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बाँकी

बाँकी

अपने बांकपन और सौन्दर्य को लेकर बुआ बेशक शुरू से बहुत सतर्क रहती आयों थीं किन्तु जब से एक टी.वी. चैनल ने अपने पुरस्कार समारोह में उन्हें ‘बेस्ट भाभी’ की ट्रॉफ़ी थमायी थी, वह कुछ ज़्यादा ही चौकस हो चली थीं|

उस दिन अपने कमरे की श्रृंगार मेज़ के सामने खड़ी होकर उन्होंने मुझे बुलाया और बोलीं, “इधर देख तो! मेरे गालों में झोल पड़ रहे हैं, आँखें अन्दर धसक रही हैं, ठुड्डी गरदन की ओर ढलक आयी है और जबड़े तो अपनी परिरेखा से बाहर निकल भागे हैं|

“मैं अब फ़ेस-लिफ़्ट करवाना चाहती हूँ.....”

“अभी?” मैंने हैरानी जतायी, “अपने इस चवालीसवें साल में?”

उम्र में उनसे सतरा वर्ष छोटी होने के बावजूद मैं उनकी अंतरंग सहेली भी हूँ और सलाहकार भी| यों भी एक डेंटिस्ट होने के नाते कॉस्मेटिक सर्जरी की जानकारी तो रखती ही हूँ|

“क्यों नहीं?” बुआ का स्वर आक्रामक हो आया, “तुम देखती नहीं? मेरी उम्र वाली कितनी ही अभिनेत्रियों ने अपनी पलकों पर चिहुंट लगवायी है, अपनी नाक सीधी करवायी है| अपने माथे की रेखाएँ हटवायी हैं, अपनी अगाड़ी-पिछाड़ी पर सिलिकन तहें चढ़वायी हैं| दुहरी हो गयी अपनी ठुड्डी से चरबी मिटवायी है.....”

“मगर बुआ| उन्हें लिफ़्ट की ज़रुरत थी| आप को नहीं और वह छंटाई-कटाई खतरे से खाली नहीं होती| सर्जन की छुरी अगर गलत नस पर चल जाए तो चेहरे की माँसपेशियाँ अपनी हरक़त तक खो सकती हैं और सबसे ज़्यादा खतरा तो कान वाली नस के कटने का रहता है जिसके सहारे हम सुना करते हैं और कई बार तो कान अपनी जगह छोड़ कर नीचे उतर आते हैं.....”

“जिस सर्जन से मैं सलाह लेकर आयी हूँ उसकी छुरी गलत जगह पर जा नहीं सकती| वह कई स्त्रियों के माथे, नाक, पलकें, गालें और ठुड्डियाँ सजा संवार चुका है.....” बुआ ने कहा|

“आप सर्जन के पास हो भी आयीं? बिना पापा और बाबा से सलाह किए?” परिवार में मेरी माँ नहीं हैं, पिछले दस साल से| कैंसर ले गया था उन्हें और अब घर में हम चार जन ही रह गए हैं| मैं कुल जमा चार साल की थी जब बुआ अपने विवाह के तीसरे दिन इधर हमारे पास लौट आयी थीं स्थायी रूप से यहाँ टिकने हेतु, इक्कीस साल की अपनी अल्प आयु में| तेइस वर्ष पहले की किसी तारीख में और दादी उसी वर्ष में चल बसी थीं|

“उन से मुझे सर्जन की फ़ीस थोड़ी न लेनी है जो उन की सलाह सुनूँ या पूछूँ?” बुआ गंभीर हो चलीं|

मेरे दादा और पिता से बुआ बहुत कम बात करतीं| नाराज़ रहतीं उनसे| कहतीं, उन्होंने ही उन्हें फ़्लॉप फ़िल्में दिलवायीं| दिवालिया ससुराल दिया|

असल में उनके बचपन के समय दादा की आर्थिक स्थिति डांवाडोल रहा करती थी| वह फ़िल्मों में एक कैमरामैन रहे हैं और उस समय फ़िल्में उन्हें कभी मिलतीं तो कभी नहीं भी मिलतीं| ऐसे में वह मेरे पिता के साथ बुआ को भी फ़िल्मों में काम दिलवाने लगे थे किन्तु बाल-कलाकार के रूप में मेरे पिता ही सफल रहे थे, बुआ नहीं बल्कि मेरे पिता तो आज भी बतौर चरित्र अभिनेता अच्छी चाँदी काट रहे हैं जबकि बुआ को दो तीन फ्लॉप फ़िल्मों के बाद फ़िल्में कभी मिली ही नहीं| न तब, न बाद में|

और संयोग की बात, बुआ का विवाह भी ठीक नहीं बैठा था| अपने जिस प्रोड्यूसर मित्र को दादा ने अपना समधी बनाया था उस ने बेटे के विवाह के दूसरे ही दिन आत्महत्या कर ली थी, अपने दिवालिया करार किए जाने पर और जब अमंगल उस घटना के लिए बुआ ही को उत्तरदायी मान कर इधर लौटा दिया गया था तो अचानक समाप्त किए गए उस विवाह का विधिवत तलाक में परिणत होना फिर अनिवार्य तो रहा ही था|

और यह किसी कौतुक से कम नहीं था कि तलाक का वह नामपत्र बुआ का भाग्य पलट गया था, स्वभाव बड़ा गया था, स्वरुप बदल गया था और यह संभव बनाया था आकस्मिक उभर रहे सन् नब्बे के उस दशक के नए सैटेलाइट चैनलों ने और उनकी बहार लूटने वाले नए-पुराने निर्माता निर्देशकों ने, जो बहत्तर घाट का पानी पीने वाले सीरियल पर सीरियल बनाने में लग गए थे| चार धन पाँच नौ और बुआ को जीविका भी मिली और ख्याति भी| न केवल दी गयी अपनी भूमिका के साथ ही बुआ न्याय करतीं बल्कि उससे अर्जित होने वाले पारिश्रमिक से भी| इधर कमातीं उधर उड़ा देतीं| देशी-विदेशी बाज़ारों में, ब्यूटी पार्लरों में, सैर-सपाटों में, कभी देशी, कभी विदेशी|

पारिश्रमिक उन्हें मिलता भी खूब| कभी मुट्ठी-भर तो कभी अंजुलि भर|

“आज तुम्हें मेरे साथ चलना है,” उस समय मैं अपने क्लिनिक के लिए तैयार हो रही थी जब बुआ मेरे पास आयीं और बोलीं, “आज मैं अपनी फेस-लिफ़्ट करवा रही हूँ| प्लास्टिक सर्जन के नर्सिंग होम में मेरा कमरा बुक हो चुका है| साथ ही एक निजी नर्स भी, पूरे एक महीने के लिए.....”

“ऐसे कैसे चल देंगी, बुआ?” मैं घबरा उठी, “इतनी रिस्की सर्जरी और वह भी उस दिन जब दादा नासिक में हैं और पापा जयपुर?”

उस दिन वे दोनों ही आउटडोर शूटिंग पर शहर से बाहर थे|

“अगर वह शहर में होते तो भी क्या मैं उन्हें बताती? कतई नहीं|” बुआ अपनी स्वतंत्रता को जब-तब अराजक हो लेने देतीं|

“मगर बुआ आप अच्छी भली सुंदर लगती तो हैं| क्यों अपने इस सुंदर चेहरे को जोखिम में डालना चाहती हैं? दांव पर लगाना चाहती हैं?” मुझे कंपकंपी छिड़ गयी|

“कोई जोखिम नहीं,” बुआ हँसने लगीं|

“सब देखा-भाला है, जाना-बूझा है, जो खतरे हैं वह सब पचास पार वालों के लिए हैं, मेरी उम्र वालों के लिए नहीं.....”

“नहीं बुआ| दादा और पापा का भी आपके पास बने रहना बहुत ज़रूरी है.....”

“तुम मेरे साथ चलो और बहस बंद करो,” बुआ ने लाड़ से मेरे कंधे घेर कर मुझे तैयार कर लिया|

नर्सिंग होम पहुँच कर हम पहले बुआ के आरक्षित कमरे में ही गयीं अपना सामान टिकाने| थोड़ी देर में वह नर्स आ पहुँची जिसे बुआ अपने लिए तय कर रखी थीं|

बुआ को ऑपरेशन के लिए उसी ने तैयार किया| नर्सिंग होम का गाउन व पजामा पहनवा कर|

उसी की संगति में हम सर्जन के ऑपरेशन थिएटर की ओर बढ़ चलीं| सर्जन फुरतीले शरीर और चौकस चेहरे के स्वामी थे| पचास और साठ के बीच| आत्मविश्वास से भरपूर|

“यकीन मानो, “वह मेरा कंधा थप-थपाए,” आप की बुआ के साथ कोई दुर्घटना नहीं हो सकती| कितनी ही लड़कियों के लिपोसक्शन व डर्माब्रेज़न (त्वचा की छंटाई) कर चुका हूँ| केमिकल पील्ज़, लेज़र ट्रीटमेंट, बोटौक्स वगैरह सब खूब जानता-समझता हूँ.....”

“मगर मैंने पढ़ रखा है, सब से ज़्यादा खतरा कान वाली औरिक्युलर नर्व (नस) कटने का रहता है जिस के सहारे हम सुना करते हैं और कई बार तो कान अपनी जगह छोड़ कर नीचे उतर आते हैं, एक सेंटीमीटर तक और दस डिग्री तक उनका कोण भी बदल सकता है.....”

“आप दांतों वाली हैं| हमारी फेस-लिफ़्ट के बारे में उतना नहीं जानतीं जितना हमें मालूम रहता है, “सर्जन गंभीर हो चले,” आप को बता ज़रूर सकता हूँ कि मुझे तीन लैंडमार्क्स पर काम करना है, इन के चेहरे की प्लैटिज़्मा शीट पर, जिस की माँसपेशी के तंतु इन की हंसली से ले कर इनके जबड़ों तक फैले हैं, इन के चेहरे के नैसोलेबियल फ़ोल्डज़ पर जहाँ इनकी गालों की उतर आयी चरबी इन की नासिकाओं और होठों पर परतें जमा रही है और इनकी ओकुलाई पर, जहाँ आँख वाली मांसपेशी की और ओक्युलैरिटी, चक्रिका, के किनारे इन की आँखों के आस-पास, झुर्रियाँ सी ले आए हैं – द क्रोज़ फ़ीट –”

“आप लिफ़्ट की कौन सी टैकनीक, प्रणाली, पर जाएँगे? मैक्स या फिर पुरानी, पारंपरिक ही?” मैंने सर्जन पर जतलाना चाहा कि फेस-लिफ्ट के विषय में मैं भी पूरी जानकारी रखती हूँ|

“पारंपरिक सर्जरी का मुझे ज़्यादा अभ्यास है,” सर्जन चिढ़ गए|

“मैक्स पर क्यों नहीं आ जाते? जबकि वह तकनीक आप से साढ़े तीन घंटे की बजाए अढ़ाई घंटे ही लेती है और फिर उस का रिकवरी टाइम भी कम है| क्लाएंट तीन-चार सप्ताह लेने के बजाए दो-तीन सप्ताह ही में अपना आपा पुनः प्राप्त कर लेता है| रक्त-स्त्राव और नर्व-डैमेज़ का खतरा भी कम उठता है.....” मैंने कहा|

“हम चलें?” मेरी बात सुनी अनसुनी कर सर्जन ने बुआ की ओर इशारा किया|

“बेस्ट ऑफ लक|”

"लक मेरे साथ है|” बुआ सर्जन की ओर देख कर मुस्कुरायीं| वशीभूत| उनके चेहरे पर चमक थी| हुलस था| प्रतीक्षा थी| तरुणाई के पुनर्जात की| यौवन के पुनरागमन की|

बुआ ऑपरेशन थिएटर गयीं तो मैं उस दूसरे कमरे में चली आयी जहाँ वह टी. वी. रखी रही थी जिस की स्क्रीन पर ऑपरेशन की पूरी प्रक्रिया टेलीकास्ट होने वाली थी|

उस टी.वी. के सामने ही एक सोफा भी पड़ा था, जहाँ मैं जा बैठी| बुआ जब बेहोशी में जा चुकी तो सर्जन अपने दल के साथ उनके चेहरे पर झुक लिए| दस्ताने वाले अपने हाथ आगे बढ़ाए| छुरी उन के पास पहुँची और बुआ के कान के अग्रभाग से उनकी हेयरलाइन, केशिका तक एक चीरा लगा लायी| फिर वह घूम कर उन के कान के निचले और पिछले भाग से होती हुई उनकी गरदन की पीछे वाली हेयरलाइन पर जा पहुँची| उन्हीं हाथों में फिर स्कैलपेल आ जुड़े जिन्होंने बुआ की गरदन और गालों की त्वचा से उस के नितल वाले, सब से नीचे वाले टिश्यूज़, ऊतकों, को उससे अलग कर दिया|

बह रहे खून के बीच| उन ऊतकों को स्युटरज़, सीवन, से फिर कसा गया, उन की अतिमात्रा को निकालते हुए| बुआ के रक्त सने चेहरे पर नए घाव आ लगे|

अब त्वचा को दोबारा उन ऊतकों पर जमाया गया, अतिरिक्त त्वचा को साथ-साथ हटाते हुए| इस बीच लहू का बहाव बढ़ता चला गया था और फिर त्वचा पर बन आए घावों को स्टेपलज़ से अभी टांका ही जा रहा था कि टी.वी. अचानक बंद कर दिया गया|

मैं ऑपरेशन थिएटर की ओर लपकी तो मुझे बाहर रोक दिया गया| बताया गया, ज़्यादा खून के बहते रहने से बुआ का केस एमरजेन्सी ले आया था| उसी समय मैंने पापा और दादा को सारा हाल कह सुनाया| अपने मेल से|

ऑपरेशन थिएटर से बाहर आने में बुआ को सात घंटे लगे| और जब बाहर लायी भी गयीं तो अचेतावस्था ही में| उनके सिर और चेहरे पर पट्टियाँ बंधी थीं और उनके कान के पीछे और त्वचा के नीचे एक पतली ड्रेनेज ट्यूब, नलिका लगायी गयी थी| जिसे वहां जमा हो रहे खून को खींचते रहना था| नलिका तीसरे दिन हटायी जानी थी और पट्टियाँ पाँचवे दिन|

आगामी पांच दिन गहरी उलझन और चिंता में बीते| इस बीच मेरे दादा और मेरे पापा भी वहां आ पहुँचे थे| अपनी घबराहट व अप्रसन्नता मेरी किंकर्तव्यविमूढ़ता में जोड़ते हुए| पट्टियाँ हम तीनों की उपस्थिति में खोली गयीं| लेकिन नलिका ज्यों की त्यों लगी रही|

बुआ का चेहरा पीला था| विक्षत था| सूजा हुआ था| पिता और भाई का सामना करना बुआ के लिए दुष्कर रहा| पहली बार मैंने उन्हें उन दोनों से भय खाते हुए देखा| और आँखे चुराते हुए|

वे दोनों भी भयचक थे| न अपनी ऑंखें सीधी कर पा रहे थे| न नीली-पीली| मुझे भी चुप लग गयी थी| न बुआ को भला-बुरा सुना सकती थी, न सर्जन को, जो बुआ को ढाँढस बंधा रहे थे, “निश्चित लक्ष्य का परिणाम आने में समय लगता है| यह सूजन, ये निशान, ये पपड़ियाँ तीन-चार माह में विलीन हो जाने वाली हैं.....”

मगर बुआ स्तम्भित लेटी रही थीं| जड़वत| अपने गालों की भाँति| जो उन्हें अब मुस्कुराने नहीं दे रही थी|

बुआ वहाँ पूरा एक माह रहीं| सम्पूरित वीर-भाव से| प्रत्यशा-निराशा अंगीकार करती हुई| पूरी तरह|

मगर घर लौटने तक जान चुकी थीं सर्जन का आश्वासन एक स्वांग-भर था| उनकी त्वचा पर लगे घावों के, हेयरलाइन की तोड़-मरोड़ के, कानों से छेड़छाड़ के सभी क्षतचिन्ह स्थायी बने रहने थे| रस्सीजैसी वह सूजन भी जो उन के कान की तह से शुरू होती हुई उनकी ठुड्डी के नीचे आन बैठी थी| अनियमित हो चुकी उन के चेहरे की परिरेखाओं के विरूपण में वृद्धि करती हुई|

किन्तु वाहवाही की बात यह रही कि फ़ेस-लिफ़्ट के अतिचार के उस प्रकटन ने उनकी हिम्मत नहीं तोड़ी| उन्होंने अपने को पुनः अन्वेषित किया| मीमांसात्मक अपने नए खेले से|

प्रतिभावान एक अभिनेत्री के रूप में बन चुकी अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखने में उन का चेहरा ही उनके आड़े आ सकता था, उनकी प्रतिभा तो नहीं| उनकी कलम तो नहीं| उनका व्यक्तित्व तो नहीं| और वह लिखने लगीं| टी.वी. ही के लिए| नाटक, कथोपकथन, संवाद| और जीतने लगीं, क नयी ट्रॉफियाँ, ‘बेस्ट राइटर’ के रूप में| अपने पैन-नेम (साहित्यिक उपनाम) के उपलक्ष्य में, जो उन्होंने स्वयं चुना था : बाँकी|

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