लाहौर से बाबू हरगोपाल आए तो हामिद घर का रहा ना घाट का। उन्हों ने आते ही हामिद से कहा। “लो भई फ़ौरन एक टैक्सी का बंद-ओ-बस्त करो।” हामिद ने कहा। “आप ज़रा तो आराम कर लीजिए। इतना लंबा सफ़र तय करके यहां आए हैं। थकावट होगी।” बाबू हरगोपाल अपनी धुन के पक्के थे। “नहीं भाई मुझे थकावट वकावट कुछ नहीं। मैं यहां सैर की ग़रज़ से आया हूँ। आराम करने नहीं आया। बड़ी मुश्किल से दस दिन निकाले हैं। ये दस दिन तुम मेरे हो। जो मैं कहूंगा तुम्हें मानना होगा मैं अब के अय्याशी की इंतिहा करदेना चाहता हूँ...... सोडा मँगवाओ।”
Full Novel
फाहा
गोपाल की रान पर जब ये बड़ा फोड़ा निकला तो इस के औसान ख़ता हो गए। गरमियों का मौसम आम ख़ूब हुए थे। बाज़ारों में, गलियों में, दुकानदारों के पास, फेरी वालों के पास, जिधर देखो, आम ही आम नज़र आते। लाल, पीले, सबज़, रंगा रंग के....... सब्ज़ी मंडी में खोल के हिसाब से हर क़िस्म के आम आते थे। और निहायत सस्ते दामों फ़रोख़त हो रहे थे। यूं समझिए कि पिछले बरस की कसर पूरी हो रही थी। ...और पढ़े
फुंदने
कोठी से मुल्हक़ा वसीअ-ओ-अरीज़ बाग़ में झाड़ियों के पीछे एक बिल्ली ने बच्चे दिए थे, जो बिल्ला खा गया फिर एक कुतिया ने बच्चे दिए थे जो बड़े बड़े हो गए थे और दिन रात कोठी के अंदर बाहर भौंकते और गंदगी बिखेरते रहते थे। उन को ज़हर दे दिया गया.......एक एक कर के सब मर गए थे। उन की माँ भी....... उन का बाप मालूम नहीं कहाँ था। वो होता तो उस की मौत भी यक़ीनी थी। ...और पढ़े
फुसफुसी कहानी
सख़्त सर्दी थी। रात के दस बजे थे। शाला मार बाग़ से वो सड़क जो इधर लाहौर को आती सुनसान और तारीक थी। बादल घिरे हुए थे और हवा तेज़ चल रही थी। गिर्द-ओ-पेश की हर चीज़ ठिठुरी हुई थी। सड़क के दो रवैय्या पस्त-क़द मकान और दरख़्त धुँदली धुँदली रोशनी में सिकुड़े सिकुड़े दिखाई दे रहे थे। बिजली के खंबे एक दूसरे से दूर दूर हटे, रूठे और उकताए हुए से मालूम होते थे। सारी फ़ज़ा में बद-मज़्गी की कैफ़ियत थी। एक सिर्फ़ तेज़ हवा थी जो अपनी मौजूदगी मनवाने की बे-कार कोशिश में मसरूफ़ थी। ...और पढ़े
फूजा हराम दा
टी हाऊस में हरामियों की बातें शुरू हुईं तो ये सिलसिला बहुत देर तक जारी रहा। हर एक ने अज़ कम एक हरामी के मुतअल्लिक़ अपने तअस्सुरात बयान किए जिस से उस को अपनी ज़िंदगी में वास्ता पड़ चुका था। कोई जालंधर का था। कोई लुधियाने का और कोई लाहौर का। मगर सब के सब स्कूल या कॉलेज की ज़िंदगी के मुतअल्लिक़ थे। महर फ़िरोज़ साहब सब से आख़िर में बोले। आप ने कि अमृतसर में शायद ही कोई ऐसा आदमी हो जो फ़ौजे हरामदे के नाम से ना-वाक़िफ़ हो। यूं तो इस शहर में और भी कई हरामज़ादे थे मगर इस के पल्ले के नहीं थे। ...और पढ़े
फ़ूभा बाई
हैदराबाद से शहाब आया तो इस ने बमबई सैंट्रल स्टेशन के प्लेटफार्म पर पहला क़दम रखते ही हनीफ़ से “देखो भाई। आज शाम को वो मुआमला ज़रूर होगा वर्ना याद रखो में वापस चला जाऊंगा।” हनीफ़ को मालूम था कि वो मुआमला किया है। चुनांचे शाम को उस ने टैक्सी ली। शहाब को साथ लिया। ग्रांट रोड के नाके पर एक दलाल को बुलाया और उस से कहा। “मेरे दोस्त हैदराबाद से आए हैं। इन के लिए अच्छी छोकरी चावे।” दलाल ने अपने कान से अड़सी हुई बीड़ी निकाली और उस को होंटों में दबा कर कहा। “दक्कनी चलेगी?” ...और पढ़े
फूलों की साज़िश
बाग़ में जितने फूल थे। सब के सब बाग़ी होगए। गुलाब के सीने में बग़ावत की आग भड़क रही उस की एक एक रग आतिशीं जज़्बा के तहत फड़क रही थी। एक रोज़ उस ने अपनी कांटों भरी गर्दन उठाई और ग़ौर-ओ-फ़िक्र को बालाए ताक़ रख कर अपने साथीयों से मुख़ातब हुआ:। “किसी को कोई हक़ हासिल नहीं कि हमारे पसीने से अपने ऐश का सामान मुहय्या करे...... हमारी ज़िंदगी की बहारें हमारे लिए हैं और हम इस में किसी की शिरकत गवारा नहीं कर सकते!” ...और पढ़े
बग़ैर इजाज़त
नईम टहलता टहलता एक बाग़ के अन्दर चला गया उस को वहां की फ़ज़ा बहुत पसंद आई घास के तख़्ते पर लेट कर उस ने ख़ुद कलामी शुरू कर दी। कैसी पुर-फ़ज़ा जगह है हैरत है कि आज तक मेरी नज़रों से ओझल रही नज़रें ओझल इतना कह कर वो मुस्कुराया नज़र हो तो चीज़ें नज़र भी नहीं आतीं आह कि नज़र की बे-नज़री! देर तक वो घास के इस तख़्ते पर लेटा और ठंडक महसूस करता रहा। लेकिन उस की ख़ुद-कलामी जारी थी। ...और पढ़े
बचनी
भंगिनों की बातें हो रही थीं। खासतौर पर उन की जो बटवारे से पहले अमृतसर में रहती थीं। मजीद ये ईमान था कि अमृतसर की भंगिनों जैसी करारी छोकरिया और कहीं नहीं पाई जातीं। ख़ुदा मालूम तक़सीम के बाद वो कहाँ तितर बितर हो गई थीं। ...और पढ़े
बदतमीज़ी
“मेरी समझ में नहीं आता कि आप को कैसे समझाऊं” “जब कोई बात समझ में न आए तो उस समझाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए” “आप तो बस हर बात पर गला घूँट देते हैं आप ने ये तो पूछ लिया होता कि मैं आप से क्या कहना चाहती हूँ” “इस के पूछने की ज़रूरत ही क्या थी बस फ़क़त लड़ाई मोल लेना चाहती हो” “लड़ाई मैं मूल लेना चाहती हूँ कि आप सारे हमसाए अच्छी तरह जानते हैं कि आप आए दिन मुझ से लड़ते झगड़ते रहते हैं।” ...और पढ़े
बद-सूरती
साजिदा और हामिदा दो बहनें थीं। साजिदा छोटी और हामिदा बड़ी। साजिदा ख़ुश शक्ल थी। उन के माँ बाप ये मुश्किल दरपेश थी कि साजिदा के रिश्ते आते मगर हामिदा के मुतअल्लिक़ कोई बात न करता। साजिदा ख़ुश शक्ल थी मगर उस के साथ उसे बनना सँवरना भी आता था। उस के मुक़ाबले में हामिदा बहुत सीधी साधी थी। उस के ख़द्द-ओ-ख़ाल भी पुर-कशिश न थे। साजिदा बड़ी चंचल थी। दोनों जब कॉलेज में पढ़ती थीं तो साजिदा ड्रामों में हिस्सा लेती। उस की आवाज़ भी अच्छी थी, सुर में गा सकती थी। हामिदा को कोई पूछता भी नहीं था। ...और पढ़े
बदहशहत का ख़ात्मा
टेलीफ़ोन की घंटी बिजी। मनमोहन पास ही बैठा था। उस ने रीसीवर उठाया और कहा “हेलो....... फ़ौर फ़ौर फ़ौर सेवन” दूसरी तरफ़ से पतली सी निस्वानी आवाज़ आई। “सोरी....... रोंग नंबर” मनमोहन ने रीसीवर रख दिया और किताब पढ़ने में मशग़ूल होगया। ये किताब वो तक़रीबन बीस मर्तबा पढ़ चुका था। इस लिए नहीं कि इस में कोई ख़ास बात थी। दफ़्तर में जो वीरान पड़ा था। एक सिर्फ़ यही किताब थी जिस के आख़िरी औराक़ करम ख़ूर्दा थे। ...और पढ़े
बर्फ़ का पानी
“ये आप की अक़ल पर क्या पत्थर पड़ गए हैं” “मेरी अक़ल पर तो उसी वक़्त पत्थर पड़ गए जब मैंने तुम से शादी की भला इस की ज़रूरत ही क्या थी अपनी सारी आज़ादी सल्ब कराली।” “जी हाँ आज़ादी तो आप की यक़ीनन सल्ब हूई इस लिए कि अगर आप अब खुले बंदों अय्याशी नहीं कर सकते शादी से पहले आप को कौन पूछने वाला था जिधरो मुँह उठाया चल दिए झक मारते रहे” ...और पढ़े
बलवंत सिंह मजेठिया
शाह साहब से जब मेरी मुलाक़ात हुई तो हम फ़ौरन बे-तकल्लुफ़ हो गए। मुझे सिर्फ़ इतना मालूम था कि सय्यद हैं और मेरे दूर-दराज़ के रिश्तेदार भी हैं। वो मेरे दूर या क़रीब के रिश्तेदार कैसे हो सकते थे, इस के मुतअल्लिक़ मैं कुछ नहीं कह सकता। वो सय्यद थे और मैं एक महज़ कश्मीरी। बहर-हाल, उन से मेरी बे-तकल्लुफ़ी बहुत बढ़ गई। उन को अदब से कोई शग़फ़ नहीं था। लेकिन जब उन को मालूम हुआ कि मैं अफ़्साना निगार हूँ तो उन्हों ने मुझ से मेरी चंद किताबें मुस्तआर लीं और पढ़ीं। ...और पढ़े
बस स्टैंड
वो बस स्टैंड के पास खड़ी ए रूट वाली बस का इंतिज़ार कर रही थी उस के पास कई खड़े थे उन में एक उसे बहुत बुरी तरह घूर रहा था उस को ऐसा महसूस हुआ कि ये शख़्स बर्मे से इस के दिल-ओ-दिमाग़ में छेद बना रहा है। उस की उम्र यही बीस बाईस बरस की होगी लेकिन इस पुख़्ता साली के बावजूद वो बहुत घबरा रही थी जाड़ों के दिन थे पर इस के बावजूद इस ने कई मर्तबा अपनी पेशानी से पसीना पोंछा उस की समझ में नहीं आता था क्या करे बस स्टैंड से चली जाये कोई ताँगा ले ले या वापस अपनी सहेली के पास चली जाये। ...और पढ़े
बाँझ
मेरी और उस की मुलाक़ात आज से ठीक दो बरस पहले अपोलो बंदर पर हुई शाम का वक़्त था, की आख़िरी किरणें समुंद्र की उन दराज़ लहरों के पीछे ग़ायब हो चुकी थी। जो साहिल के बंच पर बैठ कर देखने से मोटे कपड़े की तहें मालूम होती थीं। मैं गेट आफ़ इंडिया के इस तरफ़ पहला बंच छोड़ कर जिस पर एक आदमी चम्पी वाले से अपने सर की मालिश करा रहा था। दूसरे बंच पर बैठा था। और हद्द-ए-नज़र तक फैले हुए समुंद्र को देख रहा था। दूर बहुत दूर जहां समुंद्र और आसमान घुल मिल रहे थे। बड़ी बड़ी लहरें आहिस्ता आहिस्ता उठ रही थीं। और ऐसा मालूम होता था। कि बहुत बड़ा गदले रंग का क़ालीन है। जिसे इधर से उधर समेटा जा रहा है। ...और पढ़े
बाई बाई
नाम उस का फ़ातिमा था पर सब उसे फातो कहते थे बानिहाल के दुर्रे के उस तरफ़ उस के की पन-चक्की थी जो बड़ा सादा लौह मुअम्मर आदमी था। दिन भर वो इस पन चक्की के पास बैठी रहती। पहाड़ के दामन में छोटी सी जगह थी जिस में ये पन चक्की लगाई गई थी। फातो के बाप को दो तीन रुपय रोज़ाना मिल जाते जो उस के लिए काफ़ी थे। फातो अलबत्ता उन को नाकाफ़ी समझती थी इस लिए कि उस को बनाओ सिंघार का शौक़ था। वो चाहती थी कि अमीरों की तरह ज़िंदगी बसर करे। ...और पढ़े
हुस्न कि तख़लीक़
कॉलिज में शाहिदा हसीन-तरीन लड़की थी। उस को अपने हुस्न का एहसास था। इसी लिए वो किसी से सीधे बात न करती और ख़ुद को मुग़्लिया ख़ानदान की कोई शहज़ादी समझती। Gस के ख़द्द-ओ-ख़ाल वाक़ई मुग़लई थे। ऐसा लगता था कि नूर जहां की तस्वीर जो उस ज़माने के मुसव्विरों ने बनाई थी, उस में जान पड़ गई है। कॉलिज के लड़के उसे शहज़ादी कहते थे, लेकिन उस के सामने नहीं, पर उस को मालूम हो गया था कि उसे ये लक़ब दिया गया है। वो और भी मग़रूर हो गई। ...और पढ़े