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ह्रदयघात

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क्या गलत किया मैंने? क्या कसूर था मेरा ?क्यों मुझे इतनी बड़ी सजा मिली ? ये ही सोचते - सोचते मेरा मन उदास हो गया और खोजने लगी बीती घड़ियों में अपनी गलतियां और झंझोड़ने लगी अपने अंतर्मन के द्वन्द को| अचानक से जैसे झड़ने लगी थी गर्द पुरानी यादो से और कसमसाने लगी थी एक चुभती हुई सी हूक जो बदन के हर हिस्से में हल्के से अपने होने का अहसास करवा रही थी| शायद उसके भी पहले का हिस्सा जो टूटकर कही बिखर गया था | मगर ना जाने आज दिल क्यों चाह रहा था के कुछ पुरानी यादो से खूबसूरत से पलों को याद करूँ और भूल जाऊ आज को जो इतना कष्टदायक लग रहा था|

पलक...पलक...पलक ओ पलक की बच्ची क्या समझती है खुद को? इतनी देर से आवाज लगा रही हूँ, सुनाई नहीं देता क्या?

मनीषा की जोरदार कड़कड़ाती आवाज ने मुझे बाहर निकलने पे मजबूर कर दिया| हम्म क्या है मनु क्यों चिल्ला रही है? मैंने कहा|

तुझे याद है ना आज पिक्चर देखने चलना है| और वक्त देख कितना हो गया|

अरे हाँ मैं तो भूल ही गई चल मैं फटाफट तैयार होती हूँ फिर चलते है| आनन् -फानन में तैयार होकर दोनों दरवाजे की तरफ निकल पड़ी| घर से बाहर निकलते ही वही चीर-परिचित नजर मेरा इन्तजार कर रही थी| पता था कि ये नजर तब तक मेरा पीछा नहीं छोड़ेगी जब तक मैं इसकी पहुँच से दूर ना निकल जाऊ| ये तो रोजमर्रा का जैसे एक काम था उसका और मेरा काम था उसके काम पर अंदर से प्यार भरी मुस्कुराहट देना मगर चेहरे से ऐसे दिखाना की जैसे मुझे उसकी इस हरकत पर बहुत गुस्सा आ रहा है और चलते - चलते कभी उसको घूर के देखना कभी नजर को झुका लेना| बस लग रहा था जैसे ये रूटीन का काम है| जिसमे एक आत्मिक शान्ति भी मिलती थी| क्योंकि वो नजर थी ही ऐसी... प्रेम से लबरेज...हवश का नामोनिशाँ तक नहीं था उसमें| इतना ही समझ आता है शायद .. इस उम्र के पड़ाव में दिल को| कॉलेज में जाना, दोस्तों के साथ गपशप, मस्ती-मजाक बस यही तक तो जिंदगी सिमटी होती है न| ना कोई चिंता ना फिकर ना कोई जिम्मेदारी... बस स्कूटी लेकर सारे दिन घूमना मेरी बेस्ट फ्रेंड मनु के साथ| और जब हम दोनों साथ होती थी ना तब ऐसा लगता था कि किसी और की हमारी जिंदगी में जरूरत ही नहीं|

मनु ने फिर मुझे हाथ पकड़ के जोर से हिलाया... अरे चल महारानी स्कूटी स्टार्ट कर नहीं तो ये तेरा आशिक बस यूँ ही घूरता रहेगा| खिलखिला कर हँस पड़ी वो अपनी बात पूरी कर और फिर मैं भी| फिर हम दोनों फर्राटे भरती सिनेमाघर में पहुँच गई और पिक्चर देख के चाइनीज स्टॉल पे पहुँच गई जो हमारा फेवरेट प्लेस था फास्ट फ़ूड का और फिर खूब सारी मस्ती के बाद हम दोनों घर पहुँच गए|

घर पहुचते ही वो ही नजर... उफ़्फ़... क्या है ??

कभी - कभी तो झुंझलाहट सी हो जाती थी कि उस नजर को मुझे निहारने के अलावा कोई काम नहीं है क्या ? खैर अपनी झूठीं अहंकारी नजरो का उसको दीदार करवाकर मैं घर की सीढ़िया चढ़ने लगी| फिर कमरे में घुस बिस्तर पर निढाल पड़ गई| मगर... सोच... जेहन... दिल... सब बस जाने क्यों एक उसी नजर के गुलाम बन गए थे| वो नजर जो खामोश लगती थी मगर फिर भी बहुत बड़बड़ाती थी... कुछ ज्यादा ही... उफ़्फ़ क्या मुसीबत है? मैंने अपनी डायरी निकाल ली और अपनी भावनाओ को कलम से उकेरना शुरू कर दिया बिलकुल उसी तरह जिस तरह रोज करती थी| हाँ डायरी में अपने जज्बातों को गूँथ कर लिख देती थी जितना भी इस दिल में भर जाता था| वास्तव में ये ही तो मेरी सच्ची सहेली थी मेरी हमदर्द मेरे आँसुओ की एकमात्र गवाह...

मेरे अहसासों की जमीन जहां पर स्याही उड़ेल देती थी अपने मासूम ख़्यालो की मेरी प्यारी डायरी.. ओह्ह फिर इतना समय गुजर गया पढ़ाई भी करनी है| ये ही सोच कर पढ़ने बैठ गई रोजाना की तरह|

पलक बेटा आज तुम्हे देखने लड़के वाले आ रहे है जरा अच्छे कपडे पहन के तैयार हो जाना| मम्मी के ये शब्द जैसे कानो से टकरा के सीधे पिन की तरह दिल में जा चुभे|

मैं झट से खड़ी हो गई और मम्मी के सामने खड़ी हो गई और कहने लगी.. क्या है मम्मी अभी मुझे और पढ़ना है ये सब फ़ालतू काम और फ़ालतू की जिम्मेदारियों में नहीं उलझना मुझे|

मम्मी झट से मुझे समझाते हुए बोली "अरे बेटा अभी तो सिर्फ देखने आ रहे है कोई फाइनल थोड़ी हो गया|" हम्म ! मैंने श्वास को अंदर खींचा और सीधे अपने कमरे में चली गई|

फिर क्या आनन - फानन में कुछ लोग आ गए जो देखने की रस्म अदा कर रहे थे और मैं कठपुतली सी सोफे के एक तरफ बैठी थी| मम्मी ने बताया था लड़का इंजीनियर है खूब कमाता है, तू उसके साथ खूब ऐश आराम से रहेगी|मगर मैं तो मैं थी "चिंतन की पाठशाला"|

लड़का घूर - घूर के मुझे देखे जा रहा था जैसे ऊपर से नीचे तक मेरा माप ले रहा हो और निश्चिन्त होना चाहता था कि मैं कोई डिफेक्टिव पीस तो नहीं| लड़का दिखने में ठीक - ठाक था| कद भी ठीक था और हा ख़ास बात ये के वो “ इंजीनियर " था| और मैं ग्रेजुएट| खैर सारे ताम - झाम जल्दी ही सलट गए और वो लोग घर जा के जवाब देंगे| ये जाने पहचाने से वाक्य को वो दोहरा गए|

मेरा मन ना जाने क्यों उस अनसुलझी पहेली में ही अटका जा रहा था के वो नजर कब अपने अपने आप को लफ्जो से बयाँ करेगी? करेगी भी या नही.... करेगी तो क्या कहूँगी मैं और अगर ना करेगी तो क्या ??

बस इसी उधेड़बुन में खोई जाने कब आँख लग गई पता ही ना चला| सुबह उठते ही मम्मी ने खबर दी कि लड़के वालो ने तुझे पसंद कर लिया है और जल्दी ही शादी भी करना चाहते है| मैं ये खबर सुनकर सुन्न हो गई| समझ नहीं आ रहा था के क्या प्रतिक्रिया दूँ| खुश हो जाऊ या मन को दु:खी करूँ | लग रहा था सब गडमड...गडमड... उफ्फ ! क्या क़यामत है यार कुछ समझ नहीं आ रहा और एक वो ढीढ पाषाण मूर्ति जो कुछ कहने का नाम नहीं ले रहा था| क्या करूँ ? क्या करूँ ? हाँ मनु........ हाँ मनु ही हैं जो मुझे कुछ समझा सकती है| पड़ोस में ही रहने के कारण उसके पास जाना मतलब मेरा टहलना भर ही था|

मैं झट से घर से निकली और उसके पास पहुँचते ही सारा किस्सा एक साँस में सुना डाला| मनु मेरी प्यारी सखी... ने एक सुलझे हुए वाक्य को मुझे सुनाकर मेरी सारी उलझनों को विराम दे दिया|

"पलक जिंदगी में अच्छे रिश्ते बार - बार नहीं मिलते अगर मिलते भी है तो कहीं कुछ कमी तो कही कुछ| मगर ये भी देख ना तेरे मम्मी पापा कितने खुश है, ये देखकर कि तुझे कितना अच्छा रिश्ता मिला है, ऊँचा खानदान, बढ़िया नौकरी करने वाला लड़का और बता क्या चाहिए एक लड़की को ? बेवजह धुंधले साये के पीछे भागने से कुछ हासिल नहीं होगा... सिवाय आँखों में कोहरे के जमने के अलावा| वो लड़का जिसमे आज तक हिम्मत नहीं हुई कि अपने दिल की बात तुझे कह सके... क्या वो तुझे आज कह देगा?? अगर मान लो कह दे तो क्या तेरे घरवाले उस रिश्ते को अपनाएंगे या उसके घरवाले ?? ऊपर से अलग - अलग जात बिरादरी के हो तुम दोनों| मेरी मान तो इस बात को जिंदगी का एक हसीं ख्वाब समझ के भूल जा और नई जिंदगी की शुरुआत कर|"

मैं बस मनु को सुने जा रही थी और उसकी समझदारों वाली बातों को अपने दिल तक पहुचाने की कोशिश कर रही थी |

ह्म्म्म शायद मनु सही ही कह रही थी| ओह्ह अब सिवाय अपनी गर्दन घरवालों के हवाले करने के अलावा कोई चारा भी नहीं था| मनु के घर से निकल जैसे ही घर पहुँची मम्मी पापा की आँखों में एक गहरी ख़ुशी की चमक देख कर मेरे मन का बचा - खुचा संदेह भी जाता रहा| शादी की तारीख तय हो गई और जल्दी ही शादी भी होने वाली थी| दिल के किसी कोने में एक ख्वाहिश जो लगभग अपना दम तोड़ चुकी थी| हौले-हौले सुलग रही थी और बढ़ रही थी बैचैनी| काश एक बार वो कुछ कहता.. कुछ भी.. कैसा भी.. काश.. मगर मेरा काश शायद काश ही रहने वाला था|

एक दिन अचानक जब शादी के दस दिन ही बचे थे वो बाजार में मिला| हाँ वो ही.. वही मदहोश नजरे लेकर जिसकी मैं पूरी तरह दीवानी हो चुकी थी खड़ा हो गया बिलकुल सावधान जैसे "खम्बा"| मन तो कर रहा था कि एक जोरदार तमाचा लगा दूँ और पूछूँ के इतना वक्त क्यों लगाया मगर फिर वो ही नजर| उफ़्फ़ ! कुछ करने भी नहीं देती|

मैंने सँभालते हुए अपने आपको उसी रूखेपन से पूछा "हाँ बोलो क्या हुआ ? ऐसे खम्बे के जैसे मेरे सामने क्यों खड़े हो गए ?"

उसने फिर कहना शुरू किया "मैं समझता था कि तुम मुझसे उतना ही प्रेम करती हो जितना के मैं... मगर मैं गलत था तुम मुझसे ज्यादा अपने मम्मी - पापा से प्यार करती हो| है ना तभी इतनी आसानी से तुम शादी के लिए तैयार हो गई| मेरा इन्तजार तक भी नहीं किया| मैंने सोचा था खुद को इस लायक बना लूँ के तुम्हारे घरवालो को फिर इस रिश्ते से ऐतराज ना हो| खैर मैं तो अभी तक वहाँ नहीं पहुँच पाया.. हां मगर अब मैं भी यही चाहता हूँ कि तुम शादी कर लो और अपना वैवाहिक जीवन ख़ुशी - ख़ुशी जियो|"

सब कुछ अचानक और वो भी एक ही सांस में सब कह गया और चला गया बिना मेरे किसी जवाब की प्रतीक्षा किये बगैर| फिर मेरी कुछ समझ में नहीं आया कि क्या करूँ हां मगर लग रहा था कि वक्त का पहिया एक उसी शब्द पर आकर ठहर गया था... काश !!!

जो भी था सब कुछ अजीब लग रहा था| मन बैचैन और बेहिस सब नज़ारे| आखिरकार शादी का दिन आ ही गया और इंजीनियर बाबू जिनका नाम अभय था उनसे मेरी शादी हो गई| अभय की जॉब घर से ज्यादा दूर होने के कारण हम अधिकतर अलग ही रहते थे घर से| शादी के एक दो साल तक तो सब ठीक चला मगर धीरे -धीरे अभय ने अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया| हर काम में रोकना टोकना, कही आने - जाने पर पाबंदी, मेहमान घर आने पर मुझे उनकी नजर से दूर रखना और बात - बात पर गाली गलौच.. ओह्ह सबसे बड़ी बात मेरी डायरी से भी मुझे दूर रहने को कह दिया गया|

क्यों आखिर किस जुर्म की सजा मुझे दी जा रही थी कुछ समझ नहीं आ रहा था| एक दिन अचानक भाभी घर आती है और मुझे बाजार साथ ले जाने की जिद्द करती है मैं थोडा सकुचाते हुए तैयार हो जाती हूँ कि पता नहीं अभय क्या कहेगा? फिर भी मैं उनके साथ बाजार के लिए निकल पड़ी और हमने ऑटो कर लिया|

तभी भाभी मुझे कहती है कि देखना जरा वो अभय जी से लग रहे है तब मैंने देखा हां सच ये तो अभय ही है मगर ये लड़की कौन है उनके साथ ?

मगर हम ऑटो में होने के कारण रुके नहीं और भाभी को सांत्वना दे दी कि हो सकता है कोई सहकर्मी हो| मगर मैं खुद को संभाल नहीं पा रही थी के क्या करूँ ??

विश्वास या अन्धविश्वास.... या फिर शक?? कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूँ ? घर आते ही अभय से सवालों की झड़ी लगा दी कि कौन थी वो ? तुम उसके साथ क्या कर रहे थे वगैरह - वगैरह...

अभय सब कुछ शांत हो के सुन रहा था बिना किसी प्रतिक्रिया के| फिर उठकर खड़ा हो गया और मेरे कंधे पे हाथ रखकर बोले - वो लड़की मेरी जिंदगी है मेरी ख़ुशी है उसके बिना अब मेरे जीवन की कल्पना मात्र एक निरर्थक सा सत्य है| मैं उसे अपने जीवन में लाना चाहता हूँ हमेशा के लिए| तुम चाहो तो तुम भी यहां रह सकती हो मगर मेरा प्रेम केवल उसी के लिए होगा.. तुम महज एक सामान की तरह अपने अस्तित्व को यहां रख सकती हो| और अगर तुम्हे मंजूर नहीं तो तुम मुझे तलाक दे दो|

इतना बड़ा धोखा, इतना बड़ा विश्वासघात मेरा ह्रदय कैसे सहन कर पाया| और उसकी आँखों में पछतावे के मंजर कही भी दिखाई नहीं दे रहे थे, ना ही मेरे आँखों में बह रहे अनवरत आंसू उसे दिखाई दे रहे थे| क्या इसी को प्रेम कहते है... क्या ये ही है प्रेम की पूर्णता... जिसमें खोकर लोग अपना सब कुछ न्योछावर कर देते है|

नहीं ये कतई प्रेम नहीं हो सकता| ये अपनी अतृप्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने का जरिया भर था| मगर शिकायत किससे करती कोई अपना था ही कौन यहाँ ? अचानक सब गैर हो गए वो इंसान जो शादी के सात फेरे कर के मुझे घर लाया था... वो घर जिसे मैंने अपने हाथो से सजाया था... वो रिश्ता जिसे मैंने अपने प्रेम और समर्पण से संजोया था|

मन में हजारों प्रसन्न अचानक मेरे इर्द गिर्द घुमने लगे| हर सवाल मुझसे ही सवाल करता.. सच क्या था वो लड़का जो हर रोज मेरे को घूरता रहता था जिसकी आँखों में मेरे लिए प्रेम था... या ये सच जिसने मुझे अपनी जीवन संगनी बनाकर भी मुझे जीवन संगनी ना समझा|

ये कैसा ह्रदयघात मेरे साथ हुआ सोचते सोचते मेरी आँखे भर आई और डूब गई अपने बीते पल और वो मस्ती भरी जिन्दगी में जिसमें मैं खुश थी| जहाँ छल कपट धोखा न था|

सब कुछ आज बेगाना लग रहा था ऐसे लग रहा था के जैसे जीवन का हर लम्हा जो शादी के बाद जिया वो सब एक बुरा सपना बन गया था आज| उसी अँधेरे कमरे की और कदम चल पड़े जिसमे मैं अक्सर अपने आप से मिला करती थी| मगर आज शायद सच में अपने आप से मिलने का वक्त आ गया था| कुर्सी पर बैठे-बैठे ये ही सोच रही थी आज के मेरी क्या गलती थी.. जिसकी सजा मुझे मिली|

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