अपने-अपने इन्द्रधनुष

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आज न जाने क्यों मुझे घर के अन्दर अच्छा नही लग रहा था। बार-बार मन में उठ रही व्याकुलता व अपने आस-पास फैली उदासी से निजात पाने के लिए मैं छत पर आ गई। खुली हवा में, विस्तृत आसमान के नीचे, प्रकृति के सानिंध्य में आ कर कदाचित् मेरे अशान्त हृदय को कुछ सुकून मिल सके। मेरा यह सोचना ठीक ही था। छत पर आ कर मुझे अच्छा लगा। खुली हवा में आ कर मैंने अपने चारों ओर दृष्टि घुमायी। वातावरण में मुझे खूबसूरत परिवर्तन का आभास हुआ। न जाने कब कठोर शीत ऋतु परिवर्तित हो कर वासंती, मनमोहक रूप ले चुकी थी। जीवन के आपाधापी में मुझे ज्ञात ही न हो सका कि यह ऋतु कब परिवर्तित हो गई ? मार्च का महीना प्रारम्भ हो चुका है। सर्दी की ऋतु जा रही है। हवा में अब भी हल्की-सी ठंड व्याप्त है।

Full Novel

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अपने-अपने इन्द्रधनुष - 1

अपने-अपने इन्द्रधनुष (1) आज न जाने क्यों मुझे घर के अन्दर अच्छा नही लग रहा था। बार-बार मन में रही व्याकुलता व अपने आस-पास फैली उदासी से निजात पाने के लिए मैं छत पर आ गई। खुली हवा में, विस्तृत आसमान के नीचे, प्रकृति के सानिंध्य में आ कर कदाचित् मेरे अशा ...और पढ़े

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अपने-अपने इन्द्रधनुष - 2

अपने-अपने इन्द्रधनुष (2) शनै-शनै काॅलेज की दिनचर्या में मैं व्यस्त होने लगी। मन को नियत्रित करना व तनाव भरी को विस्मृृत करना मै सीख गयी हूँ । ये तो छोटी-सी घटना है। मैं अत्यन्त पीड़ादायक घटनाओं से उबर चुकी हूँ। प्रतिदिन की भाँति आज भी मैं काॅलेज जाने के लिए समय पर घर से निकली थी। सड़क पर हाथ दे कर आॅटो रोका। चन्द्रकान्ता उसी आॅटो में पहले से बैठी थी जिसे मैंने रूकने के लिए हाथ दिया था। आॅटो में चन्द्रकान्ता को पहले से बैठा देख मुझे अच्छा लगा। चन्द्रकान्ता मेरी मित्र है। वह और मैं एक ही ...और पढ़े

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अपने-अपने इन्द्रधनुष - 3

अपने-अपने इन्द्रधनुष (3) कई दिनों के पश्चात् आज काॅलेज के काॅरीडोर में विक्रान्त मिल गया। वह बाहर जा रहा उसे देखने से ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह जल्दी में हो। मुझे देखते ही वह रूक गया। स्वभाववश मेरा हाल पूछ बैठा। मैं भी रूक गई। औपचारिक बातों के पश्चात् वह बताने लगा, ’’ क्या बताऊँ नीलाक्षी जी घर में परिस्थितियाँ ठीक नही चल रही हैं। ’’ ’’ क्या हुआ?’’ मैंने पूछ लिया। ’’ कुछ नही नीलाक्षी जी। ’’ कह कर वह चुप हो गया। किन्तु उसकी व्याकुलता बता रही थी कि चुप रह कर भी वह बहुत ...और पढ़े

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अपने-अपने इन्द्रधनुष - 4

अपने-अपने इन्द्रधनुष (4) कई दिनों के उपरान्त विक्रान्त आज काॅलेज में दिखाई दिया। मुझे वह बदला-बदला सा लगा। चेहरे बेतरतीब-सी उगी दाढ़ी जैसे कई दिनों से समय न मिला हो शेव करने का। कुछ कमजोर-सी। सबसे बढ़ कर उसमें यह बदलाव परिलक्षित हो रहा था कि सबके व्यक्तिगत् जीवन की जानकारियाँ जुटाना व उनको ले कर व्यंग्यात्मक कटाक्ष करने व हँसने का शगल उसके स्वभाव से नदारद था। स्टाफरूम में मुझे देख कर वह मुस्कराया व अभिवादन करता हुआ मेरे समीप आ कर मेरा कुशलक्षेम पूछने लगा। औपचारिकता पूरी करने के पश्चात् भी वह मेरे पास बैठा रहा। कदाचित् ...और पढ़े

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अपने-अपने इन्द्रधनुष - 5

अपने-अपने इन्द्रधनुष (5) ’’ एक नीम का वृक्ष था। उस पर एक कौआ रहता था। एक दिन उसे प्यास काॅलेज की कैंटीन के सामने से गुज़रते हुए मैंने देखा कि कैंटीन की दीवार से सट कर बैठा महुआ का बेटा झूम-झूम कर प्यासा कौआ की कहानी पढ़ रहा था। मैं बरबस उसकी तरफ देखने लगी। मुझे अपना बचपन याद आ गया। तब मैं बहुत छोटी थी। स्मृतियाँ धुँधला गई हैं, किन्तु कुछ-कुछ याद आ रहा है। कदाचित् मैं पहली या दूसरी कक्षा में पढ़ती थी। हिन्दी की पुस्तक में प्यासा कौआ की कहानी बचपन की मेरी प्रिय कहानी हुआ ...और पढ़े

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अपने-अपने इन्द्रधनुष - 6

अपने-अपने इन्द्रधनुष (6) काॅलेज से लौटते समय मेरी और चन्द्रकान्ता की इच्छा पुनः कुछ दूर पैदल चलने की हो थी। मार्ग में चलते हुए हम दोनों सायं की खुशनुमा ऋतु का आनन्द व चर्चा करते हुए चल रहे थे। मन्द-मन्द चलते शीतल हवाओं के झोकों से झूमते हुए वृक्षों के पत्ते चारों तरफ विस्तृत हरियाली सब कुछ अच्छा लग रहा था। सहसा मेरे व चन्द्रकान्ता के बढ़ते पग रूक गये। मार्ग के किनारे से कुछ दूर वृक्षों व झाड़ियों के पीछे छिपा वह जल से भरा पोखर जलकुम्भी के पुष्पों से आच्छादित हो गया था। हम प्रतिदिन इसी मार्ग ...और पढ़े

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अपने-अपने इन्द्रधनुष - 7

अपने-अपने इन्द्रधनुष (7) ’’ दीदी.......दीदी....’’ .सहसा पीछे से आवाज आयी। कोई मुझे ही पुकार रहा था। कौन....? पीछे पलट देखा तो महुआ थी। मैं रूक गयी। वह मुस्कराती हुई मेरी ओर बढ़ी। आज वह अकेली नही थी। उसके साथ कोई पुरूष भी था। ’’ यह मेरा आदमी है। ’’ मेरे ...और पढ़े

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अपने-अपने इन्द्रधनुष - 8

अपने-अपने इन्द्रधनुष (8) मैं समझ चुकी थी कि विक्रान्त मुझसे निकटता बढ़ाने के लिए ही ऐसा करता है। अपनी को तलाक दे चुका है, संपन्न घर का है, स्वंय भी अच्छी नौकरी में है। अतः उस मेरे साथ जोड़ कर मेरे माता-पिता कोई अन्य धारणा तो नही बना रहे हैं? यह सोच कर मैं कुछ चिन्तित हो गयी तथा यह सोच लिया कि मैं उन्हंे ऐसा करने से रोकूँगी। विक्रान्त कभी भी मेरा आदर्श पुरूष नही हो सकता। उसकी मानसिकता मुझे उससे दूर रहने को विवश करती है। विक्रान्त आज मुझे काॅलेज में दिख गया। कल वह काॅलेज नही ...और पढ़े

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अपने-अपने इन्द्रधनुष - 9

अपने-अपने इन्द्रधनुष (9) ’’ मुझे यह भी आभास हो चुका था कि वह विक्रान्त नही कोई और है, क्यों विक्रान्त जैसा व्यक्ति तुम्हारी पसन्द हो ही नही सकता। थोड़े से यत्न द्वारा मैंने यह जान लिया कि वह स्वप्निल है। ’’ चन्द्रकान्ता की बातें सुन कर मैं मुस्करा पड़ी। ’’ कैसे? किस प्रकार का यत्न? ’’ मैंने पूछा। ’’ कुछ विशेष नही । ’’ चन्द्रकान्ता ने कहा। ’’ मुझे कुछ-कुछ आभास हो गया था कि वह सौभाग्यशाली विक्रान्त नही कोई और है। किन्तु कौन? यह जानना कठिन न था मेरे लिए। स्वप्निल को ढूँढती तुम्हारी आँखों ने स्वतः सब ...और पढ़े

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अपने-अपने इन्द्रधनुष - 10

अपने-अपने इन्द्रधनुष (10) आज सायं कई दिनों के पश्चात् छोटी का फोन आया। उससे बातंे कर के मन में को संचार होने लगता है। मुझसे बातंे करते समय वह सदा प्रफुल्लित रहती है। मेरा हृदय उसे सदैव आशीर्वाद देता है। वह इसी प्रकार खुश रहे। दुःख कर परछाँई उसे छू तक न सके। बातों बातों में मैंने उसे पूछा, ’’ इस समय वह क्या कर रही है। ’’ उसने हँसते हुए वही हास्य से भरा उत्तर दिया, ’’ आपको फोन। ’’ ’’ अरे हाँ...वो तो कर ही रही हो.....किन्तु अभी क्या-क्या किया..... और इसके बाद क्या करोगी? ’’ मैंने ...और पढ़े

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अपने-अपने इन्द्रधनुष - 11 - अंतिम भाग

अपने-अपने इन्द्रधनुष (11) हरियाली से झूमती सृष्टि मुझे सदा आकर्षित करती रही है। जल भरे बादल न जाने कहाँ आ कर अकस्मात् भूमि पर बरसने लगते हैं, और मन हर्षित हो उठता है। सांयकाल का समय है। अभी-अभी बारिश थमी है। नभ में उगे इन्द्रधनुष को देखकर मन किसी शिशु की भाँति किलकारियाँ भरने लगा है। सूर्य की स्वर्णरश्मियों के प्रभाव से उगा अर्धवृत्ताकार इन्द्रधनुष आकाश के मध्य देर तक चमकता रहा। उसके विलुप्त होते ही अकस्मात् कई छोटे-छोटे इन्द्रधनुष नभ में उग आये। उप्फ्! कितनी मनमोहक छटा नभ में व्याप्त हो गयी। एक नभ में एक साथ कई ...और पढ़े

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