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लोकहित अखबार
Siddharth द्वारा हिंदी कुछ भी
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विवरण
यह सिगार दिख रहा है? यह तब तक जिंदा है जब तक इसमें नशा है,पागलपन है,जुनून है फिर यह ज़ालिम इंसान इस नशे को आग लगा देता है,आशा देता है हवा में तैरने की,धुआं बनने की और यह नादान उसमें जलता जलता राख हो जाता है,ऊपर देखता है तो दिखता है धुआं नहीं मेरा नशा था...जो मर गया। पंडत ने एक और सिगार फूंक दिया,उस राख की बददुआ से पंडत के होठ काले पड़ गए थे । "पंडत" बनारस के एक पुजारी परिवार मैं पला बढ़ा,उसका असली नाम देवराज भरद्वाज था मगर उसके दोस्त उसे "पंडत" बुलाते थे,उसके पिता सीधे
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