खेल ----आखिर कब तक ? (1) मन की उद्वेलना हमेशा शब्दों की मोहताज नहीं होती । होती है कोई कोई ऐसी उद्वेलना जिसके बीज मिट्टी में डले तो होते हैं मगर अंकुरित होने के मौसम शायद बने ही नहीं और गुजर जाते हैं जाने कितने सावन और बसन्त, चिता की राख तक पहुँचने तक नही खुलती जुबाँ । कहरों के शहर में बलवा न हो जाए का डर छीन लेता है दिल दिमाग की सुकूनियत और जुबाँ लगाकर खामोशी का ताला छीजती रहती है उम्र भर । रोज रोज होते अनाचार व्याभिचार जगा ही गए मेरी सुप्त ग्रंथि को और
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खेल ----आखिर कब तक ? - 1
खेल ----आखिर कब तक ? (1) मन की उद्वेलना हमेशा शब्दों की मोहताज नहीं होती । होती है कोई ऐसी उद्वेलना जिसके बीज मिट्टी में डले तो होते हैं मगर अंकुरित होने के मौसम शायद बने ही नहीं और गुजर जाते हैं जाने कितने सावन और बसन्त, चिता की राख तक पहुँचने तक नही खुलती जुबाँ । कहरों के शहर में बलवा न हो जाए का डर छीन लेता है दिल दिमाग की सुकूनियत और जुबाँ लगाकर खामोशी का ताला छीजती रहती है उम्र भर । रोज रोज होते अनाचार व्याभिचार जगा ही गए मेरी सुप्त ग्रंथि को और ...और पढ़े
खेल ----आखिर कब तक ? - 2 - अंतिम भाग
खेल ----आखिर कब तक ? (2) सुनते ही आरती की छठी इंद्रिय सचेत हो उठी, एक तिलमिलाहट ने उसके को झकझोर दिया, एक साया सा उसकी आँखों के आगे से आकर गुजर गया, अपनी बनायी हद की बेडियाँ तोडने को वो मजबूर हो उठी आखिर उसकी सगी भांजी की ज़िन्दगी का सवाल था । आज हर ताला टूटने को व्यग्र हो उठा, खुद को दी कसम से खुद को मुक्त करने का वक्त था । “ बडी दी, आप से अब जो मैं कहने वाली हूँ, ध्यान से सुनना पूरी बात । शायद ये बात मैं कभी न बताती और ...और पढ़े