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जज़्बा-ए-शहादत

जज़्बा-ए-शहादत

अनिता ललित

वह साँस रोके, झाड़ियों में छिपा बैठा था! काँटों की झाड़ कुछ इस क़दर उससे लिपट गई थी कि समझना मुश्किल था -काँटों ने उसको छिपाया हुआ है या उसने काँटों को! उसके शरीर में काँटे धँसे जा रहे थे और खून रिस रहा था ! अचानक उसे अपने पैरों पर कुछ रेंगता हुआ -सा महसूस हुआ ! देखा -एक बिच्छू काँटों की टहनी से होकर, उसके पैरों पर अपना रास्ता बनाता हुआ चला आ रहा था ! उसने उसे झटकना चाहा मगर पैर नहीं हिला पाया क्योंकि वे भारी ज़ंजीरों में जकड़े हुए थे! हाथ से हटाना चाहा तो पाया कि वे मोटे रस्से से बँधे हुए थे! उसने हिलने की कोशिश की, कि तभी जैसे किसी ने उसको, उन रस्सों से ऊपर खींच दिया –उसकी घुटी-घुटी सी चीख़ निकली और कुछ ही पलों में वह हवा में उल्टा लटका हुआ था! गीदड़ और जंगली सूअरों की हुआँ-हुआँ की आवाज़ें दिल दहला रही थीं! अचानक चारों ओर से कई हाथ उसके गले की तरफ़ बढ़ने लगे! घबराकर उसने नीचे देखा तो जान सूख गई –गोश्त के भूखे, दुश्मन के ख़ूँख़ार कुत्ते उसकी बोटी नोचने की फ़िराक़ में, उछल-उछलकर उसतक पहुँचने की कोशिश कर रहे थे! अचानक कुत्तों ने उसपर छलाँग लगा दी! एक पल को उसके दिल की धड़कन मानों रुक गई –मोहनलाल चीख़ पड़ा! -और इसी के साथ उसकी आँख खुल गई! कुछ पलों तक वह सन्न पड़ा रहा! बदन का पोर-पोर बुरी तरह दुख रहा था! वह एक कोठरी में पड़ा था! मन पर ज़ोर डालकर याद करने की कोशिश की कि वह कहाँ पर है, मगर उसकी पलकें बोझिल हो रही थीं -वह फिर बेहोश हो गया!

मोहनलाल -मुहम्मद असलम के वेश में, जासूस बनकर भारत से पाकिस्तान, यहाँ की आणविक योजनाओं की जानकारी इकट्ठी करने के अभियान पर आया हुआ था! अपने देश भारत के लिए कुछ कर गुज़रने की चाह, मर मिटने का जूनून उसके अंदर कूट-कूटकर भरा हुआ था! स्वभाव से ही वह अत्यंत जिज्ञासु प्रवृत्ति का था –इसीलिए उसने देश की सेवा करने के लिए जासूसी का पेशा अपनाया था! अपने पड़ोसी मुल्क़ पाकिस्तान में क्या हो रहा है, यह जानने की उत्सुकता उसे सदैव से रहा करती थी! भारत की आज़ादी की लड़ाई का वह स्वयं गवाह था! अपने देश के लिए शहीद होने के जज़्बे में वह सिर से पाँव तक सराबोर था! शहीद भगतसिंह के प्रति उसकी असीम श्रद्धा थी, जिसे उसने अपनी इन पँक्तियों में बयान किया था –

“तेरे लहू से सींचा, है अनाज हमने खाया!

यह जज़्बा-ए-शहादत, है उसी से हममें आया!”

सीमा पर लड़ने वाला एक सैनिक अपनी जान हथेली पर लिए घूमता है, इसमें कोई कोई शक़ नहीं! वह पूरी तरह खुल के जीवन जीता है! मगर एक गुप्तचर का जीवन इतना एकाकी और आत्मकेंद्रित होता है कि उसमें उसके अपने भी नहीं झाँक सकते! उसकी अपनी अलग ही दुनिया होती है, जिसमें सिर्फ़ वह होता है, और होता है -उसका रहस्यमयी संसार! वह -अजनबी देश, अजनबी शहर, अजनबी लोगों के बीच में रहता है, नकली मुखौटे पहनकर सौ तरह के स्वांग रचता है, हर क़दम पर दुश्मनों की निगाहों से ख़ुद को बचाता है! अपनी आँखों पर वह धूप का चश्मा चढ़ाए हुए होता है कि कहीं कोई उसकी आँखों में झाँककर उसकी भावनाओं को न पढ़ ले!

मोहनलाल के माता-पिता, यहाँ तक कि उसकी पत्नी को भी, उसके काम का पता नहीं था! यह भी पता नहीं था कि वह सुन्नत करवाकर मुसलमान बन चुका था और सिर पर क़फ़न बाँधकर पाकिस्तान में जासूस बनकर आता-जाता है! वह जानता था कि वह कभी भी गिरफ़्तार हो सकता था -ऐसी परिस्थिति में वह मुँह खोलकर अपने देश का नाम तक नहीं ले सकता था और यदि ले भी लेगा, तो यह देश उससे अनजान बनकर उसको ठुकरा सकता था! वह एक ऐसा देशभक्त वीर सिपाही था, जो देश के लिए अपनी जान तो दे सकता था मगर उसके देश को इसकी ख़बर होगी, उसके परिवार वालों को उसकी इस क़ुर्बानी का पता चलेगा -इसकी उम्मीद न के बराबर थी! देशभक्ति के इस जूनून ने उसके भीतर ही जन्म लिया था, और उसे उसके भीतर ही ख़त्म होना था!

बदक़िस्मती से आज वह दिन भी आ गया था, जब अपने ही एक साथी के धोखा देने के कारण, वह अब पाकिस्तान की गिरफ़्त में था! आज उसकी क़ैद का पहला दिन था!

पहली पूछताछ के दौरान, जब मेजर एजाज़ ने उससे उसका मक़सद उगलवाने की कोशिश की और उसको उसके किसी भी सवाल का जवाब नहीं मिला तो मोहनलाल यातनाओं का दौर शुरू हो गया! उसको सारे कपडे उतारकर उल्टा लेटाया गया, फिर दो जवानों को बुलाकर, एक को उसकी टाँग दबाए रखने को कहा और दूसरे को उसकी पीठ पर बैठने को कहा! फिर पेड़ की एक मोटी डाल से डेढ़ घंटे तक लगातार उसको मारा गया! उसके बदन से ख़ून बह रहा था, उसकी चीखों से कोठरी गूँज रही थी! कुछ ही समय में वह बेहोश हो चुका था!

अब वह उसी छह फ़ीट लम्बी, छह फ़ीट ऊँची तथा तीन फ़ीट चौड़ी कोठरी में बेहोश पड़ा था! डरावने सपने हक़ीक़त बन चुके थे और हक़ीक़त अब एक भयावह सपना थी!

बेहोशी में ही उसके कानों में किसी के चीख़ने की आवाज़ें पड़ी! भरपूर कोशिश करके उसने अपनी आँखें खोलीं -बगल की कोठरी में शायद उसीका कोई साथी था! यूँ लग रहा था, जैसे कई लोग मिलकर उसे मार रहे हों! उसकी आँख खुली ही थी कि उसे उठाकर, उसके दोनों हाथ पीछे की ओर हथकड़ियों से जकड़ कर, एक बार फिर उसे पूछताछ के लिए कमरे में पहुँचा दिया गया! वहाँ का नज़ारा देखकर ही उसके रोंगटे खड़े हो गए! उसका साथी उल्टा लटका हुआ था और बेहोश हो गया था! मेजर एजाज़ फिर से उसके सामने था और आराम से सिगरेट पी रहा था! उसे देखते ही एक व्यंग्य भरी मुस्कुरान से बोला, “हाय पैट्रियट! बेटा, हम भी देखेंगे, तुम्हारा हीरोइज़्म कब तक चलता है! तुम जान देने पर आमादा हो, तो हम भी तरस खाने वालों में से नहीं हैं!”

उसके पास इसका कोई जवाब न था! एक बार फिर उसके कपड़े उतरवा दिए गये और उसे मेज़ पर खड़ा कर दिया गया! उसके दोनों हाथों को छत से लटक रहे रस्से के साथ पीछे कसकर बाँध दिया गया! नीचे से मेज़ हटा दी गई! वह अब हवा में लटक रहा था! रस्सा ऊपर छत से एक घिरनी पर से गुज़रता था! यह रस्सा उसके हाथों को काटकर कलाइयों में धँसता चला जा रहा था! कितना भी ताक़तवर इंसान क्यों न हो, इस प्रकार इस रस्से पर, पन्द्रह मिनट से अधिक अपने होश क़ायम नहीं रख सकता था! इस तरह उसे लटकाने के बाद पाँच फ़ौजियों ने उसे पीटना शुरू किया –एक के हाथ में एक इंच मोटी बेंत थी, जो उसके तलवों पर बरस रही थी; दूसरा डंडे से उसकी पिंडलियों पर वार कर रहा था; तीसरे के हाथ में कपड़े धोने वाला पिटना था, जिसे वह उसके कूल्हों पर मार रहा था; चौथा उसकी पीठ पर डंडे बरसा रहा था और मेजर एजाज़ बारीक़ शहतूत की छड़ी से उसके सिर पर वार कर रहा था! उसकी चीख़ें बढ़ती जा रही थीं! कुछ देर तक छटपटाने के बाद उसने अपने जिस्म को ढीला छोड़ दिया! फिर उसे डंडों का एहसास होना बंद हो गया था! बेहोशी -सी आने लगी थी कि तभी मेजर एजाज़ ने उसके मुँह पर पानी का जग फेंककर कहा, ‘बेटे, यहाँ मर तो सकते हो, सो नहीं सकते!” उसने पीने को पानी माँगा तो बोला, “हमारे ख़िलाफ़ जेहाद करने आए थे न! राहे-शहादत को कभी पानी माँगकर, कभी आँसू बहाकर, कभी चीख़-पुकार मचाकर क्यों दाग़दार कर रहे हो? हँसते हुए जामे-शहादत नोश फ़रमाओ! यह नसीबवालों को ही नसीब होता है!..” मेजर एजाज़ न जाने क्या-क्या बकता रहा -वीर मोहनलाल बेहोश हो चुका था!

पता नहीं वह कब तक बेहोश रहा! आँखें खुली तो अपने आप को उसी कोठरी में पाया! तभी लकड़ी का दरवाज़ा खुला -दाल के साथ चार तंदूरी रोटियाँ उसके आगे रख दी गईं! उसने रोटी लेने के लिए हाथ उठाने चाहे मगर उसके हाथों ने उठने से इंकार कर दिया! गारद कमांडर क़रामत अली ने आकर उसकी दोनों बाहों की मालिश करवाई और बोला, “रस्से से उल्टा लटकाने से अक्सर ऐसा हो जाता है, अभी ठीक हो जाएगा!” और सचमुच! थोड़ी देर की मालिश के बाद उसके हाथ उठने लगे थे! वह सुबह से भूखा था, अतः जो भी खाना सामने था, वह उसपर टूट पड़ा!

क़रामत अली किसी फ़रिश्ते से कम नहीं था! उसने उसकी पीठ थपथपाई और कहा, “शाबाश, दिल छोटा नहीं करते! मुसीबतें मर्दों पर ही आया करती हैं! तुम जिसको मानते हो, उसको याद करो! अल्लाह अपने प्यारों का ही इम्तिहान लेता है! अल्लाह ने तुम्हें किसी बड़े मक़सद के पेशे-नज़र क़ैद करवाया है! इसलिए जो उसकी रज़ा है, उसी से राज़ी रहो!” क़रामत अली के शब्द उसके ज़ख़्मों पर जैसे मल्हम का काम कर रहे थे!

वह आगे बोला, “पेट भरकर खाना खाओ! अगर जिंदा रहे, तो इंशा अल्लाह ज़रूर अपने मुल्क़, अपने बीवी-बच्चों के पास पहुँच जाओगे!” यह सुनते ही उसके हाथों से रोटी छूट गई! आँखें भर आईं –‘हाय! उसकी पत्नी व माता-पिता को तो ख़बर भी न होगी कि वह यहाँ किस अज़ाब से गुज़र रहा है! उसकी शादी को अभी एक साल भी नहीं हुआ था! पत्नी गर्भवती थी! कैसे गुज़ारा होगा उन बेचारों का -वह इकलौता बेटा था!’

क़रामत अली के जाने के बाद मोहनलाल सोचता रहा –‘हैवानों के बीच में यह फ़रिश्ता कहाँ से आ गया!’ क़रामत अली की बातें उसके कानों में गूँज रही थीं! धीरे-धीरे वह नींद की आग़ोश में चला गया!

आधी रात में किसी की चीख़ें सुनकर फिर उसकी आँख खुल गई! यूँ लग रहा था, जैसे बकरे की गर्दन पर छुरी फेरी जा रही हो! उसके दिल की धड़कनें बहुत तेज़ हो गईं! उसे लगा, शायद ये भी उसी की ही तरह कोई भारतीय जासूस होगा! यातना कार्य पूरे ज़ोरों पर था, मगर जिसको यातना दी जा रही थी, वह क़ैदी उन सिपाहियों को गन्दी-गन्दी गालियाँ दिए जा रहा था! मोहनलाल उस क़ैदी की गालियों को सुनकर हैरान था!

बहुत देर तक यही सिलसिला चलते देख उससे रहा न गया! उसने हिम्मत बटोरकर वहीं से उस क़ैदी को संबोधित करते हुए कहा, “ओ भाई! क्यों इन लोगों को गालियाँ देकर अपनी मुसीबतों को और बढ़ाते हो?" इसपर उसने मोहनलाल को डाँटकर चुप करा दिया! धीमे-धीमे उस क़ैदी की चीख़ें कराहटों में बदल गईं! मोहनलाल ने अंदाज़ा लगाया कि शायद उसे बिजली के झटके दिए जा रहे थे -मगर जो भी ज़ुल्म हो रहा था उसपर, वह असहनीय था –यह उसकी चीखों और कराहटों से पता चल रहा था! कुछ समय बाद, भारी ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ वह क़ैदी निकला –मोहनलाल उसे देख तो न सका, बाद में संतरी ने बताया, वह उसी का कोई हिन्दुस्तानी भाई है! ये लोग इतने ज़ुल्म करने के बावजूद अभी तक उसका नाम भी नहीं जान सके हैं! हर रात वे लोग उसे तंग करते हैं, मगर उसने अभी तक मुँह नहीं खोला, बल्कि उन्हीं लोगों को गालियाँ बकता जाता है! छोटे अफ़सर उससे आज़िज़ आ चुके हैं, कहते हैं कि इसे गोली मार दिया जाए, मगर बड़े अफ़सर इस बात के लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि दोनों मुल्क़ों के बीच कुछ नियम हैं, जिनके मुताबिक़ वे ऐसा नहीं कर सकते!

यह सुनकर मोहनलाल के मन में कहीं हल्की सी आस की किरन जागी! वह सोचने लगा, ‘कम से कम इतना तो है, कि कुछ भी हो जाए, ये लोग मुझे मारेंगे नहीं! ज़्यादा से ज़्यादा क्या करेंगे -यातना ही तो देंगे! कितनी यातना देंगे? आख़िर एक दिन उन्हें उसे छोड़ना ही पड़ेगा!’ वह अपने आप को किसी तरह तसल्ली देने की कोशिश कर रहा था!

जब ज़ुल्म की इन्तेहा हो जाती है और इंसान को उससे निकलने का कोई रास्ता नहीं मिलता, तब उसे उस परमशक्ति के होने का आभास होता है, उसके प्रति उसमें विश्वास जागता है, जो इस दुनिया, दुनिया के जीवों से –सबसे ऊपर है! इस वक़्त मोहनलाल को उसी परमात्मा का सहारा था, जो उसे इन सब मुसीबतों से लड़ने की हिम्मत दे रहा था! अब वह अपने आप को तैयार कर रहा था –बुरे से बुरे हालात का सामना करने के लिए!

कुछ दिनों तक वह इसी तरह ज़ुल्म और अत्याचार की आँधी में झुलसता रहा –कभी बिजली के झटके दिए गये, कभी जिस्म में मिर्ची डाली गई, कभी बर्फ़ पर लिटाया गया, कभी पैरों तले जलते अंगारे रखे गए, कभी सर्दियों की रात में, नंगे बदन, सिर पर तह कराकर चार कंबल रखकर, सारी रात टहलने को कहा गया। कभी कोई मेजर आकर अपनी भड़ास निकाल जाता, तो कभी कोई प्लाटून कमांडर मुँह पर मुक्का मार जाता। कभी उससे कहा गया कि वह बिना हाथों का इस्तेमाल किए खाना खाए, चाय पिए और यदि वह इंकार करता तो फिर पिटाई होती। ये सारी थर्ड डिग्री यातनाएँ, उससे एटॉमिक एनर्जी से सम्बंधित कोई जुर्म मनवाने के लिए दी जाती रहीं! यातनाओं का प्रकोप जारी रहा मगर दिलेर मोहनलाल ने हिम्मत नहीं हारी!

फिर एक दिन उसकी आँखों पर पट्टी बाँधकर उसे लाहौर जेल ले जाया गया! वहाँ उसके साथ पाकिस्तानी क़ैदी भी थे! कहने को तो वे दुश्मन मुल्क़ के थे, मगर उसके साथ प्यार से पेश आए! जब उन्होंने अपने घर से आया खाना उसके आगे किया तो उसका मन भर आया! फिर तो सबने साथ मिलकर आपस में गाने सुनाए, कहानियाँ सुनाईं! मोहनलाल यह देखकर हैरान था कि वहाँ मोहम्मद रफ़ी साहब के गाने बहुत पसंद किए जाते हैं! उसने भी उनके गाए चार गीत सुनाये, जिसे सुनकर संतरी भी झूमने लगा और ख़ुश होकर अपनी तरफ़ से उसे चाय पिलाई! इतने दिनों की यातना के बाद आज उसका मन थोड़ा हल्का था और उसे अच्छी नींद आई! आगे का सफ़र, उसके लिए, अपने साथ क्या लाने वाला था -इसका उसे कुछ इल्म न था!

अगले दिन उसे कचहरी ले जाया गया, जहाँ उसे पाँच दिन का जिस्मानी रिमांड दे दिया गया! उसने सोचा, ‘इतने ज़ुल्म सहने के बाद अब और कौन सा ज़ुल्म बचा होगा! खैर, जो भी है –झेलना तो होगा ही! चाहे मुस्कुराकर झेलूँ, चाहे रोकर!’ आगे की तफ़्तीश चौधरी निसार को करनी थी!

चौधरी निसार ने उसका परिचय पूछा! उसने जैसे ही अपने पिताजी का नाम बताया तो उनकी आँखें हैरानी से फ़ैल गईं, और वे बोले, “तो तू काले बामन का बेटा है?” उसके हामी भरते ही चौधरी निसार ने अपने सिर पर हाथ मारते हुए कहा, “ये तुमने क्या किया बेवक़ूफ़! कितनी मन्नतों से तुम्हारे बाप ने तुम्हें हासिल किया था! कड़ी धूप में पीर-फकीरों की मज़ार पर मानता मानी, तब कहीं जाकर तुम्हें पाया और तुमने इस तरह अपनी ज़िन्दगी बर्बाद कर ली! तुम्हारे होने पर उन्होंने कितनी ख़ुशियाँ मनाई थीं! मैं भी उस पार्टी में गया था!” फिर चौधरी निसार ने उसे ढाँढ़स बँधाया कि जितने दिन वह उनके पास है, कोई भी उसे हाथ नहीं लगाएगा! वे बोले, “रस्मी तौर पर तुम्हारी पूछताछ ज़रूर होगी वरना मेरे ख़ानदान पर ख़तरा हो सकता है! अगर तुम पाकिस्तानी होते और क़त्ल भी किया होता, तो मैं तुम्हें उससे निकाल लेता, मगर जासूसी जैसे गंदे काम में फँसने के लिए, मैं तुम्हारे लिए सिर्फ़ दुआ ही कर सकता हूँ!” मोहनलाल का दिल उनके प्रति आदर से भर उठा -उसने उनके पाँव छू लिए! चौधरी निसार का कहना था कि ये हमारे पंडितों और मुल्लाओं का ज़हर है, जिसने हिन्दू-मुस्लिम, दोनों क़ौमों के बीच में नफ़रत की दीवार उठा दी है! वरना ऐसे इंसान भी हैं -जो फ़रिश्तों को मात दे दें!

अब मोहनलाल को कोट लखपत जेल, लाहौर लाया गया! यहाँ उसे फाँसी की कोठरी में रखने का आदेश दिया गया, जहाँ सज़ा-ए-मौत के क़ैदी रखे जाते थे! एक रात सोते में उसे ‘इन्क़लाब जिंदाबाद’, ‘पीपुल्स पार्टी जिंदाबाद’, ‘क़ायदे अवाम जिंदाबाद’, अयूबशाही मुर्दाबाद’ के नारे सुनाई दिए! सारे क़ैदी अपने दरवाज़े खड़का रहे थे –पता चला, भुट्टो साहब अपने साथियों समेत जेल में गिरफ़्तार होकर आए थे! यह बात क़ैदियों को पता चल गई और वे सब बेक़ाबू हो रहे थे! दारोग़ा ने क़ैदियों से अपील की कि भुट्टो साहब सुबह सबसे मुलाक़ात करेंगे, तब तक सभी अमन-चैन बनाए रखें! मोहनलाल ने देखा -भुट्टो साहब पाकिस्तानियों के मसीहा थे!

सुबह का नज़ारा अद्भुत था -भुट्टो साहब ने बैरकों का चक्कर लगाना शुरू किया! सभी क़ैदी अपने टीनों पर हाथ मार रहे थे, हर कोई उन्हें खाने के लिए कुछ न कुछ पेश करना चाह रहा था! वे हरेक के हाथ से चीज़ लेते और बड़े प्यार से उसके ही मुँह में डाल देते, फिर आगे बढ़ जाते! जब वे मोहनलाल के बैरक में आए, तो उन्हें बताया गया कि वे सब हिन्दुस्तानी क़ैदी हैं! वे मोहनलाल और उसके साथियों के पास गये और बोले, “अज़ीज़ दोस्तों, आपकी हालत देखकर मुझे बहुत सदमा पहुँचा है! मेरा आपसे वादा है कि जिस दिन हमारी हुक़ूमत आई, इंशाल्लाह आप एक साल के अन्दर-अन्दर अपने मुल्क़ में होंगे!” यह सुनकर मोहनलाल और उसके साथी कैदियों के मुँह से स्वतः ही निकल पड़ा ,”भुट्टो साहब जिंदाबाद!” भुट्टो साहब ये सुनकर मुस्कुरा दिए और हाथ हिलाते हुए आगे बढ़ गए!

कुछ दिनों बाद मोहनलाल के लिए छह महीनों की ‘नज़रबंदी’ का हुक्म आया और उसे शाही क़िला, लाहौर भेज दिया गया! वहाँ का माहौल ख़ौफ़नाक था -चौबीस घंटे पूछताछ का काम चलता रहता था! कुछ संतरियों ने उसे बताया कि यहाँ दस हिन्दुस्तानियों कैदियों ने पूछताछ के दौरान दम तोड़ दिया और न जाने कितने पागल हो गए!

पूछताछ के लिए उसे मेजर एजाज़ मक़सूद के सामने पेश किया गया, जो अपने सीनियर के ख़िलाफ़, मोहनलाल के मुँह से कुछ उगलवाकर, साज़िश करने पर उतारू था -बदले में उसने मोहनलाल को रिहाई का आश्वासन दिया! उसने उसके बूढ़े माँ-बाप और गर्भवती पत्नी का भी वास्ता दिया -मगर मोहनलाल एक सच्चा देशभक्त ही नहीं, एक सच्चा इन्सान भी था! उसने उसका प्रस्ताव यह कहकर ठुकरा दिया कि, “यह बेईमानी होगी! मैं किसी के बच्चों की बददुआएँ नहीं ले सकता! इसके लिए ख़ुदा कभी मुझे माफ़ नहीं करेगा, मेरा ज़मीर इसके लिए ग़वारा नहीं करता!” उस रात मोहनलाल बहुत चैन की नींद सोया -उसे इस बात का सुक़ून था कि इतने ज़ुल्म और अत्याचार के बीच रहते हुए भी वह डगमगाया नहीं तथा नेकी और ईमानदारी की राह पर क़ायम रहा!

इस बार तफ़्तीश के लिए उसे राजा गुल-अनार ख़ान के सामने पेश किया गया, जिसकी दहाड़ सुनकर किले की दीवारें काँप जाया करती थीं, नज़रबन्दों के दिल डूबने लगते थे -वे गिड़गिड़ाकर दुआ किया करते थे कि उनकी तफ़्तीश गुल-अनार ख़ान न करे! उसकी पूछताछ का तरीक़ा ऐसा था कि अच्छे-अच्छे नज़रबंद उसके सामने रिकॉर्ड की तरह बजने लगते थे और जहाँ कोई जरा सा भी इधर-उधर भटका कि वह चीते की तरह उसपर टूट पड़ता –फिर तो क़ैदी का कोई न कोई अंग टूटा हुआ ही मिलता!

मोहनलाल से गुल-अनार ख़ान ने उसके नाम का मतलब और ज़ात पूछी! मोहनलाल के मुँह से ब्राह्मण ज़ात सुनते ही वह बोला, “तो तुम सूर्यवंशी ब्राह्मण हो?” मोहनलाल के हैरान होने पर उसने बताया कि वह ख़ुद एक चंद्रवंशी ब्राह्मण है और इतिहास में ग्रेजुएट है! उसके पूर्वज राजस्थान के राजा थे! औरंगजेब के ज़माने में, जब हिन्दुओं पर बेपनाह ज़ुल्म हुए तब वे जान बचाकर वहाँ से भागे और मजबूरीवश उन्हें इस्लाम क़ुबूल करना पड़ा!

गुल-अनार ख़ान ने आगे कहा कि, ‘इस्लाम इतनी तेज़ी से इसलिए फैला क्योंकि जब मुसलमानों ने हिन्दुस्तानियों पर हमले किए तो विभिन्न रियासतों के राजाओं ने एक-दूसरे से दुश्मनी निकालने के लिए, आपस में ही एक-दूसरे से गद्दारी की और ख़ुद अपनी तबाही की वजह बने! यदि किसी हिन्दू ने अपनी जान ख़तरे में देखकर कलमा शरीफ़ पढ़ लिया, तो उस हिन्दू के रिश्तेदारों ने उसका हुक्का-पानी ही बंद करवा दिया! मंदिरों के दरवाज़े उनके परिवार के लिए बंद हो गए, कोई तीज-त्यौहार में उन्हें भाग नहीं लेने दिया गया! जब सबने उनसे आँखें फेर लीं, तब उन अभागों ने इस्लाम को गले लगाया और हिंदुस्तान में इस्लाम की जड़ें मज़बूत होती चली गईं! आज वे जो मुसलमान हैं, उनकी पुश्तें कभी हिन्दू हुआ करती थीं! इस दुश्मनी की जड़ें इतनी गहरी हो चुकी हैं, कि दोनों क़ौमें अब तक एक-दूसरे से बदला ले रही हैं! उन्होंने सोच लिया था -जिन हिन्दुओं ने उनके जज़्बात कुचले थे, उन पर ज़ुल्म किए थे, अब वे उनपर रहम नहीं खाएँगे! उनकी पीढ़ियाँ, आज उनका ही बोया काट रही हैं!

अपने ब्राह्मण होने पर मोहनलाल को ग्लानि हुई! उसने सोचा, ‘कबीर व गुरुनानक की सारी कोशिशें बेकार चली गईं! हम आज भी उसी फूट की राह चले जा रहे हैं!’

गुल-अनार ख़ान और मोहनलाल के बीच शायरी, फ़लसफ़ा और निजी जीवन पर भी बातें हुईं! यहीं गुल-अनार ख़ान ने उसको ख़ुशख़बरी दी कि वह एक बेटे का बाप बन गया है, जिसे सुनकर मोहनलाल की आँखों से आँसू निकल पड़े! वह बोला, “आपके इस ग़रीब दुश्मन के पास तो आपका मुँह मीठा कराने को कुछ भी नहीं है!” इसपर गुल-अनार ख़ान बोला, “मैं ख़ुद ले आया हूँ! यह खाओ मेरे भतीजे के नाम पर!”

अपने देश, अपने घर, अपने अपनों से दूर -मोहनलाल यही सोचता रहता, ‘क्या वह अपने बेटे को देख पाएगा? यदि हाँ –तो कब? वह मेरे बारे में अपनी माँ से पूछेगा, तो वह उसे क्या जवाब देगी? कब वह अपने घर पहुँचेगा, कब अपने बूढ़े माँ-बाप, प्रिय पत्नी और प्यारे से बेटे से मिल सकेगा -क्या वह कभी घर पहुँच पाएगा? और यदि ऐसा न हुआ तो? -ऐसे ख़याल उसका दिल डुबोने लगते!

क़ैद के हर पड़ाव पर मोहनलाल को नए लोग एवं नए-नए अनुभव मिल रहे थे! उसे क़रामत अली, चौधरी निसार, गुल-अनार ख़ान, अब्दुल रहमान खटक जैसे नेक-दिल फ़रिश्ते मिले, जिनके अपनत्व भरे व्यवहार ने उसका दिल छू लिया एवं जिनसे विदा होते वक़्त, दोनों तरफ़ आँखों में आँसू थे, और मोहनलाल को ऐसा लगा, जैसे कि वह अपना दिल वहीं छोड़े जा रहा हो, वहीं मेजर एजाज़, सूबेदार शेर ख़ान, डॉ. सईद, मेजर जादून आदि जैसे कसाई लोग भी मिले!

मोहनलाल को मिलने वाली यातनाएँ अंतहीन थीं। उसको एफ़.आई.सी. (फ़ाइनल इन्टेरोगेशन सेंटर) रावलपिंडी लाया गया और भरपूर यातनाएँ दी गईं! वहाँ के अफ़सर थक चुके थे –वे मोहनलाल के मुँह से वह बात नहीं निकलवा पा रहे थे, जो वे चाहते थे। उन्होंने तो उसे पाकिस्तानी जासूस बनने तक का प्रस्ताव भी दे डाला, जिसे उसने ठुकरा दिया। उन्होंने उसकी आँखों में गोंद डलवाकर उसकी आँखों की रौशनी छीनने की धमकी दी। उसे मार्फ़िया के इंजेक्शन लगवाए , जिससे उसपर मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभाव पड़े।

ज़ुल्म बढ़ते जा रहे थे -अकेलापन, चारों ओर से क़ैदियों के चीखने-चिल्लाने और यातनाभरी आवाज़ें और हर दिन किसी नए ज़ुल्म का सामना करने से एक अंजान ख़ौफ़ उसके दिलो-दिमाग़ पर छा गया था -उसे लगता जैसे अनजाने-अनदेखे हाथ उसका गला घोंटने को उसकी तरफ बढ़ रहे हों। उसने कुछ क़ैदियों के साथ मिलकर सुरंग बनाकर फ़रार होने का प्लान भी बनाया, मगर असफल रहा। ऐसे माहौल में अनचाहे ही उसे सिगरेट पीने की आदत लग गई ,जो उसके समय बिताने की साथी बन गई! वह कपड़े उतारकर रहने लगा, पागलों की तरह व्यवहार करने लगा -एक बार तो ख़ुदकुशी तक करने की कोशिश की!

इसी बीच पाकिस्तान में मार्शल लॉ लागू हो गया। ज़रा-ज़रा सी बात पर सड़क पर लोगों के कान पकड़वा दिए जाते, कोड़े बरसाए जाते, भारी जुर्माने लगाए जाते। जनता त्रस्त हो रही थी और उनमें आक्रोश बढ़ रहा था! हड़तालें और प्रदर्शन हो रहे थे। पाकिस्तान अवाम के जाने कितने ही जनाज़े मार्शल लॉ के हाथों निकले -इनके ख़िलाफ़ सिर्फ़ एक ही मसीहा उठा था और वो था -ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो!

वहाँ रहते हुए मोहनलाल ने महसूस किया कि 'हिन्दू-मुस्लिम दोनों क़ौमें बहुत कुछ एक -सी ही हैं। मसलन-शादी के वक़्त उसी तरह मेहँदी रचती है, गीत गाए जाते हैं, दहेज दिया-लिया जाता है, लड़की की विदाई होती है, पैसे लुटाए जाते हैं, पटाख़े छूटते हैं। रफ़ी साहब एवं लता जी के नग़मे पाकिस्तान के लोग बड़े चाव से सुनते हैं, तो हिंदुस्तान में नूरजहाँ, मेहँदी हसन के लिए लोग दीवाने हैं -फिर कौन है जो उनके बीच में नफ़रत की दीवारें खड़ी करता है? दोनों तरफ़ के लोग एक-दूसरे से मिलने के लिए छटपटाते हैं, जज़्बात में खींची हुई सीमाओं की दीवार गिराना चाहते हैं लेकिन दोनों तरफ़ के क़ौमी-रहनुमा ऐसा करते हुए घबराते हैं। अगर दोनों क़ौमें एक हो गईं तो उनकी रहनुमाई कहाँ जाएगी। वे आपस में लड़ेंगीं नहीं, तो विदेशी ताक़तें अपने हथियार किसे बेचेंगीं?' -बंद कोठरी में यातानाओं के दौर से गुज़रते हुए अक्सर ये बातें उसके ज़हन को झिंझोड़ देतीं!

कोर्ट मार्शल के दौरान अपने मुकदद्मे की पैरवी उसने स्वयं की और उसे चौदह साल बामशक़्क़त सजा हुई, जिसे उसने बड़ी ख़ुशी-ख़ुशी 'राम-बनवास' का नाम दिया। वह खुश था कि सज़ाए-मौत से बच गया! अब उसे मियाँवाली की जेल में रहना था। वहाँ उसे जिस बैरक में रखा गया, उसके क़ैदियों ने उसे हाथों-हाथ लिया और उससे मिलकर बहुत ख़ुश हुए। उसे पता लगा कि इस बैरक में अस्सी हिन्दुस्तानी क़ैदी थे, जिनमें से आठ तो बिजली के झटके और दूसरी यातनाओं से पागल हो चुके थे। उनका हुलिया और ख़ौफ़नाक हरक़तें देखकर दिल दहल जाता था। कुछ ऐसे क़ैदी भी थे, जो सज़ा पूरी होने के बाद भी वहीं थे! मोहनलाल को इस बात की फ़िक्र हुई कि क्या अपनी सज़ा पूरी करने के बाद भी, वह वापस अपने देश जा सकेगा? उसे बेहद अचम्भा और दुःख हुआ कि 'भारत सरकार अपने सपूतों के प्रति इस क़दर लापरवाह है कि इन मौत के मुँह में फँसे लोगों की सुध भी नहीं लेती थी -कि उसके लाड़लों के साथ दूसरे मुल्क़ में क्या सलूक़ होता है!'

मोहनलाल की क़ैद के ही दौरान पूर्वी पाकिस्तान से उठते हुए बंगालियों के नेता शेख़ मुजीबुर्रहमान, जो बंग-बन्धु के नाम से मशहूर थे, के खिलाफ़ याह्या खाँ और भुट्टो ने एक षड्यंत्र रचा। उनके घर पर हमला किया गया और उनको गिरफ़्तार कर लिया गया। इसपर बंगालियों का ख़ून खौल उठा। तब पाकिस्तानी फ़ौज ने बर्बरता का नंगा नाच दिखाते हुए उनपर ऐसे-ऐसे ज़ुल्म किये कि इंसानियत भी थर्रा उठी। इस दौरान क़त्लेआम में हिन्दू बंगाली अधिक शिकार बने। हवाओं में ज़हर फैल गया था और इसका असर जेलों में रह रहे हिन्दुस्तानी क़ैदियों पर भी पड़ा -पाकिस्तानी क़ैदियों और जेल के अफ़सरों की निगाहें बदल गईं थीं।

तभी एक दिन उसकी बैरक में दारोग़ा आया और उसके सहित आठ हिन्दुस्तानी क़ैदियों को बाहर निकलवा कर वहाँ ले आया, जहाँ शेख़ मुजीब क़ैद थे! सब बहुत ख़ुश हुए कि शायद वे शेख़ मुजीब को देख पाएँगे ; परन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ; क्योंकि वहाँ दोहरे-तिहरे दरवाज़े बंद कर दिए गए थे। उन सबको हुक़्म दिया गया कि वहाँ पर उन्हें आठ फ़ीट लम्बा, चार फ़ीट चौड़ा और चार फ़ीट गहरा गढ़ा खोदना है। वे सभी समझ गए कि उसी रात शेख़ मुजीब को फाँसी दे दी जाएगी और वे लोग उनकी क़ब्र खोद रहे हैं। मोहनलाल को इस पाप का भागीदार बनने का बहुत अफ़सोस हुआ -परन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ। उसी रात भुट्टो ने उनकी फाँसी रुकवा दी थी। इस प्रकार यह अमल तीन बार दोहराया गया और तीनों ही बार उनकी फाँसी टल गई!

आख़िरकार 1971 में भारत-पाकिस्तान की जंग छिड़ी, जिसमें पाकिस्तानी फ़ौजों ने बांग्लादेश में हथियार डाल दिए और जंग ख़त्म हुई। पाकिस्तान की बाग़डोर भुट्टो साहब के हाथ में आ गई!

अब क़ैदियों के तबादले की लड़ी शुरू हो गई थी। जिन लोगों ने अपने नाम व पते ग़लत लिखा रखे थे, उन्हें भारत सरकार यह कहकर बॉर्डर से ही लौटा दे रही थी कि वे उनके आदमी नहीं हैं। वे बेचारे बड़ी बुरी दशा में, पाकिस्तान जेल में अपने दिन ग़ुज़ार रहे थे और भारत सरकार को गालियाँ दिया करते थे। कई-कई दिन बीत जाते थे -उन बेचारों को चाय का एक कप भी नसीब न होता था।

आख़िरकार 9 दिसम्बर 1974 को वह शुभ दिन आया जब मोहनलाल की बारी आई और जोश में 'भारतमाता की जय' पुकारते हुए, उसने अपनी सीमा में दौड़कर प्रवेश किया। वहाँ अपने पिता जी का चेहरा देखकर उसके दिल को धक्का पहुँचा -आँखें रो-रोकर अंदर धँस गईं थीं, चेहरे पर झुर्रियाँ ही झुर्रियाँ पड़ी हुईं थीं। बाप-बेटे गले मिलकर रोने लगे!

अपने शहर पहुँचने पर बहुत ज़ोरों-शोरों से उसका स्वागत हुआ। उसकी पत्नी प्रभा को भी दुल्हन की तरह सजाया गया! लोग घर तक उन्हें छोड़ने आए। घर में बिल्कुल शादी-ब्याह जैसा माहौल था! परन्तु अपने घर की हालत देखकर उसको बहुत दुःख हुआ -दीवारों से पलस्तर उखड़ गया था, हर ईंट मानों उसकी ग़ैरमौजूदगी में उसके बेकस-बेसहारा, निर्धन हुए परिवार के दर्द को बयान कर रही थी।

मोहनलाल अपने घर तो वापस आ गया, मगर उसकी जंग अभी बाकी थी -घर के हालात बिगड़े हुए थे और उनसे लड़ने के लिए रह गया था –केवल मोहनलाल! उनकी अनुपस्थिति में लोगों ने उसके परिवार के भरण-पोषण में मदद की थी परन्तु अब उसको मदद लेना ग़वारा न हुआ। उसे स्वयं कुछ करके अपना एवं अपने परिवार का पालन-पोषण करना था। परन्तु कई वर्ष अपने घर, अपने देश से दूर रहकर, वह समझ नहीं पा रहा था कि इतने समय से टूटी हुई माला के मोतियों को फिर किस तरह से पिरोए, किस प्रकार एक बार फिर, नए सिरे से जीवन शुरू करे! वह मुंशियों से लेकर बड़े अधिकारियों से मिला मगर कोई फ़ायदा नहीं हुआ। उसकी बी.एड तक की पढ़ाई, कुछ पुराने अनुभव और प्रसिद्धि के आधार पर एक स्कूल में उसे अध्यापन-कार्य मिल गया।

एक सम्मेलन में मोहनलाल फ़िरोज़पुर से डेलिगेट बनकर गया और तत्कालीन प्रधानमन्त्री से मिला और उनसे उसने कहा, “भारत सरकार को चाहिए कि वह उन हिन्दुस्तानियों को, जो देश के काम पर पाकिस्तान की जेलों में कई-कई वर्ष सड़ते रहे हैं, इतने समय तक दुःख झेलने का उचित पुरस्कार दे।“

इस पर प्रधानमन्त्री का उत्तर था, “हम पाकिस्तान के किए की सज़ा क्यों भुगतें? क्या तुम्हारा मतलब है, कि अगर पाकिस्तानी सरकार तुम्हें बीस साल तक क़ैद में रखती तो हम तुम्हें बीस साल का मुआवज़ा देते?”

यह सुनकर मोहनलाल का ख़ून खौल उठा। यदि उसके हाथ में पिस्तौल होती, तो वह सारी की सारी गोलियाँ उनपर बरसा देता। उसने सोचा, इस शख्स के पास, देश के लिए अपनी जान दाँव पर लगाने वालों की समस्या सुलझाने, उनसे बोलने के लिए सहानुभूति के दो शब्द भी नहीं थे।

उसे लगा कितने नौजवान, जो अपनी इच्छा से या बेकारी से, मजबूर और विवश होकर इस काम में फँसते हैं, अपनी जान की बाज़ी लगा देते हैं -उनकी ज़िंदगियों के साथ, देशभक्ति के नाम का सहारा लेकर खिलवाड़ किया जाता है! उन्हें मिलता कुछ नहीं है।

वह अत्यंत क्षुब्ध था और सोचने लगा -उनसे बेहतर तो भुट्टो साहब थे, जिन्होंने उसकी क़ैद के दौरान हिन्दुस्तानी क़ैदियों के तबादले का वायदा करके उसे पूरा तो किया और जिनकी बदौलत आज वह अपने देश, अपने घर वापस लौट सका था!

अनिता ललित

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