करते थे। अपनी पीठ पीछे जब वह यह सुनते कि "इतना बड़ा सेठ हो कर भी एक लोटा दे गया और खुद तो इतने अच्छे कपडे पहनता है और हमें इतने साधारण वस्त्र दिए" तो उनके स्वाभिमान को बहुत ठेस लगती थी।

वो चिंतित हो पंडितजी के पास पहुचे और बोले "पंडितजी, कहते हैं दान की बछिया के दांत नहीं गिनने चाहिए किन्तु सब गिनते हैं और कोई संतुष्ट नहीं होता"पंडितजी ने सुझाव दिया कि "तुम अब गरीबो को स्वादिष्ट भोजन कराओ, भोजन ही एक मात्र ऐसी वस्तु है जिससे तृप्त हो कर व्यक्ति कहता है "नहीं अब और नहीं।"

कपिल शास्त्री

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