थाना लश्कर पूर्व क्षेत्र में तैनात हेडकांस्टेबिल कैलाश नारायण शर्मा उन दिनों ढोलीबुआ पुल के पार लश्कर शहर की एक अत्यंत गंदी बस्ती में किराए के मकान में रहा करते थे। मकान क्या था, आठ-आठ फुटी पाटोरें थीं जो गर्मियों में किसी कुंभकार के आँवे-सी तपतीं और बारिश में उलटा मेह बरसने पर चू उठती थीं। यह बस्ती सोनालीका अर्थात् स्वर्ण रेखा नहर के किनारे बसी थी। नहर जो कि स्टेट के ज़माने में कभी एक सिंधिया नरेश द्वारा नगर के सौंदर्यीकरण एवं जल-प्रदाय हेतु बनवाई गई थी, अब गंदे नाले में तब्दील हो आई थी कि जिसमें गंदगी के ढेरों पर मच्छर-मक्खियों का मजमा लगा रहता। उससे उठती सड़ांध हमेशा सिर चढ़ाए रखती। नाले के किनारे शुष्क संडास और बस्ती में कच्ची नालियाँ थीं। मुख्य सड़क से मिडिल स्कूल का मैदान पार कर इस बस्ती के लिये एक पतली-सी कच्ची गली थी जो सदा दलदल से भरी रहती और स्कूल में खेल का मैदान सदा मनुष्यों, कुत्तों और सूअरों आदि के मल से पटा रहता। सो, दिन में तो खैर, जैसे-तैसे जूता-चप्पल पाँव की इज्जत बचा लेते पर रात में और खास तौर पर बिजली गुल हो जाने पर भरतनाट्यम और हनुमान कूद के बावजूद पैर लिस जाते! जी घिना उठता। पर हेडकांस्टेबिल कैलाश नारायण शर्मा की तीसरी संतान बालक आनंद बिहारी बस्ती में उन दिनों बड़े मजे से रह रहे थे। उनका ध्यान बस्ती की गंदगी और दशा-दिशा पर न जाकर सदा अपने लक्ष्य पर केंद्रित रहता। नलों में गंदा और दुर्गंधयुक्त पानी आ जाए या बिलबिलाते कीड़े-वे कभी परेशान न होते। ब्राह्मण कुल में जन्म के कारण उनका यज्ञोपवीत संस्कार बचपन में ही हो गया था, इसलिए वे लघुशंका आदि के वक्त अपना जनेऊ कान पर धारण करना कभी न भूलते। रात को उघारे बदन सोते और उनका जनेऊ पीठ, छाती तथा पेट से कमर तक चमकता रहता।
Full Novel
नमो अरिहंता - भाग 1
अशोक असफल ****** ।।समर्पण।। अभी मुझे और धीमे कदम रखना है अभी तो चलने की आवाज आती है -मुनि (1) आरंभ ** थाना लश्कर पूर्व क्षेत्र में तैनात हेडकांस्टेबिल कैलाश नारायण शर्मा उन दिनों ढोलीबुआ पुल के पार लश्कर शहर की एक अत्यंत गंदी बस्ती में किराए के मकान में रहा करते थे। मकान क्या था, आठ-आठ फुटी पाटोरें थीं जो गर्मियों में किसी कुंभकार के आँवे-सी तपतीं और बारिश में उलटा मेह बरसने पर चू उठती थीं। यह बस्ती सोनालीका अर्थात् स्वर्ण रेखा नहर के किनारे बसी थी। नहर जो कि स्टेट के ज़माने में कभी ए ...और पढ़े
नमो अरिहंता - भाग 2
(2) अनायास ** आनंद बिहारी का हेडक्वार्टर अब गोहद हो गया था। छूट गया था वह महानगर जो लश्कर-ग्वालियर-मुरार शहरों से मिलकर बनता है! वह लश्कर जो कि राजा मान सिंह और उनके बाद में ग्वालियर नरेशों की सैनिक छावनी (लश्कर) रहा। जिस ग्वालियर शहर को माधौराव के पिता महादजी सिंधिया ने बसाया! वह छतरियों का लश्कर-ग्वालियर जो किला, हाईकोर्ट, फूलबाग, महाराज बाड़ा, जीवाजी यूनिवर्सिटी, कटोराताल, जे.ए. हॉस्पिटल, मेडीकल कॉलेज, फिजीकल कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज, वीरांगना लक्ष्मीबाई की समाधि, छत्रपति शिवाजी और वीर सावरकर के स्टेच्यू तथा तानसेन के मकबरे के नाम से जाना जाता है। कि जहाँ अचलेश्वर महादेव ...और पढ़े
नमो अरिहंता - भाग 3
(3) प्रेरणा ** एक औसत लंबाई के पुरुष की अपेक्षा मामाजी जरा नाटे कद के श्यामवर्णी व्यक्ति थे। वे और धार्मिक प्रवृत्ति के भी खूब थे। संतान के रूप में उनकी मात्र दो बेटियाँ थीं, जिनके विवाहोपरांत अब वे सपत्नीक निश्चिंत जीवन जी रहे थे। कि अब कोई जिम्मेवारी, कोई खास दारोमदार न था उन पर। पुरोहिताई नहीं करते थे, फिर भी नगर की सभी जातियाँ ‘पालागन’ करती थीं उन्हें। कि कनागत (पितृपक्ष) में पूरी पंद्रहिया चूल्हा नहीं जलता उनके यहाँ! और एक खास बात और कि मामाजी चाहे पितृपक्ष में न्योता जीमने जायें या तेरहवीं-ब्याह भोज अथवा भागवत-भंडारे ...और पढ़े
नमो अरिहंता - भाग 4
(4) क्षेपक ** बरसात हालाँकि 8-10 दिन पहले थमी थी, पर इतने ही दिनों में धरती का पानी सूख था और सब ओर हरियाली की चादर बिछ गई थी। किंतु डैम से गिरता पानी अब भी उत्पात मचाये था। उसका भयानक शब्द आज भी वहाँ से गुजरने पर पूर्ववत् सुनाई पड़ता। कि रात के वक्त वह शब्द सन्नाटा तोड़कर बस्ती में घुस आता और पेशाब आदि के लिये आँख खुलने पर अनवरत् सुनाई पड़ता रहता। जबकि नदी अब पहले की भाँति तनी-तनी न थी, बल्कि लहराकर बह उठी थी। गलियाँ और मैदान सूख जाने से और छतों का टपकना ...और पढ़े
नमो अरिहंता - भाग 5
(5) दुःख ** बरसात बीत गई है। साधु विहार के लिये निकल पड़े हैं। एक दल गोहद की नसियाजी भी आ गया है। सेठानी की व्यस्तता बढ़ गई है। वैसे भी बारहों पूनो वे भोर में उठकर टट्टी-कुल्ला से निबटने के बाद झाड़ू-पोंछा करके , नल से घर का पानी भरने के बाद बाड़े में कुएँ पर चली जाती हैं। और वहाँ से स्नान करके घर न लौटकर सीधी मंदिर पहुँचती हैं। यहाँ उनकी एक आलमारी है। जिसमें पूजा वाली सामग्री-थाली, कलश, छोटी-छोटी कलशियाँ आदि रखी रहती हैं। अच्छी तरह साफ किये गये चावलों का एक डिब्बा, एक बाल्टी-रस्सी ...और पढ़े
नमो अरिहंता - भाग 6
(6) पुनर्जन्म ** नौकरी छूट जाने से घर में मातम-सा छा गया था। हालाँकि पिता ऑन ड्यूटी मरे थे वेतन अम्मा के नाम हो गया था, बाबूजी बहाल हो चुके थे, भाभी एक प्रायवेट स्कूल में लोअर डिवीजन टीचर हो गई थीं जिसके निकट भविष्य में सरकारी हो जाने की संभावना थी! और मंझला भाई मेडिकल के सेकंड ईयर में आ गया था तथा फर्स्ट ईयर में अव्वल आने के कारण उसे योग्यता वजीफा मिल गया था सो कोई ज्यादा आर्थिक प्रॉब्लम न थी। लेकिन उड़ती-उड़ती खबर के आधार पर मामाजी ने अम्मा से कानापूसी कर दी कि सेठ ...और पढ़े
नमो अरिहंता - भाग 7
(7) प्रसंगवश ** आनंद को गये दो बसंत बीत गये हैं, पर प्रीति का लगाव नहीं घटा है। इस अंजलि का प्रेम तुड़वाकर गंगापुरसिटी के एक धनीमानी सेठ घराने में उसका रिश्ता जोड़ दिया गया है। कि जिनका कारोबार करोड़ों में फैला हुआ है! कहाँ तो सेठ अमोलकचंद राइस मिल चलाकर, दालें-तिलहन आदि की आढ़त का व्यापार करते हुए खुद को धन्ना सेठ समझते रहे, जैसे- गूलर के फल के कीड़े! समझते हैं कि ब्रह्मांड यही है। बाहर निकल ही नहीं पाते। और निकलते भी हैं तो उसी वृक्ष पर लगे अगणित गूलर फलों को ठीक से निरख भी ...और पढ़े
नमो अरिहंता - भाग 8
(8) नए द्वार ** अहमदनगर जेल से छूटने के बाद वे पुणे-थाणे या मनमांड़ की तरफ भी नहीं गये। स्टेशन ही नहीं पहुंचे आनंद बिहारी! क्या करते जाकर? लश्कर तो अब जाना था नहीं उन्हें! कौन-सा मुँह लेकर जाते?... जिस तरह अंग्रेज सरकार ने बागियों (स्वतंत्रता सेनानियों) को प्रख्यात जेलों में ठँस रखा था, जिसमें महाराष्ट्र में अहमदनगर की जेल भी एक नामवर जेल है। उसी तरह देसी सरकार ने उन्हें बागियों की तरह ही रातों-रात धर-दबोचकर इतनी दूर परदेस की जेल में ठूँस दिया! बिना कोई कारण, बिना किसी अपराध के । जबकि राजनीति से वे कोसों दूर ...और पढ़े
नमो अरिहंता - भाग 9
(9) बीज ** जिस आचार संहिता में यह कहा गया है, ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवताः’ अर्थात्-जहाँ स्त्रियों पूजा होती है, वहाँ देवता वास करते हैं! उसी आचार संहिता में यह भी कह दिया गया है कि स्त्रियाँ साक्षात् नर्क का द्वार हैं।... सो, इस्लाम में ही नहीं, जैन में भी यह अपवित्र स्त्री धर्म और ईश्वर से थोड़ी दूर ही रखी गई है। सेठानी को जलाभिषेक (ईश्वर को नहलाने) का अधिकार नहीं था। गंध्योदक (मूर्ति स्नान का जल) वे अवश्य अपनी आँखों में और समस्त शुभ अंगों में लगा सकती थीं। और लगाना लाजिमी भी था। पर ...और पढ़े
नमो अरिहंता - भाग 10
(10) दर-दर ** जिस आश्रम में आनंद ठहरे थे, उसकी ख्याति दूर-दूर तक थी। उन दिनों वहाँ एक बहुत प्रसिद्ध गुरु आए हुए थे। उनसे दीक्षा लेने हर कोई लालायित था। पर वे बहुत आसानी से और शीघ्र किसी को अपना शिष्य न बनाते। वे अपने पास आये साधक को अक्सर एक पहेली में उलझा देते। कहते-जाओ, वह शब्द सुनकर आओ जो अब तक किसी ने सुना न हो!’ आनंद बार-बार प्रयत्न करते। जंगल में निकल जाते। बाहर हवा बहती, वे ध्यान से सुनते। नदी बहती, कान देते उस पर। आकाश के टूटते तारों की ध्वनि सुनने का यत्न ...और पढ़े
नमो अरिहंता - भाग 11
(11) तीर्थ ** सोनागिरि-स्वर्णगिरि या श्रमणगिरि भी कहलाता है। यह मध्यप्रदेश के दतिया जिले से 10-15 किलोमीटर दूर मध्य के बंबई-दिल्ली रेलमार्ग पर, अर्थात्- विंध्यावटी के छोर पर स्थित है और इस पहाड़ी के नीचे बसा छोटा-सा गाँव सिनावल एक प्राचीनकालीन बस्ती है। कहा जाता है कि जैनियों के आठवें तीर्थंकर चंद्रप्रभु का समवशरण जब यहाँ आया तभी से इस पहाड़ को तीर्थक्षेत्र के रूप में जाना जाता है। किंतु जैन संप्रदाय की यह मान्यता है कि पहाड़ के 72 मंदिर अत्यंत प्राचीन हैं और उन्हें भगवान् आदिदेव (प्रथम तीर्थंकर) के यशस्वी पुत्र भरत चक्रवर्ती ने बनवाया था। इन ...और पढ़े
नमो अरिहंता - भाग 12
(12) संयोग ** आनंद जब वहाँ पहुँचे मेला उखड़ रहा था। यह मेला प्रतिवर्ष होली पर फाल्गुन सुदी चौदस चैत्र वदी तीज तक विशेष रूप से लगाया जाता है और इसी मौके पर पंचकल्याणक महोत्सव आदि हुआ करते हैं। चूँकि उत्तर भारत को छोड़कर दक्षिणांचल और विशेषकर महाराष्ट्र (बंबई) में होली कतई फीकी रहती है। ऐसे ही जैन धर्म में होली मनाने का रिवाज नहीं है। गोया यह शूद्रों का त्योहार है, इसीलिए होली पर जैनसमुदाय जो कि औसतन वणिक समाज है- बाजारबंदी के कारण अपने निकटतम तीर्थ क्षेत्रों में सपरिवार चला जाता है। सो, होली के अवसर पर ...और पढ़े
नमो अरिहंता - भाग 13
(13) मुक्तिकामी ** प्रीति के जाने के बाद आनंद बिना उस दिशा में देखे, बिना उस घटना पर विचार अपने मन में किसी स्मिृति को न बसाकर पहाड़ की ओर चल दिए। प्रवेश द्वार पर द्वार-रक्षक ने उन्हें चप्पल छोड़ जाने को कहा और तब एक कोने में चप्पलें उन्होंने इस निश्चय के साथ उतार दीं कि अब इन्हें कभी धारण नहीं करेंगे। प्रवेश करते ही उन्हें अपने बायीं ओर बीसपंथी कोठी का कोट नजर आया। दायीं ओर के मंदिर में नेमिनाथजी खड्गासन में मौजूद थे। औचक आनंद को कुछ ऐसी अनुभूति हुई कि वे स्वर्गधाम में प्रवेश कर ...और पढ़े
नमो अरिहंता - भाग 14
(14) पूर्व जन्म ** सोनागिरि से वह क्लान्त लौटी थी और फिर धीरे-धीरे नर्क स हो गई थी। बी.ए. का इम्तिहान सिर पर था, किंतु अपनी किताबों की धूल तक नहीं झाड़ी उसने। चौके का मुँह नहीं देखा-जो दे दिया गया, खा लिया। कोई दस बार बोला तो, एक बार हाँ-हूँ कर दी। फिर गुमसुम! एक स्थायी-सी चुप्पी तारी हो गयी थी। हैरान हो गया सेठ! और सेठानी भी। चिढ़ने लगी सुधा। ‘क्या हुआ है तुम्हें? तुझेऽ तुझेऽ!’ और उसका बक्वुर (बोल) नहीं फूटता। पहले इतना नहीं था। था तो! पर इतना नहीं था! यह सच है कि मम्मी ...और पढ़े
नमो अरिहंता - भाग 15
(15) हमला ** मूलनायक प्रतिमा के अर्घ्य के लिए अव्वल तो एक स्थायी फंड था जो बनाया था- राजस्थान सीकर, नागौर, जयपुर और अजमेर के धन्ना सेठों ने। उत्तरप्रदेश के आगरा, झाँसी, कानपुर और सहारनपुर के धन्ना सेठों ने। मध्यप्रदेश के मंडी बामोरा, दमोह, छतरपुर और इंदौर के धन्ना सेठों ने। और आसाम के डिब्रूगढ़ और पंजाब के रोहतक के धन्नासेठों ने। और फुटकर स्रोत-सिद्ध क्षेत्र संरक्षिणी कमेटी की दिल्ली वाली धर्मशाला, जिसमें ठहरने वाले मोटे सेठ पहाड़ की यात्रा करने से पहले ही हैसियत दर्शाने, बाखुशी मूलनायक प्रतिमा के अर्घ्य के लिए बुक हो जाते। इस प्रकार बहुत ...और पढ़े
नमो अरिहंता - भाग 16
(16) मामाजी ** मामाजी को अपने स्वर्णिम अतीत का इल्म भली-भाँति है। तभी तो उन्हें रिस (गुस्सा) आती है के उन सरजूपारी और कनबजियों पर जो अपने ही ‘विश्वों’ में उलझ कर रह गये हैं। उस सनाड्य पर जो साढ़े सात सौ खाँचों में बँटा फिरता है। और उस समूचे ब्राह्मण समाज पर जो श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ के खेमों में बँटकर बिरादरी जुद्ध (युद्ध) में फँस गया है! भूल गया है अपने कर्मकांड को, अपनी देववाणी को। अब हम कहें कि मामाजी की यह रिस (क्रोध) अकारण नहीं है। सो, यों कि अगर हेरिडिटी में मूल गुण आ जाते हैं तो ...और पढ़े
नमो अरिहंता - भाग 17
(17) आनंद ** धीरे-धीरे आनंद ने जाना कि उनका मूल वैराग्य में नहीं है। हम तो इसी संसार को चाहते हैं। इसमें जो व्यतिक्रम उत्पन्न हो गया है, उसी को सम पर लाना चाहते हैं। तीर्थंकरों की चर्या की अनुभूतिकर उसका दिग्दर्शन जगत् को कराना चाहते हैं ताकि मिथ्यात्व मिटे! औैर इस भ्रम के मिटते ही प्रेम-अहिंसा स्वतः स्थापित हो जाएगी। सारी मारामारी मिट जाएगी। कि तीर्थंकरों की शिक्षा को वे इस जग में आधुनिक परिप्रेक्ष्य में विज्ञान सम्मत तरीके से प्रसारित करना चाहते थे। वे सभ्यता के बीच अब कोई चारदीवारी और नक्शा नहीं चाहते थे। वे मनुष्य ...और पढ़े
नमो अरिहंता - भाग 18
(18) *** पत्र आनंद ने फिर तह करके रख दिया। सो गये निश्चिंत भाव से। जैसे, कोई असर नहीं शब्द का जादू चल नहीं पाया। विचार को झटक दिया उन्होंने। विचार कभी क्रांति नहीं करता। उसका असर तो तात्कालिक है, दीर्घकालिक नहीं। कि वह क्षण में तो कहीं का कहीं पहुँचा देता है और ख्वाब में सब कुछ बदल-सा जाता है। कभी-कभी उस प्रेरित यथार्थ में भी आमूल-चूल परिवर्तन दीख पड़ता है। किंतु एक विशिष्ट चर्या न अपनाने से, विचार को हृदयंगम करके भी खुद को न बदल पाने से वह हवा का बुलबुला जरा भी टिक नहीं पाता। ...और पढ़े
नमो अरिहंता - भाग 19
(19) प्रीति ** सकल विघ्न विनाशिनी, वरदायिनी पद्माम्बिका माता की नित्य पूजा-पाठ और जाप से सेठानी को सिद्धि हासिल गई थी और उन पर देवी पद्मावती की सवारी खेल उठी थी। उस वक्त, जब सवारी खेलती उन पर देवी की उन के हाव-भाव और आवाज ही बदल जाती और चमत्कार तब घटित हो जाता, कि जब वे किसी के सिर पर हाथ फेर देतीं! तो उसके सिर की फुड़ियाँ मिट जातीं। एक बार तो एक औरत के पेट में छाल पड़ गया था। गर्भ न गिरता था और न बच्चा जन्म लेता। डॉक्टर ने ऑपरेशन बोल दिया था। चिकित्सा ...और पढ़े
नमो अरिहंता - भाग 20
(20) अंजलि उर्फ मैनासुंदरी ** मदरइनलॉ यानी सासु-माँ की आज्ञा को सिर पर धर कर आज्ञाकारी दामाद श्री माणिकचंद्र सपत्नीक गोहद से गंगापुरसिटी और वहाँ से पिताश्री मदनलालजी काला की अनुमति लेकर वाया दिल्ली, मुरादाबाद होते हुए रामनगर पहुँच गया। जो कि उत्तरप्रदेश जिला बरेली में स्थित होकर अहिच्छत्र कहलाता है क्योंकि उपसर्ग की अवस्था में एक-सौ फण का छत्र होने के कारण धरणेंद्र ने इस स्थान का नाम अहिच्छत्र प्रकट किया था। अब अव्वल तो यह स्थान एक महाभारतकालीन किला है। यहाँ विस्तृत भू-भाग पर यत्र-तत्र तमाम प्राचीन खंडहर मिलते हैं। यहाँ कई शिलालेख व जैन मूर्तियाँ भी ...और पढ़े
नमो अरिहंता - भाग 21 - (अंतिम भाग)
(21) अंत ** मानसून की पहली बारिश ने गर्मी के माथे पर पानी की पट्टी चढ़ा दी सो, लू-लपट कब की मर गई अब सड़ी गर्मी से भी निजात मिल उठी थी। सोनागिरि का समूचा वातावरण इसलिए सुखमय था कि वह विंध्याचल की पूँछ वाली पहाड़ियों पर बसा है। वहाँ न पानी भरा रह पाता है गड्ढों में और न कीचड़ की किचपिच मचती है। ताल-तलैयाँ भी नहीं हैं नजदीक सो मेंढकों की टर्राहट से भी वास्ता नहीं पड़ता साँझ घिरते ही। और भूमि पहाड़ी होने से बेवजह की खरपतवार से भी बची रहती है धरती।... ऐसे सुखमय माहौल ...और पढ़े