Swabhiman - Laghukatha - 16 books and stories free download online pdf in Hindi

स्वाभिमान - लघुकथा - 16

1 - स्वाभिमान (माँ)

बेटा एक बड़ी कंपनी में प्रबंधक बन गया। उसने अपनी पसंद से शादी भी कर ली। बहू को एक बच्चा भी हो गया पर बेटे ने खबर तक नहीं दी। अब बच्चा चार वर्ष का हो चला था। अब बेटे को माता-पिता की सुध आई। रामप्रसाद को इसका पता गाँव के एक युवक से चला जो उसी शहर में मुलाज़िम था। एक दिन बेटा किशोर मय पत्नी के घर आया। पिता तो रुष्ट थे पर माँ का हृदय बड़ा कोमल होता है। वह पसीज गई। उसने आरती के साथ बहू का स्वागत किया।

रात को भोजनोपरांत किशोर माँ के पास बैठा अपने शहर के किस्से सुनाने लगा। रामप्रसाद अपने काम में व्यस्त रहे। उन्होंने उपरी तौर पर नाराज़गी बनाए रखी पर अंदर से माफ़ कर दिया था। किशोर ने माँ से कहा, ‘‘यहाँ आप दोनों अकेले रहते हैं। मुझे चिंता लगी रहती है। हमारे साथ चलिए और वहीं रहिए। कोई तकलीफ़ न होगी। आपकी बहू को सेवा का मौका मिल जाएगा। शहर भी बड़ा है ,थोड़ा घूम-फिर लिजिएगा तो मन बहलता रहेगा। जब मन करे लौट आईएगा।’’

माँ ने कहा ,‘‘मैं तो चली चलूँ पर तुम्हारे पिताजी मानें तब ना।’’

‘‘उनको मनाना आपका काम है।’’

माँ जानकी देवी घूमने तो नहीं पर बहू की गृहस्थी बसाने के लिए जाना चाहती थी। पोते के साथ वक्त गुज़ारने के अरमान मचलने लगे। उसने सोते वक्त रामप्रसाद से कहा ,‘‘क्या ज़िद पाले बैठे हैं। अब तो उन्हें माफ़ कर दीजिए। आखिर वे हमारे ही संतान हैं। उनकी इच्छा है कि हम उनके साथ चलें तो कुछ दिनों के लिए चलते हैं। मन न लगे तो उल्टे पाँव वापस हो लेंगे।’’

‘‘तुम चली जाओ। मेरा क्या ,मन करेगा तो कभी चला जाऊँगा।’’

रात मीठे सपनों में गुज़र जाए इस आशा के साथ दोनों बिस्तर पर चले गए। रामप्रसाद लघुशंका के लिए निकले तो बेटे-बहू को जागते पाया। दोनों की बातचीत सुनाई पड़ी। किशोर कह रहा था-‘‘मेरी माँ बहुत भोली है। वह मान जाएगी इसकी पूरी उम्मीद थी। उनकी ज़िद के आगे पिताजी हार जाएँगे। अब तुम्हें आया की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। माँ पूरा घर संभाल लेगी।’’

‘‘और पिताजी चलें तो तुम्हारी परेशानी दूर हो जाएगी। वे सारे बाहरी काम संभाल लेंगे।’’

रामप्रसाद जी देर तक उनकी बातें सुनते रहे। वापस लौटकर सोने का प्रयास करने लगे पर नींद तो जैसे भाग चुकी थी। सुबह उठते ही जानकी को रात की वार्तालाप की रिकॉर्डिंग सुनाई जिसे उन्होंने मोबाईल में रिकॉर्ड कर लिया था। वो मोबाईल की टॉर्च जलाकर शौचालय जा रहे थे जिस कारण मोबाईल उनके हाथ में ही थी।

सुबह बेटे के उठते ही माँ ने अपना फैसला सुना दिया ,‘‘तुम लोग वापस लौट जाओ ,हम दोनों को गाँव ही प्यारा है। तुम्हारा शहर तुम्हें मुबारक हो। हाँ ,कभी हमारी याद आए तो चले आना मिलने ,दुत्कारूँगी नहीं।’’ माँ का स्वाभिमान जाग उठा था।

***

2 - स्वाभिमान (स्वेटर और मफ़लर)

रोज सुबह की तरह बुधनी आज भी अपने काम पर सरला देवी के घर चौका-बर्तन करने आ पहुँची थी। थोड़ा विलंब होने का कारण पूछने पर उसने बताया कि उसके बेटे को बुखार चढ़ गया है। उसकी सेवा-सुश्रुषा में उसे वक्त लग गया। वह अपने काम में व्यस्त हो गई।

सरला भी वहीं पास बैठी अखबार पढ़ने लगी। काम तो कुछ था नहीं। पति नौकरी में थे। वे सुबह ही निकल गए थे। बेटा-बेटी विदेश में रहकर पढ़ाई कर रहे थे। पति की आमदनी अच्छी थी। वक्त गुजारने के लिए सरला क्लब जाया करती थी। दोपहर का वक्त किटी पार्टी का होता था। कुछ सभा सोसाइटी में उठना-बैठना भी था। पैसों का घमंड भी था।

अखबार पलट लेने के बाद समय काटने की गरज़ से पूछा ,‘‘तुम्हारे बेटे को बुखार हुआ कैसे ?’’

‘‘क्या बताएँ बीबीजी ,कल शाम देर तक बाहर रह गया। ठंड लग गई होगी।’’

‘‘अरे! तो ऊनी कपड़े पहने रहना चाहिए था।’’

‘‘मेरी ही गलती है। वह तो कह रहा था कि एक स्वेटर और एक मफ़लर दिलवा दो पर हाथ तंग रहने के कारण दिलवा न पाई अब तक।’’

‘‘कितना बड़ा है तेरा बेटा ?’’

यही कोई दस बरस का होगा। पर बढ़ रहा है बहुत आपके बाबू की तरह।’’

सरला को यह नागवार गुज़रा कि एक महरी के बेटे से उसके सुपुत्र की तुलना की जा रही थी। ‘कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली ! हूँह! बड़ा आई - आपके बाबू की तरह वाली।’ वह मन-ही-मन बड़बड़ाई पर कहा कुछ नहीं।

अपना काम निबटाकर बुधनी चलने को हुई तो सरला से कहा ,‘‘बीबीजी ,पगार दे देतीं तो स्वेटर का इंतज़ाम कर लेती।’’

‘‘अरे बुधनी! अभी तो हाथ तंग हैं पर ठहरो....!’’ कहकर वह अंदर चली गई।

बुधनी प्रसन्न थी कि आज वह अपने लाल के लिए स्वेटर और मफ़लर खरीद ही लेगी। थोड़ी देर में सरला वापस आई। उसके हाथों में एक पुराना स्वेटर और एक मफ़लर था। उन्हें आगे बढ़ाते हुए बोली ,‘‘ले मेरे बाबू के ये पुराने ऊनी कपड़े। ये अभी उपयोग करने लायक हैं। इनसे काम चलाओ। ऐसे भी अब इनका हमारे यहाँ कोई काम नहीं है।’’

‘‘बीबीजी! माना कि हम गरीब हैं पर किसी की उतरन नहीं पहनते हैं। इन्हें किसी भिखारी को दे दीजिएगा। पैसा नहीं है ,कोई बात नहीं।किसी और घर से ले लूँगी।’’ कहकर बुधनी निकल गई।

***

3 - स्वाभिमान (सब्ज़ी)

त्रिपाठी जी ने श्यामलाल को थैला पकड़ाते हुए कहा ,‘‘श्यामलाल ,यह थैला और ये पैसे पकड़ो। जाते समय बाज़ार से ताज़ी सब्ज़ियाँ ले लेना और मेरे घर पहुँचा देना।’’

श्यामलाल कुछ समझ न पाया। उच्च अधिकारी का मान रखने की गरज़ से थैला लेकर बाज़ार गया और सब्ज़ियाँ खरीदकर त्रिपाठी के घर पहुँचा आया। श्रीमती त्रिपाठी ताज़ी सब्ज़ियाँ पाकर फूलों न समाई।

दूसरे दिन जब श्यामलाल दफ्तर गया तो अन्य कर्मीगण कानाफूसी कर रहे थे। उसने विशेष ध्यान न देते हुए अपने काम को अंज़ाम देना प्रारंभ किया। कहने को तो वह एक मामूली चपरासी था पर ज्ञान की कमी नहीं थी।

मध्याह्न के समय भोजन करते हुए एक सहकर्मी ने कहा ,‘‘श्यामलाल, हर नवागंतुक के साथ त्रिपाठी जी ऐसा ही करते हैं। सरकारी महकमे का चपरासी जैसे उनका बंधुआ मज़दूर है। पिछले वाले चपरासी से तो घर के कपड़े तक धुलवाते थे। मुझे भी कुछ दिन यह सब करना पड़ा है। अब आगे देखो क्या-क्या होता है।’’

श्यामलाल ने उस वक्त कोई ज़वाब नहीं दिया। वह अपने काम में मशगूल रहा। शाम को छुट्टी के समय फिर त्रिपाठी जी ने थैला और पैसा श्यामलाल की ओर बढ़ाया तो उसने कहा ,‘‘त्रिपाठी साहब , आप भी अभी घर जाएँगे। आप स्वयं भी सब्ज़ि़याँ खरीद सकते हैं। सब्ज़ी खरीदने से कोई छोटा तो नहीं बन जाता ? हम भी अपने घर के लिए सब्ज़ियाँ बड़े शौक से खरीदते हैं।

‘‘और माना कि हम चपरासी हैं पर आपके नहीं, इस सरकारी दफ्तर के लिए। हमारा भी मान-सम्मान है। सरकार ने हमें आपके घर का काम करने के लिए नियुक्त नहीं किया है। कृपया किसी छोटे कर्मचारी को इस तरह परेशान न करें।’’

‘‘बड़ा बोलता है रे तू! सभी तो करते हैं। किसी तो आज तक अखरा नहीं ?’’

‘‘इसी वज़ह से तो इसे परंपरा बना लिया आपलोगों ने। अगर किसी ने पहले ही मना कर दिया होता तो आज मुझे कहने की हिम्मत आप नहीं जुटा पाते। ज़्यादा परेशान किया तो उच्च अधिकारयों से शिकायत करूँगा।’’

त्रिपाठी साहब का चेहरा देखने लायक था। थैला उठाए वे बाज़ार की ओर चल पड़े। साथी चपरासियों ने श्यामलाल से कहा ,‘‘चल, चाय पीते हैं।’’

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भोला नाथ सिंह

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