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बोलते पत्थर सम्पादक अवध विहारी पाठक

समीक्षा –
राजनारायण बोहरे
बोलते पत्थर : उम्दा किस्सागोई

अंग्रेजी साहित्य में बाल्टर स्कॉट के उपन्यासों से ऐतिहासिक उपन्यासों के लेखन की शुरुआत मानी जाती है। हिंदी उपन्यास का उदय और विकास अंग्रेजी शब्द नॉवेल से हुआ है जिसका अर्थ है कुछ नया । कहा जाता है कि बाबू वृंदावन लाल वर्मा जी ने वाल्टर स्कॉट के कुछ उपन्यास पढ़ने के बाद ही प्रेरित होकर बुंदेलखंड के गौरव को प्रतिष्ठित करने और यहाँ के इतिहास को अपनी तरह से समझाने के लिए ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना आरम्भ की थी। जैसा कि हम जानते हैं ऐतिहासिक उपन्यासकार अतीत की एक कालावधि की किसी कथा को अपना आधार बनाता है ।
पण्डित श्री राम भरोसे पाठक द्वारा रचित उपन्यास 'बोलते पत्थर' भी वर्तमान ग्वालियर, झाँसी और पचनदे के बीच के भूभाग पर अलाउद्दीन खिलजी के समकालीन सिंध नदी के बीहड़ भरकों में बसी रतनगढ़ नगरी की एक युग की ऐसी भूली-बिसरी दास्तान है, जो अपने बारे में कहीं कोई विस्तृत साक्ष्य छोड़े बिन मिट्टी और किले के खंडहरों में दब गई है। रतनगढ में दीपावली की दोज पर लक्खी मेला लगता है, पिछले साल भर में सांप के काटे ऐसे लोग मन्दिर पर लाये जाते हैं जिनके हाथ मे सांप काटते ही धागे का बन्ध बांध दिया गया था और दीपावली पर उनकी इस स्थान पर पेशी कराई जाती है। कहते हैँ मरीज ज्यों ही नदी पार करता है उसके मुँह से झाग निकलने लगता औऱ वयः झूमने लगता है। कुंवर बाबा के नाम के झाड़ा लगने पर कुछ क्षण अचेत हो जाता है फिर ठीक हो जाता है। कहा जाता है कि रतनगढ़ की माता वहां के राजकुमारी की इष्ट देवी थीं ,तथा कुंवर बाबा उनके भाई थे। दुश्मन ने जब किला जीत लिया तो सारा किला राजकुमारी और कुंवर ने अपने ऊपर लौ लिया था।

इस त्रासदी पर लिखी यह रचना लगभग पचास साल से रखी हुई ऐसी पुस्तक है जो अपने समय के अनुकूल न तो मौसम देख सकी और न ऐतिहासिक उपन्यासों के स्वर्णिम दौर में पाठकों और आलोचकों के सामने ही आ सकी। कारण जो भी रहे हों, लेकिन यह किसी भी कृति के लिए सुखद स्थिति नहीं है। डॉ. अवध बिहारी पाठक जी इस उपन्यास के सम्माननीय सर्जक के सुयोग्य सुपुत्र हैं, जो दिल्ली, चंडीगढ़ और लखनऊ, गाजियाबाद जैसी बड़ी जगहों पर रहने वाले नामचीन और बड़े लेखकों की पहली किताब पाने के अधिकारी समीक्षक व आलोचक विद्वान हैं। इनकी लिखी समीक्षाएं देश की जानी-मानी साहित्यिक बड़ी लघु पत्रिकाओं में आदर के साथ प्रकाशित की जाती हैं ।
अपने रचे जाने के पचास साल बाद यह किताब ' ज्ञान गीता प्रकाशन दिल्ली' से प्रकाशित होकर अब हिंदी साहित्य के उपन्यास संसार में अपना दाखिला कर रही है। उपन्यास के पांच पेज पढ़ते-पढ़ते पाठक को एहसास होने लगता है कि विख्यात कथा शिल्पी श्री वृंदावन लाल वर्मा के प्रिय विषय ऐतिहासिक कथानक व प्रेमाख्यानो की परंपरा में लिखी गई यह कृति दतिया जिले के रतनगढ़ की माण्डुला माता और उनके भाई कुँवर के साथ-साथ वीर पिता रतनसिंह की विशद कथा तथा किले के उलट-पलट जाने की किवदन्ती के बारे में कहा गया वृत्तान्तनुमा आख्यान है। यद्यपि रतनगढ़ के किले और माता मंदिर के आसपास बसे गांवों के नाम, मुस्लिम सामंतों व सैनिकों की मृत्यु के उपरांत बनाए गए हजीरे, कर्नल टॉड का लिखा हुआ इतिहास आदि इस उपन्यास के प्रेरक आधार व सीधे और साफ कथा कहने वाले साक्ष्य नहीं हैं, फिर भी यह उपन्यासकार का कौशल है कि उन्होंने ने ईसा पूर्व के समय के इतिहास लेखन की तरह रतनगढ़ को लेकर एक संपूर्ण दास्तान रच दी, सुचिंतित उपन्यास रच दिया है। हमारे देश में मध्यकाल में कोई छोटी रियासत अपना इतिहासकार नियुक्त नहीं करती थी, इसलिए रतन गढ़ के बारे में कोई लिखित साक्ष्य कहीं नही है, बस दंतकथाएँ हैं, जो यहां से वहां तक हवा में तैर रही हैं। ।
कथानक यही है कि रतन सिंह जो रतनगढ़ के राजा थे और उनकी बेटी रतन माला या रत्नावली अति सुंदरी कन्या और देवी की उपासक थी, जिसको पड़ोसी रियासत इंदुरखी का राजकुमार मेघसिंह मन ही मन चाहता था । बुंदेलखंड और विंध्याचल पर्वतमाला के किनारे बसे तमाम नगरों के राजकुमार भी रत्नावली के लिए चाहत रखते थे। लेकिन अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर का रतनगढ़ नरेश को संदेश आया कि वे अधीनता स्वीकार करके सुल्तान को टैक्स देना शुरू करदें और इसके साथ रत्नावली का डोला सुल्तान के हरम में पहुंचा दें ।यह संदेशा नगर के सुख , शांति और चैन को छीन लेने का सबब बन गया। राजकुमारी आत्मघात करना चाहती है, पर उसकी भाभी वीणा और भैया करण सिंह उसे डांट कर मना करते हैं, प्यार से भी समझाते हैं । वैसे तो सुल्तान को राजस्व देने और अधीनता या संधि स्वीकार करने को तो सब तैयार थे, पर रत्नावली या मांडूला का डोला पहुँचाने का हुक्म एक अपमानजनक शर्त थी। उस युग के क्षत्रिय अपनी बहन-बेटी को सुल्तान के हरम में पहुंचा देना, अपने जीवन का सबसे बड़ा अपमान समझते थे, इस कारण रतन सिंह और उनके भतीजे करण सिंह, विजय सिंह, अर्जुन सिंह आदि ने युद्ध करना और अपने प्राणों को न्यौछावर कर देना उचित समझा। यद्यपि इस युद्ध में अलाउद्दीन के दोनों प्रमुख सेनानायक मारे गए और युद्ध के बाद इन दोनों का निर्देशक मलिक काफूर ही एक मात्र जीवित व्यक्ति बचा जो अंत में उलट-पुलट हो चुके धूल और धुएं में डूबे किले तथा कुछ लाशों को ही रतनगढ़ के महल में पाता है । वह जब घर लौटता है तो अपने ही जैसे विचार वाले पीर खां की बातों में अपनी नीतियों के प्रति बड़ी खीझ महसूस करता है । वह खुद भी इस खीझ को सही मानता है। अंततः दिल्ली में अलाउद्दीन खिलजी रतनगढ़ रियासत पर नाहक युद्ध थोप देने की गलती के कारण मलिक काफूर को रिटायर कर देता है और कफूर दिल्ली छोड़ने पर विवश होता है। दरअसल विंध्याचल के प्रांगण में हजारों छोटे-छोटे राज्य थे, न तो इन राज्यों के अपने कोई इतिहासकार थे और न ही कोई ऐसा केंद्रीय इतिहासकार था जो इन छुटपुट राज्यों के इतिहास लिखता, प्रमुख घटनाओं को क्रमबद्ध रूप देता । इसलिए लेखक ने आधे अधूरे उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर एक समृद्ध नगर की कल्पना की है, जिसके राजकुमार और नागरिक ही नहीं ब्राह्मण युवक और स्त्रियां भी हथियार चलाने में निपुण माने जाते हैं। इस उपन्यास में पंडित रामभरोसे पाठक ने एक विशेष बात की है- वे स्त्री पुरुष के बीच घटते प्रेम दृश्य के बारे में एक भी पँक्ति नहीं लिखते, बल्कि वे यह कह देते हैं कि सब स्त्री और पुरुष बहन भाई की तरह जन्म लेते हैं, उन्हें पति-पत्नी तो यह समाज बना देता है। जैसा कि कभी जातियों के बारे में कहा जाता था, एक नई कल्पना नया दर्शन रामभरोसे पाठक ने दिया है कि मानव के बनाए रिश्ते नाते तो मनुष्य के बनाये नाते हैं, परमात्मा ने हर स्त्री हर पुरुष को अलग-अलग पैदा किया है। हालांकि उपन्यास में प्रेम अनेक जगह चर्चा का विषय है, उपन्यास का प्रारंभ ही राजकुमारी रत्ना उर्फ मांडूला तथा मेघ सिंह के बीच प्रेम को लेकर किए जा रहे ज्ञान दायक संवाद के साथ होता है।
'प्रश्न यह है कि प्रेम के समानांतर जीवन या जीवन के संदर्भ में प्रेम दोनों बातें कहने सुनने में एक जैसी प्रतीत होती हैं परंतु तात्पर्य एक दूसरे के बिल्कुल पृथक है ' युवती ने बात चला दी।
' प्रेम ही जीवन का आच्छादन है और यदि मैं भूल नहीं करता हूं तो कहा जा सकता है कि प्रेम जीवन का मूल आधार है। बिना प्रेम के जीवन कैसा?' युवक ने बात का संशोधन प्रस्तुत किया।
' और तब प्रेम जीवन के लिए जरूरी बन कर रहा आवेगा।'
' अरे भाई जीवन का आधार प्रेम नहीं, कर्तव्य और धर्म ही आधार है।'
'प्रेम तो जीवन का एक आंधी दृष्टिकोण है, चश्मा है ' वो चश्मा जिसकी आंखों को ठीक बैठे वही ठीक है 'युवती ने स्पष्ट किया (बोलते पत्थर: पृष्ठ 19 )
प्रेम को सब स्वीकार करते हैं रत्ना भी प्रेम की महत्ता मानती है तो मेघ सिंह भी, लेकिन प्रेम के वशीभूत होकर विवाह कर लेने, माता-पिता की अनुमति बिना कहीं दूर जाकर दांपत्य का निर्वाह करने के प्रति रत्ना बिल्कुल तैयार नहीं है। उपन्यास के अंत में भी प्रेम के बारे में अच्छे संवाद हैं ,प्रेम ही नहीं विवाह, जाती पाती ,माता-पिता, और कर्तव्य आदि के बारे में भी रत्नावली सत्तर वर्षीय बुजुर्ग अपने गुरु पुरोहित से नए-नए प्रश्न पूछती है और गुरु उनका विस्तार से उत्तर देते हैं।
बाबाजी जीवन का उद्देश्य क्या है?
बाबाजी जीवन का स्वरुप कैसा है क्या है?
बाबाजी प्रेम क्या होता है?
बाबाजी नारी का जीवन दर्शन क्या है?
बाबाजी धर्म का स्वरुप क्या है?
नैतिकता का क्या रूप है?
ब्याह के विषय मे आपके क्या विचार हैं ,क्या ब्याह करना मनुष्य के लिये अनिवार्य है? (पृष्ठ 77)
इस तरह इस उपन्यास का वैचारिक पक्ष खूबसूरत है । इसमें जितनी घटनाएं हैं उतने ही विचार हैं, जितने चरित्र हैं उतनी ही धारणाएं हैं। रतन सेन या रतन सिंह, देवगिरी के राजा रामचंद्र के साथ सैनिक संधि करते हैं और जब उन पर काफ़ूर हमला करता है तो उसकी सैनिक सहायता करने भी जा पहुंचते हैं, लेकिन घायल होने के कारण उन्हें मोर्चे से हटा दिया जाता है और निर्बल रह गए पराजित रामचंद्र द्वारा अलाउद्दीन खिलजी की अधीनता स्वीकार कर ली जाती है। देवगिरी की मदद करने के कारण मलिक काफूर गुस्सा होकर दक्षिण विजय से लौटते समय रतन सिंह को अपमानजनक शर्तों का मांग पत्र भेजता है , जो रतनगढ़ को अखर जाता है और यह सब घटनाक्रम होता है ।
इस उपन्यास में प्रमुख चरित्रों के रूप में रतन सिंह, रत्नावली,करण सिंह, विजय सिंह , अर्जुन सिंह, पंडित सीताराम,राजा रामचंद्र, मलिक काफूर, इब्राहिम, नदीम बैग आदि जीवन्त पात्र रचे गये हैं।इनके नाम और आचरण उनकी पृष्ठ भूमि के अनुकूल हैं।
संवाद लिखते समय लेखक खूब सतर्क रहे आए हैं। इसलिए जब जब हिंदू चरित्र आपस में बात करते हैं तो उनकी भाषा संस्कृत निष्ठ हिंदी अथवा बोलचाल की हिंदी भाषा होती है और जब मुस्लिम परिवेश में मलिक काफूर, इब्राहीम व नजीब बैग ,अलाउद्दीन खिलजी के परिकर में बातचीत होती है, तो उर्दू मिश्रित शब्द रहते हैं। हालांकि विवरणात्मक हिस्से में भी लेखक ने उर्दू के तमाम मजेदार और अच्छे लगने वाले शब्द प्रयोग किए हैं । उदाहरणार्थ देखें तो हिंदी परिकर में बात होते समय परस्पर प्रयोग किए जाने वाले शब्द हैं- बनिज व्यापार, क्षितिज, मतिभ्रम, शैलमाला असि,उपत्यिका, वय,परत्व, अदरित,प्रतिहारी, व्यतिक्रम, रश्मि माली आदि आदि! मुस्लिम परिकर की बातचीत के समय अरबी के शब्द हैं-नकीब,मामला,आनबान,बिरहमन,खौफ,ग़ालिब,आलिजाह,नायब,खुफिया,कोर्निस,दानिशमंद,शख्श,पुनरावृत्ति,लाज़िमी,नायाब,गारत,खिदमत, मुहासिरे,मुतलक,फतहयावीआदि हैं।
स्थान स्थान लेखक ने बोलचाल या तदभव के शब्द भी प्रयोग किये हैं-जबरजसदी, हाथ पीले करना, घर निकाला, बताशा नहीं कि कोई मुंह मे रख ले,पैर फ़रारे होना, गुलगपाड़ा आदि।
उपन्यास में एक वाक्य खूब गूँजता है "धर्म हमारी शक्ति है, हम रखवारे धर्म के ।" जो कि बस्ती से लेकर सूने बीहड़ इलाके तक सुनाई देता है,जो कि गाँव के प्रहरी से ले के राजकुमार तक उच्चारण करते हैं।
उस समय समाज में बाल्यावस्था से धर्मग्रंथों के अध्ययन और परायण का प्रचलन था। उपन्यास में सम्वादों के माध्यम से किशोरों के अध्ययन की सामग्री पर बात होती है।पिता रतनसेन अपनी पुत्री रतनमाला से पूछते हैं-
'आजकल क्या पढ़ना हो रहा है'
'पढ़ना तो रामायण औऱ महाभारत का चल रहा है। महाभारत तो हिन्दू धर्म का सार्वकालिक और सार्वजयी अद्भुत काव्य है।जीवन का कोई भी प्रश्न छूट नही गया जिसका समावेश और विश्लेषण और समाधान इस महाभारत काव्य में न किया गया हो।'
'और बेटी रामायण?'
'रामायण तो जीवन का निरापद सीधा सादा मार्ग प्रशस्त करती है।'(पृष्ठ 41)
उपन्यास में सांस्कृतिक माहौल बड़ा समृद्ध है। भारतीय समाज में प्रचलित संस्कार तथा लोक त्यौहार पूरी शालीनता के साथ मनाये जाते हैं। होली के त्यौहार में भाभी के साथ युवा राजकुमार बहुत मस्ती से रंग खेलते दिखते हैं, जिन्हे गम्भीर बने प्रौढ़ राजकुमार रोकते हैं।
दशहरे के त्यौहार का भी सजीव विवरण है। राजकुमार द्वारा घायल भैसे के नगर की चहारदीवारी दिवारी से बाहर निकलते समय सीताराम नाम का पंडित-योद्धा उसका काम तमाम कर देता है, तो इसी आधार पर अर्जुनसिंह व सीताराम का झगड़ा हो जाता है। जिसे राजा के दरबार में सहमति से निपटा दिया जाता है ।
अतीतकाल के उपन्यासों में तीन प्रकार के उपन्यास हिन्दी में देखने को मिलते हैं। पहले वे उपन्यास हैं जो पौराणिक हैं, जैसे हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का ‘अनामदास का पोथा’, चतुरसेन शास्त्री का ‘वयम रक्षाम:’ ,के एम मुंशी के ‘कृष्णावतार’ सीरीज के धारावाहिक उपन्यास, रामकुमार भृमर के ‘महासमर’ सीरीज के धारावाहिक उपन्यास’, नरेंद्र कोहली का चार भाग में लिखा बृहद उपन्यास ‘राम कथा’, श्रीभगवान सिंह का ‘अपने अपने राम’ ,शिवपुरी के मदन मोहन शाही जी का उपन्यास ‘लंकेश्वर’ के आलावा पिछले दिनों आए उपन्यासों में महेश कटारे का उंपन्यास ‘कामिनी काय कांतारे’, किरण सिंह का उपन्यास ‘शिलावहा’, रामगोपाल भावुक का ऊपन्यास ‘एकलव्य’ तथा भुवनेश्वर उपाध्याय का उंपन्यास ‘महाभारत के बाद’ आदि इसी परंपरा के उपन्यास है ।
अतीत के इन उपन्यासों में जीवनी परक उपन्यास का भी दूसरा वर्ग है। ऐसे अतीत जीवी उपन्यास का तीसरा वर्ग इतिहास के पात्रों पर केन्द्रित उपन्यासों का है । अगर हम प्रमुख ऐतिहासिक हिन्दी उपन्यासों का जिक्र करें तो राहुल सांकृत्यायन का ‘सिंह सेनापति’ व ‘जय योधेय’, वृंदावन लाल वर्मा जी के उपन्यास ‘गढ़कुंडार’, ‘विराट की पदमिनी’, ‘झांसी की रानी’ , ‘कचनार’, ‘मृगनयनी’, ‘अहिल्याबाई,’ ‘भुवन विक्रम’ और ‘महादजी सिंधिया’ के नाम आते हैं । सन 1932 से आरंभ हुई वृंदावन लाल वर्मा जी का उपन्यास सर्जना सन 1970 के दशक तक चलती रहती है। राहुल जी का ‘स्वप्न स्वप्न ‘ भी सन 492 ईस्वी से 529 ईसवी के बीच की ऐतिहासिक कथा कहता है। रांगेय राघव का ‘चीवर’ हर्षवर्धन काल से संबंधित उपन्यास है तो 'अमिता' यशपाल जी का वह उपन्यास है जो अशोक के कलिंग आक्रमण के समय का है। ‘वैशाली की नगरवधू’ ,’सोना और खून’ तथा ‘सोमनाथ’ चतुरसेन शास्त्री जी के चर्चित उपन्यास हैं। वैशाली की नगरवधू लिच्छवी गणतंत्र के समाज की प्रमुख घटनाओं और चरित्रों के बारे में है। जय सोमनाथ उपन्यास कन्हैयालाल माणिक राव मुंशी ने भी लिखा है। मुगल काल के उपन्यास 'बेगम जनाबादी' से आरंभ कर अपने तमाम उपन्यास ऐतिहासिक महिला चरित्रों ख़ासकर बेगमों पर लिखने वाले शरद पगारे सौभाग्य से हमारे बीच अभी उपस्थित हैं और इंदौर में सकुशल निवास कर रहे हैं।
चौथा वर्ग इतिहास आभासी उपन्यासों का है। अधिकांश इतिहास आभास के फिक्शन लेखकों ने प्रमुख शासक पुरुषों के बारे में उपन्यास नहीं लिखे हैं, बल्कि उस काल के आम आदमी के जीवन,संस्कृति और द्वंद्व को उन्होंने अपना आधार बनाया है। इसलिए ऐसे उपन्यासों के चरित्रों के नाम काल्पनिक है, जैसे यशपाल का ‘दिव्या’, भगवती चरण वर्मा का ‘चित्रलेखा’ ,रांगेय राघव का ‘मुर्दों का टीला।‘ मुर्दो का टीला तो मोहनजोदड़ो के क्षेत्र से संबंधित है। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का उपन्यास है। हिन्दी साहित्य में ऐतिहासिक उपन्यास लिखने वाले महत्वपूर्ण लेखकों की सूची मौजूद है। हिंदी के ऐतिहासिक उपन्यासकारों में हजारी प्रसाद द्विवेदी अमृतलाल नागर, राहुल सांकृत्यायन, यशपाल, रांगेय राघव, वृंदावनलाल वर्मा, भगवती चरण वर्मा, चतुरसेन शास्त्री, केएम मुंशी तथा शरद पगारे के नाम लिए जा सकते हैं ।
जैसा कि हम सब जानते हैं ऐतिहासिक उपन्यास की विशेषता यह होती है कि इतिहास के ज्ञात तथ्यों के आधार पर उन अनजाने क्षेत्रों में कल्पना का रंग भरते हैं जो अभी इतिहासकार के पृष्ठों से अनछुए हैं। बोलते पत्थर में लेखक श्री राम भरोसे पाठक ने भी किस्सा गोई के साथ इतिहास की घटनाओं और चरित्रों को इस गाथा में सम्मिलित किया है। यद्यपि अलाउद्दीन खिलजी के रतनगढ आने के बारे में अनेक विचार विरोध हैं तथापि लेखक ने उसे युद्ध में शामिल न करते हुए सैनिक शिविर से ही रवाना कर दिया है। वहीं राजकुमारी रतनावली के सोने के बाल की लोक में प्रचलित किम्वदन्ती का इस उपन्यास में लेखक ने कोई उपयोग नही किया है, जिसे नदी में बहता देख शहजादा शादी की जिद ठानता है ।
इस तरह किस्सा गोई को बरक़रार रखता हुआ यह उपन्यास पाठकों को एक काल विशेष की परम्पराओं , जीवनशैली और घटनाओं से रू ब रू कराता है । पाठक इसकी वृतान्त शैली को जरुर पसंद करेगे तो एतिहासिक उपन्यासों की श्रुंखला में यह महत्वपूर्ण उपन्यास कहलायेगा ।
पुस्तक- बोलते पत्थर
उपन्यास लेखक –रामभरोसे पाठक
प्रकाशक- ज्ञान गीता प्रकाशन दिल्ली
मूल्य -६२५ रूपये
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राजनारायण बोहरे
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