Swabhiman - Laghukatha - 9 books and stories free download online pdf in Hindi

स्वाभिमान - लघुकथा - 9

1 - बॉर्नविटा वाला दूध

"रानो, आओ चाय पी लो काम तो चलता रहेगा। "

"नहीं मीता दी, यहीं दे दो खड़े खड़े ही पी लूँगी।"

"अरी, बाकी महरियाँ तो सारा काम धाम छोड़, ठाठ से बराबर बैठ कर चाय पीती हैं एक तू ही अनोखी देखी मैंने। सालों से एक ही जवाब। क्यूँ भला। आज ये तो बता।"

इस ' क्यूँ ' का जवाब रानो को अतीत में ले गया। माँ - बाबा की लाडली थी। छुटपन में एक दिन शौकिया बर्तन मांज रही थी कि माँ ने बॉर्नविटा वाला दूध बनाया और उसे वहीं पकड़ा दिया। बस फ़िर क्या था, लगी रानो ऊँचा ऊँचा रोने, आसमान सर पर उठा लिया कि मुझे क्या महरी समझा है जो काम करते करते वहीं पकड़ा दिया।बहुत लाड किये माँ ने, बहुत मनुहार की, मिन्नतें करते हुए बोली कि लाडो, चाय थोड़ा दी, बॉर्नविटा वाला दूध दिया है तो मेरी लाडो महरी कैसे हुई मगर उस रात तो रानो,बस आँसुओ में सोई।

बचपन भी उतनी ही उम्र लेकर आता है जितनी माँ बाप का साया एक दुर्घटना में अनाथ हो गयी रानो। दुलार और स्वार्थ में फर्क समझने का मौका ही नही मिला था सो दूर के एक रिश्तेदार के हत्थे चढ़ गई जो बेच गया उसे दिल्ली जैसे महानगर में।

इज़्ज़त और स्वाभिमान की घुट्टी शायद हर लड़की की तरह रानो ने भी पैदा होते ही पी ली थी सो कुछ भाँप कर भाग ली उस अजीब सी जगह से। कुछ घरों में काम करने लगी साथ ही मीता दी जैसी भलीमानस की वजह से पढ़ाई भी शुरू कर दी ओपन स्कूल से। इस साल बी०ए० फाइनल का इम्तिहान देने बैठ रही थी मगर चाय आज भी वो खड़े खड़े ही पी लेती है, शायद बॉर्नविटा वाले दूध के इंतजार में .....

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2 - राखी का कर्ज़

फ़ोन सुनते सुनते रमा को चक्कर सा गया। रिशु ने सहारा देते हुए पूछा। "क्या हुआ मां ?क्या कहा उन्होंने? "

"उन्होंने कहा है कि अगर मीतू की डोली नई कार में नहीं सजी तो बारात भी नहीं आएगी। अब क्या होगा।"

"कुछ नहीं माँ मेरी डोली नहीं जाएगी। मैं ऐसे लालची घर में शादी नहीं करूंगी। पहले नौकरी पर एतराज़,आज कार की डिमांड तो कल कुछ और। " मीतू ने आक्रोश भरी अवाज़ में कहा।

"पागल हो गयी हो क्या ? कॉर्ड बंट चुके हैं। परसों जागरण है। क्या कहूंगी सब लोगों से। आज तुम्हारे पापा होते या कोई भाई ही होता तो वो उन्हें समझाते, बात करते। मैं अकेली जान,क्या करूँ ऐसे में ?"

रिशु उन दोनों की बातें सुन तड़प उठी। पहली बार माँ के मुंह से बेटा ना होने की आह सुनी थी। बचपन से ही उसने और मीतू ने एक दूसरे को राखी बांधी थी और एक दूसरे की रक्षा का वादा किया था। आज उस राखी का कर्ज़ चुकाने का वक़्त गया था।

"माँ, मैं बात करूँगी उनसे। तुम फ़िक्र मत करो। मैं कहूंगी उनसे कि..... हमें उनकी शर्त मंज़ूर है।डोली नई कार में नही सजेगी इसलिए वो बारात लेकर ना आयें। और रही बात जागरण की तो वो होगा, ज़रूर होगा। हम सब माता रानी का धन्यवाद करेंगे लेकिन मीतू के नौकरी मिलने की खुशी का। "

रिशु ने साइड टेबल पर पड़े अपॉइंटमेंट लैटर को मीतू के हाथ में देकर अमरीशपुरी की आवाज़ में कहा," जा मीनल जा, जी ले अपनी ज़िंदगी " और दोनों बहनें खिलखिला कर हँस पड़ी।

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3 - सफ़र

निशा ये रोज़रोज़ के देखने दिखाने के सिलसिले से तंग चुकी थी। कल फिर कोई जनाब उसका मुआयना करने आने वाले थे। अभी अभी उनके यहाँ से ही फ़ोन था। निशा ने आई डी कॉलर में नंबर देखा और आव देखा ना ताव, मिला दिया लेकिन उधर से एक दबंग सी महिला की आवाज़ सुनकर एकदम घबराकर रख दिया। हिम्मत कर, एक बार फिर मिलाया, इस बार एक जवान सी आवाज़ थी। निशा ने थूक निगलते हुए पूछा, " जी, रमेश जी से बात हो सकती है ? "

" मैं रमेश बोल रहा हूँ आप ? "

"जी, मैं, निशा, जिसे आप कल देखने आने वाले हैं।

जी मैं पहले ही बता दूं कि मेरा रंग सांवला है, देखने दिखाने में 28 पार कर चुकी हूं, 9 से 5, सरकारी पोस्टऑफिस में बैठती हूं, मेरे चेहरे मोहरे को दूर से जांच लें, तभी बात आगे बढ़ाएं "

निशा एक ही सांस में सब कह गयी

" और हां, एक बात और, अव्वल तो आप बात आगे बढ़ाने आएंगे नही, भी गए तो पसन्द -नापसन्द करने का हक़ केवल आपकी जागीर नहीं, नापसन्द मैं भी कर सकती हूं आपको। निशा ने सांस लेते हुए फोन पटक दिया।

उफ्फ ये क्या कर दिया था उसने जोश में आकर। जहाँ इतनी बार परेड हो चुकी थी, वहाँ एक बार और सही। घर में पता चला तो उसकी खैर नहीं। माँ की आवाज़ सुन वो सुबह के हादसे की सोचों से बाहर निकली।

माँ जिस ताक़त के साथ उसका नाम पुकार रही थी लगता था उनको सब पता चल ही गया था। निशा तैयार थी बम ब्लास्ट के लिए, लेकिन जो हुआ वो अप्रत्याशित था।

माँ ने बताया कि वो लोग नहीं रहे देखने। कहलवाया है कि हमें लड़की पसन्द है। अगर आपकी हां हो तो सीधा सगाई के लिए आएंगे।

मां हैरान थी, मगर निशा के होठों पर मुस्कान थी।

दफ्तर आये थे आज 'वो ' आकर गला खंखारने लगे।

" जी, मैं, रमेश "

" ओह! तो देखने आए हैं आप मुझे।"

" जी नहीं, देखने नहीँ , दिखाने आया हूँ खुद को। वैसे भी किसी ने कहा है कि देखने दिखाने का हक़ सिर्फ लड़कों की जागीर नहीं। "

निशा की बोलती बंद हो गयी। और फ़िर एक कप चाय के बीच कब तय हो गया उसका 'रमेश' से 'वो' तक का सफ़र, निशा को पता ही नहीं चला....

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अंजलि गुप्ता 'सिफ़र'

मौलिक एवं स्वरचित

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