सत्य, शाश्वत धर्म और सदाचार ऐसे गुण हैं, जिन्हें सहज भाव से अपनानेवाला मानव भी देवताओं की श्रेणी से उत्तम स्थान प्राप्त कर सकता है। ऐसा पुण्यवान् मानव मात्र अपने कर्तव्य-धर्म का पालन करते हुए ही सप्तर्षियों में स्थान पानेवाले महान् तपस्वी महर्षि विश्वामित्र का अहंकार चूर कर सकता है...यहाँ तक कि सहस्र कोटि पुण्य करके देवराज के दिव्य पद को पानेवाले देवलोक के सिंहासन तक भी हिला सकता है। युगों की गणना में प्रथम स्थान पर स्मरण किए जानेवाले सतयुग में ऐसा घटित हो चुका है और ऐसा करनेवाले थे—सूर्यवंश के प्रतापी राजा सत्यवादी हरिश्चंद्र। जब राजा हरिश्चंद्र के नाम-यश की चर्चा होती है तो उनके नाम-यश के साथ यदि ‘सत्यवादी’ शब्द का प्रयोग न किया जाए तो प्रतीत होता है कि इतिहास के किसी अन्य राजा का वर्णन किया जा रहा है। इसके विपरीत यदि केवल ‘सत्यवादी’ राजा का वर्णन हो तो स्पष्ट संकेत सतयुग के राजा सत्यवादी हरिश्चंद्र की ओर ही हो रहा प्रतीत होता है। यहाँ तक कि सूर्यवंशी राजा हरिश्चंद्र और शब्द ‘सत्यवादी’ एक-दूसरे के पर्याय बन गए, लगते हैं। ऐसा हुआ राजा हरिश्चंद्र के द्वारा सत्य, शाश्वत धर्म और सदाचरण जैसे गुणों को अपने जीवन में उतारने में। सत्यवादी हरिश्चंद्र ने अपने शयनकक्ष में केवल एक स्वप्न देखा और उस स्वप्न में दिए गए वचन की लाज रखने के लिए उन्होंने अपने राज्य का परित्याग कर दिया, अपनी प्रिय रानी तारामती और पुत्र रोहिताश्व को ही नहीं, अपितु स्वयं को भी काशी के बाजार में बेच दिया। इतना होने पर भी उन्होंने सत्य और सदाचरण के गुणों का त्याग नहीं किया तथा शाश्वत धर्म पर अटल रहते हुए अपने कर्तव्य को ही सर्वोपरि माना। राजा हरिश्चंद्र के इन्हीं गुणों के कारण उनकी परीक्षा लेनेवाले महर्षि विश्वामित्र को अंततः कहना पड़ा, ‘‘सत्यवादी हरिश्चंद्र! मैं हार गया। तुम और तुम्हारा सत्यव्रत जीत गया।’’

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सत्यवादी हरिश्चंद्र - 1

सत्य, शाश्वत धर्म और सदाचार ऐसे गुण हैं, जिन्हें सहज भाव से अपनानेवाला मानव भी देवताओं की श्रेणी से स्थान प्राप्त कर सकता है। ऐसा पुण्यवान् मानव मात्र अपने कर्तव्य-धर्म का पालन करते हुए ही सप्तर्षियों में स्थान पानेवाले महान् तपस्वी महर्षि विश्वामित्र का अहंकार चूर कर सकता है...यहाँ तक कि सहस्र कोटि पुण्य करके देवराज के दिव्य पद को पानेवाले देवलोक के सिंहासन तक भी हिला सकता है। युगों की गणना में प्रथम स्थान पर स्मरण किए जानेवाले सतयुग में ऐसा घटित हो चुका है और ऐसा करनेवाले थे—सूर्यवंश के प्रतापी राजा सत्यवादी हरिश्चंद्र। जब राजा हरिश्चंद्र के ...और पढ़े

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सत्यवादी हरिश्चंद्र - 2 - स्वप्न-दान

..स्वप्न-दान.. ‘‘सावधान! महातेजस्वी रघुकुल शिरोमणि दानवीर, शूरवीर, सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र दरबार में पधार रहे हैं।’’ इसी के साथ तुमुलघोष और सभी दरबारीगण उठ खड़े हुए। फिर समवेत् स्वर में एक जयघोष हुआ, ‘‘सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की जय!’’ राजा हरिश्चंद्र के मुखमंडल पर सूर्य जैसा तेज था। उनकी गौरवर्ण बलिष्ठ देह से पराक्रम स्पष्ट झलक रहा था। प्रजा अपने प्रिय सम्राट् पर पुष्पों की वर्षा कर रही थी और उनकी जय-जयकार कर रही थी। राजा हरिश्चंद्र अपने सिंहासन पर विराजमान हुए और जय-जयकार करती प्रजा को वात्सल्य से निहारा एवं हाथ उठाकर सबको इस सम्मान के लिए आभार प्रकट किया। ...और पढ़े

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सत्यवादी हरिश्चंद्र - 3 - राज्य का परित्याग

राज्य का परित्यागसमय बीतता गया और दान, धर्म, सत्य एवं न्याय के परिप्रेक्ष्य में राजा हरिश्चंद्र की कीर्ति दिनोदिन चली गई। अयोध्या में सर्वत्र सुख एवं शांति का साम्राज्य था। शासन व्यवस्था इतनी सुदृढ़ थी कि कहीं कोई पत्ता राज्य में खड़कता था तो राजा हरिश्चंद्र को तत्काल सूचना मिल जाती थी। राज्य का प्रत्येक नागरिक अपने श्रम और सामर्थ्य के अनुसार पूर्ण धार्मिक जीवन व्यतीत कर रहा था।समय-चक्र अपनी निर्बाध गति से चल रहा था। अयोध्या की सुख, शांति और राजा हरिश्चंद्र के सत्यधर्म की चर्चा तीनों लोकों में फैलती जा रही थी। इससे सबसे अधिक मानसिक भय ...और पढ़े

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