सघन वन में संध्या दोपहर ढलते ही प्रतीत होने लगती है । माधवी ने अपने आश्रम के भीतरी प्रकोष्ठ से गगरी उठाई और वृक्षों की हरीतिमा में छुपी ऊंची नीची ढलानों पर बहती नदी की ओर चल दी । नदी का बहाव हमेशा तेज़ ही रहता है। किंतु निर्मल जलधारा मनमोह लेने में सिद्धहस्त है । खिंची चली आती है माधवी और फिर थोड़ा समय नदी के किनारे बैठने को वह विवश हो जाती है। आज भी गगरी जलधारा की ओर लगाई ही थी कि लगा गालव खड़ा है उसके पीछे। जिसका प्रतिबिंब वह नदी के जल पर स्पष्ट देख रही है। देख रही है कि किस तरह उसने गालव और उसके मित्र गरुड़ के साथ इसी प्रयाग वन में प्रथम रात्रि गुजारी थी। प्रथम रात्रि ......उसके जीवन के कठोर कंटकाकीर्ण पथ की साक्षी जिसकी ओर उसके कदम बढ़ चुके थे ।
Full Novel
कर्म से तपोवन तक - भाग 1
कथा माधवी गालव की संतोष श्रीवास्तव माधवी को लिखना मेरे लिए चुनौती था **************** माधवी के बारे में हुए मैं स्त्री को जी रही थी। स्त्री के अनदेखे पहलुओं को जी रही थी। उसके दुर्भाग्य को जी रही थी । हां, मैं इन स्थितियों को नकार सकती थी किंतु नकारने की कोशिश में मेरी कलम ने उठने से इनकार कर दिया था। तो क्या धरती, आकाश, पाताल संपूर्ण ब्रह्मांड यह चाहता था कि मैं माधवी को लिखूँ जबकि माधवी पर विपुल साहित्य लिखा गया। उपन्यास, नाटक, खंडकाव्य कोई भी विधा नहीं छूटी माधवी वृत्तान्त से । उन्हीं प्रसंगों ...और पढ़े
कर्म से तपोवन तक - भाग 2
अध्याय 2 अयोध्या में राजा हर्यश्व का राज महल देखते ही गालव की आँखें चौंधिया गईं। क्षण भर को भूल गया कि उसके साथ माधवी भी है। चकित हो वह अयोध्या के हरे भरे खूबसूरत रास्तों, बाग बगीचों, फव्वारों को देखता ही रह गया । राज महल की भव्यता देख उसे संदेह हुआ कहीं वह स्वर्ग में राजा इंद्र के महल में तो नहीं! " कहाँ खो गए मुनिवर ? यह सांसारिक चकाचौंध है । आप तो तपस्वी हैं। इतने वर्षों तप करके संसार का सार समझ गए हैं। लेकिन गुरु दक्षिणा देकर अपने तप और साधना को संपूर्ण ...और पढ़े
कर्म से तपोवन तक - भाग 3
अध्याय 3 वह गालव के पीछे-पीछे ऐसे चल रही थी जैसे उसका अपने ऊपर वश ही न रहा हो अयोध्या नगरी पार होते ही गालव ने माधवी का हाथ पकड़ लिया- "शोक न करो माधवी। तुम्हें तो वरदान प्राप्त है । तुमने अपना कौमार्य पुनः पा लिया है । तुम्हारे बदन पर माँ बनने के चिन्ह विलुप्त हो जाएंगे। कुंवारी कन्या सी तुम काशी नरेश दिवोदास के राज महल में प्रवेश करोगी एक वर्ष के लिए। " गालव के कथनों से माधवी की पीड़ा और बढ़ गई । यह कैसी सोच है गालव की जिसमें मेरे पुत्र के हमेशा ...और पढ़े
कर्म से तपोवन तक - भाग 4
अध्याय 4 काशी नरेश दिवोदास का महल राजा के रसिक स्वभाव, रंगरेलियों के लिए प्रसिद्ध था । दिवोदास सदा से घिरा रहता और नित्य नई स्त्री का साहचर्य पाता। उसके रनिवास में 35 रानियां थी किंतु किसी के भी पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ था । दिवोदास के हृदय में शूल की तरह यह बात चुभी हुई थी । वह पुत्र विहीन अपने भाग्य को ज्योतिषियों से बार-बार पढ़वाता रहता था । यह सुनकर कि उसके भाग्य में पुत्र है पर न जाने किन ग्रह नक्षत्रों की रुकावट है जो अब तक वह इस सुख से वंचित है। वह बौखला ...और पढ़े
कर्म से तपोवन तक - भाग 5
अध्याय 5 गालव के साथ उदास खिन्न सी माधवी चली जा रही थी। राजमहल पार करते ही दोनों गंगा पर आये और गंगा के जल में पैर डुबोकर बैठे रहे। गंगा की लहरों के स्पर्श ने जैसे माधवी का संताप हर लिया। गंगा भी तो आठ पुत्रों को जन्म देकर मातृत्व सुख से वंचित रही। अंतर केवल इतना है कि गंगा ने स्वेच्छा से शांतनु का वरण कर उनसे उत्पन्न पुत्रों का त्याग किया । जबकि माधवी को परिस्थिति वश ऐसा करना पड़ रहा है । "क्या सोच रही हो माधवी । चलो चलते हैं। मार्ग लंबा है और ...और पढ़े
कर्म से तपोवन तक - भाग 6
अध्याय 6 भोजनगर के राजमहल से आती भैरवी की तान और प्रातः वंदन के मधुर स्वरों ने गालव और को प्रसन्नता से भर दिया। धीरे-धीरे उन्होंने राज महल की ओर कदम बढ़ाए। भोजनगर का राजा उशीनर सत्य, पराक्रमी और अपनी प्रजा के प्रति बहुत स्नेह शील था। पूजा पाठ से निवृत्त हो अल्पाहार के पश्चात उसने राज्य सभा की ओर प्रस्थान किया। सभी सभासदों ने उसकी जय जयकार करते हुए उसका सत्कार किया । उशीनर के सिंहासन ग्रहण करने के पश्चात सभी अपने अपने आसन पर बैठ गए। गालव माधवी को द्वार पर आया देख सेवक ने सूचना दी-" ...और पढ़े
कर्म से तपोवन तक - भाग 7
अध्याय 7 राजमहल के द्वार पर प्रतीक्षा करते गालव के संग माधवी चुपचाप चलने लगी। " तुम दुखी नजर रही हो माधवी। हम एक वर्ष पश्चात मिल रहे हैं फिर भी? " "तुम स्त्री नहीं हो न गालव, पिता भी तो नहीं हो । वरना समझते यह पीड़ा। यह पुत्र से बिछड़ने की मर्मान्तक चोट। " गालव ने इस समय माधवी को और अधिक व्याकुल करना उसकी सोच में बाधा डालना उचित नहीं समझा । माधवी को लिवा लाने के लिए जब गालव ने भोजपुर के राज महल की ओर प्रस्थान किया था उसके 1 महीने पहले से वह ...और पढ़े
कर्म से तपोवन तक - भाग 8
अध्याय 8 उत्तर दिशा की ओर जाते हुए गरुड़ सघन वृक्षों में समा गया । गालव ने कुटिया को दृष्टि से देखा। कितनी रुचि से उसने अपने और माधवी के लिए कुटिया का निर्माण किया था। अंतरंग संबंध तो बने उनके लेकिन हर दिन गुरु दक्षिणा की चिंता में ही व्यतीत हुआ । वह माधवी को तल्लीनता से प्यार नहीं कर पाया । धीरे-धीरे कुटिया नजरों की ओट हो गई और वे पथरीले कंटकाकीर्ण मार्ग में अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए चलने लगे। चलते चलते रात हो जाती । फिर दिन निकल आता। फिर दोपहर ढल जाती ...और पढ़े
कर्म से तपोवन तक - भाग 9
अध्याय 9 दृष्टि से ओझल होते गालव को अपलक निहारती माधवी निश्चल खड़ी रह गई। इतने बड़े त्याग की स्वयं से अपेक्षा नहीं थी। मानो देवी सरस्वती उसके ह्रदय में विराजमान होकर उससे अनुष्ठान करवा रही थीं। हृदय विदारक निर्णय लिया था उसने। जैसे किनारा सामने था और तभी नौका डगमगाई और भंवर में फंस गई। यह भँवर उसे ले डूबे तो अच्छा है। किंतु जल की तलहटी तक ले जाकर भँवर ने उसे उछाल कर जल स्तर पर ला पटका। वह पुनः भंवर में फंस गई। " माता, भोजन करके विश्राम करें । आप थकी हुई लग रही ...और पढ़े
कर्म से तपोवन तक - भाग 10
अध्याय 10 गालव और माधवी संग-संग वन वीथिकाओं में चल रहे थे। किंतु अपनी इस यात्रा में गालव ने तो माधवी का हाथ पकड़ा और न एकांत पाकर उसे गले लगाया । वह विचारों की तीव्र आंधियों से दो चार हो रहा था। उसकी मनः स्थिति एक लुटे हुए यात्री जैसी थी जिसने मेले में अपनी पसंद का बहुत कुछ पा लिया था लेकिन अचानक सब कुछ उसके हाथ से छिन गया। वह उन घड़ियों को याद कर रहा था। जब वह 600 अश्वों को एकत्रित कर विश्वामित्र के आश्रम की ओर आ रहा था। वन के सघन वृक्षों ...और पढ़े
कर्म से तपोवन तक - भाग 11
अध्याय 11 वनस्थली में निर्मित स्वयंवर के लिए तैयार किया मंडप ऐसा लग रहा था मानो स्वयं विश्वकर्मा ने हाथों से निर्मित किया हो । मंडप में सभी निमंत्रित महानुभावों के लिए अनुकूल आसन थे । किंतु वानप्रस्थ ग्रहण किये राजा ययाति और शर्मिष्ठा कुशासन पर विराजमान थे । धूप दीप से मंडप सुगंधित हो जगमगा रहा था। माधवी को सखियों ने सोलह श्रंगार से सजाया था । गौर वर्ण पर चंपई सुनहरी रंग का रेशमी परिधान मानो सूर्य रश्मियों को बिखरते सरोवर पर उगता हुआ श्वेत कमल पुष्प। उसके कक्ष में माता शर्मिष्ठा ने आभूषणों से भरा थाल ...और पढ़े
कर्म से तपोवन तक - भाग 12 (अंतिम भाग)
अध्याय 12 नदी की उर्मियाँ सूर्यास्त के सुनहले रंग से भर उठी थी। माधवी गगरी उठाकर अपने आश्रम की चलने लगी। कैसी सम्मोहित अवस्था हो गई थी जब नदी किनारे बैठे-बैठे उसने अतीत को पुनः जी लिया था। अब उसने जीवन की उस अवस्था को प्राप्त कर लिया है जब उसे अतीत चुभता नहीं बल्कि गर्व से भर देता है कि किस तरह उसने पिताश्री राजा ययाति की दानशीलता को कलंकित नहीं होने दिया किस तरह गालव की गुरु दक्षिणा जुटाने की वचनबद्धता निभाई और किस तरह गालव को उसके संस्कारों से गिरने नहीं दिया। उसे गर्व है अपने ...और पढ़े