चीड़ के पेड़ों की टहनियां तेज हवा के दबाव से जोरां से हिलती हैं सायं-सायं के कनफोडू षोर से काँंप उठती हूँ। इन चीड़ों से ढेर सूखी पिरूल भी लगातार झर रही है। ऊपर चढ़ने की कोशिश करते पाँव नीचे फिसलने लगते हैं। इस पहाड़ी पर पहले से ही ढेर सा पिरूल जमा है, फिर नये पिरूल का गिरना जारी रहा तो चढ़ पाउंगी इस पहाड़ी की उकाल (चढ़ाई)? रीढ़ में सर्द लहर उठ रही है। क्या होगा मेरा? तलवार की धार पर चढ़ने वाली जिन्दगी और ये पहाड़ी! पिरूल पर बमुश्किल पाँव टिकाकर पीठ टटोलती हूँ, इस पर एक फँछा बंधा है, जिस के भीतर दो साल का बच्चा है। भूखा प्यासा सो गया है शायद! क्या सोचा होगा इसने-माँ कहां ले जा रही है? फँछे में बाँधकर, अपने घर से दूर पौ फटने से पहले?

Full Novel

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सरहद - 1

1 चीड़ के पेड़ों की टहनियां तेज हवा के दबाव से जोरां से हिलती हैं सायं-सायं के कनफोडू षोर काँंप उठती हूँ। इन चीड़ों से ढेर सूखी पिरूल भी लगातार झर रही है। ऊपर चढ़ने की कोशिश करते पाँव नीचे फिसलने लगते हैं। इस पहाड़ी पर पहले से ही ढेर सा पिरूल जमा है, फिर नये पिरूल का गिरना जारी रहा तो चढ़ पाउंगी इस पहाड़ी की उकाल (चढ़ाई)? रीढ़ में सर्द लहर उठ रही है। क्या होगा मेरा? तलवार की धार पर चढ़ने वाली जिन्दगी और ये पहाड़ी! पिरूल पर बमुश्किल पाँव टिकाकर पीठ टटोलती हूँ, इस पर ...और पढ़े

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सरहद - 2

2 अकेले पाठषाला जाना किस कदर डरावना था- जंगली जानवरों का खतरा, गाड़-गदेरों का बरसात में उफान, ऊपरी बलाओं अंदेषा और सबसे ज्यादा डर मनुश्य नाम के प्राणी का, जो छोटी बच्चियों को भी मादा से ज्यादा कुछ नहीं मानते थे, पर ऐसा बहुत कम होता था, पहाड़ में बलात्कार नहीं सुनाई देता था या तो किसी की हिम्मत नहीं रही या स्त्री लाज षर्म के मारे चुप लगा गई। मैं भी पाठषाला जाने के लिये तैयार नहीं हुई तो माँ छोड़ने आई। माँ भारती की टांग खटिया के पाये पर बाँध कर मेरे साथ आने लगी। उस तरफ ...और पढ़े

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सरहद - 3

3 ‘‘माँ मैं अब पाठषाला नहीं जाऊँगी... मेरे पेट में बच्चा आ जायेगा.. तुम सब मेरी षादी उस गुन्डे करा दोगे... मैं नहीं जाऊँगी पाठषाला...’’ टप-टप मेरे गरम आँसुओं से मिट्टी का फर्ष भीग रहा था पर माँ के भीतर कब ज्वालामुखी धधकने लगा था जिससे मैं अनजान थी। ‘‘रमोली की माँ छेऽ!... भुली तुम दोनों माँ बेटी लिपटा-चिपटी करने पर लगे हो... इधर देखो इस बच्ची का मुँह कुम्हला गया... खिचड़ी भी नहीं खाती बेचारी! माथा भी तप रहा है... ताई पास आती गई और पीछे मुड़कर भीतर की ओर... माँ ने भारती को लपक कर छाती से ...और पढ़े

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सरहद - 4

4 संयोग से उस दोपहर ताऊ घर में ही थे, उन्हें जड़ी बूटियों की पहचान थी। गिलोय के डंठल कूट कर उसमें मिश्री मिला कर छोटी के सूखे हांठों पर टपकाते रहे जब तक माँ आई थी। उसका बुखार हल्का हो गया था। ताई ने माँ को खूब खरी-खोटी कही। मुझे भी हड़काती रही। तेरी पाठषाला बड़ी है या छोटी बहन? फिर ताई ने समझाया था चेतावनी देकर- तेरे अक्षर ज्ञान से किसका भला होने से ठहरा छोरी? एक नन्ही सी जान को मौत के मुंह मे डाल कर तू क्या हासिल कर सकेगी बोल! गांव भर में एक ...और पढ़े

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सरहद - 5

5 छह महिने खोजते-खोजते बीत चुके थे कभी हरिद्वार, कभी ऋषिकेश, बनारस, गया, हरिद्वार एक-एक आश्रम छान लिया था, के लोग भी जहाँ तक हो सकता था, खोज आये थे। किसी पहाड़ की तलहटी पर कोई भी आश्रम दिखता उसमें पहुँच जाते, पर, कहीं भी पता नहीं लगा कि सिडंली गाँव के बी0ए0 में पढ़ने वाले जगदीश को वैराग्य ने झपट लिया! सातवें महिने जब सासू जी की तेरहवीं हुई, उसके अगले दिन एक मंगता जोगी आया। उसी से पता चला कि जगदीश जोगी अखाड़े में अपना श्राद्ध कर हिमालय की ओर चला गया। ससुर जी ने सुना झोले ...और पढ़े

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सरहद - 6 - अंतिम भाग

6 ‘‘दीदी... तुम्हे पता है जेठा जोगी क्यों आये अचानक,’’ बैजन्ती पीछे मुड़ी-हमारी सासू जी को मिल गये थे हरिद्वार में...! जब वे बैसाखी को गंगा नहाने गई थी हरि की पैड़ी पर जाते हुए जोगियों की जमात में, पीछे मुड कर खड़ी होकर फुसफुसाई-सासू ने देखा जोगियों के झुंड में अपने जेठा जी मस्त जा रहे हैं। ये चकरा गई कि आज कहाँ से मिल गया बेटा! ससुर जी को गंगा मंदिर में रूकने को बोल कर लपकी थी, जोगी जमात के पीछे,’’ मैं’ तो उसकी बात सुनकर चकरा ही गई, यकीन नहीं हुआ-तू सच्ची कह रही बैजन्ती....? ...और पढ़े

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