पति को घर से गए कई घंटे हो गए थे। अब बीतता एक-एक क्षण मिसेज माथुर को अखरने लगा था। वैसे भी लंबे समय तक ऊहापोह की स्थिति में रहने के बाद बड़ी मुश्किल से पति-पत्नी दोनों मिलकर ही यह निर्णय ले पाए थे कि बस बहुत हुआ, नहीं रहना अब इस घर में। बड़े ही भारी मन से लिया था दोनों ने यह निर्णय, कलेजा मुंह को आ गया था जब यह निर्णय लिया।

Full Novel

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दीवारें तो साथ हैं - 1

पति को घर से गए कई घंटे हो गए थे। अब बीतता एक-एक क्षण मिसेज माथुर को अखरने लगा वैसे भी लंबे समय तक ऊहापोह की स्थिति में रहने के बाद बड़ी मुश्किल से पति-पत्नी दोनों मिलकर ही यह निर्णय ले पाए थे कि बस बहुत हुआ, नहीं रहना अब इस घर में। बड़े ही भारी मन से लिया था दोनों ने यह निर्णय, कलेजा मुंह को आ गया था जब यह निर्णय लिया। ...और पढ़े

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दीवारें तो साथ हैं - 2

‘नहीं दीदी सब इतना नहीं कर पाते। पांडे जी का घर देखिए न। उन्होंने तो जब बच्चों ने ज़्यादा किया, तो सब को अलग कर दिया। इसके बाद जब बेटों ने बैंक में जमा पैसों और पेंशन पर भी नज़र लगाई तो पहले तो विरोध किया। मगर जब बेटे झगड़े पर उतारू हुए, बहुओं ने आफ़त कर दी, जीना हराम कर दिया तो उन्होंने बिना देर किए पुलिस की मदद ली। यहां तक कह दिया कि मियाँ-बीवी को कुछ हुआ तो ज़िम्मेदार यही सब होंगे। ...और पढ़े

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दीवारें तो साथ हैं - 3 - अंतिम भाग

‘देखो अगर तुम्हारी बात मान लें कि चलो लड़की के घर खाने पीने रहने में कोई संकोच हिचक नहीं चाहिए। आखिर वह भी अपनी ही संतान है। मेरी समझ में लड़की की मदद तभी लेनी चाहिए जब कोई और रास्ता बचा ही न हो। सिर्फ़ लड़की ही हो। लड़के हों ही नहीं। लड़कों के रहते लड़की-दामाद के यहां रहना मेरी नजर में बहुत गलत है। फिर हम यह क्यों भूल जाते हैं कि जिस तरह हमें बुरा लगता है कि लड़के ससुरालियों की सेवा में लगे रहते हैं। वैसे ही यदि हम लड़की के यहां जाकर रहेंगे तो क्या उसके घर वालों को बुरा नहीं लगेगा। क्या दामाद के मां-बाप अपने बेटे को ससुरालियों का पिछलग्गू नहीं कहेंगे जैसे हम कह रहे हैं।’ ...और पढ़े

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